प्रज्ञा उम्मीद की कथाकार हैं… उम्मीद ऐसी कि जैसे कोलतार की सड़क को फाड़ दूब बाहर निकल आयी हो। उनकी कहानियों में वैयक्तिक, पारिवारिक तथा सामाजिक मुद्दों पर गहराई में जाकर बात होती है और इस संवाद-विमर्श में पाठकों को केवल संवेदित भर नहीं करतीं, बल्कि प्रश्न खड़े करती हैं। उनकी कहानियों को पढ़ते हुए उनकी लेखन-शैली में एक क्रमिक विकास का पता चलता है… कहानियों की अंतर्वस्तु में ही नहीं बल्कि भाषा-शिल्प के स्तर पर भी। पहले संग्रह ‘तक़्सीम’ के बाद आया नया संग्रह ‘मन्नत टेलर्स’ पाठकों को आश्वस्त करता है।
आइये पढ़ते हैं उनके संग्रह ‘मन्नत टेलर्स’ की कहानी ‘उलझी यादों के रेशम’, जो पिता-पुत्री के रागात्मक संबंध एवं पिता के अकेलेपन की त्रासदी की कहानी भर नहीं है, बल्कि इसमें फन लपलपाते पितृसत्ता के साँप की झलक भी है, प्रोफेशनल होते जाते संतानों के कारण बनते प्रोफेशनल संबंध भी है।
उलझी यादों के रेशम : प्रज्ञा
सूराख के पार एक दीवार
आज फिर मैं हूं, ये मकान है और इसके भीतर एक बड़ा-सा सूराख। मुझे न जाने कितने ही दिन बीत गए यहां आते। बार-बार लौटती हूं इस घर में लेकिन मेरा यहां लौटना क्या लौटा लाएगा सब कुछ? कोई ही दिन बीतता होगा कि ये मकान मेरी आंखों से रत्ती भर हट पाता हो। आज फिर उन्हीं दीवारों के बीच खड़ी हूं। सारा सामान अपनी बेरौनक शक्ल में मौजूद है। वही बरसों बरता हुआ केन का सोफा जो जगह की कमी के चलते कभी सोफा सेट न बना और दो बेमेल फोल्डिंग कुर्सियों के सहारे काम चलाता रहा। हर आने-जाने वाले को संभालता। दो कमरे के इस मकान में आखिर क्या बदला? वही पुराना सामान, वही पुरानी उसकी जगह। बरसों से थमा हुआ सब कुछ। दीवान, फ्रिज, टी़वी ,घड़ी कुछ बहुत पुराना तो कुछ पुराना पर जमा हुआ है स्थायी भाव से। एक इंच टस से मस नहीं। इन्हें समेटे दीवारें शुगरकेन येलो पेंट वाली जिनकी पपड़ी उतर गई है। पेंट से नीचे की पुट्टी भी दरक गई है जगह-जगह से। सारी दरारें मिलकर मानो एक बड़ा-सा सूराख हो चली हैं। एक सूराख जिसमें एक घर कैद है। घर ? यहां मेरे अकेले आते रहने से क्या ये घर कहलाएगा? मैं हूं जो इस सूराख के पार छिपे घर की पुख्ता दीवारें देख पाती हूं। मेरे लिए इस सूराख से पार होना कितना कठिन है । पापा के पसंदीदा शुगरकेन येलो रंग वाली दीवार को निकाल पाना। इस सूराख से गुजरना एक यातना है पर पता नहीं क्यों हर बार इसी यातना से गुजरती हूं। यातना के भीतर से एक कतरा सुख निकाल लाने की मेरी तड़प ही मुझे यहां खींच लाती है या मेरा बार-बार यहां चले आना इसलिए तो ज़रूरी नहीं कि कहीं किसी दिन ये सूराख बंद न हो जाए और मैं उसके भीतर रची पुख्ता दीवार न खोज पाऊं?
समय को फलांगती इस दीवार से सूराख का सफर तय करती मैं लौटा लाती हूं इस मकान में कहीं खो गईं वो सारी आवाज़ें जो सिर्फ आवाजें नहीं एक जीता-जागता समय है। आज भी उन आवाज़ों में किस कदर बसा है शोर-‘‘बिट्टू! संभाल कर, तेरी जल्दबाजी में सारे बर्तन टूट न जाएं।’’ मैं जानती थी मां की मृत बहन की बड़े जतन से सहेजी हुई निशानी थी वह क्रॉकरी। जिसे हमने कभी इस्तेमाल नहीं किया और आगे भी ये घर के किसी सुरक्षित कोने में जमी रहकर मां को अपनी बहन से जोड़े रहेगी। मां को लगता था इस्तेमाल करने से उसके भीतर बसा यादों का भरा-पूरा संसार नष्ट हो जाएगा। दो कमरे के इस घर में आने के पहले दिन न जाने कितने बरसों बाद उसे मैंने छुआ था अनेक बरसों तक फिर यों ही छोड़ देने के लिए। पापा का उत्साह तो देखते ही बनता था। सालों जोड़ी-बचाई गई कमाई से बनाए इस घर में कोई पुरानी घिसी, टूटी, बदरंग चीज उन्हें गवारा नहीं थी। अजब तमाशा देख रही थीं हम बहनें। मां थीं कि ‘मत फेंको...तुम्हें मेरी कसम’ की रट लगाए थीं और पापा ‘अरे! छोड़ो नई ले लेना’ कहते हुए मां की सभी कसमों के साथ पुराने सामान को हटाते जा रहे थे। छोटा भाई वरुण इन सबसे बेखबर खाली जगह में कूद-फांद मचाए था। सालों-साल किराए के मकान में रहने के बाद अपने घर में आना गजब एहसास था। नए पेंट की खुशबू , चमक से लकदक दीवारें और दीवारों के बीच हमारी चहकती आवाज़ें। भाई को बंधे सामान से अभी ही क्रिकेट बैट चाहिए था। पापा को जल्दी थी कि टैम्पो से उतरा सामान जो सड़क पर लावारिसों-सा पड़ा है, उसे घर ले आएं। मां एक ओर मालकिन बनी इतरा भी रही थीं तो दूसरी तरफ सबके खाने की चिंता में गिरफ्त थीं। मैं और छोटी गुड्डू होड़ करती हुई इस घर को रचने की अपनी नन्हीं कोशिशों में लगी थीं।
