प्रज्ञा सिंह की कविताएं



विमर्श को ध्यान में रख लिखी जानी वाली रचनाएँ इतनी अधिक लिखी जा रही हैं कि उनके भाव परस्पर गुत्थमगुत्था होते चले जाते हैं और उनमें एक प्रकार की यांत्रिकता भी देखने को मिलती है। इस यांत्रिकता से ऊब कर पाठक ऐसी रचनाओं की खोज में रहता है, जिनमें नैसर्गिकता हो, विषय-वैविध्य एवं सहजता हो तथा समाज में चली आ रही रूढ़ियों एवं उत्पन्न परिस्थितियों के साथ संघर्ष हो... प्रतिरोध हो। प्रज्ञा सिंह की कविताओं को पढ़ते हुए हमें ऐसा ही अनुभव होता है। उनकी कविताओं की स्त्री यथार्थ से आँखे फेर पलायन नहीं करती या अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं होती है, बल्कि उसका सामना करती है। कविताओं में यथार्थ से उत्पन्न त्रासदी है तो उससे उबरने की उम्मीद भी। तो आप भी उनकी रचनाओं को पढ़िए।


1. औरतें मनुष्य नहीं होती हैं 

औरतें मनुष्य नहीं होती हैं
अगर देख सको तो देखो
नीली चूङियों से भी नीले हैं
चोट के निशान
उन्हें सर्वाधिक वहां तोङा गया है
जहां वे मनुष्य थीं
जिस्म का एक एक इंच नाप लो
उतरो आत्मा की भीतरी गहराइयों में
औरतें मनुष्य होने का
शानदार भ्रम पैदा करती हैं
वे मनुष्य नहीं होती
कुछ भी हो सकती हैं औरतें
फूल नदी तितली
टीन की चादरें
पीट पीट कर विस्तारित किया गया
चांदी का वर्क
औरतें खाली कनस्तर हो सकती हैं
मनुष्य नहीं हो सकती
जैसे भूखे भेङियों के सामने रखते हैं मांस
औरतों के आगे रख दो प्यार
और आराम से उन्हें चभोङते हुये देखो
तुम उत्तेजना से भर जाओगे
अहा प्यार !
नि: शेष है इस
जहन्नुम में आज भी
जैसी बर्फ की मुर्दा सिल्ली पर
छलछलाती पानी की जिंदा बूंदें
यह घृणास्पद जीवन कि
जहां आप मांस के लोथङे के
अलावा कुछ भी नहीं
वहां आइये
और औरतों से मिलिये
जिन्दगी एक स्वेटर है
फूलों और तितलियों के मोटिफ से भरा
दुनियां की सबसे हसीन औरतें
आज भी विज्ञापनों में जिन्दा हैं
देश एक अच्छी चीज है साहब
औरतें उससे भी अच्छी
बशर्ते उनकी नर्म छातियों पर
कीड़ों की तरह
आपका हाथ रेंगता रहे

