रवीन्द्र भारती के साथ लेखक अरुण नारायण |
कवि एवं नाटककार रवीन्द्र भारती कहते हैं, “ मैं कविता का एक होलटाइमर कार्यकर्ता हूं। जहां भी अन्याय हकमारी है, वहां मुझे आप प्रतिकार में खड़ा पाएंगे। ” उन्हें एकदम से कविता की मुख्यधारा से बाहर समझा जाता रहा है। अपने ही रौ में रहनेवाले बिहार के इस कवि की खासियत यही है कि वे असहजता को सहजता से व्यक्त करते हैं। उनकी कविताओं में संवेदना है तो वैज्ञानिक सोच भी। उम्मीद है की उनकी रचनाएं आपको ठहर कर सोचने को विवश जरूर करेगी। तो चल पड़ते हैं रवीन्द्र भारती की रचनाओं के साथ एक अनूठे सफ़र पर।
1. महाब्राह्मण
वहां कोई नहीं है
धिकते हुए लोहे की तरह लगती हैं
अपनी ही सांसे खांसते हुए
अपाढ़ है उठना-बैठना
आवाज जो रहती थी समय-असमय में तत्पर
वह भी काया के भीतर कहीं जाकर बैठी है छुपकर
बहुत पुकारने पर बेमन से आती है बाहर।
अकेला है महाब्राह्मन
उसकी तिरस्कृत देह पड़ी है उसके ही मन के आगे
जो मन खाकर मृतकों का अन्न
हंसता रहा सदैव शोक में
कांख में दबाये मृतकों के बरतन
मृतकों की सेज पर सोता रहा
यजमानों को कर शुद्ध, अशुद्ध बना रहा
आता-जाता रहा गांव के बाहर-बाहर
कहां कभी छोटा हुआ कि होगा आज
यह दशा देखकर !
कहां कभी घबराया
परंतु आज क्यों हो रही घबराहट
क्यों लग रहा है कि
मृतक देह के निमित्त मिली साड़ी, आलता, शाल
खूंटी में टंगे झोले से निकाल रही है प्रेतात्मा।
वह निकाल लेगी तो क्या दूंगा
बेटी मायके में आयी है पहली बार!
सोचते पसीने से लथपथ हो गया महाब्राह्मन
उसने उठने का किया बार-बार यत्न
जब उठ न सका तब जमाता को इशारे से बुलाया
गड़ा धन बताएंगे
ऐसा सोचकर आये सभी परिजन।
हवा तेज थी
कि फड़फड़ाने लगे चांद-तारे
देखते-देखते पोथी से निकल
खिड़की से हो गए बाहर।
जमाता दौड़ने लगा कमरे में धरने को उन्हें
संभाले हुए हाथ में कुश की पैंती...
2. बिछिया
फुटपाथ पर संवर रही है कचरा चुनने वाली लड़कियां
एक-दूसरे के हाथ में थम्हाकर आईना
बना रही हैं चोटी, लगा रही हैं किलिप
फुदक रही हैं मन-ही-मन।
नहीं है कोई दीवाल दरवाजों और आंगन के बीच
नहीं हैं कुंडियों से झूलती जंजीरें
खुली राह में काली के ब्याह का बज रहा है ढोल
हो रही हुलिहुली।
सरग-नरक के किस पिछवाड़े से उठाकर
लाती हैं वे ऐसा अपूर्व उल्लास
कचरा चुनते-चुनते कहां से चुन लेती हैं
इतनी मुहब्बत, इतनी बेफ्रिकी
कि हजार राहों की आतिशबाजियों की रोशनियां
थिरकते हुए लगती हैं बिखेरने!
भविष्य की चिंता में मुस्कराते दृश्यों से नजर चुराने वाले
कल्पना भी नहीं कर सकते
जिस आह्लाद के साथ पचासों अनाम लोग
काली के दूल्हे के साथ खा रहे हैं माछ-भात
पूरा फुटपाथ जलतरंग की तरह बज रहा है
और लड़कियों की आंखों में चमक रही है
काली के पैरों की बिछिया।
3. भाषा - 1
पलटने से नहीं पलट रहे हैं पृष्ठ
पाथर हो गई है काया
घाट की सीढ़ियों के पास खुली पड़ी है किताब।
भाषा को कंधा देनेवाले विमर्श कर रहे हैं
कि क्या किया जाए, दहा दिया जाए
या दाह-संस्कार कर यहां बना दी जाए समाधि।
विमर्श में चूंकि नामचीन लोग हैं
कई बोलियों की शवयात्रा में शरीक होने का उन्हें अनुभव है
स्वाभाविक है कि उन्होंने विमर्श को गंभीरता से लिया
और उसे सेमिनार का रूप दे दिया।
ऐसा संयोग कभी-कभी होता है कि
जिसका कोई वारिस न हो उसके लिए हो ऐसा आयोजन।
छूटे चले आये शहर भर के ज्ञानी, गुनिया।
धकियाकर आगे जानेवालों से पिछली कतार में बैठी
संस्कृत ने इशारतन कहा
भाषा ने जीवन में जो कुछ अर्जित किया
उसे सिरजकर रखा है इस पत्थर की किताब में
यह उसकी मुखाकृति नहीं
सृष्टि की पहली संदूक भी है
बिना खोले संदूक, भला कोई कैसे कह सकता है
क्या है भाषा का अवदान !
