अहम की लड़ाई है गीताश्री की कहानी ‘नजरा गईली गुईंया’ : सुशील कुमार भारद्वाज



सुशील कुमार भारद्वाज युवा कथाकार हैं और समकालीन कहानियों पर उनकी बारीक नज़र रहती है। उन्होंने गीताश्री की कहानी ‘नजरा गईली गुईंयां’ पर अपनी पाठकीय टिप्पणी दी है। 

अहम की लड़ाई है गीताश्री की कहानी ‘नजरा गईली गुईंयां’ – सुशील कुमार भारद्वाज

गीताश्री की पहचान एक ऐसे कथाकार के रूप में है जो अपनी कहानियों में स्त्रियों के विद्रोही स्वर को आवाज देती हैं। वह स्त्रियों के अंतर्मन में छिपे विचारों को उद्देलित करने की कोशिश करती हैं। वह वर्षों से पितृसत्तात्मक समाज में घर की चारदिवारी के भीतर हो रहे न्याय-अन्याय को मुखर रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश करती रही हैं। भले ही वह कहती हैं कि वह पुरूषों के खिलाफ नहीं है। पुरूषों से उनकी कोई दुश्मनी नहीं है। स्त्री-पुरूष के सहयोग और सामंजस्य से ही यह सृष्टि है। लेकिन उनकी कहानियों के पात्र अक्सर न्याय-अन्याय और स्वाभिमान के नाम पर एक दूसरे से भिड़ते नजर आते हैं। यूँ कहें कि गीताश्री अपनी कहानियों में स्त्री मन को अधिक तवज्जो देती हैं तो कोई बड़ी बात नहीं होगी।

गीताश्री की कहानी "नजरा गईली गुईंयां" भी उनके इसी विचारधारा की पोषक है। कहानी में वह स्त्री-पुरूष पात्रों के अंतर्मन को टटोलकरउसके अंदर धंसे भावनाओं को खंगाल कर उसे बड़ी ही शिद्दत से शब्दबद्ध की हैं। हम जिस घोर पूँजीवादी व्यवस्था में जी रहे हैं उसका सटीक प्रमाण या उदाहरण है गीताश्री की यह कहानी। जहाँ संवेदना तड़प-तड़प कर दम तोड़ रही है। नैतिकता अपनी पराजय के ध्वज को पकड़े रो रही है और हम कर्मकांड के नाम पर अपनी तबाही लिख रहे हैं। खोखली सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर अपनी ईज्जत को सरेआम नीलाम कर रहे हैं।

प्रस्तुत कहानी "नजरा गईली गुईंयां" मुख्य रूप से एक बेटी रिया की कहानी है, जो खुद को अपने माँ के सबसे करीब पाती है। जिसे विश्वास है कि उसके हर फैसले पर उसके माँ की रजामंदी है। वह स्वतंत्र और आत्मनिर्भर ही नहीं है बल्कि हर तरीके से योग्य और हर समस्या से निपटने में भी सक्षम है। वह अपने भाईयों से टक्कर लेने की हिम्मत रखती है तो सामाजिक दबाबों को दरकिनार करने की भी। यूँ कह लें कि कहानी में रिया ही एक मात्र वास्तविक पात्र हैं शेष सभी सिर्फ उसको नायकत्व देने में सहयोगी मात्र तो, कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

अब यदि बात करें कहानी के मुख्य बिन्दु की तो यह जितनी जमीन और धन-संपत्ति की लड़ाई है उससे रत्ती भर भी कम अहम की लड़ाई नहीं है। एक माँ है, जो एक लम्बे अरसे से अपने मायके नहीं गई है कभी हुए किसी लड़ाई-झगड़े की वजह से। और सबसे बड़ी बात कि रो-धो कर अपनी पूरी जिंदगी अपने पति और बच्चों के साथ सामंती माहौल में गुजारने के बाबजूद वह अपने बाल-सखा पमपम तिवारी को भूल नहीं पाती है। भूल नहीं पाती है कि पमपम तिवारी, जो अपनी एक गलती की वजह से अपनी संपत्ति से हाथ धो बैठा है, उसे न्याय चाहिए। और वह न्याय माँ अपनी कुछ जमीन उस पमपम तिवारी के नाम करके करना चाहती है। लेकिन सवाल उठता है कि पमपम का माँ से ऐसा क्या रिश्ता है कि वह अपनी जमीन अपने बेटे-बेटी की बजाय उसके नाम कर देती है? पमपम का परिचय भी पूरी तरह से उपेक्षित ही रह जाता है। आखिर माँ के ससुराल में वह क्यों आता है? क्यों अपमानित होकर जाता है? आखिर पति के देहांत के बाद भी पमपम क्यों नहीं उसकी खबर लेने आता है? आखिर क्यों माँ अपने मरणोपरांत ही पमपम को अपने ही घर में मान-प्रतिष्ठा दिलवाना चाहती है?

दूसरी तरफ देखा जाय तो रिया पूरी तरह से स्वतंत्र और स्वच्छंद है सारे सामाजिक दबाबों से, जिसमें माँ का समर्थन है। तो क्या यह माना जाय कि माँ अपने दबे-कुचले सपने को जी रही थी रिया के रूप में? वह खुश हो रही थी कि रिया सामाजिक बंधनों को धत्ता बताकर जीवन की एक नई शैली को जी रही थी? वह खुश हो रही थी कि रिया अपने जीवन और अस्तित्व को स्वतंत्र रूप में स्थापित कर रही थी जिससे वह चूक गई थी? यदि हाँ, तो यह सब मान्य है। इसमें कोई बुराई नहीं है। हर इंसान को अपने तरीके से जीवन जीने का हक है। देश और समाज को एक नया संदेश देने की कोशिश कर रही है। लेकिन बात यहीं खत्म कहाँ होती है? माँ का अपने बेटों के साथ कैसा संबंध है? इस पर तो पूरी रोशनी गई ही नहीं। माँ बीमार थी। अकेले ऊपरी कमरे में रह रही थी एक दाई के सहारे। अस्पताल में इलाज का खर्च भी तो शायद बेटों ने ही उठाया होगा। शायद घर-परिवार भी बेटे ही चला रहे होंगें। लेकिन इस बात पर विशेष जोर नहीं है। माँ के बैंक खाते में पिताजी का पेंशन का लाखों रूपया पड़ा है -इस पर भाईयों की कड़ी निगाह है क्योंकि माँ न तो खाते की बात बेटों को बताती है ना ही एटीएम का पिन नम्बर किसी को बताती है। दिल का शायद सारा राज बाँटने वाली बेटी से भी नहीं। आखिर क्यों? यह स्वार्थ का चरम है या आर्थिक सुरक्षा का भय? या मानसिक रूप से कुछ और...?