सूराख के भीतर की दीवार आज भी वैसी ही पुख्ता, उतनी ही लकदक, वैसे ही नए पेंट की खुशबू में डूबी थी जितनी मेरे ज़हन में सारी स्मृतियां। वो दीवार एक शोर थी और ये सूराख सन्नाटे में पसरा था।
उलझी यादों के रंग-बिरंगे रेशम
‘‘बहुत हुआ माया! निकलो अब इन सबसे बाहर। अपना घर संभालो और अपने बच्चे देखो।’’
क्या जवाब दूं अखिल की इस बात का जो मेरे यहां आने के कुछ समय बाद फोन पर कोफ्त से भरकर गूंजती है। उन्हें अब कतई पसंद नहीं इस घर की यादों को मेरा सहेजना, छाड़ना-पौंछना और दुलारना। मैं उस कोफ्त को तार-तार करके कहना चाहती हूं-‘‘ये भी मेरा ही घर है, मेरी रंग-बिरंगी यादों का घर। जरा देखो, रेशम के नाज़ुक धागों से बनी यादें किस कदर उलझ गई हैं। किसी को तो इन्हें सुलझाने का समय निकालना होगा न अखिल? क्या घर यूं ही छोड़ दिए जाते हैं मिटने के लिए? दोनों घर बचाने की मेरी कोशिशें अखिल को क्यों दिखाई नहीं देतीं? क्या ये घर अब किसी के लिए घर नहीं है? ये वही अखिल है जिसके लिए पापा ज़माने की तलवारों से लड़ने वाली ढाल बन गए थे। हमारे रिश्ते को खारिज करती मां को भी पापा ने समझा-बुझा कर मना ही लिया था आखिर।
‘‘दूसरी जात का लड़का है...कौन आएगा शादी में? कितनी जगहंसाई होगी फिर दोनों भाई-बहनों का क्या होगा? कौन करेगा उनसे शादी?’’ चिंता की शक्ल में मां की लगातार सवाल करने की आदत हो गई थी उन दिनों।
‘‘ मीता की शादी पहले कर दो न पापा! हमें कोई जल्दी नहीं है। अगर आपको लगता...’’
‘‘कैसी बात करती है माया? अखिल से कहना तुमने जो सोचा है वही होगा।’’ पापा ही थे उन दिनों जिनकी वजह से अखिल का प्रेम बच पाया। उसी अखिल को पापा का घर नहीं दिखता अब। उसे पापा की बिट्टू नहीं अपनी माया ही दीखती है। शादी के बाद पापा की प्यारी माया को भी कहां संभाल पाया था अखिल? और तो और पापा का घर वरुण ने भी कहां देखा था इतने दिनों से। मां के जाने के बाद ऊपर-ऊपर से पापा से कहता ज़रूर था अपने घर ले चलने की बातें पर भीतर कहां चाहता था। घर से दूर,शहर से दूर उसने अपना आशियाना तो बनाया था पर कहां थी उसकी हालत पापा को वहां रखने की। उसके घर में कौन चाहता था पापा का आना। मीता भी दूसरे शहर में थी अपनी नई जिम्मेदारियों में व्यस्त। आती थी पर अधिक रुकना उसके लिए भी संभव नहीं था। मां होती तो रुकती भी शायद। हम तीनों के घर रचते-रचते पापा का घर उजड़ रहा था। ज़माने की आंधियों से जी खोलकर लड़ने वाले पापा को अपनी बेटियों के घर जाना गवारा न था। कितने खुद्दार हो चले थे पापा । यों ही नहीं उमड़ आया था इस घर के लिए उनका लाड़-‘‘तुम्हारी मां की यादें हैं यहां। कहां जाऊंगा उन्हें छोड़कर?’’ हमें कई बार लगता पापा के लिए ये घर मौसी की क्रॉकरी-सा हो गया है। बेहद जरूरी चीज़ों को छोड़कर घर की चीज़ों को छूने से बचने लगे थे पापा। न एक्टिव रहते थे और न ही पहले से चहकते थे। उदासी ओढ़कर घंटों पड़े रहते थे। अकेलेपन को अपनी नियति मानकर कितने चुप होते चले जा रहे थे धीरे-धीरे। कर कोई कुछ नहीं रहा था, सब केवल देख रहे थे। पापा और उनकी चुप्पी दोनों कितने अकेले थे। पूरे घर में कभी कितने किस्से गूंजते थे और आज अधूरे घर में सब कहानियां शांत हो गईं।
ऊंचाई के रौशनदान
‘‘बस पापा! बहुत झुलाया इन दोनों को, अब मेरी बारी’’