पता नहीं उसकी आवाज मंचासीनों तक पहुंची कि नहीं
कि इस बीच आ गए
कई नामचीनों की जगह कई नामचीन
कुछ नामचीन बैठे रहे हैं बाहर
अपनी बारी के इंतजार में
भाषा के शव के पास।
4. भाषा - 2
पानी में झूलती धूल-भरी घासों से लगी जड़ों की फुनगियां
फिजी, सुरीनाम, मारीशस के आसमान को जो हैं छूतीं
हां, उसी की भाषा का घर है।
धरोहर बोलकर ले जाने वाला ऐसा यहां कुछ भी नहीं
कुएं की जगत पर कुछ पुरनियों की पैरों की छाप है-
जिसे न तो दिखाया जा सकता है, न उठाया
गिन्नी, अशर्फी नहीं, हमारे बच्चों के नाम हैं
मिरजई, मारकीन, पसीना
कोई बही नहीं, खाता नहीं
हस्तलिखित अक्षरों की परछाइयों में
किसी के पैरों के नीचे से खिसककर आई कोई जमीन नहीं
मन की पताका देह में फहरती है
कोई कोठी, अटारी नहीं।
कुछ भी नहीं है गोपन, कुछ भी नहीं है अनंत
सलाई की एक तीली की रोशनी में है अपनी दुनिया।
5. पंडित रविशंकर
मात्राओं की काया में अक्षरों के होते विसर्जित
फूटता है जिस राग का रूप
उसी रूप के हैं पंडित रविशंकर।
अपनी लय में जब आते थे
हो जाते अपने से छह गुन, आठ गुन उंचे
समान भाव से पानी में, हवा में लगते थे तैरने
दबी हुई मन के भीतर लोगों की कितनी ही बातें
पहुंचने को आतुर हो जाती थीं
अपने प्रिय के कानों में।
मैंने उन्हें जब भी बैरागी तोड़ी, भैरव ठाठ में देखा
राग के अलग-अलग टुकड़ों, अलग-अलग अंग में देखा
चाहा उतार लूं कैमरे में
खुशबू की उतर नहीं पाई, उतर गई फूलों की छवि
दीवाल पर टांगने के लिए
मेरे पास नहीं हैं पंडित रविशंकर।
6. कमरे का एकांत
डेरा बदला जा रहा है
टलना, खूंटियों से उतारे जा रहे हैं कपड़े।
उन कुरतों से आ रही है पसीने की गंध जो है ही नहीं वहां
एक बार उठती है मेरी तरफ घर भर की आंखें
फिर लग जाती हैं काम में।
समेटे जा रहे हैं बिखरे सामान
बांधे जा रहे हैं बिस्तर
अपने-अपने पाताल में रखे सामान को चुपके से निकाल
स्त्रियां रख रही हैं गठरी, मोटरी में।
कुछ सामान मिलते ही होने लगता है शोर
कि देखो यहां दबी-पड़ी थी
कितना हलकान था घर उसके लिए
काठ की मथनी भी मिल गई जो परछने के समय आती है बाहर
जब कोई कनिया चैखट के अंदर रखती है गोड़।
लो, संभाल कर रखो इसे
जाने वाले सामान के साथ।
नहीं पता, कौन-कौन जाने वाले सामान के साथ गया
कौन-कौन नहीं
उन दोनों में मेरा कोई सामान नहीं है।
सारा माल-असबाब जाने के बाद
सबसे अंत में मेरी पगध्वनियों को पहचानने वाले कमरे का एकांत
गाड़ी में आकर बैठ गया
मेरी बगल में चुपचाप।
कवि परिचयः जन्मः 1951 ई.
कविता संग्रहः जड़ों की आखिरी पकड़ तक, धूप के और करीब, यह मेरा ही अंश है, नचनिया और नाभिनाल।
नाटकः कंपनी उस्ताद, फूकन का सुथन्ना, जनवासा, अगिन तिरिया और कौआहंकनी
1975 में आपातकाल के दौरान कविता पर कारावास।
सपर्कः 9835426043
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