बिहार में स्त्री लेखन : अरुण नारायण




लेखक पत्रकार अरुण नारायण हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं की बदलती एवं विकसित होती प्रवृतियों पर गहरी नजर रखते हैं। इस क्रम में उन्होंने स्त्री विमर्श के विभिन्न आयामों के सन्दर्भ में बिहार में स्त्री लेखन की पड़ताल की है


स्त्री विमर्श की प्रभावी कहानियां पुरुष लेखकों ने लिखी हैं : अरुण नारायण

अगर बिहार में स्त्री लेखन की बात करें तो इसकी जड़ें हमें यहां की लोकभाषाओं और लोकगीतों में मिलती हैं। भिखारी ठाकुर और महेंदर मिसिर के नाटकों व लोक गीतों खासकर उनके पूरविया गीतों ने पहली बार स्त्री विमर्श की पीठिका तैयार की जिसका विस्तार बाद के हिन्दी साहित्य लेखन में अलग-अलग लेखकों ने अपने तरीके से किया। 90 के दशक में हिन्दी में जब अस्मितावादी लेखन ने जोर पकड़ा तो दलित और स्त्री लेखन की गहरी तफ्तीश होनी शुरू हुई। बिहार को यह श्रेय जाता है कि एशियाई लेखन में 18वीं सदी में जो तीन लेखिकाएं सामने आईं उनमें से एक रशीदुनिसा बेगम बिहार की थीं। तत्कालीन मुस्लिम समाज में उनके इस लेखन की उन्हें कितनी कीमत उठानी पड़ी इसके बारे में उन्होंने अपने अनुभव लिपिबद्ध किए हैं।

दुनिया के अन्य समाजों की तरह ही बिहारी समाज में भी जर्बदस्त महिला विरोधी माहौल रहा है। 1920 के दशक में बिहार में महिलाओं को मताधिकार देने का प्रस्ताव बिहार विधान परिषद में लाया गया तो उसे पास होने में लगभग 10 साल लग गए। दो बार यह प्रस्ताव फेल हुआ। इस मामले में हिन्दू और मुस्लिम दोनों नेता एकमत थे कि महिलाओं को यह अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। आजादी के आंदोलन में गांधी की टीम में भी जो महिलाएं आयीं महज पारंपरिक सेवाभाव की मूर्ति से आगे उनका कोई वजूद स्वीकार नहीं किया गया। 1960-70 के दौर में नक्सलबाड़ी आंदोलन ने पहली बार स्त्री अस्मिता के सवाल को मुखर ढंग से खड़ा किया। इसी दौर में मेरी टेलर बदलते हुए भारत का मुआयना करने आती हैं और यहां के विषम जेल जीवन से उनका साबका पड़ता है। उन्होंने ‘भारतीय जेलों में पांच साल’ नामक पुस्तक लिखी। महिला अधिकारों को लेकर सी.पी.आई. (एम.एल.) ने बहुत सारी लड़ाइयां लड़ीं। आज भी ऐपवा के नतृत्व में अपनी तरह से उनका संघर्ष जारी है। लेकिन बोध गया भूमि आंदोलन ने स्त्री विमर्श को सर्वाधिक तार्किक परिणति तक पहुंचाया। पहली बार जमीन का मालिकाना हक स्त्री के नाम किए गए। इस आंदोलन ने संगठन, सोच हर स्तर पर स्त्रियों को एक स्वतंत्र इकाई के रूप में खड़ा किया। उसके बाद बिहार की पंचायतों में महिलाओं को मिले जनप्रतिनिधित्व ने बदलाव की पूरी दिशा ही मोड़ दी। मोटे तौर पर बिहार में महिला आंदोलन की यही धाराएं रही हैं जिनके आसंग में आप स्त्री विमर्श और महिला लेखन की तफ्तीश कर सकते हैं। 

साहित्य लेखन में पहली बिहारी लेखिका कौन थीं, उनका साहित्य दर्शन क्या था, यह तथ्य आज भी रहस्य बना हुआ है। पुरानी दौर की पत्रिकाओं में 1970 के आसपास प्रकाशवती नारायण, रश्मि तनखा, बिन्दु सिन्हा आदि लेखिकाओं की कहानियां नजर आती हैं। बाद के दिनों में निर्मला ठाकुर, रमा सिंह, सुशीला सहाय, काबेरी, मुदुला सिन्हा, मृदुला बिहारी, मृदुला शुक्ला, ऋता शुक्ल, उषा किरण खान, वीणा सिन्हा आदि लेखिकाएं नजर आती हैं। इनके बाद नीलिमा सिन्हा, नीलिमा सिंह, पूनम सिंह, नीला प्रसाद, विभा रानी, उषा ओझा, सोमा भारती, दूर्वा सहाय, मृदुला झा, आशा प्रभात, सुजाता चैधरी आदि लेखिकाएं आती हैं। नई सदी में निलाक्षी सिंह, कविता, पंखुरी सिन्हा, गीताश्री, वंदना राग, विद्यालाल, भावना शेखर, रश्मि कुमारी, सोनी सिंह, शिताक्षी सिंह, ज्योति कुमारी आदि लेखिकाएं आती हैं। 