मुझे तो इस कहानी को पढ़ते हुए सबसे पहले प्रेमचन्द के कफन की याद आती है। जहाँ आलसी व लालची बाप-बेटा घूरे के पास से उठता नहीं कि एक उठकर झोपड़ी के अंदर दर्द में कराहते स्त्री से हाल-समाचार लेने जाएगा तो दूसरा उसके हिस्से का भी आलू चट कर जाएगा जो किसी के खेत से उखाड़ कर लाया गया था। उनका स्वार्थ और भूख एक स्त्री के पीड़ा से कहीं अधिक प्रबल था जो उनके ज़मीर को मारने के लिए काफी था। हालांकि कफन में वर्णित समाज भी अजीब था कि एक कराहती स्त्री की आवाज उन दोनों बाप-बेटों के अतिरिक्त किसी को सुनाई भी नहीं पड़ी। कोई स्त्री तक उसे देखने नहीं आई थी। ये अलग बात है कि बाद में इसी समाज के लोग कफन और क्रियाकर्म के नाम पर कुछ चंदा देते हैं जिन्हें बाप-बेटे शराब में उड़ाकर तृप्त होते हैं और वही समाज फिर से चंदा कर उस मृत शरीर का दाह-संस्कार आदि करता है। लेकिन गीताश्री की कहानी का समाज इससे अलग है। कहानी के पात्र दरिद्र या अछूत नहीं हैं। अलबत्ता वे सामंती विचारधारा के पोषक हैं। माँ का इलाज अस्पताल में होता है तो बेटी यानि रिया दिल्ली से हवाई जहाज से पटना आती है फिर मुजफ्फरपुर-वैशाली की राह पकड़ती है। बीमार माँ की पचास सेकंड की वीडियो भी मोबाइल पर चलती है। स्पष्ट है कि धन -सम्पत्ति की कोई कमी नहीं है। साथ ही वे आधुनिक भी हैं। कहानी के ही एक गीत से ही स्पष्ट होता है कि बड़े भाई के पास कोई कारखाना भी है। जबकि माँ को तो पिताजी वाला पेंशन लाखों रूपया मिला ही हुआ है। फिर भी स्वार्थ कहीं न कहीं हावी दिखता ही है। हर प्रयोजन में ही स्वार्थ की आहट है।

ऐसा नहीं है कि मौत के गम के बीच धन-संपत्ति के बँटवारे और निर्दयता के हद तक मानवता के नग्न हो जाने को लक्ष्य करके पहले कहानी नहीं लिखी गई है। लिखी गई है और अलग अलग भाषाओं में कई लिखी गई है। लेकिन चुमावन को जिस तरीके से इस कहानी में प्रस्तुत किया गया है वह जरूर कुछ अलग है। बिहार समेत देश-विदेश के विभिन्न हिस्सों में चुमावन अलग-अलग रूप में प्रचलित है। यह कहीं आशीर्वाद के रूप में तो कहीं सामाजिक रूप से आर्थिक सहयोग के रूप में विभिन्न शुभ-अशुभ अवसरों पर दिया जाने वाला एक भेंट मात्र है जो देनेवाला अपनी खुशी और क्षमता के अनुरूप गुप्त रूप में देता है। और अमूमन आयोजनों में खर्च होने वाली राशि से यह राशि कम ही होती है। हालांकि अब तो पूँजीवादी व्यवस्था में लोग इसे भी हर आयोजन में दिए जाने वाले रस्म के रूप में प्रचलित करने लगे हैं जिस पर टीका-टिप्पणी करना ही व्यर्थ है। और इस कहानी में भी उसी क्षुद्र मानसिकता को चुमावन के जरिये प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है।

गीताश्री ने अपनी इस कहानी के महिला पात्रों के मार्फत से महिलाओं की इच्छाओं और संवेदनाओं को जगजाहिर करने की भरसककोशिश की है। कोशिश की है संपत्ति के बंटवारे को सामने लाने की। और कोशिश की है बताने की कि माता-पिता के मरने के बाद स्त्रियों का मायका कैसे छूट जाता है? कैसे भाई-भौजाई से नाता-रिश्ता दिन-प्रतिदिन कमजोर होने लगता है? और बताने की कोशिश की है कि जिस पितृसत्तात्मक समाज में हम रह रहे हैं वहां संपत्ति पर स्त्रियों का कितना हक रह जाता है? भाई कितना हक अपनी बहनों को देना चाहते हैं और उनके अंदर स्वार्थ की भावना किस हद तक जड़ जमा चुकी है? संभव है कि इन प्रसंगों में आपकी सोच लेखिका की सोच से असहमति रखती हो। लेकिन संभव यह भी है कि परिस्थिति विशेष में खास जगहों पर ऐसा होता भी हो क्योंकि कल्पना भी कहीं न कहीं सच्चाई का ही प्रतिरूप होता है।

लेकिन कहानी में यह बहुत अधिक स्पष्ट नहीं होता है कि भाइयों का अबोलापन अपनी बहन रिया के साथ सिर्फ पारंपरिक बंधनों के टूटने कीवजह से है या कुछ और भी मनमुटाव की वजहें हैं, जो नफरत की दीवार को विस्तार दिए जा रही है, क्योंकि अकारण कुछ भी हमेशा के लिए नहीं होता है। अलबत्ता कहानी में यह जरूर स्पष्ट है कि भाई के मन में बहन के लिए कोई जगह नहीं है तो बुजुर्ग मां भी एक उतरदायित्व भरे बोझ से ज्यादा कुछ नहीं थी। यूँ कह लें कि पूरी कहानी में जिन रिश्तों के बीच संवाद होना चाहिए, अपनापन होना चाहिए, वहाँ अपनत्व व ममत्व का घोर अभाव है। परिस्थितिवश ही वे लोग एकत्र हुए हैं। परिवार जैसी किसी संस्था का यहाँ घोर अभाव है। सभी एक छत के नीचे होने के बावजूद भी सभी की अपनी-अपनी दुनिया है। उसी दुनिया में वे अपनी अपनी सुविधानुसार दोस्त-दुश्मन, रिश्ते-नाते, लाभ-हानि सब तय कर रहे हैं। जो एक के लिए उचित है वही दूसरे के लिए अनुचित। फिर इस भयावह माहौल में जीवन ही जब मुश्किल है तो शांति की तलाश या बात ही बेमानी है।

