पत्थर और बहता पानी : निर्मल वर्मा

निर्मल वर्मा हिंदी कथा–साहित्य एवं कथेत्तर गद्य के अद्भुत सर्जक हैं। उन्होंने गद्य की सभी विधाओं में लिखा। वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह उनकी कहानी 'परिन्दे' को पहली 'नई कहानी' की संज्ञा देते हैं। उनकी कहानियों में परिवेश एवं परिस्थितियों से प्रभावित मनुष्य की संवेदना बहुत गहरे जाकर व्यक्त होती है। अवसाद में टूटते हुए...कभी–कभी प्रतीक्षारत होते हुए भी आत्मसंतुष्टि का भाव लिए पात्र इनकी रचनाओं में नजर आते हैं जिनसे हम अनायास ही जुड़ते चले जाते हैं। उनकी जादुई भाषा–शैली पाठकों को सम्मोहित कर जाती है। उनके कई निबंध–संग्रह हैं जिनमें हम उनकी भाषा, विचार एवं दर्शन का अद्भुत संगम देखते हैं। उनके संग्रह 'शब्द और स्मृति' से एक निबंध 'पत्थर और बहता पानी' का अंश आपके लिए प्रस्तुत है।


                       # आउटलुक से साभार

सोचता हूं कि वे शहर कितने दुर्भागे हैं, जिनके अपने कोई खंडहर नहीं। उनमें रहना उतना ही भयानक अनुभव हो सकता है, जैसे किसी ऐसे व्यक्ति से मिलना, जो अपनी स्मृति खो चुका है, जिसका कोई अतीत नहीं। अगर मुझसे कोई नरक की परिभाषा पूछे, तो वह है, हमेशा वर्तमान में रहना, एक अंतहीन रोशनी, जहां कोई छाया नहीं, जहां आदमी हमेशा आंखें खोले रहता है—नींद और स्वप्न और अंधेरे को भूल कर। जहां वर्तमान शाश्वत है, वहां शाश्वत भी अपना मूल्य खो देता है, क्योंकि जो चीज शाश्वत को आयाम देती है—समय—वह खुद कोई मूल्य नहीं रखता।

इसलिए जब वर्तमान का बोझ असह्य हो जाता है, मैं अपना घर छोड़कर शहर के दूसरे 'घरों' चला जाता हूं— जहां अब कोई लोग नहीं रहते— सदियों पुराने मकबरे, महल, मदरसे—जहां अंधेरा होते ही चिमगादड़ उड़ते हैं। ये हमारे शहर के खंडहर हैं— शहर की स्मृतियां और स्वप्न। दिल्ली में इन इमारतों की कोई कमी नहीं। वे हर जगह बिखरी हैं। सिर्फ आधा घंटा में मैं एक दुनिया को छोड़कर दूसरी दुनिया में जा सकता हूं— एक समय से उठकर बिल्कुल दूसरे समय में प्रवेश कर लेता हूं— बिना कोई टिकट खरीदे, बिना 'क्यू' में खड़े हुए। वहां न पत्थर रास्ता रोकते हैं, न मृतात्माएं धक्का देती हैं।

किन्तु ऐसा भी युग था, जब न शहर थे, न खंडहर— आदमी अपना अतीत खुद अपने भीतर लेकर चलता था— या यूं कहें कि स्मृति अभी तक इतिहास नहीं बनी थी, जिसे स्मारकों और पोथियों द्वारा ढोना पड़ता है। आदिम युग का व्यक्ति अतीत और वर्तमान दोनों को साथ लेकर चलता था और जब चाहे उनसे छुटकारा भी पा लेता था। यज्ञ, आहुति और बलि के क्षणों में वह एक ऐसे बिन्दु पर पहुंच जाता था, जहां समय शुरू होता है, आदि-क्षण का आलोक, जहां वह एकदम स्वच्छ हो जाता था, न केवल अपने पापों, बल्कि उनकी स्मृति से भी मुक्ति पा लेता था। जिस तरह हम आधुनिक शहर को छोड़कर खंडहरों में जाते हैं— वह भी उतनी ही सुलभता से 'सांसारिक समय' से उठकर 'आदि समय' में चला जाता था। समय की इस गंगोत्री पर उसके लिए जन्म और मृत्यु, शुरू और अन्त, नश्वर और शाश्वत का भेद घुल जाता था। एक शब्द में वह सृष्टि के आरंभ होने से पहले के 'मिथक-काल' में पहुंच जाता था और वहां से दुबारा मुड़ता था— हल्का और मुक्त, ताकि अपने को नए सिरे से शुरू कर सके।

