साझी विरासत के नाम


  हर अन्याय, शोषण तथा वर्चस्व, चाहे वह सामाजिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक हो, उसके प्रतिपक्ष का विचार ही प्रतिरोध है। यह प्रतिरोध किसी भी व्यवस्था, जो समाज को नियंत्रित करता हो या किसी खास वर्ग समूह का समर्थन करता हो, का प्रतिकार करते हुए उसका विकल्प ढूंढने की कोशिश करता है। इसी वैकल्पिक संस्कृति की ऐतिहासिक धारा का प्रवाह ही प्रतिरोध की संस्कृति है। मौजूदा समय में समाज की रूढ़िवादी विचारधारा एवं सरकार की तानाशाही प्रवृत्ति प्रतिरोध की शक्तियों का दमन कर रही है और सत्ता के खिलाफ उठती आवाज पर अघोषित सेंसरशिप लगाया जा रहा है।

       वर्तमान समय में "प्रतिरोध की संस्कृति" पर विचार–विर्मश हेतु  दिनांक 7 जुलाई 2024  को गया में 'साझी विरासत के नाम' से एक साहित्यिक आयोजन किया गया। इस अयोजन को वैचारिक सत्र, शीर्षक‘प्रतिरोध की संस्कृति और लेखक’, एवं काव्य गोष्ठी के रूप में  संपन्न किया गया। वैचारिक सत्र की अध्यक्षता 'हंस' पत्रिका के संपादक और कहानीकार संजय सहाय, कृष्णचन्द्र चौधरी, यादवेंद्र ने किया। संयोजक की भूमिका में प्रत्यूष चंद्र मिश्रा, चाहत अन्वी एवं वरिष्ठ कवि सत्येन्द्र कुमार रहे। वक्ताओं में अली इमाम, अंचित, महेश कुमार, उर्दू के लेखक सगीर अहमद आदि शामिल थे। पहले सत्र का संचालन युवा कवयित्री चाहत अन्वी  ने किया।

       प्रतिरोध की संस्कृति का लंबा बौद्धिक इतिहास रहा है। इसी पर विचार करते हुए वक्ताओं ने उसमें प्रतिरोध के विभिन्न स्वरूपों की चर्चा की। वक्ताओं ने विभिन्न मोर्चों पर चल रहे प्रतिरोध के उदाहरण दिए। 

       कवि अंचित ने लेखकों के मूल दायित्व पर बात करते हुए तथ्यों के दस्तावेजीकरण करने पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि स्मृति का ह्रास हमारे समय में जितना हुआ उतना कभी नहीं हुआ। जो चीज जितनी जल्दी चर्चा में आती है, उतनी ही जल्दी चली भी जाती है। हमारे पास भाषा का हथियार है जिससे हम हर हमलावर के खिलाफ प्रतिरोध कर सकते हैं। अंचित ने शेक्सपियर के नाटकों के उदाहरण देते हुए समझाया की उनकी रचनाओं में उपनिवेशवाद के प्रति विरोध खुल कर सामने आता है। उन्होंने ब्रिटिश भारतीय लेखक सलमान रुश्दी की आत्मकथात्मक पुस्तक, नाइफ: मेडिटेशन आफ्टर एन अटेम्प्टेड मर्डर का उदाहरण भी देते हुए कहा कि अगर उनके हाथ में हथियार है, तो हमारी भाषा ही हमारी सबसे बड़ी ताकत है। आगे वो फैज़ की दृष्टि को समझाते हुए कहते हैं कि फैज़ के हिसाब से क्रांति का तात्पर्य लेखनी में प्रेम, और व्यवस्था के बदलाव से है और तमाम साहित्य कहीं कहीं इसी के इर्द गिर्द घूमता है। 

        अंचित ने प्रतिरोध के लक्ष्य और उद्देश्य पर जोर देते हुए कहा कि अगर इसकी व्यवस्था में सुधार में भूमिका न हो तो प्रतिरोध का कोई महत्व नहीं है। उन्होंने कहा की यह विभाजनों से लड़ने का समय है नहीं तो हमारे भीतर हिंसा कैसे पनपती जायेगी उसका आभास हमें खुद भी नहीं हो पाएगा। सबसे पहले हमें अपने दायित्व को समझना होगा, मध्यवर्गीय संभ्रांतता के खिलाफ सत्ता और पूंजी के बनाए भ्रम को तोड़ना होगा, और सबसे महत्वपूर्ण पढ़ने की संस्कृति विकसित करनी होगी।

