अनिला राखेचा की कविताएँ


पिछले दिनों पटना के एक कार्यक्रम में कोलकाता से नीलांबर की टीम आयी थी। कविता-पाठ के सत्र में अनिला राखेचा को सुनने का मौका मिला। उनकी कविताएं सुनते हुए लगा कि इस आवाज को उपेक्षित करके आगे बढ़ा नहीं जा सकता। उनकी कविताएं बड़ी सहजता से संप्रेषित हो रही थीं। सहज पंक्तियों में प्रतिरोध दिखाने की कोई सायास कोशिश नहीं, पर प्रतिरोध था कि दिख जाता। अंतर्मन का द्वंद्व पंक्तियों में आसानी से उभर आता… प्रेम कविताओं की मिठास अंतस को तृप्त करने लगती। भाषा में लयात्मकता के साथ आरोह-अवरोह विद्यमान था, कहीं व्यंग्य के पुट के साथ यथार्थ की विद्रूपता दिखाई देने लगती। रचनाकार से उम्मीद की जाती है कि आने वाले समय में उनकी कविताएं पाठकों को संवेदित करने के साथ वैचारिक रूप से समृद्ध करती रहेंगी। आइए, उनकी कुछ कविताओं को एक साथ पढ़ा जाय।


1.  नागरिक


उसके पास आँखें तो हैं
मगर सिर्फ़ देखने के लिए


उसके पास कान तो हैं
मगर खुद को सुनने के लिए


उसके पास ज़ुबाँ तो है
मगर सिर्फ़ तालू से सटे रहने के लिए  
उसके पास बाजू तो हैं
मगर सिर्फ़ ख़ुद का बोझा ढोने के लिए


उसके पास गर्दन तो है
मगर सिर्फ़ हिलाने के लिए


उसके पास हाथ तो हैं
मगर सिर्फ़ एक-दूसरे  को सहलाने के लिए


उसके पास पेट तो है
लाचारी हजम कर जाने के लिए


उसके जिस्म में बहता लाल पानी तो है
धीरे-धीरे बर्फ़ में तब्दील हो जाने के लिए


टिका रखा है उसने अपने जिस्म को
उन दो पैरों पर
जो पीछे की ओर मुड़े हैं


खड़ा है आज वह स्थिर
ना तो वह आगे जा पा रहा है
ना पीछे !


आखिर कब तक खड़ा रहेगा इस तरह
इस हाल में  हमारे प्रजातंत्र का आम नागरिक !
     
2.  निश्चालन


आज फिर से मैं
फ्रिज के सामने खड़ी हूँ,
अपनी समस्त भावनाओं को
फिर से फ्रिज कर रही हूँ...
अचानक हुई
जिंदगी की लोडशेडिंग में
ये डिफ्रॉस्ट हो गई थी,
कल रात गल-गल कर ये
आँखों की कोरों से बह रही थी,
उन्हें ही फिर से
सहेज कर रख रही हूँ
हाँ.. मैं आज फिर से
फ्रिज के सामने खड़ी हूँ...
बाहर का तापमान तो
बहुत गिरा हुआ ही है
मन के पारे को भी
मैं गिरा रही हूँ
गर्म उबलते जज्बातों को
गहरी डिश में सजा रही हूँ
नरम एहसासों को सख्त बर्फ में
तब्दील कर रही हूँ
लो.. आज फिर से मैं
फ्रिज के सामने खड़ी हूँ...
कभी जो तेरे हृदय में
हाहाकार मच जाए,
मन की आँच तेरे
चेतन जीवन को जलाए,
छाले पड़ी दीवारों को
कभी बर्फ की जरूरत पड़ जाए,
इसलिए अपने सारे अश्रुओं को
मैं आज जमा रही हूँ
नितांत अकेली आज मैं
फिर से फ्रिज के सामने खड़ी हूँ,
अपनी समस्त भावनाओं को
मैं फिर से फ्रिज कर रही हूँ !!


3. हूँ तो बहुत अच्छी


हूँ तो बहुत अच्छी
मगर मुझे अपनी दुकान चलानी नहीं आती !