ये विभिन्न आयु वर्ग और विविध भौगोलिक क्षेत्रों से आती हैं। जाहिर है इनके लेखन में भी पर्याप्त विविधता है। इनमें वर्गीय भिन्नता है, लेकिन ज्यादातर लगभग उच्च वर्गों से ताल्लुक रखती हैं इस कारण इनकी अपनी सीमाएं भी नजर आती हैं। कमोबेश यही स्थिति लेखन की अन्य विधाओं की भी रही है। कविता विधा में राधा कुमारी, अनामिका, सविता सिंह, साजीना, निर्मला गर्ग, रश्मि रेखा, उतिमा केशरी, मंजुला उपाध्याय मंजुल, कल्पना सिंह, नीलिमा चैहान, नीलिमा सिंह, मीरा श्रीवास्तव, रानी श्रीवास्तव, नताशा, अनुप्रिया आदि लेखिकाओं का सृजन महिला जीवन के व्यापक सरोकार को एड्रेस करता है। 

बिहार में महिला लेखन में उषाकिरण खान की सर्वाधिक ख्याति रही है। लेकिन मेरा मानना है कि उनका संपूर्ण लेखन स्त्री विमर्श से बाहर का लेखन है। उनके लेखन में स्त्री अस्मिता के आधारभूत बुनियादी मुद्दे सिरे से गायब रहे हैं। उनकी स्त्रियां ब्राहणवादी खांचे से बाहर कभी निकलती ही नहीं। इसी तरह मृदुला सिन्हा, मुदुला बिहारी, आशा प्रभात आदि लेखिकाएं भी धार्मिक कर्मकांडों से बाहर नहीं निकलीं। नई लेखिकाओं में गीताश्री और वंदना राग और कुछ हद तक अनामिका के लेखन में भी स्त्री स्वाधीनता के नाम पर देह प्रदर्शन और सेक्स स्वछंदता की रोमांचकारी दौड़ जारी है। जाहिर है, यह कहीं से भी स्त्रीवादी लेखन नहीं है... हो भी नहीं सकता। पुरानी लेखिकाओं में नीलिमा सिन्हा और नई लेखिकाओं में निलाक्षी सिंह के लेखन में स्त्री विमर्श के गहरे स्वर बहुत सशक्त ढंग से सुनाई पड़ते हैं। लेकिन ये दो लेखिकाएं अपवाद हैं अन्यथा ज्यादातर के लेखन से आप यह नहीं कह सकते कि वे स्त्री विमर्श की पीठिका तैयार कर रही हैं। बल्कि सच तो यह है कि बिहार के पुरुष लेखकों ने स्त्री जीवन की जितनी उम्दा कहानियां लिखी हैं उतनी यहां की स्त्री लेखिकाओं ने नहीं लिखीं। इसकी तस्दीक बिहार की पंचायतों में महिलाओं को जनप्रतिनिधित्व का जो अधिकार दिया गया उस बदलाव से की जाए तो स्थिति थोड़ी समझ में आएगी। इस बदलाव पर ज्यादातर सार्थक और स्त्री जीवन के नजरिये को अलगाने वाली कहानियां रामधारी सिंह दिवाकर (रंडियां) शंभू पी सिंह (जनता दरबार) सरीखे पुरुष लेखकों ने लिखी जबकि इस विषय पर एक मात्र कहानी ‘तैतींस परसेंट’ नीलिमा सिन्हा ने लिखी हैं। बिहार के स्त्री लेखन की एक और बड़ी सीमा यह है कि वहां आत्मावलोकन का सर्वथा अभाव है। यह सीमा बिहार के अन्य लेखकों की भी रही है लेकिन जब तक इसकी पूर्ति नहीं की जाएगी कोई भी लेखन सार्थक और मूल्यवान नहीं हो पाएगा। 

संपर्क :
अरुण नारायण 
मोबाइल : 8292253306
ईमेल - arunnarayanonly@gmail.com

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

बहुत बहुत आभार,आपका यह प्रयास अमूल्य है।