2. मेरे पास काजल नहीं है

खुश हूं कि मेरे पास आंख है
मेरी अपनी बिल्कुल सगी
गीली बात बात पर भरी
फूट पड़ने को आतुर
रोशनियों की भीतरी गुफाओं में
स्तब्ध बार बार चौंकती
झांकती और सिसकती
सुबह  रोती रात भर सोती
खुश हूं कि मेरे पास आंख है
छोटी सी औकात
बित्ते भर के दायरे
चौखटों से निहारते
मौका पाते तो
दुनियां लांघ आते
जहां जाते गीले होते भीग जाते
इनके उनके प्यार में कांपते
बांधते नेह से गठरी
बचा लेते ठठरी
सुन रही जेठरी
सास की मुनरी
दुलार में पली
रसोई में चार रोटी
दो कुत्ते की दो उसकी
भकोसती और रोती
नहीं चीखती
कम बोलती
नीबूं की तरह गम निचोड़ कर पीती
खींच रही आंचल
ओढ रही ओढनी
गनीमत था कि माथ तोपती
आंख ही मूंद रही
घूंघट निकाल रही
इस अजीब सी प्रार्थना में
पता नहीं कौन हाकिम कौन मुवक्किल
सुना रहे जो फैसला
पूछती हूं क्या भगवान हैं
अगर हैं तो निकम्मे है लाचार हैं बेकार हैं
दुख है कि मेरे पास काजल नहीं है
खुश हूं कि मेरे पास आंख है
सोच और समझ रही हूं
आंख भर देख रही
जितना विस्तार है
उतने का आभार है
मंगरुआ को टीबी है
विग्यापनों का जंजाल है
शेरुआ तो कुक्कुर है
रात भर जागता और भौंकता
वर्ना बताओ कौन इस शहर में  बोलता
किसकी मजाल है कि मुंह खोलता
या तो एम्बुलेंस का सायरन या साहब का हूटर ही गूंजता
चौराहे पर चमकती लाइट
मेरी ही आंख फोड़ती
शुक्र है कि ढिबरी भर भी नहीं तेल है
गांव का शहर से कौन मेल है
अंधेरा है यहां ऐसा दैदीप्यमान
सलोनी सी भोर है
ढो रही चना का बोझ
बोधना की मेहरारू
सतमासे का बेटा जनमा
एक दिन घर नाहीं सुत्ती
इसका भी करेजा है
भूख का जोर है
घर है कि जंगल है
नाच रहा मोर है
भात ही भात छींटता
रमेसरा का पूत है
कटोरा का दूध मेरे हाथ से छलकता
आंख ही मींच रही हूं
सपना सा देख रही हूं
खुश हूं कि मेरे पास आंख है।




3.
बोलो
जब कोई बोले
चुप रहो /
चीखो
जब कोई कहे
असभ्य हो /
उठ खड़े होना
जब कोई कहे
बर्दाश्त करो /
जेब से बाहर निकाल लेना हाथ
जब कोई कहे
कुलीनों की बस्ती है /  
मत सहना
जब कोई रोक दे हंसना /
कोई भाषण दे
मत सुनना /
गोदाम में सड़ते हैं अनाज
जनता भूखी सोती है /
सब कहे न्याय
तुम मत कहना /
नगाड़े पीटे जायेंगे
सब गायेंगे यशोगान
अलाप हो जब झूठ राग का
चुप रहना
सब गायेंगे
तुम मत गाना

4.
मैं रोयी नहीं थी पिता
तब भी नहीं
जब तुमने मेरी तरुणाई का
प्रिय विषय अर्थशास्त्र छीन लिया था
मैं डरी नहीं
जब तुमने चीखते हुये कहा
क्या कर लेंगे
एडम स्मिथ और मार्शल
बुधिया के घर में
आज भी दो दो दिन
चूल्हा नहीं जलता
बुरी तरह से फेल होती हैं
सरकारी योजनायें
मक्कारियों का खेल है
संसद में पेश होने वाला
वार्षिक बजट
कभी नहीं समझ सकोगी
तिकडमों का खेल
जिन्दगी का गणित
तुमने कहा पढो संस्कृत
नहीं मिली सरकारी नौकरी
तो भी जान सकोगी
शकुन्तला का दुख
एक वैभवशाली न्याय प्रिय
दरबार कैसे
ठगता है मासूमों को
और कोई कवि उसकी विरुदावली
क्यों गाता है जान सकोगी
कुछ नहीं जाना तो भी
शत्रुओं को पहचान सकोगी 
(एक अलिखित कविता के कुछ संभावित अंश )


