अस्मुरारी नंदन मिश्र का प्रथम काव्य-संग्रह 'चाँदमारी समय' साहित्य की दुनिया में उनके मौलिक विचारों का महत्वपूर्ण दस्तावेज है, जिसमें उनका लोक है और उस लोक के प्रति उनकी आत्मीयता है। आत्मीयता होगी, तो जाहिर है कि उनमें आमजन की आवाज भी शामिल होगी। उनकी रचनाओं को पढ़ते हुए महसूस होता है कि वे लेखन में धैर्य रखने वाले रचनाकार हैं। वे अपनी सोच को समय देते हैं तथा समकालीनता की कसौटी पर रखके ही कोई विचार निर्धारित करते हैं। इधर उन्हें अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए कविता से इतर फॉर्मेट की जरूरत महसूस हुई और परिणाम सामने है...उनकी पहली कहानी - दौड़। इसके अलावा वे आजकल एक संस्मरणात्मक उपन्यास पर काम कर रहे हैं जो शीघ्र आप सबके समक्ष होगी। इस कहानी पर मैं क्या कहूँ, आप ही विचार करें।
दौड़
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उसे अब किसी तरह की पदचाप सुनाई नहीं पड़ रही| एक जो लगातार धप-धप चल रही है, उसे वह पहचान चुका है| वह उसकी अपनी ही पदचाप है| उसने पीछे मुड़ कर देखना चाहा, लेकिन उसे बताया गया था कि रेस में पीछे मुड़कर देखना समय गँवाना है| वहाँ तो सिर्फ़ भागना ही भागना है| पूरा ध्यान बस दौड़ने-भागने पर ही रखना है| अपनी पूरी ऊर्जा झोंक देनी है|
तो क्या वह सचमुच किसी रेस में है? शायद- उसने ऐसा सोचा| सोचा कि नहीं , यह भी उसे नहीं पता; लेकिन उसने खुद को समझाया कि वह उस तरह के रेस में नहीं है, अथवा उसे यह लगा कि वह इस स्थिति में है कि पीछे मुड़कर देखने में नुकसान नहीं है| वह पीछे मुड़कर देखने से खुद को रोक नहीं सका|
पीछे सचमुच कोई नहीं था| धूल उड़ रही थी, जो उसकी चाल और बदहवासी की गवाही दे रही थी| उसे धूल देखकर अच्छा लगा, जैसे खुद पर संतोष हुआ कि उसने अपनी पूरी ऊर्जा लगाने में कसर नहीं छोडी है| पीछे किसी अन्य को न देखकर उसे यह भी तसल्ली हुई कि अन्य लोगों को उसने अच्छा-ख़ासा पीछे छोड़ दिया है|
अभी तक वह चलते-चलते ही पीछे देख ले रहा है| पीछे किसी का नहीं होना उसे बड़ी खुशी दे रहा| इसे वह गर्व से देखना चाह रहा था| उसे लगा कि क्या हर्ज है एक बार रुक कर पीछे देख ले| कम-से-कम इसे देखने के लिए ही देखे कि दूर कोई पीछा कर तो नहीं रहा हो| कम-से-कम यह आँक तो ले कि अब वह कैसी चाल चल कर अपना यह अंतराल बनाए रख सकता है| लेकिन उसे सामने का टीला दिख रहा था| क्या पता उस तरफ कोई उससे आगे हो ही|
उसने दौड़ते-दौड़ते ही निर्णय लिया कि अब रुकने या पीछे मुड़कर देखने का काम टीला पर पहुँचकर ही करेगा| उसने खुद से पूछा कि क्या वह टीला पर से आराम से पीछे देख पाएगा? टीला पर से देखने का एक लाभ है कि पीछे दूर-दूर तक दिखेगा, जिससे पीछे के लोगों से अपनी दूरी का अनुमान कर सकता है| यदि पीछे कोई दिखा तब क्या वह रुक पाएगा? नहीं, तब तो बढ़ते रहना ही होगा| वैसे उसे यह उम्मीद है कि वह इतना आगे आ गया है कि पीछे दूर-दूर तक कोई दिखेगा नहीं|
और यदि आगे ही कोई दिख गया तो? तब फिर वह कैसे रुक पाएगा?
