कुच्ची का कानून या मनु का विधान

शुरू में ही स्पष्ट कर दूं कि यह प्रसिद्ध कहानीकार शिवमूर्ति रचित लघु उपन्यास ‘कुच्ची का कानून’ की न तो आलोचना है न ही समीक्षा। बस इसकी कथावस्तु में समाहित विचार एवं दर्शन को आज की प्रगतिशीलता एवं उत्तर आधुनिकता के मानक पर ठीक‌‌-ठीक रखकर देखना ही प्रमुख उद्देश्य है। मैंने इसके पूर्व शिवमूर्ति की कोई रचना नहीं पढी है, इस कारण उनके संबंध में कोई पूर्वाग्रह या विशेष लगाव नहीं है।

इस रचना का मुख्य उद्देश्य स्त्री की अस्मिता एवं अधिकार पर लगा प्रश्नचिह्न्‌ हटाना है, जिसका पता कहानी के आरम्भ में ही चल जाता है। कहानी कुच्ची के कोख की जानकारी से ही आगे बढती है, जिसकी वैधता उसे साबित करनी है क्योंकि उसका पति बजरंगी दो वर्ष पूर्व ही जहरीली शराब के सेवन से मर चुका है। कुच्ची के सामने चुनौतियों का पहाङ खङा है। जाहिर है पुराणों एवं स्मृतियों द्वारा निर्धारित विवाह एवं अन्य संस्थाओं तथा रुढियों का भार अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में स्त्रियां ही उठाती रहीं हैं। उन्हें वस्तुमात्र बनाकर पुरुषों के भरोसे सारा जीवन गुजार देने का विधान इन्हीं स्मृतियों द्वारा बनाया गया है। प्राचीन काल से चली आ रही रुढियों को ढोने के लिये आज भी उन्हें समाज द्वारा बाध्य किया जाता है। तभी तो कुच्ची संघर्षशील होने के बावजूद कहती है---“मैं अपने कोख का उद्धार करना चाहती थी। बचपन से सुनती आ रही हूं कि कोख का उद्धार तभी होता है जब कोख फले। अपने ‘जन्मे’ को दूध पीलाकर मैं माँ के दूध से ‘उरिन’ होना चाहती थी।”

कुच्ची अपनी सुरक्षा एवं सास-ससुर की सेवा के खातिर अपने कोख में पल रहे बच्चे को जन्म देना चाहती है, पर इसमें कुछ कम बाधा नहीं है। पंचायत में बलई बाबा कुच्ची के कोख में पल रहे बच्चे को कानूनी वारिस मानने से इंकार कर देते हैं। वे कहते हैं‌‌--“नाजायज संतान को प्रापर्टी में धेला भी नहीं मिलेगा। “इसके लिये वे पुराणों एवं स्मृतियों के कानून का सहारा लेते हैं। वे कहते हैं—“अरे मूरख, कानून रोज-रोज थोङे लिखा जाता है। विरासत का कानून याज्ञवल्क्य मुनि हजारों साल पहले लिख गये हैं। हजार साल पहले तो उसकी टीकायें लिखीं गयीं—मिताक्षरा, दायभाग, एकाध और। अपने यहाँ विज्ञानेश्वर की लिखी मिताक्षरा चलती है। बिहार में जीमूतवाहन की लिखी दायभाग। खैर, यह तेरी समझ में क्या आयेगा। इस गांव में ही किसी ने याज्ञवल्क्य मुनि का नाम नहीं सुना होगा।” तब कोख पर अपने हक के संबंध में कुच्ची कहती है—“जब मेरे हाथ, पैर, आँख, कान पर मेरा हक है, इन पर मेरी मर्जी चलती है तो कोख पर किसका होगा, उस पर किसकी मर्जी चलेगी, इसे जानने के लिये कौन-सा कानून पढने की जरूरत है।” वह पलटकर पंचायत से ही पूछती है, “बात से कायल कर दीजिये या कायल हो जाइये। मेरी कोख पर मेरा हक है कि नहीं?”