5. काहे का नगीना राम नगीना

चोर मेन गेट से नहीं आते राम नगीना
जैसे टंकी से उतरता है पानी
उतर सकते हैं चोर भी
टी वी ही कतर लेगा तुम्हारी जेब
अखबार भी लुटेरे हैं रामनगीना
तालों को बार बार खींचते तानते क्यों हो
चोर मेन गेट से नहीं आते
ये तुम्हारे माथे पर किसके भय का पसीना है
हिन्दू हो तो सीना तान कर क्यों नहीं चलते
तुम्हारे पैर पर गठिया का असर क्यों है राम नगीना
आज साग वाली फिर पांच रुपया मार गयी
किराने वाले ने मुस्कुरा कर
कुछ फालतू सामान पकड़ा दिया
आज फिर देखते ही भौंक पड़ा
गली का खजहा कुत्ता
आज फिर दिनेसवा तुम्हारी तरफ ही देखकर हंस रहा था
मानती हूं बहुत फ्रस्टेशन है
पर चार बार घर बुहारना ये तो हद दर्जे का कमीनापन है
धूल तो कहीं न कहीं फिर भी रह जायेगी
तुम सिर्फ शुगर बी पी से नहीं मरोगे
हैरिटेज की दवाई भी तुम को खा जायेगी
तुम काहे का नगीना हो राम नगीना
कि अपने ही होने का शोक मनाते हो
अकर्मणेवाऽधिकारस्ते पढते हो
मंहगाई भत्ते का पता लगाते हो
तीन बार कपड़े धोते हो तो छः बार छत पर क्यों जाते हो राम नगीना
गली में आज भी कुछ औरतें बाथरूमों मे नहाना पसंद नहीं करती
दो जांघों के बीच फिसलते लक्स साबुन को तुम्हारी दिव्य दृष्टि कृतार्थ करती है
क्या तुम इसी को आध्यात्म कहते हो राम नगीना


6. इतवार को मत रोना मैडम जी

एक दिन तो मिलता है छुट्टी का
मेंहदी वेंहदी लगा लो
ब्लीच लगा लो
थोड़ा मुंह चमका लो
क्या बात बात पर मुंह फुलाना
मुड ऑफ क्यों करना मैडम जी
इतवार को नहीं रोना मैडम जी
सोमवार का दिन है ताजा
ढंग का कोई नाश्ता बना लो
थोड़ा रगड़ो पोछा
फर्श चमका लो
लेकर झोला स्कूल भागना  मैडम जी
सोमवार को मत रोना मैडम जी
मंगलवार को मत रोना मैडम जी
दिन मंगलवार बजरंग बली का
नाम लो उस महाबली का
उसके जैसा सीना फाड़ दिखलाओ मैडम जी
गैर मर्द से मत बतियाना मैडम जी
मंगलवार को मत रोना मैडम जी
मत रोना बुधवार को
बाल गंदे हैं
चकाचक शैम्पू मारो
टी वी शी वी देखो
दुख को मारो गोली जी
बुधवार को मत रोना मैडम जी
मत रोना बृहस्पतिवार को
भूल जाओ तुम पुराने प्यार को
सात जनम का जिससे नाता है
लात उसी का खाना है
सौ दुख सहकर मंद मंद मुस्काना है
तेरह आदमी का रोटी ठोंक दिखलाना है
इतना मत घबड़ाना मैडम जी
बृहस्पतिवार को मत रोना मैडम जी
मत रोना शुक्रवार को
थोड़ी हिम्मत रखो
कलेजा है तो पत्थर रखो
हफ्ते भर का जीवन
अब बीत चला
तुम भी थोड़ी प्रौढ हुयी
शुक्रवार को मत रोना मैडम जी
शनिवार का दिन है
अब क्या तुम रोओगी
नाक कटाओगी मुहल्ले भर में
इस उमर में टेसुआ बहाओगी
ये सब क्या अच्छा लगता है
अपना घर दुआर थोड़ा और चमकाओ
जीवन भर के दुख पर ब्लीच गिराओ
झाड़ू खाकर मुस्काना मैडम जी
शनिवार को मत रोना मैडम जी