संभव है कि भाई भी माँ को कुछ सामाजिक शर्म- लिहाज की वजह से अपने पास रखा हो या संभावित धन और जमीन के लालच में, जो उसके मरने के बाद भी न मिलने की वजह से बहन के प्रति गुस्से को भड़का रहा हो। लेकिन बहन भी भाई को भड़काने का कोई मौका चूकना नहीं चाही। जब वो अपनी माँ की आखिरी इच्छा के रूप में सुदूर इलाके से पमपम तिवारी को बुलवाकर न सिर्फ विलुप्त होते हंकपड़वा परम्परा को जिंदा करने की कोशिश की बल्कि वह अपने भाई के अपमानजनक स्थिति पर मुस्कुराई भी। और इसी मान-अपमान के युद्ध में पमपम तिवारी फिर से अपमानित होकर लौट गया। आखिर माँ की आखिरी इच्छा भी तो बेटी पूरा नहीं कर सकी। फिर हुई किसकी इच्छा पूरी? साफ-साफ कहें तो रिश्तों और रस्मों की आड़ में सभी सिर्फ एक-दूसरे से श्रेष्ठ दिखने की कशमकश में उलझे हुए थे जबकि सभी के सभी हमाम में नंगे थे। यदि तेरह दिन के कर्मकांड पर होने वाले खर्च के लिए भी झगड़ा ठना था तो क्या फर्क पड़ जाता यदि माँ के खाते से रूपये न निकलते? भाई के जेब से रूपये न खर्चते? बहन की भी तो कोई जिम्मेदारी थी कि नहीं? क्या वो रिया की माँ नहीं थी? रिया तो तब समाज के नजर में और ऊपर उठती जब सारे आयोजन का खर्च खुद संभाल लेती।अस्पताल आदि के कुछ खर्च आदि भी अपनी तरफ से देने की पेशकश करती यदि जो माँ की खुद से सेवा नहीं कर सकी तो। लेकिन नहीं, मान-अपमान के घिनौने खेल में शामिल होकर तो वह और भी कीचड़ के गंदे नाले में कहीं जा गिरी। और जो उसे किसी तेरह दिन के कर्मकांड में विश्वास ही नहीं था। वह प्रगतिशील सोच की थी तो पमपम तिवारी का हड़कंपवा वाला नाटक क्या था? स्पष्ट है कि किसी की भी मंशा पाकसाफ न थी। सभी एक माँ की लाश के बहाने एक दूसरे की पगड़ी उछाल रहे थे और उस घिनौने खेल का मजा ले रहे थे। प्रेम की बजाय नफरत का जहरीला बीज बोया जा रहा था। जो कि इंसानियत और मानवता के नाम पर कलंक से ज्यादा कुछ और नहीं था।

हालांकि इस कहानी में स्त्री पात्र हैं तो पुरुष पात्र भी हैं। पुरुष पात्र यदि स्वार्थी भाई के रूप में दिखाए गए हैं तो दयावान, त्यागी और स्वाभिमानी कलाप्रेमी पमपम तिवारी भी हैं। भाई के इशारे पर नाचने को मजबूर भाभियाँ हैं तो अपनी जिद्द पर अड़ी माँ, बहन और माँ की देखभाल करनेवाली सेविका भी। माँ-बहन घर में खुश नहीं हैं तो भाई लोगों की भी अपनी सीमाएं हैं।

पारिवारिक समस्याओं में उलझी यह कहानी मानसिक क्रूरता और विकृति के सिवाय वैसा कुछ नहीं दे पाती जिसे स्त्री सशक्तिकरण के रूप में देखा जा सके। जब सिर्फ अपने स्वार्थ और सुविधा की ही बात हो तब यह कैसे कह सकते हैं कि यह सशक्तिकरण समाज और देश को कोई नया संदेश दे पाएगा? हम यहां लड़ाई देखते हैं। आपसी फूट देखते हैं। कहीं से भी एकता, समग्रता और सामंजस्य का संदेश नहीं मिलता है। जब पमपम तिवारी बुजुर्ग हो चुके हैं,जमीन के कागजात को फाड़ देते हैं, वापस लौटा देते हैं तो फिर मन की शांति के सिवाय किसको क्या मिल जाता है? वह जमीन भी भाइयों के पास ही रह जाएगा और मां के साथ साथ बहन के प्रति भी एक जहर मन में ताउम्र नासूर की तरह चुभता रहेगा। कहीं से भी मानवता मनुष्यता की बात नहीं झलकती है। हां,मां की सहृदयता पमपम तिवारी के प्रति है, और वह मरणासन्न बेला में कागजात उनके नाम करती है, जबकि यदि वह जीते जी ऐसा कदमउठातीं तो कहीं ज्यादा सार्थक और सटीक होता।

इस कहानी में भाषा के स्तर पर विशेष रूप से यही कहा जा सकता है कि बज्जिका के कुछ शब्दों को प्रतिस्थापित करने की कोशिश की गई है, जो कहानी के माहौल और परिवेश के अनुकूल है। शेष कहानी की प्रस्तुति बहुत अच्छी है और लेखिका शायद अपने मंतव्य को स्पष्ट करने में सफल रही है।

संपर्क :
सुशील कुमार भारद्वाज
मो. – 8210229414
ईमेल – sushilkumarbhardwaj8@gmail.com

गीताश्री की कहानी ‘नजरा गईली गुईंयां’



गीताश्री ऐसी गद्यकार हैं जिनकी रचनाओं की अपनी एक जमीन है। उनकी कहानियों एवं आलेखों में वर्जनाएं टूट रही होती हैं तो कभी जीवन के नये प्रतिमान जुड़ते हुए दिखते हैं। इंडिया टूडे की साहित्य वार्षिकी में उनकी कहानी ‘नजरा गइली गुइयां’ अपनी अंतर्वस्तु एवं उसके ट्रीटमेंट के लिहाज़ से पाठकों के बीच मुक्तकंठ से सराही गयी है। इस कहानी में कई लेयर्स हैं। पितृसत्ता एक स्त्री से उसके चयन का विवेक छिनती है तो दूसरी तरफ सामंती हठ जाति के आधार पर किसी व्यक्ति को अपात्र घोषित कर देती है।