यहाँ तक कहानी अपनी सही राह चलती है। इसके बाद खुद रचनाकार कुच्ची के सवाल का जवाब अपनी मौलिकता में खोज नहीं पाते हैं। लगता है कि पंचायत की चुप्पी उनकी ही चुप्पी है। इस चुप्पी को कुच्ची ही तोङती है।
“----मेरे सवाल का जवाब आप सबके मन में है। आप देना नहीं चाहते। अब मैं दूसरा सवाल पेश करती हूं। मेरे इस सवाल के पेट से ही चौधरी बाबा के सवाल का जवाब निकलेगा। मेरा सवाल है कि फसल पर पहला हक किसका है? खेत का कि बीज का? अगर पंच फैसला करते हैं कि फसल पर खेत का हक है तो पंच मुझसे बच्चे के पिता का नाम पूछने का हकदार नहीं बनते। अगर फैसला बीज के हक में होता है तो मैं बच्चे के पिता का नाम पेश कर दूंगी।”

कुच्ची का यह सवाल लेखक का मौलिक सवाल नहीं है। इसके लिये वे मनुस्मृति की शरण में चले जाते हैं। अब कुच्ची के सवाल के में निहित मनु के विधानों की संगतता पर नजर डालते हैं जो मनुस्मृति के नवम्‌ अध्याय से उद्धृत हैं। इस अध्याय में स्त्री-पुरूष के संबंधों एवं उत्तराधिकार के नियमों की व्याख्या की गयीं है। मनुस्मृति के नवम्‌ अध्याय के 33वें श्लोक को देखते हैं जहाँ से यह सवाल शुरू होता है---
क्षेत्रभूता स्मृता नारी बीजभूतः स्मृतः पुमान्‌ ।
क्षेत्रबीजसमायोगात्संभवः सर्वदेहिनाम्‌ ।।३३।।
अर्थात्‌ स्त्री खेतरूप और पुरुष बीजरूप होता है। खेत और बीज के संयोग से ही सभी प्राणियों की उत्पत्ति होती है।
अब सवाल यह उठता है कि रचनाकार स्त्री की संवेदना को दरकिनार कर बीज और खेत का वह सिद्धांत क्यों चुनते हैं जो मनु द्वारा दिया गया है? क्या उनकी प्रगतिशीलता एवं मौलिकता इतनी कमजोर हो चली थी कि उन्हें मनुस्मृति का सहारा लेना पङा।...या फिर वे मनु के विधान को आज के आधुनिक एवं प्रगतिशील समाज में भी तर्क-वितर्क द्वारा प्रासंगिक ठहराना चाहते हैं। अब कुच्ची के सवालों का जवाब देखिए।

लछिमन चौधरी कहते हैं---“मेरे विचार से तो बीज ही परधान है।खेत किसी का हो, जो बोया जायेगा, वही पैदा होगा। आम के बीज से आम। बबूल के बीज से बबूल। बोया बीज बबूल का, आम कहाँ से होय?”

अब मनुस्मृति के उस अंश को देखते हैं जिसपर लछिमन चौधरी का संवाद आश्रित है---
बीजस्य चैव योन्याश्च बीजं उत्कृष्टं उच्यते ।
सर्वभूतप्रसूतिर्हि बीजलक्षणलक्षिता ।।३५।।
यादृशं तूप्यते बीजं क्षेत्रे कालोपपादिते ।
तादृग्रोहति तत्तस्मिन्बीजं स्वैर्व्यञ्जितं गुणैः ।।३६।।
अर्थात्‌ बीज और खेत में बीज प्रधान है, क्योंकि सभी जीवों की उत्पत्ति बीजों के लक्षणानुसार ही होती है। जिस प्रकार का बीज उचित समय पर खेत में बोया जाता है, उसके गुण जैसा ही पौधा खेत में उत्पन्न होता है।
इयं भूमिर्हि भूतानां शाश्वती योनिरुच्यते ।
न च योनिगुणान्कांश्चिद्बीजं पुष्यति पुष्टिषु ।।३७।।
भूमावप्येककेदारे कालोप्तानि कृषीवलैः ।
नानारूपाणि जायन्ते बीजानीह स्वभावतः ।।३८।।
अर्थात्‌ यह भूमि सभी प्राणियों का शाश्वत्‌ उत्पत्ति स्थान है, परंतु भूमि के गुण से बीज पुष्ट नहीं होता है| एक समय में एक ही खेत में किसान अनेक बीज बोते हैं, परंतु सभी बीजों से अपने-अपने स्वभावानुसार अनेक प्रकार के पौधे उत्पन्न होते हैं।
व्रीहयः शालयो मुद्गास्तिला माषास्तथा यवाः ।
यथाबीजं प्ररोहन्ति लशुनानीक्षवस्तथा ।।३९।।
अन्यदुप्तं जातं अन्यदित्येतन्नोपपद्यते ।
उप्यते यद्धि यद्बीजं तत्तदेव प्ररोहति ।।४०।।
अर्थात्‌ धान, मूंग, तिल, उङद, यव, लहसुन और ईख---सभी अपने बीज के अनुसार ही उत्पन्न होते हैं। ऐसा कभी नहीं होता कि बोया कुछ हो और उत्पन्न कुछ हो जाये। जो बीज बोया जाता है वही उत्पन्न होता है।

