दूसरा इतिहास : मैनेजर पांडेय


पिछले दिनों पटना काॅलेज सेमिनार हाॅल में नलिन विलोचन शर्मा पर केंद्रित दो दिवसीय सेमिनार में आलोचक मैनेजर पांडेय एवं हिंदी साहित्य के अन्य रचनाकारों का आना हुआ। मैनेजर पांडेय ने नलिन विलोचन शर्मा पर दिए गए वक्तव्य के क्रम में हिंदी साहित्य की प्रतिबंधित रचनाओं एवं रचनाकारों पर अपनी बात कही। उनका कहना था कि "जो लेखक राष्ट्र की चिंता में शहीद हो गए वे इतिहास में शामिल ही नहीं हुए। जो शहीद नहीं हुए वे राष्ट्रकवि कहलाए।" उनके वक्तव्य का अंश प्रस्तुत कर रहे हैं समीक्षक एवं पत्रकार अरुण नारायण।

विवेक का भारत में स्थाई महत्व है। हंस का नीर–क्षीर विवेक अपने यहां का चलन रहा है। किसी के लेखन में, सोच-विचार में क्या अच्छा है, क्या बुरा...इस पर हिंदी साहित्य के इतिहास में बहुत घालमेल है। यह अकारण नहीं कि हिंदी साहित्य में इतिहास लेखन की जितनी किताबें हैं, सबकी अपनी सीमाएं हैं। 

नलिन विलोचन शर्मा ने महाभारत का एक श्लोक उद्धृत किया है, जिसमें उनका निहितार्थ है कि महाभारत धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की समन्वित कथा है। इस तरह की स्थापनाओं के आधार पर साहित्य का, समाज का इतिहास कैसे लिखा जाएगा? यह तो न आलोचना हुई न इतिहास हुआ। इतिहास–विवेक की भारत वालों की इसी तरह की समझ के कारण हिंदी साहित्य के इतिहास में बहुत सारी गड़बड़ियां पैदा हुई हैं। रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी के दो कवियों―अमीर खुसरो और विद्यापति को कोई महत्व नहीं दिया। यह बात समझ में नहीं आती कि फुटकर खाते में कैसे गए विद्यापति शुक्ल जी की नजर में। विचारधाराएं कभी-कभी आइडियोलाॅजिकल ब्लाइंडनेस भी पैदा करती हैं। विद्यापति ने 25 तरह की किताबेें लिखी। संस्कृत, अपभ्रंष और मैथिली के तो बड़े कवि हैं ही। 

नलिन जी के अलावे हिंदी के अन्य किसी आलोचक ने प्रकृति और संस्कृति के संबंध पर ध्यान नहीं दिया। अपने यहां 6 ऋतुएं होती हैं। हर दो महीने का स्वभाव भी एक–दूसरे से अलग होता है। शास्त्रों में इसके उदाहरण भरे–पड़े हैं। अपने यहां केंद्रीय स्थान प्राप्त है प्रकृति को। इसके अंतर्गत ऋतुसंहार आदि कई काव्य लिखे गए। अपने यहाँ जो बारामासा है वह विश्व में कहीं नहीं है। विद्यापति से लेकर जायसी तक में इन चीजों को देखा जा सकता है। भारतीय साहित्य का इतिहास लिखते समय इस पर अलग से ध्यान रखना चाहिए। 

अंग्रेजों ने 2000 किताबें जब्त की। उनमें कविता, कहानी, उपन्यास, राजनीति और अर्थशास्त्र सभी तरह की किताबें थीं। प्रतिबंधित साहित्य बहुत बड़ी मात्रा में है। लेकिन हिंदी साहित्य का इतिहास इस पर मौन है। उन लेखकों को एक दंड अंग्रेजी राज से मिला। उन्हें जमानत देनी पड़ी। हिंदी साहित्य का कोई इतिहास इस नजरिए से नहीं लिखा गया, जिसमें प्रतिबंधित साहित्य का इतिहास हो। हमारे इतिहासकार लोक पर परलोक सुधारते रहे, लेकिन जो लेखक राष्ट्र की चिंता में शहीद हो गए वे इतिहास में शामिल ही नहीं हुए। जो शहीद नहीं हुए वे राष्ट्रकवि कहलाए। मैंने 4 किताबें संपादित कर छपवाई। देशेर कथा, जिसपर 1910 में पाबंदी लगाई गई। माधव प्रसाद मिश्र ने इस किताब का अनुवाद किया था। दूसरों के सुख से दुखी होने वाले लोग थे। बिहार के एक थे नवजादिक लाल श्रीवास्तव। पत्रकार थे, मतवाला से चांद तक में काम किया। एक किताब लिखी ‘पराधीनों की स्वाधीन यात्रा'। इस किताब पर अंग्रेजों ने पाबंदी लगा दी। सुंदरलाल की पुस्तक पर प्रतिबंध लगा। दूसरी किताब छपवाई 1906 में माधवराव सप्रे की लिखी 'स्वदेशी आंदोलन और बायकाट'। प्रेमचंद की दो किताबें―'सोजेवतन' तथा 'समरयात्रा तथा अन्य कहानियां' प्रतिबंधित हुईं। उग्रजी के 4 कहानी–संग्रहों पर पाबंदी लगी लेकिन हिंदी में स्थिति यह है कि कोई आचार्य से कम नहीं है। कोई दूसरा इतिहास लिखेगा तो पहले से भिन्न लिखेगा न। ये इतिहास की ऐसी चीजें हैं जिसको हिंदी साहित्य के इतिहास से जोड़ना बहुत जरूरी है।

संपर्क :
अरुण नारायण 
मोबाइल : 8292253306
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