कहानी एक स्त्री की है जिसका मौन विद्रोह धीरे-धीरे मुखर होता जाता है जिसे वह अपनी पुत्री को स्थानांतरित करती है। वह अपनी शर्तों पर मरते दम तक जीती है… जिसमें शामिल है उसकी वह ज़िद कि वह समाज में अपने बालसखा पमपम तिवारी (हंकपड़वा) के अस्मिता की पुनर्प्रतिष्ठा करके रहेगी जिसे वह नैहर से ससुराल तक ठोकर खाते हुए देखती आयी थी। क्या उसकी यह ज़िद अपने मुक़ाम तक पहुँच पाती है? ... तो आप पढ़िए गीताश्री की यह कहानी जिसका शिल्प और भाषा का प्रवाह आपको अंत तक कहानी से जोड़े रखेगा।


नजरा गईली गुईंयां : गीताश्री

बाबू सर्दी के भोरे भोरे औंघाते हुए, ऊबासी लेते हुए, पतली ऊनी चादर देह से लपेटते हुए बरामदे पर चले आ रहे थे। कोई उनके नाम का हांक दे रहा था। कौन हो सकता है जो उन्हें पूरे नाम से पुकारे....यह सधी हुई पुकार थी, देसी नहीं।
“पमपम तिवारी...पमपम तिवारी जी...”
घर में कोई और हो तो न हांक सुन कर बाहर जाए। अकेली जान और उनकी देख रेख करने वाला टुअर ललुआ । जाने कौन जन्म का संबंध निबाह रहा है। आया तो था, शागिर्द बनने, सेवक बन कर रह गया। न वे सिखा सके, न वो सीख सका। उनके बेटे, बहू छोड़ कर चले गए, पिता के पेशे से बैर जो ठहरा। ललुआ न जा सका। उनका हमदम, हमराज और बचेखुचे खपरैल मकान का मालिक। खेतों में कमाता और दोनों का खर्च चलाता। मस्त रहता और पमपम बाबू से पुराने दिनों के किस्से सुनता। यही उसका एकमात्र मनोरंजन का साधन था।
अजनबी हांक सुन कर पमपम बाबू बाहर निकले। ललुआ पोखरी की तरफ निकल गया होगा। बहुत दिनों से कोई पूरा नाम लेकर नहीं पुकारा था। अपने टोले में पमपम बाबू के नाम से जाने जाते थे।
“अवइछी...अवइत हती...” सुर में गाते हुए वे बाहर आए। आंखें मींचते हुए एक अनजान युवक पर नजर पड़ी।
“इस देस का तो नहीं लग रहा प्राणी...” उनींदी आंखें फक से खुल गईं।  
“आप ही हैं न, पमपम बाबू, इस इलाके के सबसे मशहूर हकपड़वा। मैं मुजफ्फरपुर से आया हूं, आपको मेरे साथ चलना है, वहां आपकी कला की हमें जरुरत है। आपकी जो डिमांड हो, बता दीजिए...”
सामने खड़े युवक को पमपम बाबू ने अजीब नजरों से घूरा। ललुआ हाथ में बांस का दतुअन और लोटा भर पानी लेकर खड़ा हो गया था।
“कौन भेजा आपको यहां ?” वो बताया नहीं कि हम ये काम छोड़ दिए हैं, और किसी को जरुरत भी नहीं हमारी,  हमारा बुढ़ापा आ गया है, हमसे नहीं होता है ये सब, हम नहीं जाएंगे कहीं, माफ करिए.”
दोनों हाथ जोड़ कर वे पलट गए थे। गले में रेत-सा फंसता हुआ महसूस हुआ।
“आखिरी बार चलिए...आपके बिना संभव नहीं । कल ही तेरहवीं है, और कल ही आपकी जरुरत है।“
“ललुआ बोल दे उनको, हम नहीं करते ये काम...”
“मालिक नहीं जाएंगे, आप लौट जाइए...कैसे पता चला आपको...कौन भेजा...ईहां तो किसी को पता नहीं कि हमारा पुश्तैनी धंधा क्या था?”
ललुआ हैरान हुआ।
युवक ने अपनी जेब से एक पर्ची निकाली और ललुआ को बोला- “अपने मालिक को पढ़वा दीजिए।“
ललुआ हैरान होता हुआ पर्ची लिया खुद तो पढ़ न सका। पढ़ता कैसे, एलएलपीपी यानी लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर जो था। सीधे पमपम बाबू के आगे जाकर पर्ची थमा दिया।  
पर्ची पढ़ते ही उनके चेहरे का रंग उड़ गया। गोरा चेहरा तपने लगा था। चेहरे की झुर्रिया कांपने लगी थीं। वे मुट्ठी में उस कागज को दबाए दबाए आंगन की तरफ चले गए। ललुआ ने नोटिस किया, पैरों में जान नहीं बची थी। चलते हुए लहरा रहे थे। अपने आपे में नहीं थे। बाहर खड़ा युवक प्लास्टिक वाली कुर्सी खींच कर इत्मीनान से बैठ गया था। उसे उम्मीद थी कि यहां से वह विफल हो कर नहीं लौटेगा।
......


