ग्लेडिएटर


एक झटके में 
होता सीना चाक ग्लेडिएटरों का
टप–टप गिरता खून
रेत में जा सूखता
लगते थे ठहाके
पवित्र रोम के अभिजातों के
साक्षी है कोलोसियम
एक आश्चर्य 
सभ्यता का

एक शरीर के चूकते ही
आ जाता दूसरा शरीर
गुलामों का
मजदूरों का
सीधे–सीधे कहें तो
मजबूरों का

उनकी नजर में
वे ग्लेडिएटर थे
एम्फीथिएटर के खिलौने थे
जिनके खातिर न ताबूत था
न कफन
पर दरअसल वे
हमारी दुनिया के शहीद थे

भूल चुके हम उन्हें
भूल चुके उनके विद्रोह को
उनके नेता स्पार्टकस को
रोम से कापूआ के बीच खड़े 
हजारों सलीबों को
उन पर टंगे गुलामों को
बस याद रह गया है 
भव्य कोलोसियम 

आज रोम का सीनेट
इसी स्मृतिलोप का फायदा उठा रहा है
पूरे ग्लोब पर छा रहा है
उनके एम्फीथिएटर बड़े होते जा रहे हैं
उसी अनुपात में ग्लेडिएटर बढते जा रहे हैं
जोड़ियाँ तय की जा रही हैं
अभिजात आज भी इन अखाड़ों में
पैसे लगा रहे हैं
पैसा बना रहे हैं

सीरिया, ईराक, अफगानिस्तान जैसे
विशाल एम्फीथिएटरों में
किसान–मजदूर एवं गुलामों के बेटे
लहूलुहान हो रहे हैं
यथार्थ जानने से पहले ही
चूक जा रहे हैं
हालात वही है
बस
औजार बदल गए हैं

हम राष्ट्रवाद के नारों के बीच
ग्लेडिएटरों को गिरता देख रहे हैं
रेत पर, मिट्टी पर

कहाँ देख पा रहे हैं ?
कि हर मुकाबले के बाद
हमारे बीच के लोग
कम होते जा रहे हैं





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