7. पूरी दुनिया होती हैं आठ साला लड़कियां 

आठ साला लड़की की तालियां
बादलों की गड़गड़ाहट
आठ साला लड़की पेड़ों में कलियों के भी
आने से पहले की सनसनाहट
आठ साला लड़की के लिये सहज है
टॉफियों के न
मिलने पर रोना
पैर पटकना झनझनाना
आठ साला लड़कियां मां होती हैं
अक्सर छोटे भाईयों की
लेती हैं जानबूझकर छोटा बाइट
छांटती हैं कम चमकीली इच्छायें
आठ साला लड़कियां जल्दी ही
काम भर समझदार हो जाना चाहतीं हैं
कि लील सकें रसोई का
सब से जहरीला धुंआ
आठ साला लड़कियां सोचती हैं
क्या रखा है किताबों में
न कोई लाल रिबन
न गोल्डेन क्लिप
आठ साला लड़कियां धीरे धीरे
चखना चाहती हैं
धरती के सबसे बदसूरत
नरक का स्वाद
स्वर्ग की मिठास
आठ साला लड़कियां धीरे धीरे
हो रहीं होती हैं
जिन्दगी के मीठे ज़हर के लिये तैयार
आठ साला लड़कियां भी बड़ी होतीं
उनको भी होता किसी से प्यार
आठ साला लड़की से बलात्कार
अंखुआये अन्न को कड़ाही में भूनना
फूलों को पंखुरी पंखुरी चीरना
ये डरी हुयी आसन्न प्रसवा मांये
घबरायी हुयी नव ब्याहतायें
लड़कियों की डोली इस मुहल्लें में न आये
असमय चालिस साला बाप के माथे पर झुर्री
पैतीस साला मां की बढी हुयी बी पी
पूजा के बैग में अल्प्राक्स की गोली
संगीता ने दस पांच ढकेल ली
नहीं मरी बच गयी वह पापिन अकेली
फटे पर्दों के पीछे से झांकती शिफा
यह सायकिल पटक कर आयी कांपती अफ्सा
ये रोती ही जा रही स्नेहा
बदतमीज है नयी हेयर स्टाइल बनाकर आयी प्रिया
ये तुम्हारा सूट सुंदर है
किसने सिया पूछती हैं चहककर लड़कियां
ये बलात्कार के योग्य लड़कियां
ये बलात्कारित दुनियां
ठूंस दो इनके मुंह में खारा नमक
अपनी सब कुंठायें
ये जा रहीं हैं स्कूलों बैंकों  
कॉलेजों हस्पतालों की ओर
फैलती टिड्डियों सी
अाठ साला लड़कियां सर्वोत्तम हैं
बलात्कार के लिये
उनके पास कम आवाज़ है चित्कार के लिये
ये दुनियां भी है
बहुत नाजुक मासूम  
इस की भी कुल उम्र
आठ साल से कम ही होगी
ऐसे ही मौत से बदतर जिंदगी
दुनिया के लिये भी चुनो


8. तुम सीधा रास्ता चुनना 

हालांकि कोई रास्ता सीधा नहीं होता
ये खतरा तो हमेशा बना रहता है
कि वे कभी भी किसी मोड़ पर मुड़ जायेंगे
हां रास्तों को बदल दो घोड़े में
और उनकी लगाम अपने हाथ में रखो
तो और बात है
खतरा है कि तुम किसी सही बात को सही सिद्ध नहीं कर पाओगे
डर है कि गिरोगे और मुंह की खाओगे
माना यहां से निकलोगे
तो घर जाओगे
पर इस अंधेरे में तुम उसे कैसे ढूढ पाओगे
मान लो ढूढ ही लो
तो क्या वह तुम्हें पहचान लेगा
खतरा है कोई भी कभी भी तुम्हारे चेहरे पर अपना दावा ठोंक सकता है
कानूनी रूप से यह सही भी है
कि तुम एक आदमी नहीं
हिन्दू हो
चमार हो ठाकुर हो बाभन हो
चीखो आजकल आवाजों ने यात्रा पर जाने का विचार छोड़ दिया है
तुम्हारी आवाजें तुम्हारे ही गाल पर झापड़ की तरह बरसेंगी
खतरा है कि तुम्हारे गले में अब भी पूरी वर्णमाला फंसी है  
खतरा है कि तुम मानोगे नहीं
तमाम खतरों के बावजूद
एक दिन बोल पड़ोगे