क्या हम इतिहास से त्रस्त, आधुनिक शहरों में रहनेवाले प्राणी— ऐसे क्षण को जी सकते हैं, ऐसे अनुभव को भोग सकते हैं? या उसे हमने हमेशा के लिए खो दिया है? खंडहरों के बीच घूमते हुए मुझे कभी-कभी लगता है कि वैसा अनुभव आज भी असम्भव नहीं है। हमारे बीच दो चीजें ऐसी हैं जिनके सामने, जिन्हें छूकर हम अपने साधारण क्षणों में भी इतिहास की चिरन्तनता और प्रकृति- जो शाश्वत है—उसकी ऐतिहासिकता—दोनों को एक समय में अनुभव कर सकते हैं। अजीब बात यह है, ये दोनों चीजें अपने स्वभाव में एक-दूसरे से बिल्कुल उल्टी हैं— एक ठोस और स्थायी, दूसरी सतत प्रवाहमान, हमेशा बहने वाली— पत्थर और पानी। किन्तु दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं- दोनों के सामने हम सहसा अपने से परे चले जाते हैं, हम एक ऐसे काल-खंड में पहुंच जाते हैं, जब हम नहीं थे (खंडहरों के सामने), जहां हम खत्म हो जाएंगे (बहते पानी को छूते हुए)। पत्थर और पानी दोनों के सम्मुख यह अनुभव होता है कि हम उनके गवाह नहीं हैं— वे हमारे गवाह हैं। हम उनके अस्तित्व को नहीं देख रहे, वे हमारे बीतने को देख रहे हैं।

यह अनुभव हमारे उस आधुनिक बोध को कितना धक्का देता है, जहां हम संसार के साक्षी होने का दम्भ भरते हैं, जबकि हम स्वयं इतिहास से त्रस्त हैं! एक त्रस्त गवाह की गवाही कैसी? वह न इतिहास रच सकता है, न इतिहास का अतिक्रमण कर सकता है, जिससे कविता जन्म लेती है। इसीलिए रिल्के ने एक युवा कवि को सलाह दी थी, 'आपको प्रकृति की तरफ जाना होगा। दुनिया के आदिपुरुष के समान आपको वह सब कहने की कोशिश करनी होगी, जो आप देखते हैं, अनुभव करते हैं, प्रेम करते हैं, खो देते हैं।'
किन्तु समय की एक सीमा के बाद, जिसे हम इतिहास मानते आए थे वह प्रकृति का ही हिस्सा जान पड़ता है। इसका एहसास जितना पुराने खंडहरों में घूमते हुए होता है, शायद कहीं और नहीं। दिल्ली के पुराने किले में पत्थरों के ढूह, आधी टूटी हुई मीनारें, दीवारों के भग्न झरोखे इतने चिरन्तन, समय की आपा-धापी से इतना दूर जान पड़ते हैं, कि यह प्रश्न बिल्कुल अर्थहीन जान पड़ता है कि उसे पांडवों ने बनाया था, या हुमायूं ने। वे ढूह उतने ही शाश्वत, उतने ही 'प्राकृतिक' जान पड़ते हैं, जितने शिमला के पहाड़, पहाड़ों के बीच लेटी हुई घाटियां। इसलिए साहिर लुधियानवी का यह क्षोभ कुछ बेमानी-सा लगता है कि ताज को एक बादशाह ने नहीं, मजदूरों ने बनाया था, जिन्हें हम याद नहीं करते। सत्य यह है कि हम किसी को याद नहीं करते; न गुलाम को याद करते हैं, न साहब को, न बेचारी बीवी को, जिनकी स्मृति में उसका निर्माण हुआ था। समय बीतने के साथ ताज की ऐतिहासिक स्मृति एक ऐसे 'मिथक क्षण' में घुल मिल गई है, जहां सिर्फ 'देखना, अनुभव करना, प्रेम करना, और खो देना' ही बाकी रह जाता है।

