श्रीधर करुणानिधि का पहला कविता-संग्रह है, ‘खिलखिलाता हुआ कुछ’। उनकी कहानियां और कविताएँ हमारे बीच लगातार आ रही हैं। वे यथार्थ के बदलते स्वरूप से आगाह करते हैं, उसके लिए चिंता करते हैं... पर अवसाद में ही रहने नहीं देते, उम्मीद भी बँधाते हैं। आइए, हम उनकी कविताएँ पढ़ते हैं।
1. थोड़ा और अंधेरा दे दो
अंधेरगर्दी में कितना अंधेरा मिलाया जाता है
अंधेर को अंधेरे की और कितनी जरूरत होती है?
है कम तो थोड़ा और बढ़ा लो भाई
रोशनी के स्याह अंधेरे में
हॉकी स्टिक, कट्टे और पेट्रोल बमों के साथ
चौराहे पर रंगबाज की तरह मंडराने आओ
बांए हाथ से आग का खेल खेलने आओ
गुटखे की दुकान से सिगरेट और माचिस मांगते हुए
अचानक माचिस की आग को
शांत और खुशमिजाज शहर पर पिघलाए लोहे की तरह
उड़ेल दो
हो सकता है भाई तुम मेरे मित्र-परिचित होओ
फिर भी शहर के किसी सुन्दर पार्क की बेंच से
अचानक निहत्था आदमी समझ कर मुझे ही
खींचकर चौराहे पर ले आओ
देश की सेवा करने की गुस्ताखी करो
यह कहते हुए कि 'प्यारे देश वासियो
हमें इस धर्म के संकट से उबार लीजिए
हमें अपना काम करने दीजिए
वे हमारे देह के पसीने में बदबू की तरह घुस आए हैं’
ये सोचना गलत है तुम सतर्क नहीं करते
हम तुम्हारी आदतों को इग्नोर कर जाते हैं
ये सोचना गलत है कि तुम और तुम्हारे जैसों
की भाषा को चाय के छन्ने की तरह छाना नहीं जा सकता
बस हम चाय गटक कर भाषा के पीछे छिपे विचार पर
बात करना भूल जाते हैं
ये सोचना भी ग़लत है कि तुम और तुम्हारे जैसे लोग
माला पहने हुए गलियों में
नहीं घूमते खुलेआम
तुम पर फूलों की बरसात करने वाले हम नहीं हैं
शायद ये सोचना भी ग़लत ही है
जब भी कोई सचेत होकर भाषा पर बात करेगा
उसपर भी बात करने में तुमको कोई गुरेज नहीं होगा
ये सोचना गलत होगा कि तुम अहिंसा पर बात नहीं कर सकते
रोशनी पर बात नहीं कर सकते
हम किस मुंह से कहें
किस वक़्त के आगे
हाथ फैलाएं
क्या यह कहते हुए
कि थोड़ा और अंधेरा ही दे दो भाई...
2. भुतकही
पारखी आँखे नजरें भांप लेती हैं
आवाज का वजन आवाजें खुद नाप लेंती हैं
और बोलने से रास्ते में क्या
भूगोल नहीं आता है?
फुसफुसाने से
कहानियों में पालथी मार कर बैठे
आदिम मुहावरे बाहर नहीं आते?
इतिहास हमारे न थे
और न उन गपों के संदर्भ
क्या देवता ऐसी डींगें हाँक सकते हैं?
क्या देवता दासों के सिर पगड़ी रखकर
बेइंतहा खुश हो सकते हैं
क्या बालों में फूलों का जूड़ा लगाई
सुन्दर स्त्रियों की ओर
मंत्र बाण चलाए बिना रुक सकते हैं
हवाएँ चलती रहती हैं चलती रहती हैं
मौसम बदलते रहते हैं बदलते रहते हैं
देवताओं के स्वाद भी!
आमीन!
और क्या ऐसा हो सकता है
कि छीनी गई जमीनों पर स्वर्ग न बने
राजपथ की बिना गड्ढे वाली समतल काली चिकनाई पर कैद से छूटा दास-अपराधी
मूर्छित न हो?
