मेरे अंदर का पाठक : नरेन्द्र कुमार


मेरे अंदर का पाठक : नरेन्द्र कुमार

लेखक जिस तरह आगे बढ़ता है... आगे की सोचता है, वह तो दर्ज होता रहता है। पर, पाठक ! मैं अपनी बात करूं तो जितना शुरू से सोच सकता हूं... बता रहा हूँ। अगर मैं उस दौर में साहित्य नहीं पढ़ता तो क्या सात-आठ साल की उम्र की उतनी स्मृतियां साथ होतीं !

पहली और दूसरी कक्षा में अपनी किताबों से इतर कुछ नहीं पढ़ पाया था, बस तितली, चन्दा मामा, बंदर, चिड़ियों को देखता-पढ़ता। यह समय ननिहाल का था और वहां कथा-कहानी पढ़ने का कोई माहौल नहीं था। लेकिन माँ ने हिंदी में पढ़ने-लिखने लायक जरूर बना दिया था। कहानी भी वही सुनाती और कविता पढ़ने का ढंग भी उसीसे मेरे पास आया। उसके बाद बाबा (दादाजी) के घर आया और वहाँ के मिडिल स्कूल में कक्षा तीन में मेरा दाखिला करवा दिया गया। सबसे पहले किन पुस्तकों के सान्निध्य में आया, इसका निर्धारण तो मुश्किल है। चाहे वह रामायण होगी या मनोज पॉकेट बुक्स के उपन्यास। लेखक का नाम भी मनोज। जो भी हो... दोनों लोकप्रिय। रामायण पढ़ने में दादाजी का आग्रह भले रहा हो, पर बाकी में मेरी रुचि अपनेआप बढ़ने लगी। बाबा नित्य हारमोनियम बजाते और उसमें मेरा शामिल होना भी एक रूटीन हो गया था। गाने-बजाने के कारण सूर, तुलसी, कबीर, नानक, मीरा आदि के रचनाओं के पास आने का मौका मिला। रेडियो के कारण फिल्मों से गहरा जुड़ाव हुआ।

तो, अब अपनी जिज्ञासाओं की बात करता हूँ। अधिक-से-अधिक पढ़ने की धुन में मैं घर की सारी किताबों को पलटने लगा। चचेरे भाई-बहनों की बदौलत मैं मनोज, कर्नल रंजीत, ओमप्रकाश शर्मा, रानू, गुलशन नंदा, वेद प्रकाश शर्मा, केशव पंडित आदि को पढ़ता चला गया। कहिए कि एक व्यसन की तरह इनका आदी होता गया। छोटी कक्षाओं में आज भी माता-पिता इस तरह से ऐसी किताबें पढ़ने नहीं दे सकते। कभी विष्णुपुराण, महाभारत और कल्याण की पत्रिकाओं से भी जुड़ जाता।

यूँ तो पूरा परिवार ही कम्युनिस्ट था, पर वामपंथी साहित्य बड़े पापा के कारण ही आ पाता था। आज भी लेनिन-मार्क्स की कई किताबें वहां पड़ी होंगी। उसे लाने का उद्देश्य मुझे नहीं लगता कि केवल पढ़ना रहा होगा... उसका एक उद्देश्य पार्टी को मजबूत करना भी रहा होगा। वे मार्क्स की तरह ही दाढ़ी-बाल रखने लगे थे और समर्पित हो गए थे। उस दौर में ही नवादा से प्रेम प्रदीप और प्रेमचंद राम कम्युनिस्ट पार्टी से सांसद बने थे। वामपंथी साहित्य को छोटा बच्चा पढ़ता कम, तस्वीरें अधिक देखता… बोल्शेविक आंदोलन के, द्वितीय विश्वयुद्ध के, लेनिन को कई मुद्राओं में बैठे हुए।


लोकप्रिय साहित्य से अलग कक्षा के पाठ्यक्रम के सहारे ही हिंदी के गंभीर साहित्यकारों से जुड़ता। घर में प्रेमचंद के मानसरोवर के एक-दो भाग पढ़ा होऊंगा, उनका कोई उपन्यास मेरे संपर्क में नहीं आया। वह दौर दिनकर और मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं के ओज-भरे पाठ का था। केदारनाथ अग्रवाल, गोपाल सिंह नेपाली, पंत, महादेवी वर्मा की कविताएं भी पढ़ता। पढ़ने का जुनून यह होता कि अगली कक्षाओं के हिंदी साहित्य को पढ़ लेता। रेणु, जयशंकर प्रसाद, जैनेन्द्र, महादेवी, नलिन विलोचन शर्मा आदि के गद्य पढ़ गया, लेकिन उनकी कोई व्यवस्थित पुस्तक पढ़ने को नहीं मिल पाई।