मीता और वरुण को पापा अपनी कोहनी के झूले में कितनी देर तक झुलाते रहे थे। अपने दोनों हाथों को सिर पर मजबूती से टिकाए और पैरों को गोलाकार घुमाते हुए। धरती से ऊपर हवा में तैरते हम तीनों। पापा खुद झूला बनकर हमें खूब ऊंचा उठा देते। पार्क की घास,क्यारियां, फूल सब कितने नीचे रह जाते। एक छोटी-सी नौकरी में भी जाने कैसे वो हमारी उम्मीदों का आसमान बना रहे थे। या कहूं कि आसमान घर में उतार लाए थे। दोनों कमरों में कितने ऊंचे रौशनदान बनवाए थे उन्होंने। गर्मी में कमरे के ठंडे फर्श पर लेटो तो आसमानी रंग साथ लेटा लगता था और रात चांद संग बीतती थी। लेटते ही आंखें इन रौशनदानों की जद में आ जातीं। छोटा-सा कमरा अचानक कितना बड़ा हो जाता।
‘‘चल देर न कर बिट्टू! आज कॉलेज का तेरा पहला दिन है। कितनी छुटकी थी कल तक आज कहां पहुंच गई।’’ कल तक कोहनी पर झूलने वाली लड़की के हिस्से का अपना रौशनदान बना दिया था पापा ने। कितनी सारी धूप बरस गई थी मेरे चारों ओर। धूप की सीढ़ियां चढ़ते हुए मैं सूरज के पास पहुंच गई। मैं ही क्यों मेरी मीता और वरुण के हिस्से में भी उनके रौशनदान तैयार हुए। हमारी खुशियों के आड़े कभी न आई पापा की जेब। वहां तो सिक्के थे जो हमारी खुशी से खनकते।
‘‘दीदी! हम तीनों की जेब में अब हमारे सिक्के हैं। खनखनाते। खूब सारे...हमारे अपने।’’
समय के साथ हम तीनों के कद से रौशनदान की दूरी कम होती जा रही थी। मां-पापा के जीवन की सभी इच्छाओं के हम फूल थे। अचानक मेरी शादी होने के बाद मां नहीं रहीं। उनके दिल के कई अरमान देर से ही सही पूरे हुए पर दिल का दौरा असमय पड़ा। सारा घर एकबारगी हिल गया। मीता और वरुण की जिम्मेदारियों की शक्ल देख पापा अपना गम़ भुला बैठे। पर क्या वो सचमुच का भुलाना था या एक भ्रम था जिसे उन्होंने बड़ी कोशिशों से हमारे और अपने बीच खड़ा कर लिया था। कितनी दफा निरीह सा दिखता था वह भ्रम। तभी तो सब जिम्मेदारियों से फारिग होने के बाद पापा के कंधे और अधिक नहीं झेल सके उस भ्रम का बोझ या वो खुद ब खुद छिटक गया। पापा के बी़.पी और शुगर लेवल दोनों कितने बढ़ गए थे। कमरे में छोटी टेबल हमेशा दवाइयों से भरी रहती। घर की गंध में दवाएं घुल गयी थीं। मैं और वरुण कितने मल्टीविटामिन और सेहत के सिरप भी लाकर देते थे। पर पापा को याद कहां रहता था उन्हें लेना। अवसाद की छायाएं बड़ी लंबी होती हैं। वे भूल जाती हैं खुशियों के रास्ते।
‘‘हँसा करो न पापा! इतने उदास क्यों रहते हो? मिनी और टिक्कू के साथ पहले की तरह खेलो न पापा।’’ बच्चे पापा का मुंह देखते पर उन्हें अपने नाना उसमें नज़र नहीं आते। ‘मन लगाओ न पापा’-कहना ही क्या काफी था? कैसे लगता पापा का मन? मकान में घर कहीं खो चुका था और पापा अपने ही भीतर कहीं खो गए थे। घर से मेरे विदा होने के बाद मां थी, मां के बाद मीता-वरुण के लिए पापा थे लेकिन उनके बाद पापा के पास कोई नहीं था। दोस्त, पड़ोसी, रिश्तेदार सब थे पर सबकी अपनी दुनिया थी। अकेले में पापा न जाने क्या सोचा करते थे। सोच में घिरे उनके शब्द बोलना भूल रहे थे। फोन पर भी बस संक्षिप्त सी ‘हां-हूं ’। पड़ोसियों के साथ भी बोलना-बतियाना बंद। अब तो कितना कुछ भूलने लगे थे। कल की ही बात भूल जाते, लोगों को भूल जाते, सुबह की दवा खाई न खाई उन्हें याद न रहता।
‘‘गुड्डू, वरुण, मिनी, टिक्कू...माया जरा सुन तो’’
मुझे बुलाने के लिए पापा कितने नाम पुकारते। गड्डमड्ड होती रही उनकी याददाश्त। पापा भूल रहे थे या भरे-पूरे घर के दिन उनके मन में टीस उठाते थे। मैं भी तो कितना कम समय निकाल पाती थी उनके लिए। पड़ोस की दुकान के मोहन अंकल उनके हालचाल ले लिया करते थे। घर और नौकरी की जिम्मेदारी में पास होते हुए भी पापा दूर होने लगे। दोनों रौशनदान अचानक बहुत ऊंचे हो गए थे या फिर हम तीनों उसके आगे बेहद बौने।
आईना बदला हुआ है
