सोनी पांडेय हिंदी साहित्य में एक ऐसा नाम है, जिससे उम्मीद बँधती है. वह आपके संग जुड़ती है तो आपसे अलग नहीं दिखेगी. ऐसी ही उनकी कहानियां हैं. कहिए कि वे आमजन के बीच ही दिखना चाहती हैं... रचना चाहती हैं. अपनी बोली-बानी से अपने रचे गये पात्रों के करीब दिखती कथाकार पाठकों से सहज जा जुडती है. उनका पहला कहानी-संग्रह 'बलमा जी का स्टूडियो' एक बानगी है उनके सृजन की... 'पुनपुन' संग्रह के कवि प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा संग्रह की कहानियों का आस्वादन कर चुके हैं. आइये एक कवि की दृष्टि से उनकी कहानियों का साक्षात्कार करते हैं.
बलमा जी का स्टूडियो : कथा का आस्वाद
सोनी पांडेय का पहला कहानी संग्रह इन दिनों हाथ लगा है- ‘बलमा जी का स्टूडियो’. कथा के आस्वाद से भरपूर यह संग्रह इन दिनों खासा चर्चित रहा है. चर्चित इस मायने में नहीं कि इसने कहानी की कोई नई जमीन तोड़ी है या इसने समय की जटिलता को अभिव्यक्त किया है बल्कि इसलिए कि कहानी के इधर प्रचलित मध्यवर्गीय प्रतिमानों से इतर इसने ग्रामीण निम्न मध्यवर्ग और निम्नवर्ग के जीवन को अपनी कहानियों का विषय बनाया है. इधर की समकालीन कहानियों पर शिल्प का दवाब और वैचारिकी का अतिरिक्त आग्रह इतना अधिक व्याप्त है कि कहानी की मूल अवधारणा और सम्प्रेषणीयता अक्सर खंडित दिखाई देती है. कहानी वस्तुतः कहने और सुनने की चीज है. मतलब साफ़ है कि कुछ बातें है जिन्हें नैरेटर शेयर करना चाहता है इस उम्मीद के साथ कि कोई उसे सुनेगा. कहानी में ‘कहना’ और इसी क्रम में ‘सुनना’ इतना अंतर्गुम्फित है कि इसे मनुष्य की स्वाभाविक और वास्तविक आदिम इच्छा के बतौर हम देख सकते हैं. और जैसा कि संग्रह की भूमिका में वरिष्ठ कथा लेखिका उषा किरण खान ने लिखा है कि‘सोनी नें ग्रामीण स्त्रियों के मन मिजाज को खोलकर रख दिया है. इसके पास न तो कथानक की कमी है, न कथा पात्र की. कथा भाषा आंचलिक ताना-बाना पर संतरण करती निर्बाध प्रवाहमान है’. सोनी ने जिस लोकेल ‘मउ नाथ भंजन’ को अपनी कहानियों का विषय बनाया है वहाँ के ‘जीवन’ और जिस काल में वो घटित हो रही है वह ‘समय’ दोनों को अपनी पूरी संवेदना के साथ एक परिपक्व भाषा में रचा है. यहाँ सृजन और जीवन दोनों एक साथ घुल-मिल गये हैं. यदि जीवन एक सृजन है तो कहा जाना चाहिए कि सृजन भी जीवन से कम नहीं. कला और जीवन का यह द्वैत सृष्टि की एक अद्भुत पहेली है. और इस पहेली की एक अनूठा कोण हैं स्त्रियाँ. कथा लेखिका ने अपनी बात रखते हुए भूमिका में एकदम स्पष्ट कहा है कि ‘मेरे आस-पास की औरतों का जीवन संघर्ष एक ऐसी पतली पारदर्शी परत-सा पसरा है, जो दीखता नहीं है. वे मार खाकर मुस्कुराना जानती हैं. वह अभावों से जूझते हुए भर थरिया भात खाकर दिन भर खटना जानती हैं.’