फरवरी का पहला सप्ताह था जिसमें ठंढ़क अभी तक टिकी हुई थी। रिया को दिन भर नामालूम-सी बेचैनियां रहीं, शाम को भतीजे ने आई सी यू से एक 50 सेंकेंड का विडीयो क्लिपिंग भेजा। गहन चिकित्सा कक्ष में मां अंतिम सांसे ले रही थीं। पटना जाने वाली फ्लाइट सुबह ही मिलती। सबसे पहली फ्लाइट बुक की। अंतिम समय में मां के पास होना चाहती थी। एयरपोर्ट पर बैठे बैठे बार बार वीडियों क्लिपिंग देखती और रोती जाती। किसी तरह मां से एक बार जीते जी मिल ले। डेढ़ घंटे बाद जब पटना एयरपोर्ट पर उतरी तो कहानी बदल चुकी थी। अनगिनत फोन कॉल्स और मैसेज से मोबाइल भरा हुआ था।
मां नही रही...
पिता के जाने के बाद मां ही उसका घर थीं। सबसे छोटी और इकलौती बेटी होने के नाते मां का उस पर खासा दुलार था। मां अपने हर फैसले के लिए रिया पर निर्भर थीं। रिया को लेकर बदनाम थीं कि उससे पूछे बिना कोई काम नहीं करतीं। न ही अपनी चीजों को किसी को हाथ लगाने देती। बहुत गोपनीयता बरतने वाली स्त्री थी मां। हर चीज सहेज कर, संभाल कर, सबकी पहुंच से दूर रखतीं। रिया ने कभी उन चीजों में दिलचस्पी नहीं ली। मां का सिरहाना तो पूरा बक्सा जैसा था। सारी चीजें रखतीं, कागज पत्र, चाबियां, बीड़ी, माचिस जाने क्या क्या...। शहर में रहने के वाबजूद मां की आदते नहीं बदली थीं. उनके आंचल में रुपये, सिक्के जरुर बंधे मिलते। रिया उन्हें खोलती और मजे मजे में वे पैसे लूट लेती। रिया के अलावा कोई और नहीं कर सकता था ऐसा। वे पूरे परिवार से एक दूरी बनाकर जीती थीं। उन तक पहुंचने का उचित माध्यम रिया थी। मुजफ्फरपुर से कोसो दूर, अपनी एकल जिंदगी में मस्त। दोनों भाईयों के सामंती रवैया से तंग आकर विद्रोह बन जाने वाली रिया ने सिर्फ मां से बातचीत रखी और भाइयों से बोलचाल बंद। भाभियां कभी कभार मुस्कुरा देतीं। रिया बदले में आत्मीय मुस्कान दे देती, ये जानते हुए कि गुलाम आत्माओं का कोई कसूर नहीं होता। पराधीनता में सिर्फ मुस्कुरा पड़ना ही सबसे आसान क्रिया है। मां ने भी कभी दबाव नहीं डाला। वे सुख चैन चाहती थीं। रिया को पूरा समर्थन देती थीं और दोनों बेटो के परिवार से अलग घर की ऊपरी मंजिल पर रहती थीं। पिता के जाने के बाद मां ने पहली मंजिल पर अपना ठिकाना बना लिया था। जिसे मिलना हो, कुछ चाहिए, वो आए उपर। गठिया की वजह से बिस्तर पकड़ चुकी थी। देखरेख के लिए गुलिया चौबीसो घंटे उनके पास रहती थी। रिया एकदम निश्चिंत थी मां की तरफ से। मां भी निश्चिंत थीं बेटी के फैसले से। रिया पर पूरा भरोसा था और ये भी इत्मीनान था कि अपनी जिंदगी के फैसले बेहतर करेगी। चाहे शादी करे न करे, वो शादी थोपे जाने के खिलाफ थीं। रिया से फोन पर पूछती रहती थीं- “कोई पसंद आया...तेरी इज्जत करेगा ना, साथ देगा न...तुझ पर शासन तो नहीं करेगा..? .देख लेना..ठोक बजा कर...पहले कागज पर लिखवा लेना...”
“अरे मां...ऐसे कहीं प्यार होता है जिसमें कंडीशन अप्लाई हो...बोलो....अभी मेरा मन नहीं...क्या उम्र मेरी, 36 साल की तो हूं...हो जाएगी..होनी होगी तो...ना हो तो भी हम कौन सा मरे जा रहे...अकेली लाइफ ज्यादा मस्त...न कोई रोकने वाला, न टोकने वाला...जह जहां मन हो, उठ कर चल देती हूं...किसी को जवाब नहीं देना पड़ता मां...यहां कोई मेरी जिंदगी में नहीं झांकता...”   
“अच्छा मां, एक बात बताओ...तुम भी टिपिकल मदर की तरह मेरी शादी का सपना देखती हो क्या...?”
रिया मां को कुरेदती।
“भक्क...हम ऐसा सपना देखते तो तुम आज वहां से हमसे मजाक कर रही होती का..दो तीन बच्चा-खच्चा लेकर किचकिचा रही होती...हम वैसी मां नहीं, हम तो तुमको पैर पर खड़ा होते देखने का सपना देखते रहे, खुदमुख्तार बनने का सपना...मेरी तरह नहीं बनाना चाहती थी कि दिन भर टेटियाती रहो- “ऐ जी...सुनते हैं, हमको सौ रुपया दीजिए...हमको चूड़ी खरीदना है...”
मां एक्टिंग करतीं, आवाज बदल लेतीं...और फिर दोनों मां बेटी फोन पर हंसती रहती देर तक। मां का यही अगाध विश्वास उसकी पूंजी था जिसके सहारे वह भाइयों का बंधन काट कर दिल्ली पहुंच गई थी। जहां अपनी दुनिया का विस्तार कर रही थी और अपना समाज बना रही थी।
मां के नहीं रहने की खबर ने उसे बुरी तरह झकझोर दिया था। वह सचमुच तन्हा हो गई थी। घर के बाहर भारी भीड़, रिश्तेदारों का खोखला विलाप और मां की ठंडी देह ने उसे भीतर से तोड़ दिया। भाभियों ने उसे संभाला। नहीं तो मां की देह पर भरभरा कर गिर गई होती। इस शहर से नाता हमेशा के लिए टूट गया था। एक कड़ी थी मां, जो टूट गई। तेरह दिन बाद सदा के लिए इस शहर को अलविदा कह देना है। मुड़ कर न देखना है। मां को लोग मंजिल की तरफ ले गए थे। द्वार पर सन्नाटा छा गया था।
मां के बेड पर जाकर गिर पड़ी। बाहों में चादर भींज कर लोटती रही देर तक। भाभियों से पूछती रही- “मां ने कुछ कहा क्या..अंतिम समय क्या बोलीं...मेरे लिए कुछ कहा...मेरा नाम लिया..कैसे हुआ.”
बड़ी भाभी चुपचाप उठ कर चली गईं। छोटी भाभी ने हौले से कहा- “उन्होंने मौका ही कहा दिया, ब्रेन हेमरेज हुआ तो जल्दी होस्पीटलाइज कराना पड़ा। सबलोग उसी में लग गए, कोई उनसे बात नहीं कर सका, वो कुछ कहना चाहती थीं, मगर आईसी यू में बात नहीं करने देता है न, उनके ए टी एम का पासवर्ड तक न पूछ पाए, अभी कामकाज में पैसा लगेगा, निकालना पड़ेगा, किसी को कुछ बताती थोड़े थीं ”
भाभी के लहजे में उदासी कम, शिकायत ज्यादा थी।
“मां जी आपसे तो ज्यादा बात करती थीं, आपको पता होगा ? आपसे बताई होंगी अपनी इच्छा ”
भाभी के स्वर में उलाहना था। रिया चुपचाप सुबकती रही। मां के तकिया पर सिर रख कर सो गई। भाभी कब उठ कर चली गई, पता न चला। देर रात सब मंजिल से लौटे, घर में विधि विधान होता रहा, रिया को किसी ने नहीं जगाया। गुलिया पलंग के नीचे सो गई थी।
सुबह कुछ बदली हुई थी। भाइयों के चेहरे पर अवसाद की जगह थकान की छाया थी। भाभियां काम करके हलकान हो गई थीं और बड़ी भाभी का बड़बड़ाना शुरु था। गांव के कुछ रिश्तेदार डेरा डाल चुके थे। कुछ तो तेरह दिन तक हिलने वाले नहीं थे। छोटा भाई कर्ता बना था, इसलिए वह एक कमरे में शांत पड़ा था। बड़े भइया बहुत एक्टिव थे। सारा उन्हें संभालना था। रिया से दोनों भाइयों का अबोला-सा था।
द्वार पर सब बैठे थे, रिया को बड़ी भाभी ने ही टोका-
“आप मां के पैसों के बारे में जानती हैं। जमीन का कागज पत्तर कहां रखा है, ये भी हम लोगो को नहीं मालूम, आपको तो जरुर बताई होंगी..”
“पैसा निकालना है, आज से तेरह दिन काम ही काम, दो दिन का भोज होगा और मांगने वाले भी आएंगे...दान भी करना पड़ेगा...खर्चा तो बहुत होगा...बजट बनाना होगा..पहले पैसे का पता चले, फिर उसी हिसाब से तय होगा।“
बड़े भैया की आवाज में गहरी चिंता थी। दुख का साया कहीं नहीं दिखा। रिया को सारा माजरा समझ में आ गया था। उसका मन हुआ, तेरह दिन न रुके, मां तो चली गई, तेरह दिन की क्रिया बेमानी है, इसे क्यों करना, भोज भी न हो।
