नताशा की कविताएं



कोई रचना तभी सार्थक हो सकती है, जब उसमें अंतर्निहित कथ्य संवेदना के स्तर पर सीधे पाठकों से जा जुड़े। नताशा की कविताओं को पढ़ते हुए आप ऐसा महसूस कर सकते हैं। उनकी कविताओं में पाठकों तक शीघ्रातिशीघ्र पहुंचने के लिए कोई जादू-सरीखा आख्यान नहीं है, बल्कि समकालीन यथार्थ एवं उनसे उत्पन्न परिस्थितियां सहज रूप में खुद-ब-खुद पाठकों के सामने आ खड़ी होती हैं। रचनाओं में जो संघर्ष और प्रतिरोध दिखता है...उसका रूप अराजक नहीं है, बल्कि वह औषध की तरह है जो नाउम्मीदी के जाले हटाती है। वे बात करती हैं, मनुष्यता के बचे रहने की...सारी संभावनाओं के साथ। और कहती हैं – "कविता ही बचाएगी मनुष्यता को।" उनकी नई कविताओं के संग हो लेते हैं फिर..!

1. बिवाइयां

उसने उठा रखा है देह का सारा बोझ
और आहिस्ता-आहिस्ता दरकता है
फिर भी मुस्कुराता है
अपने कई-कई होठों से

बिवाइयां
तलवे के माथे की शिकन हैं!

2. कविता के लिए

कविता बचाएगी मनुष्यता
पर कविता को कौन बचाएगा?

कलाबाजियां तो बिल्कुल नहीं
मंच पर कवि पहुंच भी जाए
तब भी मनुष्यता तक पहुंचने के लिए
कविता को दृष्टि और दिशा चाहिए
किसी पाले में हो कवि का पालना
कविता का विस्तार दुर्गमता के पार ही है

एक विचार आया मुझे इस वक्त
कि पृथ्वी अपने फेवरिट खेल के किस इनिंग में है
पक्ष जिस तरह विपक्ष के लिए शॉट लगाता है
उसमें एक आउट तो निश्चित है
गेंद हथेलियों के घरौंदे में आए
या तोड़ के घरौंदा
पूरा मैदान अधिकृत कर ले!

चिंताओं के हवन कुंड की सिकुड़न
इस समय की बड़ी समस्या है
जमीन के एक-एक इंच में
चिंताओं के विरुद्ध
कसम ली थी मनुष्यता ने
उखाड़ लाएंगे चिंताओं की जड़ बुद्धियों को!
मगर यह हो न सका

बात मनुष्यता बचाने की चिंता से शुरू हुई थी
और यह अब भी चिंता के मूल में है
मध्य में भी चिंताएं ही हावी रहीं
देश में खींची जा रही लकीरों से अधिक
लकीरें हैं चेहरों पर नुक्कड़ के नौजवानों की
बहस मुहासिब के आका
इस बात से निश्चिंत हैं

मुझे चिंता है कविता की
इन प्रपंचों के बीच

क्योंकि हर बार  दोहराने की बात है
कविता ही बचाएगी मनुष्यता को !

3. बचा रहे सब

बरसती रहें फुहारें
कमतर हो मन की अंगिठियों का ताप
जैसे पीली धूप में शामिल होती है आग

सीपियों की कोख में बूंद के रूपांतरण भर
व्याप्त हो सके ऊष्मा
बचे रहें मोतियों के सुराख़
सूत्र के आवागमन भर!

4. चाह

मैं धरती के किसी हिस्से में
गुमशुदा पानी के बूंद-सा
जरूरी होना चाहती हूं
मेरा पता सदैव
इन्हीं रेतीले रास्तों से होकर गुजरा करे

कुएं, तालाब पर
जमी परतों के खिलाफ
मैं सबसे आखिर तक
एक कतरा बूंद सदृश
जरूरी होना चाहती हूं।

इसकी कोई शर्त नहीं
कि आधी रात नींद खुलने पर
रात से डरा जाए
या उसकी कराह से कर जुगलबंदी
बेरहमी से काटी जाए रात
जबकि वह टीस में है !

रात नीत्शे को स्वप्न में देखा
जब जागी
तब मां कलाई में मन्नत का धागा बांध रही थी
मां, इन धागों से कह दो
मुझे बचाए यह वहां तक पहुंचने से
जहां अपने से ज्यादा कुछ दिखाई  न दे
अवरुद्ध न करे मेरे प्रश्नों के रास्ते को

वैसे भी
इन दिनों सहमतियों से शक्लें गायब हो रही हैं,
संबंध ज्यादा नजर आ रहे हैं
मुझे उत्तर में बिकी हुई सहमतियां नहीं चाहिए
उस बेचैन कवि का संगतपूर्ण निष्कर्ष चाहिए
जिसके दिमाग की नसों को
मेंजाइटिस के चूहों ने कुतर डाला था ।

संपर्क :
नताशा
अध्यापिका एवं पटना दूरदर्शन के साहित्यिकी कार्यक्रम में संचालिका
मोबाइल - 09955140065
ईमेल - vatsasnehal@gmail.com

कोई टिप्पणी नहीं: