बदलता गाँव

गाँव का नाम आते ही हमारे सामने अलग-अलग तस्वीरें उभरने लगती हैं। अर्थशास्त्री ग्रामीण विकास के सिद्धांत देकर बड़े-बड़े पुरस्कार बटोर ले जाते हैं, भले ही खेतों में उनके कदम कभी न पड़े हों। वे वातानुकूलित वाहनों के विंडो से ही अनुमान लगा लेते हैं। नेता अपने पुष्पकयान से गाँव की स्थिति का आकलन करते रहते हैं। योजना-अधिकारी अपने आंकड़ों में हरित-क्रांति का गाँवों में विकास दिखाते हैं, भले ही बाद के आंकड़ों में उन्हीं गाँवों को पिछड़े बताकर योजनायें बनाते हैं तथा यह साबित करते हैं कि भारत गाँवों का देश है। देश का उच्च-शिक्षा प्राप्त विद्यार्थी यूपीएससी कि तैयारी के दौरान ‘कुरुक्षेत्र’ के आवरण पृष्ठ पर गाँव को पाकर उसके पिछड़ेपन का आकलन कर लेता है। कवि गांव की हरियरी देख–देख आज भी बेसुध हो जाते हैं।     

हिंदी-साहित्य में जब गाँव की चर्चा होती है तो हमारे सामने प्रेमचंद, रेणु तथा श्रीलाल शुक्ल के उपन्यासों के पात्र जीवंत हो उठते हैं। इनके उपन्यासों गोदान, मैला आँचल और राग-दरबारी के गाँव गुलाम एवं आजाद भारत के गाँवों का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा आज का गाँव भी कमोबेश उन्हीं रूपों में परिष्कृत होकर हमारे सामने आता है। आज भी होरी भूमिहीन होकर मजदूरी करने को बेबस है। महाजनों के सूद के चंगुल में वह आज भी फंसा हुआ है। गोबर शहर में मजदूरों का मेंठ बन गया है और अपने ही तरह के अन्य गोबरों को ठेका पर फैक्टरियों में झोंकवा रहा है। महानगरों के दमघोंटू वातावरण में उनकी सारी ऊर्जा निचोड़ी जा रही है।  'मैला आँचल’ का पात्र कालीचरण को अपने सिद्धांतों से समझौता करना पड़ रहा है। समाजवाद एवं साम्यवाद लाने के क्रम में उसे विस्थापन का दंश झेलना पड़ा है और वह पूंजीपति बनकर जीने को अभिशप्त है। गाँव के टेंडर पर उसका एकाधिकार है और वह कई ईंट-भट्ठों एवं राईस-मिलों का मालिक है। पर आज भी आप अक्सर उसे मंचों पर समाजवाद के गीत गाते देख सकते हैं। लेकिन सही मायनों में ‘राग-दरबारी’ में प्रस्तुत गाँव ‘शिवपालगंज’ ही आज के गाँव का प्रतिनिधित्व करता है। उसके हरेक पात्र हमारे सामने ठहाके लगाते, चिंतन करते एवं अपने दुखों एवं मजबूरियों का रोना रोते मिल जाते हैं। इसका एक पात्र ‘सनीचर’ कालांतर में वैद्यजी के बताए रास्ते पर चलते हुए उपन्यास की परिधि से परे निकलने में कामयाब हो जाता है। वह गंदे धारीदार अंडरवियर एवं बनियान की जगह खादी का सफ़ेद एवं बेदाग़ कपडे पहनता है। सेवा करने की सीमा गाँव तक ही सीमित न रह जाय तथा लोग ये न समझें कि गाँव के लोग देश के लिए नहीं सोचते हैं, इस ख्याल से वह विधान-सभा होते हुए संसद तक पंहुच गया है।
       
खैर, अब गाँव की कहानी आगे बढती है। विनिवेश की हवा राजधानी होते हुए वहां तक जा पहुंची है। गाँव के तालाबों में कमल के पांत की जगह ‘सिंघाड़ा’ की लताएँ अंगडाई ले रही हैं। लोगों की शिकायतें थीं कि तालाब का पानी उर्वरकों एवं रसायनों के प्रयोग के कारण जहरीला होता जा रहा है तथा मवेशी इसके शिकार हो रहें हैं। वह तो भला हो कृषि के यांत्रिकीकरण का..! अब यह शिकायत भी नहीं रही। पाड़े, बछड़े, बूढी गायें और भैंसे सीधे किसानों के यहाँ से बूचडखाने भेजी जाने लगीं तथा गाँव इस मुद्दे पर सेकुलर बना रहा है। उर्वरक सब्सिडी किसानों को अधिक मात्रा में प्राप्त होने लगी है तथा खेत भी उर्वरकों एवं कीटनाशकों के नशे में बेसुध होने लगे हैं।
    
गाँव के सरकारी भवन बहुपयोगी बनकर वहां के आर्थिक एवं सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित होकर अपना सार्थक योगदान दे रहे हैं। ताश के अड्डे दिन-रात कायम रहने लगे हैं और ताकतवर लोग कई भवनों का मनमुताबिक इस्तेमाल कर रहे हैं। घर विरासत के रूप में संजोये जा रहे हैं और मंदिर भव्य होते जा रहे हैं। भव्य मंदिर दानवीर कर्ण की परंपरा के निर्वहन का शानदार नमूना बना हुआ है जिसपर गाँव गर्व कर सकता है। गाँव विकास की ओर ही जा रहा है; इसका एक और सबूत यह है कि घर से कुछ मिनटों की दूरी पर स्थित विद्यालय भी बच्चे साईकिल से जाते हैं। गाँव में भी शिक्षा का मतलब शहरों की तरह सिर्फ नौकरी पा लेना ही है। पहले से ही गाँव के कदम पंचायती न्याय-व्यवस्था से आगे जिला स्तरीय न्यायालय तक पड़ चुके हैं, जिसके कारण यहाँ भी शान्ति दरिद्र रूप में विराजमान है। उच्च न्यायालयों के वकीलों की फ़ीस आज भी ग्रामीणों के लिए चुनौती बनी हुई है, इस कारण इक्का–दुक्का मामला ही वहाँ पहुँच पाता है।
    
पूरब और पश्चिम के अनवरत संघर्ष में गाँव अपने को दोनों की सीमा-रेखा पर पा रहा है। सरकारी योजनाओं की जरुरत इसे आज भी उतनी ही है जितनी पहले थी। आखिर नगरों के साथ हाथ मिलाकर जो चलना है। फिर सनीचर का साम्राज्य भी तो इन्हीं योजनाओं पर टिका है।
       

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