संग्रह की पहली कहानी ‘बलमा जी का स्टूडियो’ में कथाकार की प्रतिभा खुल कर सामने आती है. यह कहानी मूलतः ग्रामीण यथार्थ को उसकी पूरी भंगिमा के साथ हमारे बीच रखती है. कहानी के पात्र अपने ठेठ ग्रामीण पृष्ठभूमि को अपनी बोली-बानी से न केवल रचते हैं बल्कि एक बदलते हुए समय को रेखांकित भी करते है. यह रेणु और श्रीलाल शुक्ल के समय का गाँव नहीं है जो अपनी भीतरी बुनावट में जड़ जातीय और सामाजिक वितृष्णा को समाहित किये हुए है, वरन यह पूँजीवाद के दवाब में कराहता हुआ गांव है. नये मूल्य स्थापित नहीं हो पाए हैं और पुरानापन एक सिरे से गायब होता जा रहा है. यह पूँजीवाद के हमले से घायल ग्राम समाज की कथा है. कहानी का नायक बलमा एक मजनू टाइप छवि लिए पाठको के बीच उपस्थित होता है. ग्रामीण-कस्बाई क्षेत्र में उसका स्टूडियो लड़कियों के लिए सहज जिज्ञासा का केंद्र है. शादी के लिए लड़कियों को फोटो खिंचवाना एक अनिवार्य काम है जिसके चलते वे लड़कियां बलमा के संपर्क में आती हैं. वह कई लड़कियों को एक साथ पत्र लिखता है. कई तरह के उपहार देता है, परन्तु एक समय बाद जब मोबाईल का तेज प्रसार इस ग्रामीण अंचल में होता है तो बलमा के स्टूडियो का वजूद खत्म हो जाता है. वजह बिलकुल साफ़ है. हर नई तकनीक पुरानी तकनीक और उससे जुड़े मानवीय रिश्तों को खत्म करते चलती है. ऊपरी तौर पर इस कहानी का नायक है यही बलमा... पर पूरी कहानी को पढने के बाद स्थिति कुछ अलग ही दिखती है. दरअसल कहानी का नायक यह पूरा ग्राम समाज है जो अपने भीतर कई-कई बदलाव को महसूस कर रहा है. इसी ग्राम अंचल की टूटन और तकलीफ को सोनी पांडे ने अपनी इस कहानी का विषय बनाया है. यहाँ नायक यह पूरा ग्रामीण परिवेश है जो अपने पुरे यथार्थ बोध के साथ इस कहानी में चित्रित हुआ है.
संग्रह की अगली कहानी ‘टूटती वर्जनाएं’ दरअसल ग्रामीण समाज में वर्जनाओं के बनने और टूटने की ही कहानी है. ग्रामीण परिवार के हर घर में कुछ कुल-परम्परायें किस तरह वर्जनाओं के रूप में जगह बना लेती है यह कहानी इस बात का खुलासा बखूबी करती है. कैसे ग्रामीण समाज में कोई घटना का निराकरण समाज अपनी आस्था अपनी परम्परा और ज्यादातर अपनी सुविधा के अनुसार करता है. ऐसे में ज्यादातर परम्पराएँ अशिक्षा, अज्ञानता और अंधविश्वास के चलते रुढी का रूप ले लेती हैं. इस कहानी में ग्राम समाज के भीतर पैबस्त रुढिवादिता के इसी बिंदु की शिनाख्त की गई है.
‘स्वर्ग-नर्क’ कहानी में कथाकार ने जीवन के अंतिम समय की त्रासदी को रेखांकित किया है. हालाँकि जीवन की त्रासदी को रचते हुए कथाकार ने कर्मफल-भाग्यफल के आधार पर चीजो को सरलीकृत कर दिया है. युवावस्था के दिनों में किये हए कर्मो का फल बुढ़ापे में अवश्य मिलता है यह एक रूढ़ हो चूका फार्मूला है. प्रत्येकव्यक्ति का जीवन संयोगों की अद्भुत कहानी होती है परन्तु ऐसा किसी नियम के तहत नहीं होता.
