प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा की कविताएं


प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा की कविताओं में लोक विविधताओं के साथ विद्यमान होता है। चाहे वह रचना में स्मृति के रूप में आए या विस्थापन के रूप में...रूढ़ियों का प्रतिरोध करती हुई हों या प्रकृति को व्याख्यायित करती हुई, हर रूप में प्रभावी हैं। उनकी कविताओं की भाषा आमफहम है जो सीधे पाठकों से संवाद करती है। समकालीन यथार्थ के प्रति सजग कवि के पास अपना शब्द–भंडार है जो जमीन से जुड़े होने का परिचायक है। कविताएं उनके जीवन के सफर, संघर्ष एवं द्वंद को बखूबी बयां करती हैं। उनकी कविताओं के माध्यम से उन तक पहुंचने की कोशिश की जाय।

1. हमारी भी आवाज 

भीड़ भरी ट्रेन में एक बूढा
पैर ज़माने की कोशिश कर रहा है
बढ़ती हुई भीड़ के साथ
सीट पाने की उसकी हसरत हताशा में बदल रही है

फूट पड़ी है उसके मुंह से गालियाँ
साला कहीं चैन नहीं है जीवन में
सब जगह भीड़ कोलाहल, धक्का-मुक्की
वह बताना चाहता है अपनी बीमारी, अपने अनुभव के बारे में
पर, उसकी आवाज में शामिल हो गयी है खांसी
वह गला खखारता है, जगह बनाकर थूकता है
एक बार फिर बोलने की असफल कोशिश करता है
पर अपनी अपनी व्यस्तताओं में मगन
कौन सुनता है बूढ़े की अस्पष्ट आवाज?

भीड़ के दर्द में दब जाता है बूढ़े का दर्द
बूढा लगातार बोलता जाता है
पहली ऐसी बात नहीं थी बाबू
हमने भी खूब लगाये हैं गेंहूँ
खूब उपजाया है गन्ना
थोड़े से खेत में हमने बहुत मस्ती की है
अब नब्बे साल की उम्र में  
यह सब नहीं होता
और खेत भी हमारे पास नहीं रहा
बेटा दूर चला गया है परदेश
साल में लौटता है दो बार
घर ही पर रहते थे पहले सब
लेकिन अब घर, घर की तरह नही लगता

उसकी आवाज में एक सन्नाटा  था
जो बरस रहा था हमारे सीने पर
हमारे बच्चे भी गये हुए थे बाहर
बीमरियों से परेशान हम भी थे
भीड़ के शिकार हम भी थे
बूढा बताता है अब जीने में पहले जैसा मजा नहीं रहा
उसके बताने में शामिल थी हमारी भी आवाज.

2. बनजारे 

परिंदों के झुण्ड उतरे हैं
दूर किसी आसमान से
थम चुकी है उनके पंखों की उड़ान
पसीने की गंध में डूबे हैं उनके शरीर
भूख और प्यास से बेहाल है उनका कुनबा
धरती के इस हिस्से में बन रहे हैं उनके घर
आंसू और मुस्कान के साथ
बांस और प्लास्टिक एक दूसरे पर टिकाये जा रहे हैं
खुले आसमान के नीचे
परिंदों को एक ठौर मिला है
जहाँ एक बार फिर शुरू होगा सभ्यता का आदिम राग
एक औरत है यहाँ जो आंच सुलगा रही है
दूसरी चूल्हा बना रही है
मर्द निकले हैं शिकार पर
बच्चों के झुण्ड में विजेता बनने की होड़ है
एक बूढी औरत भी है यहाँ
जिसके गले से अस्फुट-सा कुछ निकल रहा है
पूरे वातावरण में फ़ैल रही है आदिम गंध
सभ्यताओं के हजार–लाख सालों के इतिहास में
यही एक गंध है
जो बच रहा है उनके पास
दुःख के साथ प्यार है, नफरत के साथ ख़ुशी
तमाम झुकी गर्दनों के साथ भवें हैं
जो टेढ़ी हो रही हैं
कुछ सभ्य चतुर लोगों के लिये 
वे असभ्यता और बर्बरता के प्रतीक हैं
कुछ ज्यादा सभ्य और ज्यादा चतुर लोगों के लिये 
वे सस्ते मजदूर
जिन्हें उत्पादन की भट्ठी में खपाया जा सकता है
कुछ और ज्यादा सभ्य लोगों की नजर में वे
सभ्यता के छुट चुके  है पहरूए
कहने को उनके बहुत से नाम हैं
पर एक पहचान
वे परिन्दे हैं
कहने को उनके पास कुछ भी नहीं है
हमारी तुलना में
यह सच है
पर यह भी सच है
कि इन दिनों हमारे खून में भी नहीं आ पाता उबाल
किसी भी बात  पर
कि इन दिनों दूर हो गयी है हमारे पसीने से भी
श्रम की खुशबू
कि इन दिनों गायब हो गयी है
हमारे दिलों से भी भावनाओं की हिलोरें
जबकि उनके पास बचा हुआ है
बहुत कुछ, बहुत कुछ
उनके जीने में हमारी
अतीत की परछाईयां है.