टिक्कू के दाखिले की भागदौड़ में इस बार घर जाना न हो पाया। बीच में पता लगा था कि वरुण पापा को देख आया है तो थोड़ी तसल्ली थी। कई दिनों के बाद स्कूल से लौटते हुए कदम पापा की तरफ मुड़ गए। किवाड़ भिड़े हुए थे। मैं ठेलकर अंदर आ गई। दिल धक्क। क्या हुआ पापा? पापा ज़मीन पर औंधे पड़े थे। कोई हरकत नहीं। एक चीख के साथ मैंने उन्हें सीधा किया। खुली बेजान उनकी आंखें पता नहीं कहां देख रही थीं एकटक। दीवान का कोना सिर में तेज़ी से लगा था और खून बह रहा था। डॉक्टर ने ड्रेसिंग की। पापा बेजान से बैठे रहे। मेरी नजर उनसे हटी तो देखा घर बेतरतीब था। उसकी सूरत पापा से किस कदर मिल रही थी।
‘‘ किसे रिझाने बिना नागा शेव करते हो? कितना मल-मलकर नहाते हो? किसी के लिए पानी बचे न बचे,तुम्हारी बला से। किसी को कितनी जल्दी क्यों न हो पर तुम्हारे सिंगार पूरे होने चाहिए।’’ मां के शब्द घर की दीवार चीरते बाहर आ गए। पापा के लिए कहे जाते थे अक्सर ये शब्द और आज उलझे से तेलहीन बाल, खिचड़ी- सी दाड़ी, ढली हुई त्वचा और हंसी भूला चेहरा। इन दिनों घर का आईना भी उन्हें पहचानने से इंकार करता है।
‘‘पापा! बस करो न मेरा पेट फट जाएगा। अब और जोक नहीं प्लीज़।’’
मेरे गुस्से के बावजूद वो हंसते-हंसते चुटकुले सुनाते जाते। कितनी दफा मैं ‘क्या-क्या’ करती रहती। साफ शब्द न सुन पाती और पापा को लगता मैं उनके हर शब्द को पकड़ रही हूं । अपनी दोहरी हंसी में वे अपनी ही बात पर आंखों से पानी छलकाते, हंसते जाते। हंसी में कितनी छोटी हो जाती थीं उनकी आंखें और आज फटी-फटी आंखों से न जाने क्या देखते रहते हैं? मैंने सारा घर ठीक किया। कामवाली को फोन करके सारी हिदायतें दीं। उसे भी दरवाज़े से लौटा देते हैं कितनी बार, उसने बताया। पापा के कपड़े बदलवाए, मुंह-हाथ धुलवाए, प्यार से खाना खिलाया तो घूरते रहे। अचानक जैसे चेतना लौटी-‘‘तू कब आई बिट्टू?’’ तो क्या पापा इतनी देर से यों ही...मेरी जगह कोई और होता...कोई अपराधी या....और पापा? मेरी रुलाई , सिसकियां बनकर गले तक आइंर् ज़रूर पर घुटकर गले में ही रह गईं। पापा के आगे, नहीं। अभी बिल्कुल नहीं। घुटी हुई सिसकियों ने सीने में तूफान मचा दिया। मेरे सीने में अचानक तेज दर्द की लहर उठी। ये सिर्फ पापा की उम्र नहीं थी कोई बीमारी थी। एक खतरा मेरे सामने था। जिससे सब बेखबर थे, खुद पापा भी। घर साफ-सुथरा हुआ और पापा भी कुछ मेरे पापा जैसे। वे मुस्कुरा रहे थे। मां को बहुत याद कर रहे थे। मेरे लाख चाहने पर भी उन्होंने मुझे जिद करके घर भेज दिया। जाने से पहले उनका खाना बनाकर टेबल पर रखा और पानी का गिलास उनके सिरहाने। कितनी पुरानी आदत है उनकी, रात में पानी पीने की। चलते समय मैंने देखा, कितना संतोष था उनके चेहरे पर।
खो गई याद किसी जंगल में
‘‘उनसे पूछो उन्हें पता होगी कहां रखी है पुरानी से पुरानी कोई चिट्ठी,चाबी, या तस्वीर- उन्हें सब याद रहता है।’’ मां के ये शब्द पापा की याददाश्त से कितनी ईर्ष्या रखते थे। वो अपने छोटे से बटुए में भी अक्सर कुछ न कुछ खो बैठतीं। मैं बचपन से ही देखती आई थी पापा की याददाश्त के कमाल। हर चीज़ उन्हें उसकी जगह संग याद रहती। ‘‘अल्मारी के तीसरे खाने में बाएं तरफ कोने में ’’- एकदम सही जगह बता देते थे पापा। बंद आखों से भी चीज़ मिल जाती थी और आज? एक साथ उनकी सारी तरतीबी, बेतरतीब हो गई। ऐसे कब होते चले गए पापा? रिटायर होने के बाद से ही तो कितने सुस्त हो चले थे। नौकरी ही क्या एक वजह थी उनकी सारी खुशियों की? सब बदल गया था उसके बाद। न कोई रूटीन, न कोई चुस्ती। एक बेपरवाही उतरती जा रही थी उनके जीवन में जिसमें लाचारगी की रंगत थी। मां की कोशिशें भी नाकाम रहीं। बरसों सुखी दाम्पत्य बिताने वाले ये लोग अब भरपूर समय मिलने पर भी समय को काटते थे। उनके दिन-रात एक अबूझ पहेली से हो रहे थे। हारे हुए उदास से रहने वाले पापा को मां का जाना तोड़ गया था। एक लौ फिर से जली थी जीवन में। मां के जाने के बाद फिर लौटे थे पापा पर पुराने रूप में कतई नहीं। एकाएक कुछ कहां मिटता है पर उसके मिटने की सूक्ष्म रेखाएं हम पकड़ नहीं पाते। अब जीवन में दुर्घटनाएं ही हमें चौकन्ना करती हैं उनकी चेतावनी देने की भाषा और संकेत नहीं। हमने उन पर ध्यान देना बंद कर दिया है। घर से निकलकर मैंने सोच लिया था कल पहला काम पापा को हॉस्पीटल लेकर जाना है। अब और देर नहीं, किसी भयंकर तनाव के शिकार हो गए हैं पापा। अरुचि और अवसाद की परतों में कैद ये शख्स और मेरे पापा? यादें अतीत की आंच पाकर फिर सुलगने लगीं।