9. गंगा

हहराती हुयी कुछ औरतें आयीं
और गंगा में समा गयीं
कुछ भजन रह गये
बालू में चिपके
टहटह लाल सिन्दूर था
तुलसी के सिरहाने
थकान थी उम्र भर की
चिंतातुर थीं
वे औरतें थीं
कि सोचती थीं
गंगा मइया के पास सरकारी नौकरी है
बेटियों के लिये उपयुक्त वर है
पति के बवासीर की कोई दवाई ?
पूछतीं गंगा में डुबकी लगाती औरतें
अंचरा पसार गंगा के आगे
माथा नवाती
गंगा भी औरत थी
दुख जानती थी
मिट्टी के ढेले सी गलती थी
बहती थी कि आग सी जलती थी
उन दोनों को नहीं पता था
आसमान में भगवान की जगह
एक काला कौआ रहता है
आश्चर्य कि हहराती हुयी
वे औरतें जिस गंगा में समा गयीं
वह गंगा भी अब नहीं रही


10. जीवन पूरा हरा नहीं होता

जानती हो मुन्नी
कितनी भी उम्मीद पाल लो
कितना भी रंग भर लो
जीवन कभी भी पूरा हरा नहीं हो सकता


जानती हो मुन्नी
सपनों में अक्सर तुम बड़ी हो जाती हो
कहीं घूमने निकल जाती हो
आवाज देने से भी नहीं सुनती हो
लगता है मेरा कद मुझसे बड़ा हो रहा है
आसमान की पूरी नाप मेरे दो कंधों के बराबर है


जानती हो मुन्नी
जब जब जिस जिस बात पर खुश होती हूं
तब तब उसी बात से डर जाती हूं
डर को अगर दफन करूं
तो डर लगता है
बरगद बन फिर उग जायेगा
फिर थोड़ा जोखिम उठाती हूं
तुम्हें अकेले ही जाने देती हूं कोचिंग
देर रात भेज देती हूं सब्जी लाने
रूई की गुड़िया की तरह तुम्हें सहेज कर नहीं रखती


जानती हो मुन्नी
जानती हूं मैं
कई बार हलक में अटक जाती है
उतनी ही तुम्हारी आवाज
जितनी मेरी जान अटकती है
तुम्हारे देर से आने पर
शंका की दीवार बहुत ऊंची है
समय भी हमारा साथी नहीं है
अखबार में छपी नुची हुयी
सलवार वाली लड़की का चेहरा
पता नहीं क्यों तुम्हारे चेहरे में बदलने लगता है


जानती हो मुन्नी
तुम्हारा इस कुसमय मे
तीन बार कपड़े बदलना
चार बार बाल झाड़ना
खुश रहना खुद मेरी ही निगाह को चुभता है
फिर भी तुम्हें मना नहीं करती


जानती हो मुन्नी
हारा हुआ योद्धा जैसा सोचता है
ठीक वैसा ही सोचती हूं
अगर जीवन पूरा हरा नहीं हो सकता
तो पूरा काला भी नहीं हो सकता
हम कैनवास में थोड़ा गुलाबी थोड़ा सफेद रंग भरेंगे
हार कर भी नहीं हारेंगे
थक कर भी नहीं थकेंगे


जानती हो मुन्नी
अगर हम इतना डरेंगे
तो इसी  जीवन में सौ बार मरेंगे


संपर्क :
प्रज्ञा सिंह
निवास - आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश)
ईमेल - pragyasingh2109@gmail.com