रचनाकार लछिमन चौधरी का जवाब सुघरा से दिवाते हैं जो गाँव की एक विधवा ठकुराईन है।
----सवाल यह नहीं है कि बोने से क्या पैदा होगा। इसे तो पीछे बैठकर हँस रहा वह बग्गङ भी जानता है। फिर सुघरा बोलती है-----सवाल यह है कि फसल पर हक किसका होगा? एक आदमी अपने खेत में गेहूं बो रहा है। उसके बीज के कुछ दाने बगल के जौ के खेत में छिटक कर चले गये। फसल तैयार होने पर साफ पता चल रहा है कि गेहूं के पौधे बगल वाले के बीज से पैदा हुये हैं। तो क्या गेहूं के खेत वाला जौ के खेत में उगे गेहूं के उन पौधों पर अपना हक जता सकता है?

बिल्कुल नहीं। कई आवाजें आती हैं---जिसके खेत में पैदा होता है, वही काटता है।

अब सुघरा के संवाद की संगतता मनुस्मृति के साथ देखते हैं---
येऽक्षेत्रिणो बीजवन्तः परक्षेत्रप्रवापिणः
ते वै सस्यस्य जातस्य न लभन्ते फलं क्व चित् ।।४९।।
अर्थात्‌ जिसके पास अपना खेत नहीं है, यदि वह दूसरों के खेत में बीज बोता है तो वे उस खेत में उत्पन्न हुए अनाज के हकदार नहीं होते हैं।
यदन्यगोषु वृषभो वत्सानां जनयेच्छतम् ।
गोमिनां एव ते वत्सा मोघं स्कन्दितं आर्षभम् ।।५०।।
तथैवाक्षेत्रिणो बीजं परक्षेत्रप्रवापिणः ।
कुर्वन्ति क्षेत्रिणां अर्थं न बीजी लभते फलम् ।।५१।।
अर्थात्‌ यदि दूसरों की गायों से सांङ सौ बछङे भी पैदा करे तो भी वे बछङे गाय वालों के होते हैं। सांङ का यह वीर्यसंचन निष्फल होता है। उसी प्रकार बिना खेत वाले का बीज दूसरे के खेत में बोने पर निष्फल जाता है। बीज वाला फल नहीं पाता।
फलं त्वनभिसंधाय क्षेत्रिणां बीजिनां तथा
प्रत्यक्षं क्षेत्रिणां अर्थो बीजाद्योनिर्गलीयसी ।।५२।।
अर्थात्‌ जहाँ पर खेत के मालिक और बीज बोने वालों में कोई बात निश्चित नहीं हुई हो तो फल खेत के मालिक का होता है क्योंकि बीज से श्रेष्ठ खेत है।
क्रियाभ्युपगमात्त्वेतद्बीजार्थं यत्प्रदीयते ।
तस्येह भागिनौ दृष्टौ बीजी क्षेत्रिक एव च ।।५३।।
ओघवाताहृतं बीजं यस्य क्षेत्रे प्ररोहति ।
क्षेत्रिकस्यैव तद्बीजं न वप्ता लभते फलम् ।।५४।।
अर्थात्‌ जिस व्यक्ति का खेत है, फल भी उसीका है। जिस व्यक्ति ने बीज डाला है, फल उसका नहीं माना जाता। जिस खेत की उपज के विषय में खेत और बीज के मालिक के बीच आपस में तय हो गया है, उस खेत के फल में दोनों लोग भागी होते हैं। जो बीज जल या वायु के प्रवाह में दूसरे खेत में गिर कर उत्पन्न होते हैं, उसके फल का भागी खेत वाला ही होता है न कि बीज बोने वाला।