‘‘ तनाव हो हमारे दुश्मनों को’’- सारी चिंताओं से बेफ्रिक रखने वाले पापा, उन्हें कहीं अल्ज़ाइमर...कहीं डिमेंशिया तो...। मुझे तो फर्क तक नहीं पता दोनों में। बी.पी. और शुगर तो बरसों से उनके संग था ही। ‘‘गोली खाओ मस्त रहो’’-इन्हीं शब्दों की आंच में जीवन का सोना पिघलाते रहे सदा।
हजारों बेचैन करवटें लिए रात आज कुछ ज्यादा ही लंबी थी । हर करवट आगाह करती -पापा को अब अकेले नहीं रहने देना है। बेचैनी घुमड़-घुमड़कर पूछती ‘‘ रोज़ सींचना था जिस पौधे को, उसे क्यों धूप में तन्हा छोड़ दिया झुलसकर नष्ट होने?’’ उस लंबी रात में जाने क्या-क्या याद आता रहा। याद आया शायद कहीं पढ़ा था अकेला पौधा ढंग से पनप नहीं पाता, किसी साथी के संग खुश रहता है और हम सबने पापा को मिलकर सजा दी। उन्हें तन्हा छोड़ दिया। हमारे जीवन की सारी खुशियों के संगी पापा अपने जीवन के सबसे उदास दिनों में एकदम अकेले थे। वो मज़बूत शाख जिसने हमारे घोंसले रचे उसकी नमी झीजती रही और हम अपने घोंसलों में आबाद रहे। शाख से पत्ते तेजी से झर रहे थे। एक तेज़ झटका मेरे पूरे शरीर को हिला गया। ‘‘पापा! अब और नहीं।’’ रात अपनी बेचैनियों में थकाने के बाद न जाने कौनसे पहर मुझे नींद की आगोश में ले गई। अखिल के झकझोरने से ही नींद खुली। आज मेरा स्कूल न जाना उसकी आंखों में फिर अखर गया। सब काम अपनी गति से अंजाम देती मैं जल्द से जल्द पापा के पास पहुंची।
किवाड़ आज भी भिड़े मिले कल की तरह। आज भी आशंका लिए मैं भीतर दाखिल हुई कि कहीं उन्हें कोई चोट न लगी हो कल की तरह। पर आज की चोट मेरे हिस्से में लिखी थी। साठ गज बेहद मामूली-सी जगह होती है पर आज उसका हर हिस्सा टटोलने में मुझे वक्त लगा। दिल-दिमाग सन्न , आवाज़ गले में कैदी और होश फाख्ता। पापा कहीं नहीं थे। सिरहाने धरा गिलास चुप था, मेज पर रखी खाने की प्लेट कल रखे जाने से अब तक बेहरकत थी। खाना जस का तस। कमरे का हर सामान खामोश बस मेरा दिल ज़ोर-जोर से धड़क रहा था। कब गए,कहां गए जैसे सवाल लिए मैं बदहवास बाहर भागी। आंखें रास्ते पर जमी थीं पैर पड़ोसियों के घर भाग रहे थे। ‘‘हमने उन्हें नहीं देखा...कई दिन से नहीं देखा।’’- कहीं से कोई जवाब नहीं। ‘‘बेटा! दुकान दस बजे खुलती है तबसे तो उन्हें नहीं देखा।’’ गली की दुकान के मोहन अंकल ने भी उम्मीद तोड़ दी। पापा कहां हैं, कोई नहीं जानता। कहीं कोई सूराग नहीं उनका। वो कब, कहां, कितने बजे घर से निकले किसी को नहीं पता। मैं घर के बाहर सड़क पर कितनी दूर दौड़ती आ गई। गली, चौराहा, बस स्टैंड...यहीं से तो चलकर गए होंगे पापा..यहीं से, पर कहां? सड़क कितनी कठोर थी आज। चप्पल के नीचे उसकी कठोर परत तलवे को छील रही थी बेतरह। मेरी हर नाकामी आज मेरे चेहरे पर सैकड़ों तमाचे जड़ रही थी। आंसू बहाती मैं वरुण और मीता को ये बुरी खबर दे रही थी। आज ये घर खाली था उस शाख सरीखा जिसके बचे हुए चंद पत्ते भी झर चुके थे। खतरे में था आज उम्मीद का वसंत।
कोहरे सनी रातें
‘‘चाहे कितनी ही देर हो जाए, लौटकर घर ही आएंगे। इस घर के सिवा कहीं और रह ही नहीं सकते तेरे पापा।’’ सर्दी के दिनों में जब रातें लंबी होतीं और कोहरे की चादर ताने रास्ते धुंधला जाते तब मैं और मीता दरवाज़े पर खड़े पापा का इंतज़ार करते । कोहरे को चीरकर कोई आकृति बाहर आती मन कहता -‘‘पापा’’। मां सच कहती थीं पापा कहीं नहीं रह सकते थे हम सबके बिना। देर से ही सही लौट आया करते । आज रास्तों पर फिर वही कोहरा था। आज फिर हम पापा के इंतज़ार में थे। आज क्यों याद आ रही थी मां, बार-बार? आज फिर दोहराओ न मां वही शब्द जो लौटा लाएं पापा को अपने घर। सुबह से रात हो चली। परेशान वरुण सभी परिचितों के घर फोन कर चुका था पर कहीं से कोई खबर उसकी उदासी न हर सकी। मीता अपनी छुटकी को लिए अपनी फितरत से भिन्न कितनी खामोश थी। मैं मिनी और टिक्कू को भी यहां ले आई थी। न जाने कितने दिन लगेंगे। आज पापा की दिली ख्वाहिश पूरी हो रही थी पर उसे पूरा होते देखने वाले पापा नदारद थे। आज कितने दिनों बाद हम तीनों एक साथ घर में थे।