       युवा आलोचक महेश कुमार अच्छे अध्येयता और चर्चित वक्ता के रूप में जाने जाते हैं। उनके हिसाब से लोग सेलेक्टिव प्रतिरोध करते हैं, अपने अपने गुटों में बंध के रह जाते हैं, एकजुट होकर सामने नहीं पाते। हम लड़ाई व्यक्ति के रूप में तो लड़ लेते हैं लेकिन संगठन के रूप में नहीं लड़ पाते। महेश कहते हैं कि अगर हम खेमे में बॅंट कर काम करेंगे तो कभी मजबूत प्रतिरोध की संस्कृति खड़ी नहीं कर पाएंगे। इनकी दूसरी चिंता इस रूप में है कि जो जमीनी समस्या है वह बौद्धिक वर्गों के पास नहीं पहुंच पा रही और ही बौद्धिकों का चिंतन आम जनता तक सही रूप में घुल मिल पाता है। हम अकादेमिक रूप से तो गोष्ठियों, संगठनों का आयोजन तो करते हैं लेकिन हक की लड़ाई में सड़क पर नहीं उतर पाते। इन्होंने कहा कि बेहतर हो हम अपने अंतर्विरोधों को समझें, अपनी कमियों को जानें और आंतरिक आलोचना करते हुए साझे तरीके से अपनी लड़ाई लड़ें।   

         लेखक यादवेंद्र ने दुनियाभर के प्रतिरोध के स्वरूपों पर बातचीत करते हुए अमेरिका में लेखकों का प्रतिरोध, ईरानी और फिलिस्तीनी कविताओं और संस्मरणों को केंद्र में रखा। खासकर उन्होंने वहां सत्ता किस तरह काम कर रही है और महिलाओं की भूमिका किस रूप में रही है, इसे विस्तार से समझाया। अली इमाम ने अल्पसंख्यक समूहों के मुद्दों पर बात करते हुए कहा कि वे वर्ग जिनका सबसे ज्यादा तुष्टिकरण किया गया उनकी हालत सबसे खराब है। उन्होंने कहा कि सांप्रदायिकता एक बड़ा मुद्दा है, इस पर भी विचार किया जाना चहिए। अहमद सगीर ने दुःख प्रकट करते हुए कहा की बहुत कम लोग अब मुखर रूप से प्रतिरोध में शमिल हो रहे हैं। उन्होंने हिन्दी–उर्दू लेखकों को जोड़ने और एकजुट होने की राय दी। जलेस जिला के अध्यक्ष कृष्णचंद्र चौधरी ने साझी संस्कृति पर विस्तार से अपनी बात रखी और इसे सहेजने पर जोर दिया। प्रलेस गया के सचिव परमाणु कुमार की राय थी की छोटे स्तरों पर भी बड़े प्रयास किए जा सकते हैं। प्रतिरोध की संस्कृति का निर्वाह न केवल लेखकगण बल्कि पूरे समाज का है, देश की जनता का है।

        हंस के संपादक संजय सहाय ने अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए कहा कि लेखक की विज्ञान और इतिहास पर पैनी दृष्टि होनी चाहिए। प्रतिकार अपने लोगों का भी करना चाहिए और भटकते कदम को सही रास्ते पर लाना चाहिए।  लेखन में बहस होनी चाहिए और आत्मलोचना के लिए भी तैयार होना चाहिए अगर ऐसा नहीं होता है तो वह लेखन नहीं कीर्तन है। साहित्य मूल रुप से चिंतन का विषय है। यह हमारी विरासत है। लेकिन लेखकीय संगठनों में नई  पीढ़ी सम्मिलित नही हो पा रही है। युवाओं को मौका देना चाहिए ताकि प्रतिरोध का स्वर जीवित रहे।



