लोकराग का लोकार्पण

दिनांक 29.09.2016 दोपहर 2 बजे। टेक्नो हेराल्ड, महाराजा कामेश्वर काम्प्लेक्स, फ्रेजर रोड, पटना में कवि प्रभात सरसिज की बहुप्रतीक्षित कविता संग्रह 'लोकराग' का लोकार्पण होना था। रचनाकारों एवं पाठकों से भरा सभागार। मंच संचालन प्रसिद्ध रंगकर्मी अनीश अंकुर कर रहे थे। शुरुआत कवि के अनन्य मित्र ज्योतींद्र मिश्र के गीत से हुआ जो जनकवि प्रभात सरसिज को समर्पित था। बीज वक्तव्य कवि डॉ श्रीराम तिवारी के द्वारा दिया गया। उन्होंने बताया कि 66 वर्ष की उम्र में कवि की यह पहली कृति है। आज उनका जन्मदिन भी है। उन्होंने कहा कि 'लोकराग' कविता में मानसिक अपंगता का अंत है। उनका कहना था कि कविता आभासी दुनिया की चकाचौंध से अलग ले जाने की विधा है। मुक्तिबोध की तरह ही कवि में भीतर–बाहर की आवाजाही है। डॉ रामवचन राय ने कहा कि प्रभात सरसिज अक्सर चुप रहते हैं तथा संयमित हैं। उनकी कविताओं में बड़बोलापन नहीं है तथा सही वक्त पर आवाज प्रकट होती है। अपने संग्रह में भी इन्होंने अपने वक्तव्य से संकोच किया है तथा सबकुछ कविताओं पर छोड़ दिया है। इनकी कविताएं स्मृतिगन्धा हैं। कवि शब्दों के मितव्ययी हैं और अच्छी कविता की यही पहचान भी है। कविताओं में सामयिकता भी है तो शाश्वतता भी। 'कवि जगपति' शीर्षक कविता इसका सफल उदाहरण है। साफ–सुथरी एवं मँजी हुई भाषा का प्रयोग संग्रह में हुआ है। प्रसिद्ध साहित्यकार हृषिकेश सुलभ ने कहा कि यह संग्रह रचनाकार की कविताओं के साथ लंबी यात्रा का परिणाम है तथा इसमें भविष्य के संकेत भी छुपे हैं। सोनझुरी आदि कविताएं ऐसी ही रचना है। प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ शिवानंद तिवारी ने कहा कि कविता के बारे में कुछ कहना मेरी अनाधिकार चेष्टा होगी। यह सशक्त एवं ताकतवर माध्यम है। रघुवीर सहाय के साथ रहना हुआ। अशोक सेकसरिया जी के प्रभाव से साहित्य के प्रति लगाव बढ़ा। मुझे 'पहाड़' शीर्षक कविताएं अच्छी लगी। युवा कवि प्रत्यूष चंद्र मिश्र का कहना था कि संग्रह में आम आदमी की संवेदना व्यक्त हुई है। उन्होंने संग्रह की कविता 'नातेदार शब्द' का पाठ किया। कथाकार शेखर ने कहा कि कविता–लेखन एक सचेतन क्रिया है। संग्रह में लड़ते हुए आदमी का संघर्ष व्यक्त हुआ है। अध्यक्ष खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि  कवि संभावनाशील हैं तथा उनकी कविताओं में यह दिखता भी है। मध्यवर्गीय चेतना मनुष्यता को ऊपर उठाती है तो कभी दिशा भी भटक जाती है। संग्रह की कविताओं में मनुष्यता प्रच्छन्न रूप से आई है। कविताओं की भाषा आमफहम नहीं है पर समग्रता से है। समकालीन कविताएं हैं जिसमें चिंतन भी है तो गद्य भी। कवि घटनाओं एवं परिवेश पर कड़ी नजर रखते हैं। कुछ कविताओं में प्रौढ़ता भी नजर आती है। कवि प्रभात सरसिज ने अपनी रचना–प्रक्रिया पर बात रखी। लोकार्पण में कवि विमल कुमार, कथाकार संतोष दीक्षित, वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत, चित्रकार अवधेश अमन सहित अन्य गणमान्य लोगों की उपस्थिति रही। अंत में धन्यवाद ज्ञापन समीक्षक अरुण नारायण द्वारा किया गया।

प्रभात सरसिज जैसे सहृदय कवि की पहली रचना–संग्रह के लोकार्पण में उत्साह दिख रहा था। बस एक कमी लोकार्पण के समय दिखी। बिहार के प्रतिनिधि कवि मंच पर मौजूद नहीं दिखे। यह अपेक्षित था कि कविता संग्रह के लोकार्पण में वे लोग आएं। हो सकता है व्यक्तिगत कारणों से न आ पाए हों। कुल मिलाकर  लोकार्पण सार्थक रहा। कवि को बहुत–बहुत बधाई एवं शुभकामनायें ! 

दूसरा शनिवार : एक पहल

   टना हमेशा से साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मुलाकातों, गोष्ठियों का केन्द्र रहा है। बिहार एवं अन्य प्रदेशों के ख्यातिनाम साहित्यकारों की मुलाकातों से यह शहर हमेशा जीवंत रहा है। हमें महसूस हो रहा था कि उस अतीत की परंपरा उतने ही सुदृढ़ एवं उत्साहजनक रूप से सामने नहीं आ रही है। ऐसा नहीं है कि पटना में साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कर्मियों की कमी है, पर वे एक-दूसरे से परिचित नहीं हो पाते हैं। हम युवा अपने वरीय लोगों के साहित्यिक एव सांस्कृतिक अवदानों से अनजान रहते हैं, वहीं हमारे वरीय अपनी रचनाओं के प्रति हमारे उत्साह एवं रूचि से अवगत नहीं हो पाते हैं।

   
  शहर की सुबह व्यस्त होती है एवं दोपहर खामोशी ओढे रहती है। जीवंतता तो शाम को ही देखने को मिलती है। पटना में हमने करीब साल भर पहले इसी जीवंतता को केन्द्र में रखते हुए शाम की गोष्ठी का आयोजन प्रारंभ किया था, पर यह क्रम हमारी व्यस्तता या कहिए कि उदासीनता के कारण बरकरार नहीं रह पाया। फिर से अपनी गोष्ठी ‘दूसरा शनिवार’ की शुरुआत करने हेतु कवि प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा, शायर संजय कुमार कुंदन, शायर समीर परिमल, कहानीकार सुशील कुमार भारद्वाज एवं कवि नरेन्द्र कुमार दिनांक 16 अप्रैल, दिन-शनिवार, संध्या- 5 बजे गाँधी मैदान में बड़ी गाँधी मूर्ति के पास एकत्रित हुए। गज़लों एवं कविताओं का दौर चला तथा निश्चय किया गया कि अब यह परंपरा टूटनी नहीं चाहिए।

 
  अतः एक बार फिर से गाँधी मैदान की बड़ी गाँधी मूर्ति के समीप दिनांक 30 अप्रैल, दिन-शनिवार, संध्या 5 बजे हम 'दूसरा शनिवार' गोष्ठी में अपने तय कार्यक्रम के अनुसार मिले। सहभागियों में  हमारे वरिष्ठ कवि योगेन्द्र कृष्णा, शायर संजय कुमार कुंदन, कवि शहंशाह आलम, कवि राजकिशोर राजन, कहानीकार सुशील कुमार भारद्वाज, आलोचक एवं समीक्षक अरुण नारायण, कवि प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा, शायर समीर परिमल, कवि रंजीत राज, शायर अविनाश अमन एवं कवि नरेन्द्र कुमार शामिल थे। योगेन्द्र कृष्णा की रचनाओं एवं रचनाकर्म पर चर्चा हुई। उन्होंने हमसे अपनी रचना-प्रक्रिया एवं अनुभव साझा किया। हम सबने कविताएं, गज़लें, कहानियां सुनी और सुनाईं।


  जब हम गाँधी मैदान की बड़ी गाँधी-मूर्ति के समीप एक कोने में हरी घास पर बैठे अपने इकट्ठे होने की वजह पर चर्चा कर रहे थे, तो लग रहा था कि हम धीरे-धीरे ही सही...संवादहीनता की स्थिति से बाहर निकल रहे हैं। उद्देश्य एक ही था--संवाद को कायम रखना...चाहे वह कविता के माध्यम से हो या कहानी और लेख के माध्यम से। आपबीती हो या कुछ और...सब साझे की हों। हमारा प्राथमिक उद्देश्य है संवाद कायम करना एवं साहित्य-संस्कृति की परंपरा को आगे बढाना। साहित्य में रचनाकारों की परंपरा का बड़ा महत्व है। हम उसी लोकधर्मी परंपरा को आगे बढा रहे हैं।

मेरी आप–बीती...मेरी कहानी

समय का पहिया कभी भी रुकता नहीं है। उसके साथ कभी हम कदमताल करते हैं तो कभी बहुत पीछे छूट जाते हैं। आगे जाने की तो हमसे सोचा ही नहीं जाता। परन्तु इस धरा के इतिहास को अगर पलट कर देखें तो समय के आगे चलना भी संभव जान पड़ता है। तो क्या हम गलत होते हैं उन क्षणों में, जब समय दूर खड़ा मुंह चिढाता है। शायद नहीं, तो वे कौन से कारण हैं जिसके चलते हमारे कदम ही हमारा साथ छोड़ने लगते हैं?

हम अपने समाज के अतीत-आख्यान पर नजर डालें तो हमें उन कारणों का पता चलता है, जिसके चलते हमारे कदम समय के आगे चलने से इंकार कर देते हैं। मेरी समझ से जब हम समाज में अपनी स्थिति को रूढ मानने लगते हैं, तभी हम समय से होड़ करने में अपने को अक्षम बनाने की ओर एक और कदम बढा लेते हैं। ऐसी ही एक रूढि हमारी जाति-व्यवस्था है जो अबतक के समाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक बदलाव के बावजूद अपने वीभत्स रूप में हमारे सम्मुख विराजमान है।

मेरी कहानी एक ऐसे परिवार के बीच से शुरू होती है, जिसे मैंने होश संभालते ही जात-पाँत के मामले में उदार बने देखा। ननिहाल में भी ऐसा ही माहौल था। उस समय खेतों में काम करनेवाले मजदूरों के हित सीधे-सीधे किसानों के हित से जुड़े होते थे। उनके अपनत्व के पीछे यही कारण था कि दोनों ही वर्ग बहुत समय से जमींदारी व्यवस्था में पीसे जा रहे थे। मेरा बचपन माँ ,दादी, नानी आदि की गोद में तो बीता ही, साथ ही कुछ माँझी परिवारों की गोद में भी। आज भी वे मुझपर वही अधिकार जताते हैं और मैं उनके स्नेह-वत्सल रूप के सामने सर झुका देता हूँ। ऐसे परिवेश में भला जातीय कट्टरता के अंकुर कैसे फूट पाते।

