वर्तमान समय में हम हिन्दी साहित्य की गुणवत्ता का स्तर गिरता हुआ देख रहे है। अधिकांश रचनायें यथार्थ से परे लगती है, जिनका हमारे जीवन की रोजमर्रा की घटनाओं से सही संबंध नहीं होता है। इसी कारण देखने में यह अक्सर आता है कि जो लोग कभी हिन्दी साहित्य के पाठक रहे हैं, उन्हें आजकल अगर कभी वक्त भी मिलता है तो वे पुरानी रचनाओं को ही पढना चाहते हैं। मैं रेल से यात्रा करते समय ऐसा अक्सर देखता हूँ। अभी भी स्टेशनों, बस अड्डों या अन्य जगहों पर पुरानी रचनायें ही मिलती हैं। नई रचनायें बहुत ढूँढने पर ही मिल पाती हैं।
नई पीढी के पाठकों के साथ तो स्थिति और भी गंभीर है। वे कुछ साहित्यकारों के नाम तो बता सकते हैं पर उनकी रचनओं के बारे में बात करने से दूर ही भागते हैं। आज अगर उनसे उनके प्रिय रचनाकार की सूची माँगी जाती है तो अभी भी वे प्रेमचंद, जैनेन्द्र, जयशंकर प्रसाद, निराला, रेणु, अज्ञेय, दिनकर इत्यादि की ओर ही मुड़कर देखते हैं। कुछ लोग ही निर्मल वर्मा, कमलेश्वर, भीष्म साहनी, अमरकांत, राजेन्द्र यादव इत्यादि को प्रथम पाँच की सूची में जगह दे पाते हैं और आज के पाँच साहित्यकारों के नाम तो कोई शायद ही बता पाए।
ऐसी बात नहीं है कि आज उपरोक्त वर्णित साहित्यकार की श्रेणी के साहित्यकार नहीं हैं। समस्या यह है कि उन्हें जानने के लिये न तो पाठक उतने उत्सुक हैं और न ही हिन्दी के पाठकों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि ही हो रही है। आज के अनेक तथाकथित रचनाकार दूसरों की अच्छी रचनाओं को भी पढना नहीं चाहते हैं। जबकि एक अच्छे साहित्यकार के लिये उसका पाठक होना बहुत जरुरी है। हिन्दी के पाठकों में ही साहित्यकार बनने की होड़ है, जिससे वे दूसरे की रचनाओं को देखना नहीं चाहते हैं या उसके लिये वक्त ही नहीं निकाल पाते हैं। हर कोई आज हिन्दी का प्रमुख साहित्यकार बनना चाहता है तथा ‘लाइम लाइट’ में आना चाहता है।
एक दूसरा कारण साहित्य का व्यवसायीकरण भी है। आज प्रकाशक अपने मैंगजीन के लिये धड़ाधड़ रचनाकारों से अपनी रचनायें भेजने के लिये कहते हैं, जिन्हें स्तरीय साहित्यकार पूरा नहीं कर पाते हैं। इसके कारण नये लोग जैसे-तैसे करके अपनी रचनाएँ छपवाते रहते हैं। वे यह नहीं सोच पाते हैं कि उनके कारण हिन्दी साहित्य को कितनी क्षति पहुँच रही है।
तीसरा कारण हिन्दी साहित्य के रचनाकारों की गुटबंदी है, जिसके कारण अच्छे साहित्यकार सामने आ ही नहीं पाते हैं। हिन्दी साहित्य दक्षिणपंथी-वामपंथी धड़ो के बीच बँटा हुआ है। इसके बाद ये भी कई भागों में विभाजित हो गए हैं। इसके कारण एक धड़े का समीक्षक दूसरे की अच्छी रचनाओं को अपने नजरिये से देखता है। उनहे यह जानना जरुरी नही है कि यह लेखक के अनुभव के आधार पर लिखा गया है। यह स्थिति हिन्दी साहित्य के लिये विनाशकारी सिद्ध हो रही है।
चौथा कारण ऊपरी स्तर पर है। बड़े साहित्यकार आज राजनीति में फँसकर अपनी रचनाशीलता तो खो ही रहे हैं साथ ही बड़ी संस्थाओं पर एकछत्र कब्जा जमाए बैठे हैं। कार्यकारिणी समिति के पास कोई योजना नही होती है जो सुचारूपूर्ण ढंग से साहित्यिक कार्यक्रमों को व्यवस्थित कर सके। बड़े शहरों में सेमिनार क आयोजन नहीं के बराबर होता है, और अगर होता भी है तो कुछ नामचीन साहित्यकारों को छोड़कर किसी को जानकारी भी नहीं होती, प्रबुद्ध पाठकवर्ग इससे वंचित ही रह जाते हैं। अतः हमारी अकादमियों तथा अन्य साहित्यिक संस्थाओं को चाहिए कि सुनियोजित तरीके से कार्यक्रम हो तथा पाठकों की भागीदारी पर भी ध्यान दिया जाय।