इतनी दूर तक आते-आते वह महसूस कर रहा चुका था कि आगे का बड़ा छलावा है| वह बहुत देर से दौड़े चला जा रहा है, और बहुत देर से उसे आगे कोई नहीं मिला| हां, बस कभी-कभी लगा कि जैसे कोई बहुत आगे तेजी से बढ़ा जा रहा हो| उसने अपनी चाल तेज कर दी, वहाँ तक पहुँचा तो कभी धूल का बगूला भर था, अथवा कभी कोई झाड़ी-पेड़ को हिलते पाया| इस तरह उसे यह उम्मीद हो चुकी है कि अब आगे कोई नहीं रहा| अब तो शाम होने को आई| लेकिन फिर भी टीले पर पहुँचकर अंतिम बार आश्वस्त होने में क्या बुराई है? अब आगे-पीछे जहाँ भी देखना होगा, वहीं से होगा, टीले पर से ही| इस तरह उसने रुक जाने के ख्याल को फिलहाल रोक दिया| उसने याद किया यह चौथी बार है, जब वह इस ख्याल को पीछे धकेल कर आगे ही बढ़ता गया हो| यह याद कर उसे अपने आप पर गर्व हुआ- इस ऊर्जा और जज्बा के साथ वह किसी भी रेस में किसी को भी पीछे छोड़ सकता है!
शाम का समय | सामने टीले पर के पेड़-पौधे धूप में चमक रहे हैं, जबकि वह अभी छाया में है| उसने जैसे पहली बार ध्यान दिया कि वह लम्बे समय से छाया में ही चल रहा है| यानी कि यह टीला अच्छा ख़ासा ऊँचा होगा| तभी तो| लेकिन खैर, इस ऊँचाई पर तब ही ध्यान आया जब वह ऊपर पहुँचने को ही है|
इस तरह की शाम और ऊपर चमकती धूप तथा अपनी दौड़ पर सोचते हुए उसे बचपन में पढ़ी एक कहानी याद आई- “वह दिन भर में जमीन नाप लेने वाली कहानी| किसी ने कहा कि जितनी जमीन दिन भर में घेर लो तुम्हारी| और वह दौड़ता रहा| हर पल घेरा को बड़ा करता हुआ| आखिरकार शाम हुई और घेरा को पूरा करने की बदहवासी में वह अचेत हो कर गिर पड़ा| ऐसा गिरा कि मर ही गया|”
उसने गरदन झटक कर इस कहानी को झटक देना चाहा| संतोष के नाम पर ऎसी कहानियाँ मनुष्य को आगे बढ़ने से ही रोक देती हैं| क्या महत्त्वाकांक्षाओं के बिना किसी तरह का विकास हो पाया है? हुंह! बड़े कहानीकार बनने चले हैं| जो मनुष्य को आगे बढ़ने की प्रेरणा न दे, वह कैसा साहित्यकार! आदमी में एक भूख तो होनी ही चाहिए|
फिर उसने खुद से तुलना कर खुद को कहानी से अलग कर लिया- यह कोई गोल-गोल चक्करदार दौड़ नहीं है, जो है सब सीध में, आगे-ही-आगे| फिर, यहाँ किसी और के देने पर नहीं जीना है, बल्कि यहाँ तो पाना-ही-पाना है, वह भी अपनी सामर्थ्य और इच्छा पर| वह कहीं भी रुक सकता है, कहीं भी ठहर कर जीवन का मजा ले सकता है| घेरा पूरा करने की कोई मजबूरी नहीं है उसके पास|
टीला कुछ ज्यादा ही ऊँचा है| अभी तक तो ऊपर तक पहुँच जाना चाहिए था| लेकिन होता है| ऊँचाई सीधे पता नहीं चलती| वह तो चलती-चलती मिलती जाती है| क्या दिक्कत है? अभी उसके पास बहुत ऊर्जा है| उसने खुद से सवाल किया- किसी तरह की थकान तो नहीं महसूस हो रही है? उसके अन्दर से जोशीला जवाब आया- ‘वह थकने वाला आदमी नहीं है| थकने वाला आदमी कहीं यहाँ तक पहुँच सकता है? कभी नहीं|’
सचमुच थकनेवाला आदमी यहाँ तक नहीं पहुँच सकता| वह कब से दौड़ा चला आ रहा है, दूसरा आदमी तो कब का गिर चुका होता|
