स्वाति बरनवाल का लेखकीय दखल कविता, कहानी एवं आलोचना के क्षेत्र में है। वह हिंदी साहित्य की गहरी अध्येता है। यह अध्ययन उनकी रचनाओं में दिखता है। वहीं एक चित्रकार की हैसियत से वह मन में उभरते बिंबों को अपनी कूची से जीवन्त कर देती है। कलम एवं कूची का यह अद्भुत संगम उन्हें विशेष बनाता है। शीघ्र उनका पहला कविता-संग्रह हमारे बीच आनेवाला है। आइये, उस संजीदा रचनाकार की संवेदना से पगी अर्थवान कविताओं से मिलते हैं।
1. स्पर्श की भाषा
क्या रिश्ता था
जो समझ नहीं आया अबतक
खून का नहीं था
लेकिन सहज ही चला आया था जीवन में
ढूंढने नहीं गई थी।
दुख में हिम्मत, लेकिन
सुख का साथी
नहीं कहा जा सकता
स्वार्थी नहीं, पर
निस्वार्थ जैसा ही कुछ था
नहीं कहा जा सकता
विचारों में कोई मेल नहीं
मतभेद बराबर बना रहता
उम्र और अनुभव से परे था वो
क्या था मालूम नहीं।
मीठी हँसी जो अपनी महक बिखेर देता था
मन के कच्चे प्रांगण में
स्पर्श की भाषा
मूर्त होते हुए भी अमूर्त रहा समूचा...
एक-सा नहीं होता हर दिन
लेकिन वो साथ रहा
स्मृतियाॅं बसी हुई हैं उसकी
होंठों पर नाम है
पर बुदबुदाया नहीं जाता
यह हँसी, होंठों पर उसकी स्मृतियों की है
जो रहकर रहकर एकदम शांत और सुस्त कर देती है
एक क्षण को।
समझने की कोशिश
बेकार जाती है बार-बार।
वो निश्छल आकाश-सा
नील में सनी, उसकी कमीज
वो सफेद कॉलर
हर तरह के रंग घुल सकते थे उसपर
क्या कुछ बाकी था ?
संदेह है मुझे इस पर।
बंधना चाहती थी उससे
चाहता तो वो रुक भी सकता था
मगर जाते-जाते
तमाम वर्जनाओं को तोड़ने का वादा लेकर गया मुझसे।
2. अनारक्षित कमरा
ये हमारा अनारक्षित कमरा है
जिसकी खातिर दिनों दिन बढ़ती जा रही है प्रतिस्पर्धाएं
कामचलाऊ घड़ी और
दीवारों की सीलन से
जिसकी छत अब मकड़ियों के जाल में कैद है।
हवा का स्पर्श पर्दे की कान गुदगुदाता
तो कभी गौरैया की चहचहाहट से
धूप खिल-खिलाकर हॅंसती है
पाँवपोश की जमीं पर।
अलमारी की किताबों के
आड़ में रखी
सल्फास और फिनायल की गोलियां
बचा लेती है उन्हें
दीमकों के
संगी-साथियों के अत्याचार से।
इस कमरे की ईंटे
मेरे पिता की पसीने से जुड़ी है
मैंने उनकी संपत्ति का नमक चखा है
स्वाद के एक टुकड़े में
आरक्षित कमरे की संभावना है
जो बार-बार, लौट आने को विवश करता रहेगा।
3. ईशान कोण
उनकी दाल हमेशा गलती रही
और वे मथते रहे समूचा व्यक्तित्व
निंदा की मथानी से।
उनके साथ साथ ही चली आई थी
कोई अज्ञात पीड़ा...
जाने वाले हमेशा
अतिथि की तरह आते हैं
जिनकी कपड़े हमेशा टंगे रहते हैं हैंगर पर
उनकी ट्रेनें हमेशा निर्धारित तिथि पर
खड़ी रहती है
किसी घुमावदार मोड़ पर।
उनके चले जाने पर कोई हर्ज नहीं
शोक नहीं।
उसी ट्रेन की सीढ़ियों से हौले से
उतरता है एक अमुक व्यक्ति
बंद गले का पैरहन
और दाएं हाथ में सूटकेस लिए
कलाई पर बंधी घड़ी भी
इसी बेतरतीबी से देखता है कि अपनी नियत समय पर ही
अपने गंतव्य को आ पहुॅंचा हो।
एक अनजाना और अनचाही प्यास लिए
बढ़ाने लगता है हमारे साथ
कदम दर कदम
और सदा-सदा को वास कर लेता है
ईशान कोण में
जिनकी विदा की कल्पना भर से लगता है
दिल के देवता कूच कर गए।
4. मँझधार में फंसी एक नाव
गहराती मन की मिट्टी-जल में
जो अचानक अँखुआ उठे थे कुँईं के बीज
आज धुंधलाती सी बिखरी पड़ी हैं
चहुॅंओर।
गमकते स्वप्न से टकराती जा रही धूप की राक्षसी हँसी
या उम्मीदों का पुलिंदा फट जाने पर
पंखे की रिरियाते हवाबाज़ी से
मछलियाॅं करती रहीं कलह
कि आखिर कब तक ये द्वंद पानी तक सीमित रह सकता है।
स्वप्नलोक से जैसे अभी अभी उठाकर फेंक दी गई हो सड़क की गर्म देह पर
प्राणहीनता का बोध
भींगाती है स्मृतियों की बौछार से
संवेदना के श्वेत रंग पर आ चिपकता है राख, बालू, मिट्टी का बोझ...