पाँचवाँ कारण मीडिया की उपेक्षापूर्ण नीति है। मीडिया का ध्यान साहित्य की ओर यदा-कदा ही जाता है, अगर कोई समाचार छपता भी है तो अंदर के पन्नों के कोने पर। इसका एक उदाहरण कमलेश्वर के निधन के समाचार का है। अधिकाँश हिन्दी समाचार पत्रों ने समाचार ही प्रकाशित नहीं किया था। जिन्होंने किया भी था अंदर के किसी पन्ने पर जहाँ जल्दी लोगों का ध्यान भी नहीं जाता है। इधर हाल की घतनाओं पर गौर किया जाय तो तस्वीर साफ़ हो जाती है।‘स्लमडोग मिलेनियर’ `को हिन्दी एवं अंग्रेज़ी मीडिया ने इतना प्रचारित किया जितने की वो हकदार नहीं थी। इसका उल्टा हाल में आई हिन्दी फ़िल्म ‘मोहनदास’ के साथ हुआ। यह फ़िल्म हिन्दी के प्रख्यात उपन्यासकार एवं कहानीकार उदय प्रकाश की कहानी पर आधारित है जिसे मीडिया ने खासकर हिन्दी मीडिया ने उपेक्षित रखा। कुछ लोगों को इसकी जानकारी मिली भी तो अंग्रेजी दैनिकों से। लोगों को यह भी पता नही चला कि फ़िल्म कब आई और चली गई। इस फ़िल्म के बारे में अगर लोगों को जानकारी नहीं मिली तो इसके लिए हिन्दी मीडिया भी कम उत्तरदायी नहीं है। ऐसे अनेक उदाहरण भरे पडे हैं जिससे मीडिया की साहित्य के प्रति उदासीनता का पता चलता है।
और वर्तमान का एक चर्चित कारण सवर्ण साहित्य तथा दलित साहित्य का तथाकथित विभाजन है। अपने –अपने वर्गो को सशक्त दिखाने की होड़ मे रचना अपने मूल उद्देश्य से भटक जाती है तथा उसमें काल्पनिकता का पुट आ ज़ाता है । यह कितनी गंभीर समस्या है जिसे कोई भी समझ सकता है। यहाँ तक कि प्रेमचंद की रचनाओं को भी कुछ लोगो द्वारा सवर्ण साहित्य में रखे जाने की नाकाम कोशिश की गई है। उन्हे ‘सामंतों का मुंशी’ तक कहा गया। जबकि यह सर्वविदित है कि शायद ही उनसे ज्यादा किसी ने दलितों के बारे में लिखा हो। उन्होंने अपने उपन्यासों तथा कहानियों में सामंती व्यवस्था का मजाक ही उड़ाया साथ ही ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर भी प्रहार किया। फिर भी लोग पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। कुछ रचनाकार इन्हीं पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर अपनी रचना कर रहे है, जिससे उनकी रचनाएँ समाज के यथार्थ को प्रस्तुत नहीं कर पाती हैं। उनके कुछ खास पाठक होते है तथा ये साहित्यकार अपनी पीठ भी खुद थपथपा लेते है। इससे समाज का भला हो रहा हो रहा है या नहीं, हिन्दी साहित्य को इसका परिणाम जरूर भुगतना पर रहा है। अगर यह सब आगे होता रहा तो एक दिन हम हिन्दी साहित्य को दलित जरूर बना देंगे।
अतः हमें हिन्दी साहित्य की भलाई के लिये अपने पूर्वाग्रहों से उपर उठना होगा तथा व्यापक दृष्टिकोण अपनाना होगा जिससे हमारी रचनाएँ यथार्थ के करीब हो। केवल साहित्यकारो के ज्यादा होने से साहित्य का भला नही होता है बल्कि प्रबुद्ध पाठको क होना भी जरूरी है। किसी साहित्यकार की रचनाओं को लोग गिनती से नहीं जानते हैं बल्कि उसके लिए उसका सशक्त होना भी जरुरी है।इसके लिए उनमें स्वयं पढने की प्रवृति होनी चाहिए, तभी हिन्दी साहित्य को सही दिशा मिलेगी।
1 टिप्पणी:
नरेद्र्जी, आपकी बात से १००% सहमत हूँ ! उचित रहता कि अगला लेख लिखने से पहले आप इसको ब्लोग्वानी पर कुछ और समय टिके रहने देते ! खैर, बहुत सटीक लिखा आपने,
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