कब से? उसे याद आया- वह दौड़ने के लिए चला तो नहीं था| वह तो अपनी मौज में ही चला जा रहा था कि उसने देखा सब जैसे दौड़े जा रहे हों| अपनी मौज में अभी तक वह यही समझ रहा था कि लोग अपनी मौज में ही चल-दौड़ रहे हों, लेकिन पहली बार उसने महसूस किया कि नहीं वे एक रेस में भी हैं| मौज-ही-मौज में उसने उस आदमी से तेज चलना शुरू किया, जो अभी तक उसके साथ चल रहा था| दोनों साथ-साथ ही निकले थे और अभी तक हँसी-मजाक भरी बातें करते हुए चल रहे थे| उस साथ वाले आदमी ने कहा भी कि कहाँ जाना है, थोड़ा धीरे ही चलो न! लेकिन उसने मुस्करा कर अपनी चाल तेज ही बनाये रखी|
साथ वाले आदमी ने पीछे से कहा- ‘’अच्छा! तो तुम मुझसे तेज चलोगे क्या? देखो, तुम्हें पीछे करता हूँ!’’ यह सुनकर उसने अपनी चाल और तेज कर दी| कुछ देर बाद उसे पीछे से हल्की और हाँफती-सी आवाज सुनाई पड़ी- “छोड़ो, यार! तुम जीते, मैं हारा| अब तो रुक जाओ|” यह हार और जीत की बात उसने पहली बार सुनी थी| यह तो बड़ी सुकूनदायक बात है-“तुम जीते, मैं हारा|” यानी कि मैं जीता और वह हारा|
भई, वाह! मैं जीता, वह हारा|
लेकिन उस एक के हारने से क्या होता है? उसे लगा जैसे आगे जा रहा आदमी भी उसे देखकर यही सोच रहा हो कि “मैं जीता, वह हारा|” इस सोच ने उसे तिलमिला दिया| उसे लगा कि अब तो रुका नहीं जा सकता, आख़िर कोई उसे हारा कैसे सोच सकता है?
तब से वह न जाने कितनों को हराते हुए दौड़ता चला आ रहा| अब तो सब से आगे है| दूर-दूर तक कोई नहीं| वह और सिर्फ वह| वह जीता और बाक़ी सब हारे| वाह!
लेकिन सब हारे, इसके लिए एक बार टीले पर के आगे को देख लेना जरुरी है| यद्यपि वह जिस चाल से आगे बढ़ता चला आया है कि आगे किसी के होने की संभावना बचती नहीं है| यदि आगे कोई होता, तो इतनी देर में दिखता जरूर| लेकिन भाई! रेस है यह, बिना तसल्ली के रुक जाना मूर्खता ही तो है| अब तो ऊँचाई आ ही गयी|
वह चढ़ता हुआ भी इस बात की तसल्ली में है कि एक बार चढ़ जाने पर आगे उतरना तो आसान हो ही जाएगा| पीछे वाले जब तक इस टीले तक पहुँचेंगे वह काफी दूर आराम से उतरता चला जा सकता है|
आख़िर में वह उस टीले की चोटी तक भी पहुँच गया| सचमुच आगे कोई नहीं दिख रहा है| यद्यपि थोड़ा अँधेरा-सा घिरने लगा है, लेकिन अभी भी दूर-दूर तक दिखाई पड़ रहा है| और उसने देखा कि आगे कोई नहीं| इस दौड़ में उसने पहली बार आराम से पीछे भी देखा| सचमुच कोई आसपास में भी नहीं था| उसके ही पदचिह्न दिखाई पड़ रहे थे और उड़ती धूल| अपने पदचिह्नों को देखकर उसे बात समझ में आई कि वह यदि एक बार आराम से पहले पीछे देख लेता, तो कम-से-कम इस रास्ते के बारे में इतना तो पता चल ही जाता कि पदचिह्न भी बनते हैं| तब तो स्पष्ट ही है कि कोई उससे आगे अब बचा नहीं| कोई पदचिह्न नहीं है आगे| ओह! अपनी बदहवासी में उसने यह मामूली बात पर ध्यान नहीं दिया| धत्त तेरे के!