बात 1990 की है। मैं छठी क्लास में था। मुझे राष्टीय ग्रामीण प्रतिभा खोज परीक्षा में सम्मिलित होने हेतु अपने जिला मुख्यालय नवादा जाना था। साथ में बड़े पापा को चलना था। सुबह अचानक पता चला कि आज कुछ पार्टियों द्वारा बंद का आयोजन किया गया है। बड़े पापा ने साइकिल से चलने का निर्णय लिया। पच्चीस-तीस किलोमीटर का सफर शुरू हुआ। जैसे ही हमलोग स्थानीय बाजार हिसुआ पहुंचे, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। इतने में कुछ गाड़ियां पर्चे गिराती हुई आगे निकल गई। सबकुछ अजीब लग रहा था। खैर, हमलोग आगे चल पड़े। अभी पन्द्रह किलोमीटर की दूरी और तय करना था। हमलोग जब परीक्षा केंद्र पर पहुंचे तो पता चला कि परीक्षा रद्द कर दी गई है। लोगों के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई पड़ रही थी। लेकिन उस समय मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। हमलोग वापस घर की ओर चल पड़े। रास्ते में अचानक पुलिस गाड़ियों की आवाजाही बढ गई। हिसुआ बाजार पहुंचने के पहले मृतकों एवं घायलों को लिए एंबुलेंस गाड़ियां आती दिखी। मन में किसी अनहोनी की आशंका घिरने लगी। बाजार से कुछ पहले भीड़ खड़ी थी। उन्होंने बताया कि हिसुआ में गोलीबारी हुई है और जातीय दंगे शुरू हो गए हैं, आगे मत जाइये। हमलोग अपने एक निकट संबंधी के यहाँ रुके, जहाँ एक सप्ताह से अधिक रहना पड़ा। मार-काट की घटनाओं की सूचना छिटपुट रूप से मिलती रही। बाद में पता चला कि मंडल कमीशन की अनुशंसा को लागू करने के पश्चात पूरा देश इसी तरह जल रहा था। इस तरह पहली बार अंदर सोये जातीय कट्टरता के बीज पर जैसे पानी का छींटा पड़ गया। बाल-मन में अबतक ग्रहण किए गये विचारों पर इसकी धुंधली छाया-सी पड़ने लगी। 

यह तो संयोग कहिए कि वे छींटे जल्दी ही सूख गए जब सातवीं कक्षा में पढने के दौरान मुझे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सात दिवसीय शिविर में भाग लेने वारिसलीगंज जाना पड़ा। वे सात दिन मेरे लिए अहम थे। वहाँ पहुंचते ही हमें एक अलग तरह के अनुशासन का सामना करना पड़ा यानि स्वयंसेवक बनने की प्रक्रिया शुरू हुई। रात में वहाँ उपस्थित संघ परिवार के सभी सदस्य खाने के लिए एक ही पंगत में बैठे। यह एक नया अनुभव था। अभी तक गांव में अलग-अलग जातियों को अलग पंगत में खाते देखा था। आज भी कमोबेश कई जगह यह व्यवस्था कायम है। शायद अभी और भी बहुत कुछ सीखना बाकी था। अगले दिन शाम की खेलकूद के बाद सभी को अलग-अलग पत्तल में भुना हुआ चुड़ा और मूंगफली खाने को दिया गया। अचानक हमारे वर्ग-प्रशिक्षक ने हमें रोका। हम सब उनकी ओर देखने लगे। उन्होंने सभी के पत्तलों पर रखे चुड़ा और मूंगफली को एक जगह मिला दिया और बोले,"अब सभी साथ खाओ।" थोड़े-से संकोच के साथ खाना शुरू होते ही सभी के दिमाग में पल रही कई गाँठें खुल गई। संघ जात-पाँत के बंधन तोड़ने में वाकई एक हद तक सफल हुआ है। काश! यह संगठन सभी समुदायों को इसी तरह जोड़ पाता।

बीसवीं सदी के अंतिम दशक में बिहार जाति के आधार पर हुए नरसंहारों के कारण चर्चित रहा। यही समय युवावस्था में प्रवेश का समय था। जातीय उन्माद चरम पर था, परन्तु इसके मूल कारणों पर ध्यान देने की बजाय लोग इसे बढावा देने में जुटे हुए थे। मीडिया की भूमिका भी सकारात्मक नहीं थी। युवा-मन भटकने लगता था। यह उम्र ही भावुकता की होती है, पर कुछ रचनात्मक करने का भी यही वक्त होता है। यह षड्यंत्रों को समझने का भी समय होता है। दरअसल कुछ बड़े माफिया इसकी आड़ में अपना हित साध रहे थे। आज ये लोग सदनों की शोभा बढा रहे हैं। वहाँ ये अपने हित के लिए कट्टर विरोधियों से भी हाथ मिला लेते हैं और हम सामान्य जनता मन में भेदभाव रखे रह जाते हैं। यही स्थिति समाज को समय के साथ होड़ कर चलने में बाधा पहुंचाती है। बस भावुकता की अंधी गलियों में नहीं भटक, परिस्थिति का यथार्थपरक मूल्यांकन कर आगे बढें तो संभावनाएं स्वतः अपना द्वार खोले खड़ी मिलेगी।