दूसरा सत्र कवि गोष्ठी का था। इस सत्र संचालन कवि प्रत्यूष चंद्र मिश्रा ने किया। इसमें श्रीधर करुणानिधि, अंचित, अरविंद पासवान, वरिष्ठ कवि सत्येन्द्र कुमार, चाहत अन्वी, बालमुकुंद, सत्येन्द्र कुमार आदि शमिल थे। गया कॉलेज के सहायक प्रोफ़ेसर श्रीधर करुणानिधि ने जल-जंगल-जमीन की लूट पर अपनी कविताएँ पढ़ी। कवि अरविंद पासवान  ने पूंजीवाद के विकृत स्वरूप और अंबेडकर के महत्व पर लयात्मक कविताएँ पढ़ी। कवि-अनुवादक अंचित  नेप्रेमिका का भाईकविता के बहाने मध्यवर्ग के पुरुषों की मानसिकता को उघाड़ते हैं प्रलेस के जिला सचिव परमाणु कुमार  ने जनसरोकार से लैस कविताएँ पढ़ी। उन्होंने बराबरी और जनता के मुद्दों से जुड़ी कविताओं के महत्व को रेखांकित किया। गया की लेखिका और कवयित्री, कलाकार  टि्वंकल रक्षिता  नेरंडियाँकविता के माध्यम से स्त्रियों की दुर्दशा और दैहिक विमर्श को मार्मिकता से प्रस्तुत  किया। बालमुकुंद  ने ‘एहि नव भारत में’ और ‘भास’ शीर्षक की दो  बेहद खूबसूरत मैथिली कविताएँ पढ़ी जिसमें युवाओं की मनःस्थिति, अंधभक्ति, अनैतिक , नेताओं की स्थिति व देश की बदलती परिस्थितियों पर गम्भीर चिंतन शामिल था। कवयित्री चाहत अन्वी ने अपनी कविताओं में बच्चों की दुनिया की भयावहता को रेखांकित किया। उन्होंनेफूलजानकविता से वंचित समुदाय के बच्चों की चिंताओं को स्वर दिया। कवि, लोक गीतकार , कवि, अभिनेता सत्येन्द्र कुमार ने अपनी मगही कविताओं के माध्यम से महँगाई, पेपर लीक, कालाबाजारी इत्यादि पर महत्वपूर्ण कविताबतरहवा बैंगनपढ़ी। वरिष्ठ कवि सत्येन्द्र कुमार  और प्रत्यूषचंद्र मिश्रा की कविताओं को सुनने का भी हमें मौका मिला। इनकी कविताओं में आमजन की चिंता, बदलते सरोकारों की अभिव्यक्ति मुखर रूप से विद्यामान है।

          प्रतिरोध हर स्थानीयता से उठती आवाज होती है। गया शहर में प्रतिरोध की गोष्ठी एक महत्वपूर्ण पहल है। ‘साझी विरासत के नाम ‘ से आयोजित एकदिवसीय संगोष्ठी में वर्तमान समय की राजनीतिक एवं सामाजिक जटिलताओं पर मंचन किया गया। प्रतिरोध की संस्कृति के निर्माण में लेखकों के वैचारिक एवं व्यावहारिक दायित्व पर गंभीरतापूर्वक विचार किया गया। ऐसे समय में जब लेखकीय दायित्व एवं नैतिकता व्यक्तिगत होती जा रही है, समाज में वैचारिक और संवेदनात्मक संघर्ष जारी रहना चहिए।  हमें हमारे भीतर कोमलता, दया, एकजुटता और मनुष्यता बचाए रखना चाहिए और हमारी अस्मिता पर उठते हर वार का डटकर प्रतिरोध करना चाहिए। एक चींटी हाथी के नाक में दम कर सकती है, दीमक सत्ता की कुर्सी चट कर सकता है, और एक व्यक्ति के आवाज की बुलंदी क्रांति ला सकती है। 

दुष्यंत कुमार कहते हैं

"वे मुतमइन हैं की पत्थर पिघल नहीं सकता, 

मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिए।"

रिपोर्टिंग :

स्मृति कुमारी

शोधार्थी , भारतीय भाषा विभाग 

दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया 

Email: smritijha1608@gmail.com