सड़ांध

शहर के
रिहायशी इलाके से
अलग थलग
पड़ी  थी वह कब्रगाह
समस्या बनकर
जन-जीवन की

शहर  की तरफ
हवा के झोंको के साथ
आती रहती सड़ांध
उन कब्रों से

अनेकों बार डाली गयी मिट्टी
पर,आती ही रहती
वह तीखी सड़ांध
फिर से खोदी जाती कब्रें
मुर्दे जागे मिलते हर बार
देने लगते बयान

क्षत विक्षत कर
 डाल दिए जाते
और भी गहरे...

कभी आये नहीं हाकिम
लिए नहीं गए उनके बयान
और वह तीखी सड़ांध
आज भी
वहां से आती है


घेरे के भीतर

जेड श्रेणी के
सुरक्षा घेरे से
आवाज गूंजती है–
अब देश
सशक्त हाथों में है
और भी सुरक्षित
खुली सड़कें
निरापद हैं
जनता सुनती है...

घेरे के भीतर
फुसफुसाहट होती है-
आगे खतरा है
राजपथ पर
आवाज कांपती है–
वापस चलो, जल्दी !
घेरा सिमट जाता है
जनता देखती है...