लघु पत्रिकाएं : भूमिका और सरोकार

किसी पत्रिका को खरीदते समय हमारी नजर उसके नाम के साथ जुड़ी टैग लाईन पर भी जाती है। देखकर पता चलता है कि पत्रिका तो जनसंघर्ष से सरोकार रखती है, पर अंदर की सामग्री देख हम ठगे रह जाते हैं। अभिजन की आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करती ऐसी पत्रिकाएं पूर्णतः प्रायोजित होती हैं जिनके संपादक महानगरों के वातानुकूलित कमरे में बैठ सत्ता एवं कुलीन वर्ग के साथ कदम–दर–कदम चलकर चैन की वंशी बजाते हैं। सत्ता आखिर इससे अधिक क्या चाहेगी ?

अगर सत्ता एवं उसकी मशीनरी इन कुपंथियों के कारण आश्वस्त रहे तो फिर जनचेतना का नेतृत्व कौन करेगा ? प्रेमचंद का मानना था कि साहित्य राजनीति के आगे–आगे चलने वाली मशाल है, पर आज के परिदृश्य को देखकर लगता है कि साहित्य राजनीति की धुरी पर लगातार चक्कर लगाती जा रही है जिसके केंद्र में सत्ता है। ऐसी स्थिति में साहित्य को बचाने का दारोमदार लघु पत्रिकाओं पर आ जाता है। वे ही जन–सरोकार की बातों को सामने लाती हैं।

लघु पत्रिका आन्दोलन की शुरुआत आजादी के पश्चात उस समय शुरू हुई जब रचनाकारों के एक वर्ग ने महसूस किया कि सत्ताश्रयी एवं सेठाश्रयी पत्रिकाएं वैचारिक दवाब एवं अपने व्यवसायिक हितों के चलते एक ही तरह की रचनाएं छाप रही हैं तथा उनकी स्थिति रुढ हो गई है। नव विचारों की ग्रहणीयता उन्हें मंजूर नहीं थी तथा साहित्यिक विधा में नया प्रयोग करना खतरे से खाली न था। ऐसे समय में परिवर्तनकारियों के छोटे–छोटे समूहों ने अपने सहयोग एवं प्रतिबद्धता की बदौलत 'लघु पत्रिका' आन्दोलन की शुरुआत कर दी। चाहे अकविता/अकहानी का दौर हो या साठोतरी कहानी की धमक, नई कविता/नई कहानी का आन्दोलन या वामपंथ विचारधाराओं का दौर...बड़ी पत्रिकाएं इन परिवर्तनों को स्वीकार नहीं कर पाती थीं। इस कारण प्रतिबद्ध रचनाकारों के छोटे–छोटे समूहों ने आपसी सहयोग, सीमित बजट एवं छोटे स्तर पर प्रचार–प्रसार की बदौलत अपनी वैचारिकता एवं प्रतिरोध को लघु पत्रिकाओं में दर्ज करना शुरू कर दिया तथा यह काफी सफल भी हुआ। ये पत्रिकाएं मुख्यतः सत्ता एवं पूँजीवाद का प्रतिरोध करती हैं तथा जन–सरोकार एवं जन–चेतना को विस्तार देती हैं। जीवन के अधूरेपन को विभिन्न विधाओं में व्यक्त करने का कार्य साहित्यिक एवं वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध रचनाकारों द्वारा किया जा रहा है। लघु पत्रिकाओं का सीमित बजट इसके विस्तार एवं प्रसार में बाधा बनती है, पर वैचारिक प्रतिबद्धता इसे बनाए रखती है। लोक के प्रति समर्पित बांदा से निकलने वाली पत्रिका 'लोकविमर्श 2' के प्रथम पृष्ठ पर छपा नोट लघु पत्रिका आन्दोलन के ईमानदार प्रयास को स्वतः व्यक्त कर देती है―" पत्रिका निजी संसाधनों से संचालित है। किसी भी तरह का विज्ञापन व आर्थिक सहयोग किसी संस्था से नहीं लिया जाता...साथ ही संपादकीय टीम के सभी सदस्य अवैतनिक हैं। पत्रिका से किसी भी किस्म का कोई आर्थिक लाभ किसी सदस्य को प्राप्त नहीं होता है।"  वहीं यह भी सत्य है कि कुछ पत्रिकाएं आज सत्ता एवं व्यवसायिक संस्थाओं द्वारा प्रायोजित हैं तथा खूब फल–फूल रही हैं। पर यह समय निराश होने का नहीं है। आज हमारे बीच कई लघु पत्रिकाएं पूरे उत्साह से लोक के प्रतिरोध को रच रही हैं...साहित्य को अभिजात्य विचारधारा की जकड़न से मुक्त कर रही हैं। जनपथ, कृतिओर, लहक, यात्रा, अनहद, लोकविमर्श, दुनिया इन दिनों, बाखली एवं लोकोदय जैसी लघु पत्रिकाएं इस समय हिंदी साहित्य में अपनी भूमिका का निर्वहन ईमानदारीपूर्वक कर रही हैं। 