उसने अपनी इच्छा जाहिर कर दी। सुनते ही घर में बम फटा। बड़े बैया जोर से चिल्लाये- “हमारी समाज में कोई इज्जत है कि नहीं, हम कंगले हैं क्या ? हम जो दूसरो का भोज खाते रहते है, हम उनको क्या कहेंगे, समाज को क्या मुंह दिखाएंगे। हम जो इतना चुमावन (रुपये) दिए हैं शहर भर में, उसको वसूलने का समय अब आया है, हम कैसे छोड़ दे। तुमको तो दिल्ली चले जाना है। हम लोगो को इसी समाज में रहना है. जिसको जाना हो जाए, हम लोग कर लेंगे सब काम. कल ही बैंक से बात करेंगे. बाबू जी का पेंशन मां के अकाउंट में जमा होता था, चार पांच लाख होगा उसमें. इतना खर्च तो होगा ही.”
रिया उठी और चुपचाप पहली मंजिल पर मां के कमरे में चली गई। भाई के फट पड़ने के बाद  उनका संकेत समझ गई थी कि वे नहीं चाहते थे रिया यहां रुके या कोई दखल दे। मां का पैसा किसी तरह रिया उन्हें सौंप दे। बड़ी भाभी सिरहाने आकर खड़ी हो गई थीं।
“मां का बक्सा काहे नहीं चेक करती हैं ? .रुम में ही रखा होगा न कहीं, आराम से ढूंढिए, मिल जाएगा. वैसे भी मां का रुम , आप ही चेक करिए, हम लोग नहीं छुएंगे कुछ, कलंक लग जाएगा.”
रिया ने गीली आंखों से भाभी को घूरा। घरेलू काम में घिसी हुई, उंनीदी वह एक लाचार औरत थी जो घर के मालिक का हुकुम बजा रही थी।
वह लेटी रही, सुबकती रही। दिल्ली वापसी का प्लान करती रही।
जोर से प्यास की तलब महसूस हुई। गुलिया चौखट पर बैठी थी। वह बड़बड़ा रही थी- “अब हम गांव लौट जाएंगे, इन लोगो के साथ नहीं रहेंगे.”
रिया ने गुलिया को पुकारा।
“दीदी..सिरहाने में देखो...ए टी एम कार्ड वहीं रखा होगा...दे दो उनको। आप मत रुकिए। तेरह दिन में आपकी तेरह किसिम की दुर्गति कर देंगे। आप मुक्ति पाओ, सब दे दो इनको”
“तुमको मां कुछ बताई थी. तुम रात दिन साथ रहती थी न...क्या बोलती थी...?”
रिया का दर्द सुनकर गुलिया का कलेजा कांप उठा था।
“हमको क्या बोलेंगी मलकिनी, आपके बारे में बहुत बात करती थीं। मरने के बारे में कभी बात करती नहीं थीं। एतना जरुर बोलती थीं कि अपने नाम की जमीन बेटों को नहीं देंगी, दादा की संपत्ति में ले हिस्सा, अपने नाम का नहीं देंगी “- ऐसा बोलती थीं जब कभी गुस्सा होती थीं। आपको लेकर दोनों भइया मलकिनी को बहुत कोसते थे। कहते थे कि आपके बाद उसको यहां टपने नहीं देंगे “
रिया को सुन कर हैरानी नहीं हुई। मां का स्वभाव जानती थी। जिद्दी थीं, ठान लिया सो ठान लिया। वह डरी, कहीं मां ने वह जमीन उसके नाम तो नहीं कर दिया। नहीं, नहीं, कदापि न लेगी जमीन, उसे कौन सा गांव में रहना है। अबकि गई तो वापस न लौटेगी। क्या करना जमीन लेकर...मां ने उसके नाम कर दिया होगा तो भी वो भाइयों के नाम कर जाएगी...कुछ नहीं लेकर जाना यहां से, बस मां की एक साड़ी ले जाएगी, बतौर यादगार...और कुछ हाथ नहीं लगाएगी..
लेटे लेटे उसने मां के सिरहाने में हाथ लगाया- हाथ ज्यों ज्यों अंदर करती गई, कई चीजें टकराने लगीं। कुछ ठोस, कुछ पेपर, कुछ सिक्के...चिंहुक कर उठी।
“गुलिया, दरवाजा बंद कर...”
गुलिया ने दौड़ कर दरवाजा बंद किया। रिया ने पूरा गद्दा उठा कर नीचे फेंक दिया। सिरहाने का स्रामाज्य खुल गया था। कुछ जंग लगी चाबियां, कुछ सिक्के, मुड़े-तुड़े रुपये, कुछ खुली बीड़ियां, कुछ कतरनें, चार तह किया हुआ मर्दाना ऊनी शॉल...और एक पतली-सी फाइल। गुलिया और रिया दोनों अचंभे की तरह सिरहाने के इस साम्राज्य को देख रही थीं। इन सामानो को कौन हाथ लगाए। कंपकंपाते हाथों से रिया ने सामान उठाना शुरु किया। गुलिया ने बीड़ियां उठाईं। सबसे पहले फाइल उठाई। स्टांप पेपर थे। रिया की आंखों में इतना पानी था कि पेपर पढ़ नहीं पा रही थी। धुंधली आंखों ने जो पढ़ा, उसके पैरो तले से जमीन खिसक गई। मां के हाथ लिखा छोटा-सा खत उसके नाम था। एक श्वेत श्याम मर्द की घिसी हुई तस्वीर थी, घनी ढाढी, तीखे नैन नक्श। एक पेपर पर कवितानुमा कुछ लिखा था।  जिस पर पहेली जैसा कुछ लिखा था, नीचे लेखक का नाम पता भी लिखा था।
“लोमा लाठी/शान भथाहीं/धन तिसिऔता/ममला गेल महिसौर
मिरजा नगर के ललना हे जानकी/ सुंदर सुशील सिरमौर”
पहली दो पंक्तियां पढ़ कर रिया कांप गई। मिरजा नगर तो उसका ननिहाल है...ननिहाल वर्षो पहले छूट चुका था। पिता ने कभी जाने नहीं दिया। न मां को न किसी भाई बहन को। शायद किसी से झगड़ा हो गया था, तब से आवाजाही बंद थी। रो धो के मां भी भी मिरजा नगर को बिसरा गईं। श्वेत श्याम तस्वीर उठा कर देखा- ऐसा लगा, चेहरा जाना पहचाना सा है...कहीं देखा है..बचपन में...
स्मृतियां साफ नहीं हो रहीं। मां का बिलखना, बाबूजी की दहाड़ याद है।
उसने स्टाम्प पेपर को देखा...जमीन का कागज था। मां का साइन था। अंगूठे का चिन्ह। ऊपर नाम पमपम तिवारी, ग्राम-मिरजा नगर, जिला-वैशाली.
अंदर से मां के अनगढ़ अक्षरों में एक खत निकला रिया के नाम जिसमें अपनी अंतिम इच्छा  दर्ज कर गईं। वे जानती थी कि सिर्फ बेटी ही सबसे लड़ कर उनकी ख्वाहिश पूरी कर पाएगी।
रिया, मेरी बाबू,
पता नहीं, ये चिट्ठी तुम तक किस हालत में पहुंचेगी या कब पहुंचेगी। पहुंचेगी भी या नहीं, पता नहीं। अगर तुम चिट्ठी पढ़ रही हो तो मेरी एक ख्वाहिश पूरी कर देना। करोगी न?
फाइल में जमीन के पेपर है, वो मुझे तुम्हारे नाना जी ने दिया था। जिसे मैंने छिपा कर रखा, ये जमीन तुम मेरे बाल सखा, पमपम तिवारी को दे देना। मैने उनके नाम कर दिया है। मुझे उनसे गहरा अनुराग था। बस उनका कसूर ये था कि उनका धंधा तुम्हारे नाना को पसंद नहीं था। एक तो हम एक ही गांव के, दूसरे उनका खानदानी धंधा हंकपड़वा का। द्वारे द्वारे नगरी नगरी श्राद्ध का भोज खाना, मृतक का प्रशस्ति-गान, स्वांग करना, उछल-कूद करना, मांगना-चांगना, बिल्कुल शान के खिलाफ।
मेरी इच्छा है कि बिना अपने भाइयों को बताए, पमपम को इज्जत से बुलाओ, यहां से बेइज्जत करके निकाला गया है, तुम इज्जत देना उसको। वह भिखारी नहीं, कलाकार है, तुरत-फुरत कविता बनाता है और गाता है। बहुत ओज है उसकी वाणी में। पूरे तिरहुत प्रमंडल में उसका डंका बजता था। सौ गांव के लोग उसको बुलाते थे। पता चला है कि वो ये धंधा छोड़ चुका है और यह प्रथा भी खत्म हो गई है। फिर भी तुम उसको बुलाना, वो जरुर आएगा, उसने वादा किया था, छोटी-सी पर्ची उसके पास भिजवा देना...बस।
कहा कम, ज्यादा समझना।
तुम्हारे लिए हम कुछ नहीं छोड़े जा रहे, सिवाए मुक्ति के। ये हम जीते जी तुमको दे चुके, संभाले रखना। अपनी मर्जी का जीवन, अपने मान-सम्मान के साथ जीना। बेसी रोना मत...मेरी आत्मा को कष्ट होगा।
तुम्हारी मां
जानकी देवी
चिट्ठी खत्म होते होते रिया का रोना बंद हो चुका था। चेहरे पर वही सख्ती लौट आई जैसी दिल्ली जाते हुए अख्तियार की थी।
उसने बचपन के साथी प्रभात को फोन किया। रिया को तेरह दिन तक रुकना था। उसे किसी का इंतजार जो करना था।  
गुलिया बीड़ियां अपनी हथेलियों पर लेकर रिया के सामने आ खड़ी हुई। रिया ने माचिस मांग कर बीड़ी सुलगाई और चिट्टी के अंत में लिखी गीत की दो पंक्तियां गुनगुनाने लगी-
“पटना से बैदा बुलाई दअ...नजरा गईंली गुईंयां...”
गुलिया अपनी हिचकी न रोक सकी। मां का कमरा सैलाब में डूब गया था जहां दो आत्माएं टापू की तरह तैर रही थीं, अपना ओर छोर ढूंढती हुई।  