‘‘देखिए! यह कोई अपराध तो है नहीं सो तफतीश अपने तरीके से ही होगी। उनका ध्यान रखना चाहिए था न आप सबको .. आप भी पता करते रहिए, कहीं चले गए होंगे गुस्से में। आ जाएंगे दो-तीन दिन में। भरोसा रखिए।’’ बहुत इंतज़ार के बाद जब हम थाने पहुंचे तो गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाने का यह रूटीनी जवाब मिला। हमारे लिए जो हैरतअंगेज़ था उनके लिए बेहद सामान्य। पापा अब लापता थे। अखबार रोज़ उगलते थे ऐसी कितनी खबरें। अब पापा भी उन तमाम लापताओं के साथ एक खबर थे। ऐसी खबर जो पलक झपकते ही रद्दी में फेंक दी जाती है। टी.वी पर अक्सर आने वाली ये सूचनाएं किस कदर उबाऊ जान पड़ती थीं पर आज दुनिया बदल गई। उन सूचनाओं में पापा का चेहरा भी शामिल हो गया। दिन, सप्ताह में और सप्ताह, महीनों में बदलते जा रहे थे पर कोहरे की चादर न हटी थी न छंटी थी, वो दिन-ब-दिन घहराती जा रही थी। मैं अक्सर सोचती असंख्य लोग लापता हो जाते हैं, कहां जाते होंगे वे? क्या वो सब मिलकर अपनी दुनिया बना लेते हैं कहीं? या पहले से बनी किसी गुमशुदा दुनिया का हिस्सा हो जाते हैं ? क्या सब हादसों में मारे जाते हैं? जो बच जाते हैं वो क्यों नहीं लौटते अपने घर वापिस? रोज़-रोज़ उनके गायब होने का सबब क्या है? सब तो हार नहीं जाते ज़िंदगी से? दुखों के पहाड़ तले पिसने का खौफ उन्हें लौटने नहीं देता या घर के रास्ते भूल-भुलैया में खो जाते हैं कहीं। ऐसा क्या हो जाता है कि घर बरसों उनकी राह तकते हैं और उन्हें घर याद नहीं आता? वही घर जो कभी उनकी दुनिया था। भरी-पूरी दुनिया में कहीं खो गए वो चेहरे पहले लापता कहलाते हैं और बरसों बाद बिना किसी सबूत के मृत मान लिए जाते हैं। उन्हें ढूंढने वाले थाने भी एक समय के बाद उन्हें मरा समझकर केस खत्म कर देते हैं। वे कभी नहीं सोचते लोगों का न मिलना उनकी मौत का प्रमाण नहीं होता। कितना आसान होता है दूसरों के लिए लापता लोगों को मरा हुआ मान लेना ।
परछाइयां सब तितर-बितर
‘‘ढूंढ न मीता कहां खो गयी? धरती खा गई या आसमान निगल गया। किसी को दी होती या चोरी चली गयी होती तो और बात थी ,घर से ही कहां गायब हो गयी बिट्टू?’’ कितना रोई थी मां उस दिन। सौंफ-इलायची रखने वाली पीतल की उस छोटी-सी तश्तरी से मां को कितना मोह था। खोजते-खोजते हर परछाईं में उसे वही दीखती। वो सब चीजे़ं उलटती-पलटती और निराश होती। उस ढूंढाई में सारा घर बिखरा पड़ा था। शादी के बाद बड़े प्यार से पापा ने दिलायी थी। शायद पहला तोहफा होगा इसीलिए बड़ा प्यारा था मां को। कभी-कभी और इंसानों की नियति एक-सी हो जाती है। वो तश्तरी कभी नहीं मिली मां को पर उसे यकीन था वो घर में ही कहीं है। कहां? कोई नहीं जानता था, और पापा? पापा कहां होंगे? इस घर ने उन्हें भी तो खो दिया।
धीरे-धीरे हम सब लौट आए थे अपनी ज़िंदगियों में लेकिन पापा हमेशा हमारे दिमाग में रहते। हर आहट, हर खटका हमारी उम्मीद बन चला था। आज तलक जितनी भी बार दरवाज़े या फोन की घंटी बजती उतनी ही बार दिल कहता है-पापा। जब-जब घर लौटती हूं लगता पापा इंतज़ार करते खड़े मिलेंगे।
‘‘आ गई बिट्टू! ला दे मुझे घर की चाबी, कितनी देर से खड़ा हूं।’’