बिहार के आरा से निकलने वाली पत्रिका 'जनपथ' आज परिचय की मोहताज नहीं है। अनंत कुमार सिंह के संपादन में यह आज बड़ी दृढता से जन के पक्ष में खड़ी है। सच तो यह है कि 'जनपथ' अनंत दा की साधना है। आज के समय में जब आमजन की उम्मीदों को ध्वस्त करने की सर्वत्र तैयारी है...इस पत्रिका ने अपने दायित्व के निर्वहन कोई कसर नहीं छोड़ रखा है। इस श्रंखला में अगली महत्वपूर्ण पत्रिका बदायूँ से छपने वाली 'कृतिओर' है जो लोकचेतना की सशक्त पक्षधरता का निर्वहन दृढतापूर्वक कर रही है। विजेन्द्र के संरक्षण एवं डॉ. अमीरचन्द वैश्य के संपादन में यह लोक–सरोकार के रचनाकारों को निरंतर जगह देती हुई आज के समय की एक जरूरी पत्रिका बनी हुई है।

गणेश पांडेय के संपादन में गोरखपुर से निकलने वाली पत्रिका 'यात्रा' सच में लोक की यात्रा कराती है। यह पत्रिका हाशिये पर रख दिए गए जन एवं उनके हिमायती रचनाकारों को अपना मंच प्रदान करती है। महानगरों के बड़े मठों के द्वारा साजिशन उपेक्षित लोक के महत्वपूर्ण रचनाकारों की रचनाएं इसमें शामिल होती हैं। यात्रा–11 इसी क्रम में छपकर निकली है जिसमें देश के विभिन्न भागों में जनसंघर्ष को अपनी आवाज देने वाले कवियों की रचनाएं सम्मिलित हैं। जन-सरोकार  वाली पत्रिकाओं  की अगली कड़ी में नई दिल्ली से निकलने वाली पाक्षिक पत्रिका 'दुनिया इन दिनों' एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। यह मुख्यतः राजनीतिक एवं साहित्यिक–सांस्कृतिक खबरों एवं रचनाओं को प्रमुखता से प्रकाशित करती है। लीक से हटकर अपनी विषय–विविधता, भाषाई आस्वाद एवं जमीन से जुड़े सरोकार के कारण इस पत्रिका का इंतजार पाठकों को बेसब्री से रहता है। साहित्य की हर विधा को अपने में समेटे सुधीर सक्सेना जैसे कवि के संपादन में यह लोक की सशक्त अभिव्यक्ति बन चुकी है।