.....


हो बुढ़िया के रोटी /पुतोहिया के भात
बुढ़िया बोले त / ठोठे पर हाथ
हे...जयजयकार रहईया/बिजरौली वाला जजमान के गांड फटइया
हे...
वाह वाह रे जमाना / बड़का भाई के कलकत्ता में कारखाना
बड़का भाई के मोंछ / जैसे बरछी के नोंक
छोटका भाई के मोंछ / जैसे बकरी के पोंछ
हो....
जय जानकी जगदंबा /हाथ गोर लंबा
उरदी के खेत में / रहरी के खंबा
हो....
जानकी सिंगार / जैसे चंदा उतार
जानकी के गान / जैसे देवी स्थान
जानकी बसान / जैसे स्वर्ग में बिहान
दुष्ट बेटवन के नरक में स्थान
हो....
दोनों भाइयों की भृकुटी तन गई थी। उसे देखते ही दोनों चौंक गए। ये कहां से आ गया ? किसने बुलाया ? जिसे दरवाजे से वर्षो पहले अपमानित करके बाबूजी लौटा चुके थे, उसकी यहां आने की हिम्मत कैसे हुई। अपने दरवाजे पर कोई हंकपड़वा नहीं चाहते थे। हंकपड़वा गान में ही सबका माखौल उड़ता था, सबके भेद खोलता था और अंत में गुणगान करके माहौल गमगीन कर देता था। जाते जाते बहुत कुछ ठग के ले जाता था। दोनों भाई उसके लिए तैयार न थे। वे क्रुद्ध निगाहों से रिया को देख रहे थे। मां की इच्छा पूरी होते देख कर रिया मुस्कुरा उठी। वह भाईयों का रिएक्शन देखने को आतुर थी। कैसा लगेगा जब जुल्मो सितम का पर्दाफाश होगा। मन में दर्द और सुकून की लहर कांपी। जिस आग को लेकर एक विलक्षण स्त्री इतने वर्षो तक जीती रही, इतना दर्द समेटे, इतनी क्रूरताओं को झेलती रही, उसकी छोटी-सी ख्वाहिश पूरी होने जा रही थी।  
पंडाल में रिश्तेदारों और मेहमानों के बीच हंकपड़वा का गान और हुंकार जारी थी। सफेद धोती, कत्थई रंग का मुरेठा सिर पर बांधे, लाल लाल मतवारी आंखें, काला जूता सब मिला कर अनोखी छटा थी। वह देह झटक, पैर पटक, शॉल लहरा लहरा कर , ताली बजा बजा कर समां बांध रहा था। बड़े भइया ने कुछ रुपये निकाले, हंकपड़वा को चुप रहने का इशारा किया, रुपये उसकी तरफ बढ़ाए। उसने घृणा से हाथ झटक दिया। उसने रिया को पास बुलाया, पतली-सी फाइल रिया ने उनकी तरफ बढ़ा दी। गोरे गोरे हाथों से पीली , मरियल-सी फाइल हाथ में लेकर अचंभे से देखा, खोला , थोड़ी देर तक सन्न रहा।
“अब तो खुश हो गए तिवारी जी...लगता है, मोटा माल मिला है आपको, अब यहां से निकलिए...”
बड़का भैया ने व्यंग्य वाण छोड़ा। तिवारी जी ने अपनी लाल अंगार जैसी, भस्म कर देने वाली आंखों से उन्हें घूरा और तत्क्षण रिया की तरफ पलटे। फाइल चार टुकड़ों में फाड़ी और रिया को थमा कर ललुआ का हाथ पकड़ा- “बउआ, ई हमारा सालों बाद आखिरी हांक थी। हम भांट भांटिन नहीं हैं कि सिर्फ प्रशंसा गाएं। तुम जानती हो कि हम किसका अनुराग खींच लाया, किसकी खातिर हम कसम तोड़े हैं...सदा सुखी रहो...तुम जानकी जैसी ही सुन्नर हो, चांद का टुकड़ा..”
उसके माथे पर हाथ फेरा, गोरी, बूढ़ी कलाई बेहद आत्मीय थी। चाहती थी, माथे पर देर तक वो कलाई पड़ी रहे, या उससे लिपट कर जार जार रो ले। वो तूफानी हवा थे, रुकते कहां। पूरे वेग से झपटते हुए कॉलोनी के गेट से बाहर। उनका गान रुदन में बदल चुका था। उनका रुदन-गान सुन सकती थी-
“नजरा गईंली गुईंयां...”
बूढ़ी फुआ बोल पड़ी- “बड़े भाग वाले के काम में हंकपड़वा आते हैं। अब त अइसे भी गांव ज्वार में ढूंढे नहीं मिलते। इनके चरण जहां पड़ते हैं, वहां का समय बदल जाता है। इनका आदर करना चाहिए था...ये ठीक न हुआ।“     
   …….