कानों में गूंजते ये शब्द पर वहां कोई नहीं मिलता। कितना अजीब है, गई तो मां भी थी पर उसका जाना ऐसे नहीं कसकता-टीसता था कभी। हम मां के अंत के गवाह थे । दुख के बादल तब भी थे पर बरसते-बरसते अब शांत हो चले थे। लेकिन दुख के पहाड़ इतनी जल्दी चूर-चूर नहीं होते। पापा न होकर भी परछाईं से संग रहते । मैं चौंककर पीछे पलटती उनकी हंसी गूंजती पर पापा नहीं लौटते। यकीन से परे न चाहते हुए भी उनके शव की शिनाख्त में कितने मुर्दाघर छान डाले हमने। विरूप शरीरों को हर बार कांपते मन से देखना, आंखों के सैलाब को संभालते हुए घर लौटना , यंत्रणा शिविरों से गुजरना था। किसी गैस चैम्बर से कम नहीं होता था वो मंज़र। सांसें घुटती हुईं, बंद होती जान पड़ती थीं। बार-बार इससे गुजरना। पर क्या हम एक शव तलाश रहे थे पापा से मिलता-जुलता? क्या उसके मिलने भर से दुखों का पहाड़ ,बादल बनकर बरस जाता? इस दुनिया में किसी जीते-जागते इंसान का खो जाना सबसे बड़ी क्षति है। सबसे बड़ी टीस जिसे कभी सबर नसीब नहीं होता। उसका पता ढूंढते-ढूंढते आदमी का पूरा वजूद लापता-सा हो जाता है। दुनिया को खंगालने की सारी कोशिशें और हाथ पर निराशा की गहरी होती जाती लकीरें।
नदी पर एक पुल
‘‘मन नहीं लगता यहां, सोचता हूं सबसे दूर कहीं चला जाऊं।’’ लापता होने से कुछ दिन पहले ही वरुण से कहा था पापा ने। महीने साल बने और साल पर कुछ साल चढ़े । वरुण न जाने कितनी जगह पापा को खोज चुका था। उसे यकीन हो चला था अस्पताल, मुर्दाघर या फिर कोई आश्रम ही अनेक लापता लोगों का संसार हैं। उनकी तनावग्रस्त ज़िंदगियों की आरामगाह। वह हर जगह पापा की तस्वीर संग अपना नम्बर छोड़ आता। जीवन जीते हुए भी उसकी जिंदगी.. हम सबकी ज़िंदगी पापा के लापता होने वाले दिन पर ही थमी-ठहरी रही।
आज भी पापा की तस्वीर देखकर हर बार सोचती हूं क्या अब पापा को गुजरा हुआ मान लेना चाहिए ? पर उनकी आंखों की चमक और बिंदास हंसी मुझे रोक लेती है हमेशा। न जाने कितनी दफा तस्वीर से पूछ चुकी हूं-‘‘कहां हो पापा...लौटते क्यों नहीं?’’ पर तस्वीर हमेशा मुस्कुराती है और मेरे सीने का ज़ख्म फिर बहने लगता है। जहां भी जाती हूं पापा से मिलती-जुलती हर आकृति मुझे परेशान करती है। मीता तो कितनी बार आकृतियों को पापा के सम्बोधन से पुकार चुकी है। इधर मैंने गौर किया था कितने लोग अपने अकेलेपन से लड़ते, चीखते और बतियाते सड़क पर चलते जाते हैं बेपरवाह। फुटपाथों पर बैठकर न जाने किन अदृश्य चेहरों से बात करते रहते हैं। दुनिया के लिए जो अदृश्य हैं उनके लिए वो मूर्तिमान। उनके भीतर की दुनिया में कितने लोगों की बस्ती बस गई है जो सिर्फ उन्हें दिखाई-सुनाई देती है। कभी अचानक तेज़ रफ्तार ट्रैफिक की ओर बदहवास भागते हैं भीतर की कोई आग लेकर। रोज़-रोज़ ये दुगने या तिगुने या उससे भी ज़्यादा होते जा रहे हैं। कितनी दफा सड़क उनका मज़ाक उड़ाती है या अनदेखा करके उन्हें छोड़ देती है। किस को फुर्सत है।
खलल अपनी पुख्ता शक्ल में मेरे दिमाग में रहने लगे हैं। हर नई जगह यहां-वहां भटकते ,मैं पापा को ढूंढा करती हूं। वरुण और मीता भी मेरी ही तरह जूझते हैं अपने हिस्से के दुख और ग्लानि से। इस जीवन में हमारी मुक्ति हमें संभव नहीं लगती। एक तन्हा और बीमार आदमी की तन्हाई से हम बेखबर रहे और उसकी बीमारी के प्रति घोर लापरवाह।
समय रीत रहा था। अचानक शहर से दूर पापा की खबर देने वाला एक फोन घनघनाया। मुझे वरुण ने बताया। उम्मीदों के हर दरवाज़े पर हमने दस्तक दी थी और आज नाउम्मीदी में एक उम्मीद बनकर फोन आया था। सैकड़ों अज्ञात तूफान तेजी से उठे और धरती-आसमान के बीच अटक गए। सारी दुनिया गति के साथ थी पर मेरे लिए समय रुक गया । तूफान, धरती पर दम लेता तो मेरा समय भी आगे बढ़ता और उसके साथ-साथ खुद मैं भी। शायद अब सब शांत होकर स्थिर ही होने वाला था। डर और निराशा के सभी रंग आज बेरंग होने वाले थे। पापा इतनी पास होकर भी कितनी दूर रहे हमसे। किस हाल में रहे होंगे? कैसे? दिमागी सिलाइयों की उधेड़बुन ने किसी आश्रम का पता एक मशीनी कार्यवाही-सा नोट किया । वरुण और मैं पापा की दिशा में भागे। टिक्कू का बर्थडे था आज। क्या पापा को याद होगा? आज उसे देखकर क्या पहचान पाएंगे ?