इस तरह हम देखते हैं कि मनु के विधान को जिस तरह प्रगतिशील विचारों में बदलने की जो साजिश की गयी है यह पाठकों के साथ धोखा ही नहीं है वरन रचानाकार के रचनाकर्म पर ही सवालिया निशान लगा देती है। अब मनु का वह विधान देखा जाय जो स्त्रियों को पशु की श्रेणी में रखती है।
एष धर्मो गवाश्वस्य दास्युष्ट्राजाविकस्य च।
विहंगमहिषीणां च विज्ञेयः प्रसवं प्रति ।।५५।।
इसमें कहा गया है कि बीज एवं खेत संबंधी यही व्यवस्था गाय, घोङा, दासी, ऊंट, बकरी, भेङ, पक्षी और भैंस की संतति के लिये भी मानना चाहिये।

क्या हम स्त्रियों के लिये यही व्यवस्था चाहेंगे जो उन्हें पशु की श्रेणी में रखे। उनकी संवेदनाओं का क्या कोई मूल्य नहीं? यहाँ हम देखते हैं कि रचना अपने मूल उद्देश्य से ही भटक गयी है। एक तरफ लेखक स्त्री कि अस्मिता एवं अधिकार के लिये संघर्ष में स्मृतियों और पुराणों को मृत मनते हुए स्त्रियों के संघर्ष को तार्किकता एवं आधुनिकता की कसौती पर कसना चाहते हैं वहीं दूसरी तरफ इस हेतु ‘मनुस्मृति’ के विधान को सामने लाने जैसा आत्मघाती कदम उठा लेते हैं। फिर अंत में वे स्मृतियों के विधान को झूठा एवं अप्रासंगिक ठहराने का दिखावा भी करते हैं जिसका पता निम्न उद्धरण से चलता है---
“बाजार से आयी महिलाओं के बीच से एक लङकी खङी होती है-----याज्ञवल्क्य कबके मर मरा गये लेकिन उनका बनाया फंदा अभी भी औरतों के गले में फंसा हुआ है। वक्त आ गया है कि मरे हुओं का कानून मरे हुओं के साथ दफन कर दिया जाये। ऐसा कानून बने जिससे हम भी जिंदा लोगों की तरह जिंदा रह सकें।“

सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि नगरों एवं शहरों कि स्त्रियाँ गाँव की स्त्रियों की अपेक्षा अधिक प्रगतिशील एवं आधुनिक होती हैं, पर रचनाकार उनके माध्यम से कोई आधुनिक कानून-व्यवस्था की व्याख्या नहीं करवाते हैं जबकि तीन-तीन औरत वकील पंचों की बराबरी में बैठती हैं। क्या उनका चुप रहना लेखक की चुप्पी की ओर ईशारा नहीं करता है? आँगनबाङी कार्यकर्ताओं, ग्राम सेविकाओं, स्वास्थ्य केंद्र की दाईयों, बैंक एवं ब्लॉक की कर्मचारियों और अध्यापकों की संख्या पंचायत में झुंड बनाकर बैठती हैं। परंतु ये सब बैठे-बैठे मोबाईल में फोटो खींचने के अलावा बहस में कोई योगदान नहीं दे पाती हैं। वे आम मध्यमवर्गीय लोगों की तरह मात्र नैतिक समर्थन दे पाती हैं, जबकि उनके साथ एक प्रशासनिक अधिकारी एडीओ पंचायत भी आयी है। आखिर रचनाकार क्या दिखाना चाहते हैं? यही कि हमारे शहरों की आधुनिक एवं प्रगतिशील स्त्रियाँ केवल सेल्फी खींचने एवं तमाशा देखने के ही काबिल हैं। आजकल नगरों में आईवीएफ क्लिनिक, सरोगेसी, स्पर्म डोनर की चर्चा आम है। ऐसे आधुनिक समय में महिला मोर्चा की सदस्या मनोरमा कुच्ची द्वारा कोख के मुद्दे के सवाल पर कहती है---“दरअसल यह बहुत आगे का मुद्दा है, लेकिन गाँव में रहकर जब तुम्हारे जैसी औरत इसकी जरूरत महसूस कर रही है, इस मुद्दे को उठा रही है तो देरसबेर इसे वक्त की आवाज बनना होगा।” जबकि बाजार की ही नर्स कुट्टी के बिना शादी एक बच्चा बनाने की बात लेखक इससे पहले कह चुके हैं जिसे वह गिफ्ट लेना कहती है। इसी तरह के और किस्से वह कुच्ची को बतलाती है। लगता है लेखक अपने ही पूर्वकथनों से तारतम्यता बना नहीं पाये हैं।