परिचय ◆

गीताश्री
कथाकार एवं पत्रकार
कृतियाँ -

प्रार्थना के बाहर और अन्य कहानियां ( कहानी संग्रह, वाणी प्रकाशन)
स्वप्न, साजिश और स्त्री ( कहानी संग्रह, सामयिक प्रकाशन)
डाउनलोड होते हैं सपने ( कहानी संग्रह, शिल्पायन प्रकाशन)
लेडीज़ सर्कल ( कहानी संग्रह) राजपाल एंड संज
हसीनाबाद ( उपन्यास, वाणी प्रकाशन)
औरत की बोली ( स्त्री विमर्श, सामयिक प्रकाशन)
स्त्री आकांक्षा के मानचित्र ( स्त्री विमर्श, सामयिक प्रकाशन)
सपनों की मंडी ( आदिवासी लड़कियों की तस्करी पर आधारित शोध, वाणी प्रकाशन)

संपादित कृतियाँ -

नागपाश में स्त्री ( स्त्री विमर्श)
कल के क़लमकार ( बाल कथा)
स्त्री को पुकारते हैं स्वप्न ( कहानी संग्रह )
हिंदी सिनेमा: दुनिया से अलग दुनिया ( सिनेमा)
कथा रंगपूर्वी ( कहानी संग्रह)
तेईस लेखिकाएँ और राजेन्द्र यादव( व्यक्तित्व)
रेखाएँ बोलती हैं ( रेखा चित्र), शिवना प्रकाशन

पुरस्कार एवं सम्मान -

वर्ष 2008-09 में पत्रकारिता का सर्वोच्च पुरस्कार रामनाथ गोयनका, बेस्ट हिंदी जर्नलिस्ट ऑफ द इयर समेत अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त.
राष्ट्रीय स्तर के पांच मीडिया फैलोशिप और उसके तहत विभिन्न सामाजिक सांस्कृतिक विषयो पर गहन शोध.
कथा साहित्य के लिए इला त्रिवेणी सम्मान-2013
सृजनगाथा अंतराष्ट्रीय सम्मान
भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार
साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए बिहार सरकार की तरफ से बिहार गौरव सम्मान-2015
सीनियर फेलोशिप - वर्ष - 2016-2017, संस्कृति मंत्रालय , भारत सरकार

23 सालों तक सक्रिय पत्रकारिता के बाद फ़िलहाल स्वतंत्र पत्रकारिता और साहित्य लेखन !

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