इलाहाबाद से निकलने वाली 'अनहद' निश्चित रूप से साहित्य की साधना का परिणाम है। संतोष चतुर्वेदी के संपादन में इस पत्रिका ने आज अपनी साख साहित्यिक परिवेश में बना ली है। साहित्य की सभी विधाओं को सम्मिलित करते हुए उसकी गुणवत्ता बनाए रखने का कार्य संपादक बखूबी कर रहे हैं। कोलकाता से निकलने वाली 'लहक'  अपने उद्देश्य एवं कलेवर के प्रति सजग रहकर आगे बढने वाली महत्वपूर्ण पत्रिका है। निर्भय देवयांश के संपादन में यह लोक की वैचारिक चेतना का प्रतिनिधित्व करती है। एक तरफ लोक–संघर्ष की बात करनेवाली रचनाएं इसमें जगह पा रही हैं तो दूसरी तरफ लोक का मुखौटा लगाकर सत्ता की मलाई खाने वाले साहित्यकारों का सच इसके द्वारा सामने लाया जा रहा है।

लघु पत्रिकाओं के स्वरूप एवं सरोकार की चर्चा करते हुए इस साल लोक–चेतना एवं संघर्ष को मुख्य मुद्दा बनाकर उतरने वाली पत्रिकाओं में डॉ. गिरीश पांडेय 'प्रतीक' के संपादन में 'बाखली' का प्रवेशांक हमारे सामने आ चुका है। उत्तराखंड के पिथौरागढ़ से निकलने वाली पत्रिका के अंक ने साहित्यिक समाज को आकर्षित किया है। लोक–संस्कृति एवं उसके संघर्ष को व्यक्त करती यह पत्रिका लंबी राह की सहयात्री है। लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ से छपकर जनपक्षधर लोकधर्मी साहित्य की त्रैमासिकी 'लोकोदय' आपके समक्ष पहुंच चुकी होगी या पहुंचने वाली होगी। लोकविमर्श आंदोलन का महत्वपूर्ण अंग बनी यह पत्रिका भावना मिश्रा के संपादन में साहित्य की विभिन्न विधाओं को समेटती हुई लोक के यथार्थ को सामने रख रही है।

अभी आप 'लोकविमर्श' स्वयं पढ रहे हैं; अतः इस संबंध में कुछ कहना मेरी वाचालता मानी जाएगी। जनवादी लेखक संघ बांदा के संपादन में यह आन्दोलन के रूप में अग्रसर है। संपादक द्वारा 'लोकविमर्श 1' में यह घोषणा की गई है―" यह सिर्फ पत्रिका नहीं बल्कि आन्दोलन है। यह आन्दोलन महानगरों से दूर रहनेवाले  तथा आलोचकों की नजरों से ओझल प्रतिबद्ध रचनाकारों का है।" निश्चित ही इस पत्रिका ने उम्मीद बढा दी है। इसकी समीक्षा आप मुझसे बेहतर कर सकेंगे।

मेरी जानकारी की अपनी एक सीमा है। कोई जरूरी नहीं कि जनसरोकार वाली लघु पत्रिकाएं इतनी ही हैं या लोक का पक्ष सिर्फ यही सब ले रही हैं। कई सारी पत्रिकाएं आपकी नजरों से गुजरी होगी जिन्हें आप अपनी कसौटियों पर खरा मानते हों। बस वैचारिक रूप से सशक्त एवं जन–प्रतिरोध को अभिव्यक्त करनेवाली इन पत्रिकाओं को हमारा लगातार समर्थन मिलते रहना चाहिए ताकि लोक का पक्ष सत्ता एवं पूँजीवादी ताकतों की साजिश की धुंध में न खो जाए।