सामान सजाना जानती हूँ
मगर सामानों की बिक्री नहीं आती !


नहीं आते हैं वे दाँवपेंच जिसके तहत
बटखरों के जोड़-घटाव किए जाएँ
कुछ उनकी अनसुनी सुनी जाए !
कुछ अपनी अनकही कही जाए !


नहीं कुछ कर पाती हूँ
इसलिए चुपचाप चली जाती हूँ
जिए जाती हूँ मर-मर के
हर ज़ख्म सिए जाती हूँ !


कोयलें गा कर जा चुकी हैं
मोरों के नाचने के दिन आए
दूध-फीणी, घेवर-जलेबी
दाल बाटी चूरमा सब सवाए !


आँखें बँद किये चल रही हूँ पानी पर  
शायद दूर कहीं सड़क तैरती नज़र आए !


मंज़िल तो है पर्वत की चोटी पर टँगी
उतना दूर मुझसे चला नहीं जाता
वहाँ बस मेरी सोच ही चली जा रही  !


बादलों से नमक झरने लगा अचानक
सबने कपास की छतरी तान ली है


हरियाली में छिपी हरीतिमा को सबने पीना शुरू कर दिया है
सो अंबर ने भी अब अपना काला तिरपाल बाँधना छोड़ दिया है !


अब तो वह उतरता है लाचारी की आँखों में
क्योंकि बेबसी की तो कोई जात नहीं होती है ना


अब तो आने वाला वक्त
खिलाएगा सभी दरख्तों पर
मजबूरी के फल !


बैठ गई हूँ सावधान की मुद्रा में
सामने से ग्राहक आ रहे हैं !


4. झूठा दंभ


उस दिन दीवारों को
हो गया था गुमान ....
हम से ही बना है यह घर
सजे हैं हमसे ही
सारे साजो सामान .....
हमसे ही छत ने
अपना स्वरूप पाया है
टिकी है हम पर ही
छत की यह काया है...
दीवारें, दीवारों से मिल
इतरा रही थी,
छत के अस्तित्व को
धता बता रही थी...
छत का अस्तित्व ही
दीवारों का सरमाया था,
दीवारों का वजूद इसे कहाँ समझ पाया था...
दिवारें इस बात
इस सोच से थी बेखबर,
उनकी सलामती की खातिर ही
छत ने पीया हर मौसम का जहर...।
दीवारें खुद की परिपूर्णता पर
खुशियाँ मना रही थी, और
छत खुद से ही, खुद के
आँसू छुपा रही थी.....
खुद को समझाते, आँसू छिपाते
सदियाँ गुजर गई...
छत पर नजर आते थे
सूखे आँसुओं के दाग हर कहीं...
आँसुओं की नमी ने
एक दिन ऐसा कहर ढाया...
छत का संपूर्ण अस्तित्व
भरभराकर नीचे आया....
आज वह वस्त्र विहीन दीवारें
अपनी हालत पर लजा रही हैं,
हो खंडहर में तब्दील वे
जिंदगी जीने की सजा पा रही है...


5. उस रात
         
उस रात खिड़की दरवाजे सभी बंद थे
मगर फिर भी, चल रही थी
शीतल मंद बयार...
उस रात फ्लावर पॉट सभी खाली थे
मगर फिर भी, आँखों के आगे थी
रंगीन फूलों की बहार...
उस रात सूर्य ग्रहण की अमावस थी
मगर फिर भी, मन के भीतर था
फैला धवल उजाला...
उस रात तारों विहीन आसमान तो था
मगर दो दिलों के जज्बातों ने
उनके कार्य को संभाला...
उस रात पसरी हुई गहन खामोशी तो थी
मगर नैनों की नैनों से
जमकर हुई थी बात...
उस रात सागर की सीपी खुद चल आई थी
और जाते-जाते दे गई
श्वेत मोती की सौगात...
उस रात दोनों अपने-अपने शहरों में बैठे थे
मगर फिर भी तय कर रहे थे
वे मीलो लंबा सफर...
उस रात बाद न जाने कितनी भोर आई थी
मगर सफ़र वो ज़ारी था
थे दोनों बस बेखबर...!!
       
