कतार से अलग

दोस्त !
सिर गड़ाए पढते थे तुम
पर कतार से कितना डरते थे तुम !
याद है न...
क्लास बंक कर सिनेमा देखना
दस का तीस टिकट खरीदना
किसी का समय खा जाते
किसी की ऊर्जा निचोड़ लेते
जाने–अनजाने, चाहे–अनचाहे
तब यह सोचने का न तो समय था
न सहूलियत।

और आज...
तुम पढ–लिख गए हो
दुनिया बदलने की बात करते हो
तुम्हारे अपने तर्क हैं
सोचने की सहूलियत भी

हर कहीं
कतारें भी हैं वैसी ही
बल्कि उससे भी लंबी
तुम भी बिल्कुल... ...
कहूं तो उससे भी बदतर !

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