'समीर परिमल' ग़ज़ल की दुनियां का एक सुपरिचित नाम है। वे पेशे से शिक्षक हैं, इस कारण समाज एवं परिवेश को निकट से संपूर्णता में देखते हैं। उनकी ग़ज़लों को पढ़कर–सुनकर सिर्फ सुकूँ ही नहीं मिलता बल्कि ऐसा अहसास होता है कि अंदर कुछ पिघल रहा है जो हमें जगाए रखता है। उनकी रचनाओं में प्यार के अफ़साने भी हैं तो रुसवाईयाँ भी... आमजन का असंतोष भी है तो उम्मीद भी। यही बात उन्हें विशेष बना देती है। सबसे बड़ी बात कि वे कभी यथार्थ से नजरें चुराकर नहीं चलते बल्कि सामना करते हैं। संवेदना एवं शिल्प के स्तर पर उनकी गजलें उतनी ही लाजवाब हैं जितना वैचारिकता एवं मनोविज्ञान के स्तर पर। उनका पहला ग़ज़ल–संग्रह 'दिल्ली चीखती है' प्रकाशनाधीन है जो शीघ्र ही आप तक पहुँचने वाली है। तो आइए रूबरू होते हैं उनकी ग़ज़लों से।
साज़िशों की भीड़ थी, चेहरा छुपाकर चल दिए
नफ़रतों की आग से दामन बचाकर चल दिए
नामुकम्मल दास्तां दिल में सिमटकर रह गई
वो ज़माने की कई बातें सुनाकर चल दिए
ज़िक्र मेरा गुफ़्तगू में जब कभी भी आ गया
मुस्कुराए और फिर नज़रें झुकाकर चल दिए
मंज़िले-दीवानगी हासिल हुई यूँ ही नहीं
क्या बताएं प्यार में क्या-क्या गंवाकर चल दिए
वक़्त से पहले बड़ा होने का ये हासिल हुआ
तिश्नगी में हम समन्दर को उठाकर चल दिए
रंग काला पड़ गया है मरमरी तक़दीर का
मुफ़लिसी की धूप में अरमां जलाकर चल दिए
2.
कहीं सिमटे हुए चेहरे, कहीं बिखरे हुए चेहरे
नज़र आते हैं इस सैलाब में सूखे हुए चेहरे
सितारे, चाँद, सूरज हो गए सब दफ़्न मिटटी में
दिखाई दे रहे हैं हर तरफ उतरे हुए चेहरे
हवाएँ अब भी लाती हैं हमारे गाँव की खुशबू
वो मिट्टी में सने औ' धूप में भींगे हुए चेहरे
मुझे अश्क़ों को पीने का हुनर आता नहीं यारों
छुपा लूँ किस तरह आँखों से ये बहते हुए चेहरे
खिलौने की तरह खामोश बैठे हैं दुकानों में
तुम्हे मिल जायेंगे हर मोड़ पे खोये हुए चेहरे
मैं बचपन की किताबों में जो पन्ने मोड़ आया था
उन्हीं में आज दिखते हैं कई लिक्खे हुए चेहरे
चला आया हूँ अनजानों की बस्ती में मगर 'परिमल'
यहाँ चेहरों के पीछे हैं मेरे देखे हुए चेहरे
3.
प्यार देकर भी मिले प्यार, ज़रूरी तो नहीं
हर दफा हम हों खतावार, ज़रूरी तो नहीं
खून रिश्तों का बहाने को ज़ुबाँ काफी है
आपके हाथ में तलवार ज़रूरी तो नहीं
आपके हुस्न के साए में जवानी गुज़रे
मेरे मालिक, मेरे सरकार, ज़रूरी तो नहीं
एक मंज़िल है मगर राहें जुदा हैं सबकी
एक जैसी रहे रफ़्तार, ज़रूरी तो नहीं
दीनो-ईमां की ज़रुरत है आज दुनिया में
सर पे हो मज़हबी दस्तार, ज़रूरी तो नहीं
एक दिन आग में बदलेगी यही चिंगारी
ज़ुल्म सहते रहें हर बार, ज़रूरी तो नहीं
4.
मुझसे इस प्यास की शिद्दत न सँभाली जाए
सच तो ये है कि मुहब्बत न सँभाली जाए
मेरे चेहरे पे नुमायां है यूँ उसका चेहरा
आइने से मेरी सूरत न सँभाली जाए
आपके शह्र की मगरूर हवाएँ तौबा
इनसे अब हुस्न की दौलत न सँभाली जाए
मुझको ख़्वाबों में ही ऐ यार गुज़र जाने दे
इन निगाहों से हक़ीक़त न सँभाली जाए
बोझ उम्मीदों का कंधों पे उठाएँ कब तक
घर की दीवारों से ये छत न सँभाली जाए
5.
किसी की सरफ़रोशी चीख़ती है
वतन की आज मिट्टी चीख़ती है
हक़ीक़त से तो मैं नज़रें चुरा लूँ
मगर ख़्वाबों में दिल्ली चीख़ती है
हुकूमत कब तलक गाफ़िल रहेगी
कोई गुमनाम बस्ती चीख़ती है
गरीबी आज भी भूखी ही सोई
मेरी थाली में रोटी चीख़ती है
भुला पाती नहीं लख्ते-जिगर को
कि रातों में भी अम्मी चीख़ती है
महज़ अल्फ़ाज़ मत समझो इन्हें तुम
हरेक पन्ने पे स्याही चीख़ती है
बहारों ने चमन लूटा है ऐसे
मेरे आँगन में तितली चीख़ती है
जिसे तू ढूंढने निकला है 'परिमल'
तेरे सीने में बैठी चीख़ती है
6.
आज नहीं तो कल लिक्खेंगे
हर मुश्किल का हल लिक्खेंगे
जेठ की तपती दोपहरी में
सूरज पर बादल लिक्खेंगे
मेहनतकश जनता के हिस्से
सारा नभ-जल-थल लिक्खेंगे
गाँवों की हरियाली को हम
भारत का आँचल लिक्खेंगे
बूढ़ी आँखों के पानी को
पावन गंगाजल लिक्खेंगे
महका-महका खून-पसीना
हम उसको संदल लिक्खेंगे
तुम लिक्खो धोखा-मक्कारी
हम विश्वास अटल लिक्खेंगे
सत्ता के सीने पर चढ़ कर
भूख का रण-कौशल लिक्खेंगे
भय की हत्या कर डाली है
अब हर क्षण प्रति पल लिक्खेंगे
जन-गण की बातें करता है?
सब तुझको पागल लिक्खेंगे
संपर्क :
समीर परिमल
मोबाइल- 9934796866
ईमेल - samir.parimal@gmail.com
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