6. तुम्हारी कविता


जब भी पढ़ती हूँ तुम्हारी कविता
पढ़ने के बाद पसर जाता है मौन
शब्द जो हरकतें कर रहे थे बड़ी देर से
हो जाते हैं वे खामोश, गौण
और हृदय के अतल में उतर वे
करने लगते हैं नाना प्रकार के नाद
तब मूकता का नीरवता से
होने लगता है संवाद
एक ऐसा संवाद जिसे
तुम मेरे बिना कहे ही सुन लेते
मेरे बिना लिखे ही जिसे तुम
मेरी आंखों में पढ़ लेते
मेरे ये अनकहे, ये अनलिखे शब्द
तुम्हारे पढ़ते ही झरने लगते
मेरी पलकों की कोरों से
मेरी अलकों के छोरों से
गुंथने आ जाते फिर तुम उन्हें
अपनी फुर्सतों के डोरो से
चुन-चुनकर अक्षरों-अक्षरों के फूल
और शब्द-शब्द की पाती
तुम्हारी रचनाधर्मिता फिर एक
नई कविता रच पाती
जिसे आज मैं
फिर से पढ़ने बैठ रही हूँ
जानती हूँ, जिसे पढ़ने के बाद
फिर से पसर जायेगा मौन
छा जाएगी खामोशी और
शब्द हो जाएंगे गौण...!!
         
7. चोरी


कितनी सफाई से चुराते हो तुम
अपनी कविताओं के लिए
हमारे वाचाल वाक्यों में से शब्द और
रच लेते हो एक खूबसूरत-सी कविता
जिसमें भरी होती है सरसता-सरलता
बिल्कुल हमारे ही व्यक्तित्व की तरह


जानते हो तुम्हारी कविताएं मुझे
इतनी प्यारी क्यों लगती है
क्योंकि उन कविताओं के कतरे-कतरे में
मौजूद रहता है अस्तित्व हमारा
मौजूद रहती है हमारी आत्मा
हमारी रूह… हमारा हर लम्हा...
हमारा अतीत, हमारा भूत, हमारा वर्तमान
हम... हम... और सिर्फ हम...


हमारे अलावा वहाँ
कोई भी मौजूद नहीं होता है
वहाँ भी हम नितांत अकेले होते हैं
होते हैं बिल्कुल तंहा खुद की ही तरह
हमारी ही तरह तुम्हारी कविता के शब्द भी
खुद ही खुद से बातें करते हैं
समझाते हैं खुद को ही जीवन का दर्शनशास्त्र
मगर इस बात से बेखबर तुम
हमारे वाक्यों से निकालते हो
अपनी कविताओं का ब्रह्मास्त्र...
छोड़ते हो उसे लोगों के जेहन पर
तीर-सी जाकर चुभती हैं उन्हें तुम्हारी कविताएं
मगर कहाँ समझ पाते हैं वे तुम्हारा यह वैशेषिक शास्त्र


मानती हूं मैं... मानती हूँ
तुम अपनी कविताओं के ब्रह्मा हो
उसके कर्ता-धर्ता संघार हर्ता हो
मगर ख्याल में रखना
बस हमारी इतनी सी बात
अगर हम ना होते तो ना मिलती
तुम्हें ब्रह्म होने की सौगात


इसलिए ऐ कवि महाशय, खुद पर न इतना गुरुर करो
चोरी तो की है तुमने अब बस जुर्म अपना कबूल करो


8. बूंद-बूंद भी अक्षर-अक्षर


नहीं
आज नहीं झर रहे हैं उस झरने से
बूंद-बूंद भी अक्षर-अक्षर


नहीं तो मैं उन बूंदों को जोड़-जोड़
बना लेती कुछ शब्द
फिर शब्द-शब्द को मिला
रचती कुछ वाक्य