क्या रक्त-पिपाषु जबड़े की पकड़ से आक्रांत
क्रांति-क्रांति चिल्लाते राजशी वेशधारी
देवताओं के महलों की ओर ना जाकर
उस ओर चले जाएँ
जहाँ बगीचे के सड़े फल फेके जाते हैं..
वहाँ जहाँ गुप्त गुफाओं में बन्दी रखे जाते हैं
3. रोटी
कछुए की उभरी पीठ की लगभग दुगूनी
उसकी छाती और पीठ है..
क्योंकि ये मेरे अनुमान का कच्चा सा हिसाब है
वसंत के आने की आहट में
गालों के फूलने और सिंदूरी रंग के हौले से पसर जाने को
इसमें मिला कर देख लें
हो सकता है वो तब भी मिले
पंजाब हरियाणा और दिल्ली से लौटते
रेल के डिब्बे में मजदूर के गमछे में
सूखे पापड़ की शक्ल में
छंटनी के बाद उनके
बटुए वसंत के सूखे पत्तों से पड़े-पड़े
हवा के थपेड़ों से यहाँ-वहाँ हो रहे
अब आप कहीं चाँद के बारे में तो नहीं सोच रहे
वो बौराकर कहीं फूल गया होगा
अगर सपने में यह हो भी गया हो
गुदरी लपेटे बुढ़िया अपने चूल्हे से उतार कर
चिमटे से उसको फोड़ देगी
फूले गाल सा मचलता वसंत
बुढ़िया के खोंइछे में सूखी रोटी होकर
पंजाब से लौटे बेटे की बाट जोहता है...
4. माँ को धरती पुकारता हूँ
पृथ्वी को इतना धीरे बुलाता हूँ
कि एक गेंद लुढ़कती हुई मेरे पास आती है
जिससे मैं दिन भर खेलता हूँ, उसे पटकता हूँ...
तितली के पीछे दिन भर
इस कदर भूखा- प्यासा भटकता हूँ
कि चाँद सा दूध का कटोरा सामने आ जाता है
जिसे मैं फेकता हूँ इधर-उधर गुस्से से
कितने मनुहार के बाद चम्मच- चम्मच दूध जाता है मेरे दुधिया दाँतों के पार
मैं एक बच्चा हूँ हमेशा से
बड़ा होकर भी एक बच्चा होता हूँ
मेरे नाखून बड़े हो रहे हैं दिनों दिन
वे जख्मी करने लगे हैं सबको
तब भी वे बाहें मुझे सहारा देती हैं
तब भी एक गोद मेरा भार उठाने को तत्पर है
एक पुचकार है
जैसे हवा पेड़ों को देती है
जैसे चाँदनी रतजगे पक्षी को देती है
जैसे धरती अपनी गोद में सोए बीजों को देती है
इसलिए
माँ को धरती पुकारता हूँ....
5. टकटकी भरी निगाह
सारी उम्मीदें वहीं टिक जाती हैं
जहाँ कतार बाँधकर नन्हीं चीटियाँ
अपने से दूना आकाश उठाए
धरती के एक छोर से दूसरे छोर चलती चली जाती हैं
कड़ी धूप में मजदूरों का समूह
हाइवे की रोड़ियाँ बिछाता हुआ
दुनिया की सीमाओं को छोटा कर
एक अन्तहीन रास्ता बनाता चला जाता है
सड़क किनारे घास चरते पशुओं के नथुने की हवा से
उड़ा तिनका सबसे जुल्मी तानाशाह की आँख में जाकर
उसके साम्राज्य में खलबली मचा देता है
समूह को लड़ने की शक्ति देकर
अकेले में रोज दुख से कराहता एक आदमी
अपने सबसे प्रिय व्यक्ति की गोद में
सिर रखने की जगह तलाशता है
और समूह को अपनी पहचान देकर
कमर कसता है रोटी की लड़ाई के लिए
उम्मीदें वहीं टिक जाती हैं....