3. बचना 

मैं बचा हुआ हूँ
जैसे बचा हुआ है यह जंगल
साँस खींचता हूँ
तो जंगल की महक आती है
नथुनों तक गुदगुदाती है अपनी ही गंध
अपनी जीभ पर मापता हूँ
अपना ही स्वाद
महसूसता हूँ अपने पास से गुजरती हवा को
अपने हिस्से की जमीन महसूस करता हूँ
कंठ में महसूस करता हूँ मीठा जल
देखता हुआ हूँ अभी बचे हुए हैं अन्न के दाने
सुग्गे की दांतों से कुतरे गये अमरूद
मां के गीत बचे हुए हैं पत्नी के होठों पर
पिता का सपना बचा हुआ है
मेरी आँखों में
मैं महसूस करता हूँ जीवन गंध
मृत्यु गंध से बहुत दूर
महसूस करता हूँ तुम को
खुद को.

4. चेहरा

कई लोग चेहरा देखकर बता सकते हैं
सामने वाले का हाल
कई तो इसे पढ़ने का दावा भी करते हैं
सपाट होते चेहरों ने अक्सर उनके दावों की पुष्टि भी की है
जब से बढ़ने लगी है बीमारियां और
हावी होता गया है तनाव
चेहरे भी सपाट होते चले गये हैं
मनोविज्ञान का काम इससे आसान भी हुआ है और मुश्किल भी
इससे इतर शिल्प विज्ञान में इन दिनों
कुछ ज्यादा ही तरक्की हुई है
गढ़ी जा रही है कई तरह के
रूप, रंग और भाव वाली मूर्तियाँ
अलग-अलग होता जा रहा है
उनका आकार और स्वरूप
विविधता से भरी ये मूर्तियाँ चेहरों के सच को बता रही हैं
चेहरे मूर्तियों में बदलने  लगे हैं और मूर्तियाँ चेहरों में
ऐसे विरोधाभासी समय में कुछ चेहरे अब भी हैं जो सोचते हैं
मूर्तियों ने अब तक यह काम शुरू नहीं किया है .

5. दिल्ली में 

कल्लू मोची के घर में शौचालय बन रहा है
यह एक आश्चर्य है गाँव में
जहाँ अच्छे-अच्छे घरों की महिलाएं भी
निकलती है मुंह अँधेरे फारिग होने के लिए

आश्चर्य यह नहीं कि शौचालय बन रहा है
आश्चर्य  यह कि कल्लू मोची के घर में बन रहा है
अब नहीं जाएगी महिलाएं खेत-बधार
वक्त बेवक्त
मर्द भी अब मौके-बेमौके ही जा पाएंगे खेतों पर
वैसे भी वहां अब रखा ही क्या है
और मर्द भी अब कितने बचे हैं
सभी तो गये हुए है
दिल्ली, कलकत्ता और पंजाब
और जब आते हैं तो कहाँ लगते हैं मर्दों से
कितना कम बोलते हैं वे यहाँ आने के बाद
जबकि बूढ़े और महिलाएं करते हैं
उनका सालों भर इन्तजार
एक उम्मीद के साथ
कि जब वे लौटेंगे
खड़ी कर दी जाएगी टूटी हुई दीवाल
खरीद ली जाएगी छोटी-सी गाय
जमा कर दिय जायेंगे पोस्ट-ऑफिस के पैसे
बहुत छोटी है बिटिया
करा दिया जायेगा उसका एडमिशन
हुलस कर फगुआ गा रहे हैं मोदन का
मगन है परोहताइन भौजी
और मस्त है कल्लू
उसके यहाँ शौचालय बन रहा है
यह थोडा-सा पैसा है दिल्ली का
जो लग रहा है यहाँ
पता नहीं यहाँ का
क्या-क्या लगा है दिल्ली में.

संपर्क―
प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा
मो.–9122493975

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