वाक्यों पर वाक्यों की तहे लगा
बुन डालती एक नई कविता
ऐसी कविता जैसी तुम चाहते हो
ऐसी कविता जिसमें दर्द हो, पीड़ा हो
हो भरा जिसमें नारी का शोषण
तृप्त मन-माटी का अतृप्त बीजारोपण


है ना यह अजीब सी बात
कैसे करूँ इसे पूर्ण


हालांकि, वर्षों से परिचित हूँ मैं
‘निराला जी’ की उस नीरा से
जो तोड़ती थी पत्थर
स्वीकारी हुई पीड़ा से


और हाँ, रूबरू हो चुकी हूँ मैं
अपनी कवि मित्र की,
‘रधिया' से भी कई बार,
मर चुकी सड़क को जो
खिलाती थी,
जिंदगी का कोलतार


मगर मेरे मखमली जीवन पर
नहीं अब तक कोई टाँट की रेखा है
इन आँखों ने अभी तक कभी
नहीं उस दर्द को देखा है


वातानुकूलित वातावरण में रह
कैसे उनके वातायन को देख पाऊँगी
धरी नहीं कभी तगाड़ी सर पर
तो कैसे कविता की रीढ़ बनाऊँगी.


कहाँ सुनी कभी मैंने उस
गुरु हथौड़े की वो काँपती झंकार
झुके माथे से ढ़ुलकते मोती
और दृष्टि के वे छिन्न तार


नहीं, मैं कुछ भी तो नहीं गढ़ पा रही हूँ
इस तरह का इस ऊँचे गढ़ में बैठकर
आज नहीं झर रहें हैं
उस झरने से
बूंद-बूंद भी अक्षर-अक्षर.


9. भूमध्य रेखा


हमारे भाग्य की वो लकीर
जो नज़र नहीं आती थी
खुद हमें भी


आज वो गहरी, काली रेखा-सी
खींच गई है हमारे हाथों में
किसी रूपसी के आँखों के
काजल की तरह...


और तुम्हारा स्नेह-जल पाकर
बढ़ गई है हथेली के
इस छोर से उस छोर तक,
किसी भूमध्य रेखा की तरह...


मन की इस भूमध्य रेखा के
इस छोर पर मैं खड़ी हूँ
और उस छोर पर तुम,
किसी दक्षिणी और
उत्तरी गोलार्द्धों की तरह...


और बाँट लिया है अपना
सब कुछ आधा-आधा
ठीक विषुवत रेखा पर
बाँटे गये दिन-रात की तरह...


इस भूमध्य रेखा पर स्थित
हमारे मन प्रदेश में प्रीत का
सूर्योदय तो हो ही चुका है
सूर्यास्त ना हम होने देंगे कभी...


वरना खारे जल के साथ बह जायेगी
किसी रूपसी की आँखों के
काजल की तरह
हमारे भाग्य की वो लकीर...!!
       
10. दुखों का पेड़


कुछ दिनों पहले आप ने कुछ बीज दिये थे,
हर बार की तरह मैंने
उसे आप की अनमोल सौगात मान कर
सीने में रख दिये थे...


पाकर सीने की गर्मी व नमी
बीज की जड़ें हृदय में जमी
मैं खुश थी इस बार आपने
जो दिया वो बढ़ रहा है
दिन दूना रात चौगुना हो रहा है
मगर मैं पगली, ये कहाँ समझ पाई
आपने तो हमें, दुखों की सौगात भिजवाई...


आज वो दुखों का अंकुर
एक वृक्ष में बदल रहा है
प्रतिपल वक्ष में ही अपने
अस्तित्व को बढ़ा रहा है


निकल आई है आज उसकी
शाखाएँ-प्रशाखाएँ भी...
तलाश रही हैं वे जगह
बढ़ाने को अपना वजूद भी...


कुछ मेरे कानों और कुछ आँखों से
बाहर आ रही है
कुछ मेरे लबों पे खड़ी
मुस्कुरा रही है
मेरी सोच मेरे दिमाग पर भी
उन्होंने कब्जा जमा दिया है
अब इस दुख के अलावा मुझे
सोचने को और क्या रहा है -


दुख ही सुन रही हूँ...
दुख ही देख रही हूँ...
दुख ही सोच रही हूँ...
दुख ही कह रही हूँ...