6. तय कर लेते हो
बस्तियाँ खाली हो रही हैं...
'खाली होना' कितना छोटा शब्द है
पर है कितना हहाकार भरा
हथियारों के ज़खीरे भरे जा रहे हैं
'भरा जाना' कितना बड़ा शब्द है
पर है कितना खोखला
नंगी आँखों दिखतीं हुई उल्का पिंड की बारिश
तिनके- तिनके जलते हुए जंगल
बसे हुए घरों की छतों पर होतीं आतिशबाजियाँ...
जिसने भी कर रखी है
इन दृश्यों के ख्वाबों की खेती..
क्या उन्हें नहीं पता खाली होने का अर्थ
क्या उन्हें खंडहर के चेहरे याद नहीं
वे जो तय कर लेते हैं मिनटों में
सुकून का सौदा
वे जो बड़े ठाठ से उगा लेते हैं बम और बारूद
वे जो टैंकों का मुँह मोड़ देते हैं बस्तियों की तरफ
पूछो उनसे
पूछो कि कैसे संभाले हो हुनर
फिजा बदलने की???
7. थाप
हवा का शोर मद्धिम है...
सन्नाटे की उदासी नहीं
सड़कों के दोनों तरफ अनवरत
जिंदगी के काफिले..
शोर नहीं
आहटें
कितना सूखा?
फिर भी सफर के वे दोस्त
वे हरे दरख्त
थाप की तरह बजते हुए
एकांत के संगीत में...
8. पतझड़
'थोड़ा रुको', 'साँस लो'
मैंने टूटे पत्ते से कहा
पके अमरुद की खुशबू
मेरे पास पसरी किताबों पर बिखर गई
पन्नों में जीवन इतना था
जितना नीचे झड़े पत्तों में खुद पेड़
सूखे में एक विचार पत्ता हो गया था
'पतझड़ आया हुआ है
और विचार पत्तों की तरह झर रहे हैं'
एक राजपुरुष घोषणा करता है....
9. पृथ्वी के पास
पूछ ही लेंगे
मिट्टी होने पर
पौधों की जड़ों में चिपकी मिट्टी का तजुर्बा
जान ही लेंगे
फलों को पकते देखकर
एक छोटी चिड़िया के चोंच में हुई
अजीब सी अकुलाहट
देख ही लेंगे
खिलते फूलों की ओर
जहाँ से आती तितली के पंखों से
बनते हैं इस धरती के रंग
कि फूलों के रंग से तितली
कि मिट्टी के रंग से हम-तुम
कि पकते फलों से खूशबू की अनंत परतें
कि एक चिड़िया की अकुलाहट
और हरेपन की छाया में बादल का बनना
और फिर
पृथ्वी अपने हरे सपने से
कूदकर गिरती है एक सूखे जंगल में..
10. कौवे
तीतर और मुर्गे के सामने
जब भी प्रश्न आएगा
कौवे उत्तर देने के लिए आगे आ जाएँगे
और इस तरह से
दुनिया के तमाम सवालों पर कौवे की राय
महत्वपूर्ण हो जाएगी..
कर्कश आवाज
अब जानी पहचानी हो जाएगी
जानते जानते लोगों को मिर्च की तासीर
जँच जाएगी...
कहते हैं आवाज को आवाज से नहीं
उम्मीद से बाँधा जाता है
इसलिए
एक साथ काले डैनों वाली उम्मीदें
आसमान को बांध लेंगी...
किसी प्रश्न के जवाब में
तीतर, बटेर, गोरैया, मुर्गे या अबाबील की आवाजों के बदले
सिर्फ कौवे की आवाज आकाशवाणी की तरह गूंजेगी...
11. पुकारते हुए उन्हें....