जिस तरह इतिहास कभी कभी प्रकृति में बदल जाता है, उसी तरह प्रकृति भी इतिहास में बदल जाती है। क्या गंगा एक भारतीय के लिए महज बहता पानी है? वह हमारी सबसे गहन स्मृतियों को—जिन्हें हम 'संस्कार' कहते हैं—जगाती है, हमें इतिहास के उस मिथक-क्षण में ले जाती है, जब थके-मांदे आर्यों ने पहली बार उसकी मुक्त सपाट धारा को देखा होगा। कितना अजीब विरोधाभास है कि एक समय बाद आदमियों द्वारा बनाई गई इमारतें 'प्रकृति' में बदल जाती हैं— शाम की धूप में कालातीत, इतिहास से मुक्त, जबकि पीढ़ी-दर-पीढ़ी नहाते यात्रियों ने गंगा की शाश्वत धारा को अपनी स्मृतियों में पिरो दिया है—जहां इतिहास और प्रकृति एक-दूसरे से मिल जाते हैं।

और मैं तब अपने से पूछता हूं कि 'बहते पानी' के साथ हिन्दू-मानस का इतना घना लगाव क्या इसीलिए तो नहीं है कि उसमें मिथक और इतिहास का सम्पूर्ण भेद छिपा है? और इस 'भेद' में सिर्फ रहस्य का ही आशय नहीं है, बल्कि अलगाव का भी। हम इतिहास के प्रति सचेत नहीं थे, यह सही नहीं है। सही यह है कि हम इतिहास के प्रति सचेत होते हुए भी उसके बिम्बों का निर्माण निरर्थक समझते थे। इसलिए हम परम्परा को भी उतना महत्व नहीं देते थे, जितना दूसरे देशों के लोग, क्योंकि हम उसे बीते हुए समय का अंश नहीं मानते थे, जिसे वर्तमान में ढोना है। हमें अपनी परम्परा का उतना ही अनुभव होता है, जितना 'अतीत' हम अपने भीतर लेकर चलते हैं- बाकी सब खंडहर है, पत्थर और पोथियां—जो परम्परा नहीं, अतीत के स्मारक हैं। शायद यही कारण है कि रोमन खंडहरों या पुराने मुस्लिम मकबरों के बीच घूमते हुए एक अजीब गहरी-सी उदासी घिर आती है— जैसे कोई हिचकी, कोई सांस, कोई चीख इनके बीच फंसी रह गई हो—जो न अतीत से छूटकारा पा सकती हो, न वर्तमान में जज्ब हो पाती हो।
किन्तु इस उदासी के नीचे एक और गहरी उदासी दबी है... और वह उनके लिए नहीं है, जो एक जमाने में जीवित थे, और अब नहीं हैं— वह बहुत कुछ अपने लिए है, जो एक दिन इन खंडहरों को देखने के लिए नहीं बचे रहेंगे।