मेरी तो छोड़िये जनाब -
जो होना था हो गया आज
डरती हूँ, क्योंकि-
उन शाखाओं पर
अब फूल उग आये है...
उनमें आने वाले फलों के मुझे
दिख रहे गहरे साये हैं...
कल को जो भी इन्हें खायेगा
भविष्य में एक दुखी पेड़ बन जायेगा


सो मैंने उन फूलों को तोड़-
सीने में छिपा लिया है...
अब ये पेड़, ये फूल
वक्त के साथ-साथ
मेरे सीने में दफन होते जायेंगे
मेरे साथ ये भी एक दिन
वक्त की बात हो जायेंगे...


आज मैं बहुत खुश हूँ
खुश हूँ इस बात पर की
भले ही मैंने जग को खुशी का
एक बीज भी न दिया है,
मगर दुखों का पेड़ बनने से
मैंने उन्हें बचा लिया है ...


11. दिल पर पहरा


रफ्तार की पहन पैरों में मुजरी
सर पर बाँध तनाव का सेहरा
देखो आज लगा दिया लोगों ने
अपने ही दिल पर है पहरा…


चेहरे पर विषाद रेखाएं
नहीं तकते कभी दायें-बायें
नाक सीध पर चलते जाएं
घटती रहें चाहे जघन्य घटनाएं
देख दिल कहीं पिघल न जाए
सो लगा दिया है लोगों ने देखो
अपने ही दिल पर है पहरा
मासूमियत को बना लिया है
मक्कारी ने अपना मोहरा….


कानों में डाले बेदर्दी के फाहे
कोई चीख-चित्कार न इनमें जाए
करुणा खड़ी पुकार लगाएं
विवेक शर्मसार हो जाए
देख नैनों से कहीं नीरद न बह जाए
सो चढ़ा लिया है लोगों ने देखो
आँखों पर काला चश्मा है गहरा
संवेदना को कर दिया है
उपेक्षाओं की पीर ने बहरा…


माना तू जा पहुँचा है राका
प्रकाश गति को तुमने नापा
मंगल में खींचे जीवन का खाका
पर निज मन में है कितना झाँका
देख दंभ कहीं दंड धारण कर जाए
सो जमा दिया है लोगों ने देखो
दिलो दिमाग पर जड़ता का कोहरा
मानवता को डस रहा है
भौतिकता का सर्प विष भरा…


रफ्तार की पहन पैरों में मोजरी
सर पर बाँध तनाव का सहरा
देखो आज लगा दिया लोगों ने
अपने ही दिल पर है पहरा!!


परिचय :


अनिला राखेचा कोलकाता निवासी हैं। उनका जन्म 23 अप्रैल को पश्चिम बंगाल के कूचबिहार जिले के माथाभांगा गाँव में हुआ था। छत्तीसगढ़ में दुर्ग जिला के भिलाई नगर में सम्पूर्ण बाल्य काल व्यतीत हुआ और यहीं से रविशंकर यूनिवर्सिटी के तहत कल्याण महाविद्यालय से स्नातक की उपाधि भी प्राप्त की। वे स्कूली छात्रों को घर पर ही हिंदी की शिक्षा देती हैं तथा हिंदी साहित्य का अध्ययन व मनन करती हैं। इस क्रम में उनकी लेखनी चलती रहती है तथा देश की विभिन्न पत्रिकाओं में उनकी कविताएं, समीक्षा, कहानियां छप चुकी हैं। आकाशवाणी कोलकाता से उनकी कई कविताओं, कहानियों का प्रसारण हो चुका है।


ईमेल - anila.rakhecha@gmail.com

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

अनिला जी की कविता बहुत ही सुंदर भावपूर्ण है वैसे भी इनकी की कविता को सुनने व पढ़ने का मौका मिला है और ह्रदय को छू लेने वाली कविता है