लेकिन इसे भी वह सकारात्मक ढंग से सोचने लगा- यदि पहले देख लेता तो अनपेक्षित संतोष या तसल्ली आकर उसेक जज्बा को कम कर सकती थी, अब देखो तो कितना निर्णायक अंतराल वह बना चुका है|
उसने गहरी-गहरी साँसें लीं| टीले के चारों और नजरें दौड़ाई| कहीं कोई नहीं था| वह था सिर्फ वह| सबसे आगे और सबसे ऊँचा| एकाएक उसे बड़ा अकेलापन जैसा लगा| यह अकेलापन प्रथमतः तो इतना आवेगमय था कि उसे डर-सा लगने लगा, फिर उसे पीछे की बात याद आ गयी| सुबह-सुबह वह तो उस मित्र के साथ चाय और नाश्ता कर साथ-साथ ही निकला था और अब...
अब वह न जाने कहाँ पर होगा? वह दौड़ भी रहा होगा कि थक कर ठहर गया होगा? वह भावुक-सा हो चला, लेकिन उसने अपने को जल्दी ही इस सोच से निकाला|
छोड़ो! अब किसी और के बारे में क्या सोचना!
छोड़ो! अब किसी और के बारे में क्या सोचना!
सूरज पूरी तरह डूब गया था| यह चाँदवाली रात नहीं लग रही है| तिथियों पर उसने ध्यान ही कब दिया| चलो! अब आराम भी कर लिया जा सकता है| दूर-दूर तक कोई पीछा करनेवाला नहीं है|
उसने निर्णय लिया कि थोड़ी देर इस पत्थर पर बैठ कर सुस्ता ही लिया जाए| अभी अँधेरा है, शायद कुछ देर में चाँद ही निकल आए, तब आगे बढ़ने में सुभीता होगी| वैसे भी जैसी निर्जन रात है कि किसी भी तरह की पदचाप आसानी से सुनाई पड़ सकती है| किसी की पदचाप आने ही लगे, फिर वह उसके अनुपात में आगे बढ़ेगा|
इस सोच से उसके मन में एक अन्य बात उभरी| क्या पता कुछ लोग रात के अँधेरे का ही इन्तजार कर रहे हों| आगेवाले को पीछे छोड़ने के लिए सचमुच इससे अच्छा अवसर नहीं मिल सकता है|
वह चौकन्ना हो गया| ऐसा हुआ तब तो वह कहानी वाला खरगोश साबित हो जाएगा|
नहीं, वह नहीं बैठेगा| चलता ही रहेगा| चले क्यों? रात की शीतलता से लड़ने के लिए दौड़ा भी जाना चाहिए|
घुप्प अँधेरा है| किसी तरह का रास्ता नहीं सूझता, शायद रास्ता है ही नहीं|और वह दौड़ा चला जा रहा है- अकेला और तेज! बहुत तेज!
संपर्क :
अस्मुरारी नंदन मिश्र
केंद्रीय विद्यालय दानापुर कैंट
मोबाइल नंबर- 9798718598
नवादा जिले ( बिहार ) के एक छोटे-से गाँव अरण्यडीह से।
शिक्षा - हिन्दी से स्नातकोत्तर ।
अभी केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक।
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