आखिर क्या कारण है कि वे आधुनिक शहरी समाज की महिलाओं को पिछङा दिखाते हैं जबकि गाँव की पिछङी महिला को संघर्षशील एवं जागरूक? चूंकि उनके पास कोख के अधिकार संबंधी कोई मौलिक तर्क नहीं है, जो आधुनिक एवं प्रगतिशील समाज के जीवन-दर्शन के अनुकूल हो। इक्कीसवीं सदी में भी इसका समाधान वे मनुस्मृति में ही पाते हैं। वह मनुस्मृति जो पुरुषों के सामने स्त्रियों की संवेदना को कोई महत्व नहीं देती है बल्कि सारी जिंदगी उन्हें पुरुषों के नियंत्रण में जीने का विधान रचती है। मेरी समझ से कोख पर प्राथमिक क्या...संपूर्ण अधिकार स्त्री का ही है। उसकी संवेदना ही आखिरी तर्क है चाहे वह कोख विवाह नामक संस्था से अलग या बलात्कार का ही परिणाम क्यों न हो।

इस प्रकार हम देखते हैं कि ‘कुच्ची का कानून’ ‘मनु के विधान’ का ही आधुनिक रुपांतरण है क्योंकि इस रचना में मनु के विधान के आधार पर ही कुच्ची को कोख का अधिकार मिल पाता है। कुच्ची की संवेदना को दरकिनार कर याँत्रिक तर्क-वितर्क को लेखक महत्व देते हैं तथा इनके सहारे ही स्वयं को प्रगतिशील एवं नारीवादी दिखाने की कोशिश करते हैं। इस प्रसंग में गोदान की चर्चा न हो तो बात पूरी नहीं होगी। प्रेमचंद ने अपने उपन्यास में धनिया और सिलिया के संघर्ष को अधिक जीवंतता से दिखाया है। वे सीधे-सीधे सामंतवादियों एवं मनुवादियों से टकाराती हैं। सिलिया भी बिना विवाह किये बच्चे को जन्म देती है और धनिया उसे अपने घर में पनाह देती है। वे दोनों कभी भी झुकना पसंद नहीं करती हैं। प्रेमचंद अपनी रचना में पुराणों एवं स्मृतियों के विधानों द्वारा दलितों एवं स्त्रियों को अधिकार दिलाने की चेष्टा नहीं करते हैं। वे अपने तर्क मानवता एवं पात्रों की संवेदना में ढूंढते हैं। परंतु ‘कुच्ची का कानून’ में उनकी परंपरा का पालन नहीं हुआ है।

अब आता हूं अपने इस आलेख की प्रासंगिकता पर...। अक्सर बहुत-से रचनाकारों की ऐसी रचनायें देखने को मिलती हैं जिनमें वे पाठकों की जागरूकता एवं बुद्धिमता को दरकिनार कर चालाकी दिखाने की कोशिश करते हैं। वे पाठकों की पठनीयता को ध्यान में नहीं रखते हैं और वे यही मात खा जाते हैं। अगर लेखक इस बात का ध्यान रखते तो कभी ऐसा आत्मघाती प्रयोग नहीं करते और न ही उनके रचनाकर्म पर सवाल खङा होता। 


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