भूख

उनकी भूख बढ गई है
पंजे और भी तेज हुए हैं
दाँते और नुकीली
आँखों की चमक
गहरी हो गई है

हल्के पदचाप
कान खङे
लार टपकाते

हवाओं में
शिकार की
गंध के पीछे
बढते आ रहे हैं वे 

संकल्प

प्रिय,
तुम्हारी अनुगामिनी
अब नहीं चलेगी
पद-चिह्नों पर तेरे
फिसलन है

कैसे संभालोगे
गिरुंगी जब
तुम्हारी तरह

तुम तो बचा ही लोगे
अपना पुरुषत्व
उठेंगे सवाल हमीं पे
इस बार भी

अपना शहर

मेन रोड पर
दिखती नहीं अब
चाय की दुकानें
दोस्तों के ठहाके
अखबार पढतीं
अलसाई आँखें

मूक और शिष्ट-से
खङे हैं कतारों में
जगमगाते रेस्तरां
मॉल और मल्टीप्लेक्स

कहाँ बचा है जीवन ?
कहाँ गए वे लोग ?
पूछने पर वह भौंचक 
आँख फाड़े..!
शायद नया है शहर में
या है कोई अपना ही
जिसे मैं ढूंढ रहा इस घड़ी
बेचैन..!

अगले ही पल

बेज़वाब..!
वह तेजी से आती
सिटी बस में लटक लेता है
और मैं भी,
गुम होता जा रहा हूँ
कहीं...

जयन्ती

इष्टदेव का जन्म दिवस !
मुर्ति को धो-पोंछ
दूध चंदन का लेप लगा
अनुयायी हुए एकत्र
कुछ मुस्काते !
कुछ कोसते-गरियाते !
इष्टदेव को तिलक कर
पुष्प-माल पहिराये
गर्वित निज-धर्म पर
अवसरवादी चिल्लाए
"होगी जय हमारी !"