बुझौवल सा उलझा हुआ
एक रस्ता बन्द सा कि जाओ कहीं भी
घूम कर पहाड़ सा एक अंधेरा डर का
एक तन्हाई सफेद दिखती चादर में लिपटी
अंधेरी स्याह गुफाओं सी .......... पड़ी है
पुराने खत- सी छूटी हुई यादें
कोई अन्जान गली
कोई शहर अनचीन्हा
बस इतना भर कि देर रात चाँदनी से नहाई मुंडेरें
पुकारने की हद तक बुलाती हुई.....
टूटे-फूटे मटके से कुछ रिश्ते
बेडौल सी कुछ आकृतियाँ
एक पुल ऊपर जाता हुआ
सड़े पानी के तालाब में तैरती गेंदें
उन्हें ललचाई आँखों से देखते खेलने को आतुर बच्चे...
मैंने अब जाना
किसी को पुकारने के लिए जिन्दगी बहुत थोड़ी है...
12. बक्सा
मोह से खुलता है प्यार
प्यार से बादल के हल्के भीगे गट्ठर
गट्ठर की भीगी बासी खुशबू से
खुलता है तन
मन की चाबी पास हो तो मुझे दो
ताजा होकर जाओ
कुएँ की पीठ पर ईंट के टुकड़े से
मेरा नाम लिख दो
बहुत सहेज कर एक खुशबू को
पानी की सतह पर
बंद कर दिया
तेरे नाम के साथ
मैंने...
13. बुलबुले
हवा का रंगहीन
पानी के रंग से अलग
झील में लाश सा डूबे दरख्त पर
मीठे शब्दों की इबारत लिखता है
'सूखा' एक भूरा रंग है
पहाड़ से लिपटा, धरती की गोद में सोया
पानी के बुलबुले का आईना
कितनी झूलती गर्दनें दिखाता है...
'किसान' एक गूंजती आवाज है
हर जगह, हर ओर
कितनी छातियाँ फटती हैं
नकली उम्मीदों के सूखे से!
धरती फट रही है
दिखाता है झील के पानी में
पत्थर की हिलकोर से बना एक बुलबुला....
परिचय :
नाम - श्रीधर करुणानिधि
जन्म - पूर्णिया जिले के दिबरा बाजार गाँव में
शिक्षा - एम॰ ए॰ (हिन्दी साहित्य) स्वर्ण पदक, पी-एच॰ डी॰, पटना विश्वविद्यालय, पटना।
प्रकाशित रचनाएँ- ‘दैनिक हिन्दुस्तान’,‘उन्नयन’ (जिनसे उम्मीद है काॅलम में),‘पाखी’, ‘वागर्थ’ ‘बया’, 'वसुधा', ‘परिकथा’ ‘साहित्य अमृत’, ‘जनपथ’ ‘छपते छपते’, ‘संवदिया’, ‘प्रसंग’, ‘अभिधा’, ‘साहिती सारिका’, ‘शब्द प्रवाह’, ‘पगडंडी’, ‘साँवली’, ‘अभिनव मीमांसा’, ‘परिषद पत्रिका’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ,कहानियाँ और आलेख प्रकाशित। आकाशवाणी पटना से कहानियों का तथा दूरदर्शन, पटना से काव्यपाठ का प्रसारण।
प्रकाशित पुस्तकें-1. ‘वैश्वीकरण और हिन्दी का बदलता हुआ स्वरूप’ (आलोचना पुस्तक, अभिधा प्रकाशन,मुजफ्फरपुर, बिहार)
2. ‘खिलखिलाता हुआ कुछ’ (कविता-संग्रह, साहित्य संसद प्रकाशन, नई दिल्ली)
संप्रति-
बिहार सरकार की सेवा में
(वाणिज्य-कर पदाधिकारी, वाणिज्यकर अन्वेषण ब्यूरो,मगध प्रमंडल,गया )
संपर्क- श्रीधर करुणानिधि
द्वारा- श्री श्याम बाबू यादव
चौधरी टोला, पत्थर की मस्जिद, महेन्द्रू, पटना-800006
मोबाइल- 09709719758
ई-मेल- shreedhar0080@gmail.com
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