इस संग्रह की एक अनूठी कहानी है ‘अंजुमन खाला को गुस्सा क्यों नहीं आता’. इस कहानी में जिस गंगा-जमुनी तहजीब की चर्चा की गई है वह पूरी भंगिमा के साथ इस कहानी में प्रकट होता है. सैकड़ों सालों से साथ रहते हुए हिन्दू-मुस्लिम समाज ने सहअस्तित्व के साथ रहना और एक-दूसरे पर भरोसे को विकसित कर लिया है, जो हाल के दिनों में संकटग्रस्त होता दिख रहा है. इस कहानी में कथाकार का अनुभव और संवेदना पूरी परिपक्वता के साथ हमारे सामने उपस्थित होता है. कथानक काचुनाव, भाषा का प्रवाह, संवादों का चयन और परिवेश के चित्रण में कथाकार को इस कहानी में अद्भुत सफलता मिलती हुई दृष्टिगोचर होती है. अपने छोटे-छोटे ब्योरों को तफसील से दर्ज करती यह कहानी इधर की कहानियों में एक प्रस्थान बिंदु की तरह दर्ज की जानी चाहिये.
‘बुद्धि-शुद्धि महायज्ञ’ कहानी में ब्राह्मणों के भीतर जातीय शुद्धता के आग्रह को केंद्र में रखकर कहानी का तानाबाना बुना गया है. कहानी बड़ी खूबसूरती से रुढ़िवादी ब्राह्मण समाज की जड़ता को सामने रखती है.
‘जाजिम’ कहानी में ग्रामीण जीवन में भीतर तक पैबस्त उस सामुहिकता को केंद्र में रखा गया है जो भारतीय ग्राम जीवन की पहचान रही है. जाजिम सिर्फ खाना खाने के ही काम नहीं आता बल्कि वो उस साहचर्य और सामूहिकता को भी दर्शाता है जो अब आधुनिक शहरी पूंजीवादी समाज में सिरे से गायब होता जा रहा है. दूसरे के दुःख-दर्द में शामिल होना उसकी संवेदना में सहभागी बनना क्या अब एक पिछड़ा हुआ ‘नैतिकमानक’ भर है. व्यक्तिस्वातन्त्र्य के नाम पर परिवार और समाज का नकार और समाज के नाम पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का लोप अब ये दोनों मूल्य एक तरह से पिछड़े हुए जान पड़ते हैं. आधुनिकता का एक उपक्रम इनके बीच की उस बारीक रेखा की पड़ताल करना है जो इन दोनों मूल्यों को अपने भीतर समाहित किये हुए हो. ’जाजिम’ कहानी इस बात को बखूबी रेखांकित करती है.
‘कील’ एक मध्यवर्गीय सामंती-जातीय चौखटे में बंधी मानवीय त्रासदी की कहानी है जहाँ कथानायक आदित्य की संवेदना और कथानायिका पारुल की मजबूरियों के बीच एक घुटन आकार ले रहा है.
इसी तरह संग्रह की अन्य कहानियों ‘सुरमा भोपाली’, ‘एही ठैयां मुनरी हेरानी हो रामा’ तथा ‘मोरी साड़ी अनाड़ी ना माने राजा’ सहित कुल दस छोटी-बड़ी कहानियों से गुजरते हुए हम एक ऐसे कथाकार से मिलते हैं जो अपनी मुहावरे और लोकोक्तियों से सजी ठेठ भाषा सम्पदा को अपनी कहानियों में सिरजते हुए संवेदना और विचार की पोटली कथारस के साथ पाठकों के बीच प्रस्तुत करती हैं. जैसा कि सोनी ने लिखा है ‘गाजीपुर का छोटा सा गांव सराय मुबारक देश के तमाम छोटे गाँव जैसा ही है’. बलमा जी का स्टूडियो’ इन्हीं छोटे-छोटे गाँव-कस्बों की कथा है.
प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा
पटना, ई मेल- pcmishra2012@gmail.com
कहानी संग्रह – बलमा जी का स्टूडियो
रचनाकार – सोनी पाण्डेय
रश्मि प्रकाशन, लखनऊ
मूल्य-135 रु.
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