सातवीं कक्षा में फिर से वापस ननिहाल आ गया। अमूमन बच्चे पहले कॉमिक्स पढ़ते हैं, तब कोई साहित्य की पुस्तकें। लेकिन मेरे साथ उल्टा हुआ था। मैंने पहले उपन्यास, वो भी पाकेट बुक्स वाली पढ़ रखी थी। अब यहाँ हाई स्कूल में दोस्तों के साथ कॉमिक्स पढ़ने का सिलसिला शुरू हुआ। चाचा चौधरी, नागराज, सुपर कमांडो ध्रुव, बांकेलाल, हवलदार बहादुर आदि न जाने कितने किरदार हर समय घेरे-से रहते। लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि उपन्यासों से पीछा छूट गया था। मेरे मौसेरे भाई के कारण वह प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहती। नब्बे के दशक में फ़िल्मी डायलॉग वाली किताबें भी खूब पढ़ी जाती थीं, सो उसे भी पूरी तन्मयता से पढ़ जाता। इसी मध्य देवकीनंदन खत्री की प्रसिद्ध रचना ‘चंद्रकांता’ भी पढ़ा। लेकिन इस स्थिति में बदलाव तो आना ही था।


तो इसमें बदलाव आया, जब मैं आठवीं कक्षा में था। हाई स्कूल में अंग्रेजी के नए शिक्षक आए, राजेन्द्र बाबू। अंग्रेजी तो अच्छा पढ़ाते ही थे, हिंदी साहित्य से भी जुड़ाव था। अब ऐसे में वे साहित्य के मेरे लगाव को कैसे न जान पाते? उन दिनों अधिकांश शिक्षक स्कूल में ही रहते भी थे। वे मुझे हिंदी साहित्य की पुस्तकें पढ़ने के लिए देने लगे। इसी क्रम में गोदान को पढ़ने का अवसर मिला। फिर जब दूसरी बार पटना आया तो यहाँ मेरे मित्र बने – अश्विनी जी। उनके पास हिंदी साहित्य की पुस्तकें विपुल मात्रा में थीं। फिर तो जैनेन्द्र, अज्ञेय, निर्मल, राजेन्द्र यादव, यशपाल, कमलेश्वर, मृदुला गर्ग, उषा प्रियंवदा, इलाचन्द्र जोशी, मनोहर श्याम जोशी, सुरेन्द्र वर्मा, मुक्तिबोध, निराला, केदारनाथ सिंह आदि को पढ़ने का सिलसिला चल निकला। उसके बाद वरीय कवि योगेन्द्र कृष्णा से जुड़ने के पश्चात तो और पढ़ता चला गया। पवित्र गीता से लेकर अश्लीलता के लिए आरोपित पुस्तकों तक पहुंचा हूँ और पढ़ने की यह भूख बढ़ती ही जा रही है। जितनी किताबें खरीद रहा हूँ… कम पड़ती जा रही है।


अब सोचता हूँ...आज के साहित्यिक परिवेश पर, तो कुछ निराशा होती है, वहीं कुछ लोग उम्मीद भी बँधाते हैं। आज के अधिकांश रचनाकार अकादमिक आलोचना तो क्या पाठकीय प्रतिक्रिया तक बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। सोचता हूँ, कैसे दिनकर और जयशंकर प्रसाद ने मुक्तिबोध की आलोचना बर्दाश्त की होगी या बच्चन ने अज्ञेय की… या इसी तरह किसी ने किसी की। मैं तो समझता हूँ कि खुशकिस्मत हैं वे रचनाकार, जिनकी रचनाओं पर पाठकों की प्रतिक्रिया मिलती हैं… वरना आज तो अधिकांश रचनाएँ उपेक्षाओं की परत तले दबकर ही रह जाती हैं। मेरा खुद का अनुभव कुछ अच्छा नहीं रहा है। प्रतिक्रिया देने से कई बार अपने को रोक नहीं पाता हूं और उसके बदले रचनाकारों की नसीहत भी सुननी पड़ती है कि अभी और पढ़िए। अनुगूँज सुनाई पड़ती है कि मुझे पढ़िए और मेरे मानकों के अनुसार पढ़िए। ऐसे में आपके गंभीर हिंदी साहित्य को पढ़कर कौन प्रतिक्रिया देना चाहेगा? अब मेरी ही बात लीजिए, बड़े रचनाकारों की उत्कृष्ट कहानियों को पढ़ने के बाद साधारण-सी कहानी में मुझे क्या वह तृप्ति मिल पाएगी? नहीं न। ऐसे में मेरी शंका रचनाकारों पर जाती है कि शायद वे ही अपने वरीय साहित्यकारों को पढ़ने से वंचित रह गए होंगे, जिसके कारण उनसे आगे की लिखने में सक्षम नहीं हो पाए होंगे।

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