‘‘नाम क्या था उनका?’’ आश्रम पहुंचते ही एक नई इनक्वायरी अपने सिरे से शुरू हुई। उनके लिए भी पापा की शख्सियत गुमशुदा थी। एक तेज़ धक्का फिर लगा- पापा ने कभी अपना नाम भी नहीं बतलाया। क्यों पापा सारे ज़माने से खफा अपने भीतर घुट रहे थे? बचपन में हमारे सारे कुसूर अपने सर लेने वाले पापा ने आज हमारे सारे कसूरों की सजा एक साथ दे दी थी।
‘‘ सुरेंद्र कुमार ...’’ बरसों बाद पापा की जगह उनका नाम लिया तो अपने ही कानों को अजीब लगा। पापा और सुरेंद्र कुमार जैसे दो अलग शख्स हो चले थे। दोनों कबसे बिछड़े हुए। आज दोनों न जाने कितने अर्से बाद मिल रहे थे। वरुण का चेहरा बार-बार पापा के बारे में मिट चले आदमी के नक्श पाकर झील-सा हो रहा था। एक ठहरी हुई झील जबकि वो नदी की आस में आया था। और मैं? मैं जैसे सच को सच न मानने पर अड़ी किसी चट्टान में ढल रही थी।
‘‘भूलने की बड़ी बीमारी थी उनको। कुछ भी तो याद नहीं था। किसी से बात नहीं करते थे...इलाज भी चला आयुर्वेदिक..मगर.. वो हमारे पास इतने साधन कहां? हमने बहुत पूछा पर कोई जवाब नहीं मिला। कुछ दिन पहले किसी जगह से उनका फोटो और आपका नम्बर मिला। अक्सर बिस्तर पर ही लेटे रहते थे। बेसुध। हां, दो-एक बार शारदा-शारदा पुकारा, एकाध दफा किसी बिट्टू और गुड्डू जैसा कोई नाम भी लिया। ’’
मेरी हिचकियां तड़पकर कहना चाहती थीं मैं ही हूं उनकी बिट्टू और दूसरी पापा की छुटकी है- गुड्डू, ये उनका वरुण है। बांध तोड़कर बह चले बेरोक पानी को समेटकर मैंने कहा-‘‘कहां मिले थे आपको पापा?’’
‘‘शहर से बाहर एक बस अड्डे पर। लोगों ने बताया कई दिन से वहां पड़े थे। शायद कहीं जाना चाहते थे, हमसे कुछ कहा नहीं। हमारे यहां ऐसे ही लोग लाए जाते हैं। तबसे यहीं ... और बस पिछले साल। कोई पता-ठिकाना था ही नहीं। क्या करते? वो बड़े बीमार थे जबसे आए थे।’’
अर्से से उदास बहती एक नदी के दो पाटों के बीच वरुण एक पुल बना लेने को आतुर था। मुझे यकीन था नदी खिलखिलाएगी और गवाह रहेगा पुल। पापा लौटेंगे तो नदी पर बने पुल से चलता हमारा घर भी लौट आएगा। बरसों से थक चुकी हमारी तनाव की रेखाओं के चेहरे पर अब दूसरी रेखाएं चस्पां थीं। हम लौट रहे थे-अकेले। आश्रम में मृतकों की सूची में अब नम्बर की जगह पापा का नाम था और हमारे हिस्से में पापा की लापता ज़िंदगी का सच।
परिचय :
प्रज्ञा
जन्म 28 अप्रैल, 1971, दिल्ली
शिक्षा-दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में पी.एच.डी ।
प्रकाशित किताबें :
कहानी संग्रह - ‘तक्सीम’ (2016) 'मन्नत टेलर्स' (2019)
उपन्यास - 'गूदड़ बस्ती' (2017)
नाट्यालोचना-‘नुक्कड़ नाटक : रचना और प्रस्तुति’ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से 2006 में प्रकाशित। वाणी प्रकाशन से नुक्कड़ नाटक-संग्रह ‘जनता के बीच जनता की बात’,2008 । ‘नाटक से संवाद’ अनामिका प्रकाशन , 2016
बाल-साहित्य- ‘तारा की अलवर यात्रा’, एन. सी . ई. आर. टी से 2008
सामाजिक सरोकारों को उजागर करती पुस्तक- ‘आईने के सामने’, 2013
कथादेश, हंस, पहल, ज्ञानोदय, वागर्थ, पाखी, परिकथा, बया, जनसत्ता, रचना समय, बनास जन, आजकल, इंद्रप्रस्थ भारती, बहुवचन, वर्तमान साहित्य, पक्षधर, निकट, हिंदी चेतना, जनसत्ता साहित्य वार्षिकी, सम्प्रेषण, हिंदी चेतना, अनुक्षण आदि पत्रिकाओं में कहानियां और आलेख प्रकाशित।
कथादेश, हंस, पहल, ज्ञानोदय, वागर्थ, पाखी, परिकथा, बया, जनसत्ता, रचना समय, बनास जन, आजकल, इंद्रप्रस्थ भारती, बहुवचन, वर्तमान साहित्य, पक्षधर, निकट, हिंदी चेतना, जनसत्ता साहित्य वार्षिकी, सम्प्रेषण, हिंदी चेतना, अनुक्षण आदि पत्रिकाओं में कहानियां और आलेख प्रकाशित।
पुरस्कार -
सूचना और प्रकाशन विभाग, भारत सरकार की ओर से पुस्तक ‘तारा की अलवर यात्रा ’को वर्ष 2008 का भारतेंदु हरिश्चंद पुरस्कार।
प्रतिलिपि डॉट कॉम कथा -सम्मान, 2015, कहानी ‘तक़्सीम’ को प्रथम पुरस्कार।
जनसंचार माध्यमों में भागीदारी -
राष्ट्रीय दैनिक समाचार-पत्रों और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित लेखन।
आकाशवाणी और दूरदर्शन के अनेक कार्यक्रमों के लिए लेखन और भागीदारी।
रंगमंच और नाटक की कार्यशालाओं का आयोजन और भागीदारी।
राष्ट्रीय स्तर की अनेक संगोष्ठियों में भागीदारी
सम्प्रति : दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत।
रंगमंच और नाटक की कार्यशालाओं का आयोजन और भागीदारी।
राष्ट्रीय स्तर की अनेक संगोष्ठियों में भागीदारी
सम्प्रति : दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत।
सम्पर्क : ई-112, आस्था कुंज, सैक्टर-18, रोहिणी, दिल्ली-110089
दूरभाष-9811585399
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