पुराने स्मारक और खंडहर हमें उस मृत्यु का बोध कराते हैं, जो हम अपने भीतर लेकर चलते हैं। बहता पानी उस जीवन का बोध कराता है, जो मृत्यु के बावजूद वर्तमान है, गतिशील है, अन्तहीन है। जब कोई हिन्दू अपने सगे-सम्बन्धी की अस्थियां हरिद्वार की गंगा में बहाता है, तो न केवल मृतात्मा को उसकी देह से मुक्त कराता है, बल्कि वह स्वयं अपनी पीड़ा से भी छुटकारा पा लेता है। 'कैथार्सिस' की सम्पूर्ति, जो यूनानी दर्शक नाटक के अन्त में अनुभव करता था, हम उसे बहते पानी के छोर पर पा लेते थे। आज यह अनुभव दुर्लभ लगता है।
आज यह इसलिए दुर्लभ लगता है, कि हम इतिहास और मिथक— समय और शाश्वत— को बांटने के इतने आदी हो गए हैं कि यह नहीं सोच पाते कि एक ही समय में मनुष्य को दोनों का अनुभव होता रहा है। आज का ऐतिहासिक व्यक्ति अपने भीतर 'पौराणिक क्षणों' को उसी तरह जीता है, जिस तरह मिथक-काल का व्यक्ति इतिहास को भोगता है। यदि आज हम 'ऐतिहासिक' काल में रहते हैं, तो भी हमारे भीतर उस खोए हुए स्वप्न को पाने की भूखी आकांक्षा आंख खोले रहती है, जब हम खंडित नहीं थे, प्रकृति से सम्पृक्त थे, सम्पूर्ण थे। माना, यह मिथक काल की वास्तविकता नहीं थी, किन्तु इससे न तो स्वप्न झूठा हो जाता है, न आकांक्षा की तीव्रता मन्द हो जाती है।

वह स्वप्न हम खो चुके हैं, इसकी पीड़ा का एहसास भी रिल्के को उतना ही था, जितना आदिकवि व्यास को रहा होगा। दरअसल समूचा काव्य इस खोने के आतंक को समझने का प्रयास है और इस 'समझ' के लिए भी हर कवि को 'प्रकृति के पास जाना पड़ा था।'

किन्तु यदि प्रकृति के पास जाने का मतलब है, अपने अलगाव और अकेलेपन से मुक्ति पाना; अपने छिछोरे, ठिठुरते अहम का अतिक्रमण करके, अनवरत समय की कड़ी में अपने को पिरो पाना, तो यह बोध पुराने खंडहरों के बीच भी होता है। यह विचित्र अनुभव है। ठहरे हुए पत्थरों के सामने बहते समय को देख पाना। पहली बार इतिहास का अनुभव—किताबों और तिथियों से न होकर—पत्थरों के बीच उगती घास, छतों पर चिपटे चिमगादड़ों, गुम्बदों पर गमगीन, ऊंघती धूप द्वारा होता है। सहसा यह बोध होता है कि कविता, संगीत, चित्र— कोई भी कला-कृति उस मौन को भेदने की कोशिश है, जो इन पत्थरों के बीच उतनी ही शाश्वत है, जितनी प्रकृति के भीतर; कोई भी चीज नहीं मरती, यदि वह अपने से उठकर किसी अन्य से अपने को जोड़ लेती है।

# 'शब्द और स्मृति' से साभार

2 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

"पत्थर और पानी के गवाह हम नहीं वे हमारे गवाह हैं। वे हमें बीतते हुए देखते हैं।"
यह विचार ही हमें अपने अस्तित्व से साक्षात्कार कराने के लिए काफी है। मनुष्य जाति के इतिहास की निरंतरता में एक क्षणिक पड़ाव की तरह लगने लगता है। लेकिन सारा ब्रम्हांड तब तक ही संदर्भ में रहता है जब तक मैं हूँ। जिस क्षण मैं नहीं, तो फिर कुछ भी नहीं होता।
इस निबन्ध के सबसे बड़ी विशेषता यही लगती है कि यह आपको जहाँ आपके भूत वर्तमान और भविष्य की की कड़ी के रूप में जाग्रत करता है, वहीं यह आपको एक अनोखी अन्तर्यात्रा के लिये भी प्रेरित करता है।जहाँ एक अलग ही ब्रम्हांड आपकी प्रतीक्षा कर रहा होता है।
क्या मैं इस निबन्ध को कहीं पूरा पा सकता हूँ? इसे पहली बार साप्ताहिक"धर्मयुग" में सन 1972-73 में पफ था। उसके गहरे प्रभाव को अपनी सोच में हमेशा महसूस किया। वर्मा जी आपको अपने सोच के साथ खड़ा करने के साथ ही उससे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी स्मृति को नमन।

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शनिवार 03 अप्रैल 2021 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!