असहनीय है
अंगूठे के पोर से चींटियों की दौड़।
सिरहाने पड़ी हुई
किताब और
उसके अंदर पड़ी हुई है उसके लिखे खत
जिसमें वादों का एक अंबार-सा झड़ रहा है दिनौंधी हुए
आँखों में उग आए स्मृति पटल पर।
कलम नहीं चलती
थककर, रुकने का इरादा तय कर चुकी है
कि अब और नहीं
हो चुका जो नहीं होना था
जो होना है वो कैसे भी हो जायेगा
कहकर कराहती है
जैसे नदी के मँझधार में फंसी
एक नाव।
5. दीवार की परछाइयाँ
चाॅंद की दूधिया अंजोरिया में
हम दोनों कितने पास होंगे
कि देर रात ढूॅंढते रहेंगे
एक के बाद
बार-बार आँखो में उतरने के बहाने।
टूटते उल्कापिंडों से माॅंगते रहेंगे मन्नतें कि
सदा घटती रहे ऐसी घटनाएं...
आसमान के बैंजनी एकांत तले
तुम टाॅंक देना
एक सितारा माथे पर
फिर टिका कर अपना माथा
एक दूसरे के कंधे पर
सुनते रहेंगे
ध्रुव तारा और सप्तऋषियों की स्नेहवर्षा में
जुगनुओं की बातें...
कि एकांत में ऐसा क्या कहते है पेड़
जो भूकभूकाती रहती है
सिहरती शाखाओं पर!
रातरानी की राग
जो बिछड़ने नहीं देती
झुरमुटों को अपने आलिंगन पाश से
जिसकी धुन पर थिरकती रहती है
दीवार की परछाईयाॅं
जो एक-दूसरे में बसे है एक-दूसरे से अधिक।
6. प्रेम का डाइनेमो
जब भी हम साथ होते हैं
दुकेले नहीं होते
गहराती रात में भी नहीं,
हमारी समीपता में कोई तीसरा, चौथा और पाॅंचवां होता है
संगीत, सुगंध और उत्सव के रूप में।
हमारा साथ समाज के
तय मापदंडों पर निर्भर नहीं करता
वे परिवार के अनन्य सदस्य जैसे ही
वे आकाश में तैरते हैं
चाॅंद, तारें और जुगनूओं की नाव बनकर
काॅंच की चूड़ियाॅं और पायल की खनखनाहट
एकांत में संगीत मालूम पड़ते हैं
हमारे भीतर के उजाले में
संयोग, तुरपाई करता है
मौन लिपि में उधेड़बुन की
आम, महुआ और इमली
की मादकता,
चीख-चीखकर बतलाते हैं
सुनो!
जीवन की सारी बातें
अनावश्यक हैं इस क्षण के आगे
हमारी हथेलियों की आधी-अधूरी रेखाओं से उगा चाॅंद आशाऍं सॅंजोता।
हम दोनों का साथ
हमारा सामर्थ्य गढ़ता है
और सामर्थ्य, प्रेम का डाइनेमो है।
7. तेरे स्वप्न बड़े हों
उन दिनों एक अज्ञात डर में,
बाल नोचती रोज़-रोज़,
थोड़ी-थोड़ी करके अपनी गुंथी चोटियाँ काटती,
चिल्ला-चिल्लाकर रोने को होती, तब तक नींद खुल जाती।
नास्तिक नहीं हूँ, मगर सीताराम-सुमिरन नहीं भाता,
लंबे बाल खूब पसंद हैं, लेकिन छोटे बाल संतुष्टि देते हैं।
एक समय बाद
जीवन में पसंद नहीं, जरूरत मायने रखता है।
मुझे घिन आती है उन यादों से,
जो गुजरकर भी चिपका रहता है जोंक की तरह छाती पर।
भावनाएं भी बर्फ की तरह पिघलती,
तो कभी बाढ़ के पानी की तरह तट का सीना चीर दृष्टा को मिटा देना चाहती।
जो एक स्वप्न की तासीर देकर डकैत बन चुके,
जो कभी कहते थे, "जा, तेरे स्वप्न बड़े हों।"
8. अनिवार्यता
वे विरक्ति के दिन थे
जहां पक्की उदासी घर में पैर जमाएं बैठी थी
वे कच्ची भावनाओं की पक्की सिलाई
उघड़ने के दिन थे
जरा सा
स्पर्श पाते ही जाती रहती थी
मन से मलिनता।
खुद को व्यस्त रखने की कोशिश में
हर दिन नये- नये प्रयोगों से
कमरे की दीवारें सजी होतीं और किताबें बुक सेल्फ में सुसज्जित न होकर
बिखरी रहती थी
चटाई पर, मेज पर और बिछावन पर।
विवशता और विरक्ति की घनी उदासी में
हम टकराये
जहाॅं सबसे अधिक जरूरत थी हमें
एक-दूसरे की।
सुन्दर भविष्य के लिए तमाम रंग संजोए,
ख़्वाब बुने कि हमारे जीवन में
एक-दूसरे की उपस्थिति
पाॅंचवीं कक्षा से दसवीं कक्षा की सिलेबस जैसी है
जिससे ऊबकर भी
टूटकर और डूबकर सहेजे रखना जीवन की पहली अनिवार्यता होगी।
9. ओ मेरी अच्छी आत्मा
अगर सच कहूॅं तो
क्या तुम मानोगी कि अक्टूबर की आख़िरी
सपनीली
रात की पहली बारिश में
बंद खिड़की को प्रवेश-द्वार बनाती
पेड़ों से बेख़ौफ़ इत्र चुराती
इठलाती, इतराती, चिकमिकाती
हवा का स्पर्श ही तुम्हारा स्पर्श है
जो छू कर तुम्हें अभी अभी मेरे सिरहाने लौट आया है
सस्नेह!
सुनती हो!
तुम्हें जब भी मेरी याद आए तो
लौट आना चाहे अमावस की काली रात हो या पूर्णिमा की।
तुम आना
तुम लौट आना
मेले से घेवड़, जलेबी और बताशे देने के खातिर
कि तुम अकेली अन्न का एक दाना नहीं चखती
तुम लौट आना कब्रिस्तान से बाबा की अस्थियां लेकर
कि अकेली नहीं जा सकती गंगा में बहाने
कॉलेज की किताबों में जिल्द लगवाने या अस्पताल के कोने में पड़ी बीमार, अपाहिज बुढ़िया के लिए एक वक्त की रोटी के लेने के बहाने।
अनाथालय से किसी अनाथ बच्चे को पुचकारते लौट आना
कि हमसे बेहतर नहीं हो सकता कोई
वालिदैन
नहीं दे सकता इतनी अच्छी परवरिश
नहीं दे सकता इतना लाड़-दुलार जिसमें बिगड़ने से ज्यादा संभावना हो बेहतर मनुष्य बनने की।
ओ मेरी अच्छी आत्मा!
पारे से छितराते जीवन को सहेजने के लिए ही सही
तुम लौट आओ मुझमें।
इस बार सच में लौट आना आकाश की धवल चादर ओढ़े
जिनकी दीवारें पुत सकती है
पिछली सालों की साथ की हर
काली-कमियाॅं से लीपकर
प्रेम के हर रंग से सराबोर।
तुम्हारे लौट आने को मैं तुम्हारा आना समझूॅंगा मेरी जान।
10. जतन
धरती के गर्भ में अँखुवाते
रिश्ते नहीं जानते कि
आसरा पायेंगे या
घुल जायेंगे मिट्टी-जल-कण में
फिर भी वे उग आते हैं
जैसे आती है टहनियों पर
चुप्पी साधे कोमल पत्ते, रंग-बिरंगे फूल और कच्चे फल
हम कच्चे उम्र के साथी
जानते हैं चुप्पी की घूँट घोंटकर
एक साथ खिलना, पकना और झरना
उम्र कपास की फाहे की तरह
नित उड़-उड़ रही है
धूप, दीप, फूल, गंध में
या हो चुके अवकाश में
लेकिन हर बार का तुम्हारा
मौत के मुॅंह से मुझे खींच लाना
चौड़े और ऊॅंचे कंधे देकर
वक्त जरूरत के बीच
पिता की तरह जतन कर लेना
स्त्री-मन की बंजर भूमि को थोड़ी अधिक आर्द्र और नर्म बनाने की कला है।
लेखक परिचय :
बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले के गाँव कठिया मठिया में 15 मार्च 2001 को जन्मी स्वाति बरनवाल ने एम. ए. (हिंदी) तक शिक्षा प्राप्त की है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताऍं और आवरण चित्र प्रकाशित होते रहे हैं। साथ ही कई पुस्तकों के आवरण पर उनके चित्र उनकी कला को अर्थवत्ता प्रदान करते हैं।
संपर्क:
ईमेल: barnwalswati63@gmail.com

1 टिप्पणी:
आदरणीया जी आपकी सभी रचनाएं मर्पमस्पर्शी यथार्थ परक सच्चाई पर निर्भर करती है। बेहतरीन सृजन। हार्दिक बधाई एवं मंगलमय कामनाएं।🙏🙏🙏😊
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