सुशील कुमार भारद्वाज युवा कहानीकार एवं समीक्षक हैं। उनका साहित्यप्रेम उन्हें एक सजग एवं गंभीर पाठक बनाता है। वे पढ़ने के पश्चात अपनी पाठकीय राय नियमित रूप से साझा करते हैं। हाल ही में उन्होंने चित्रा मुद्गल का उपन्यास 'पोस्ट बॉक्स न० 203 नाला सोपारा' पढ़ा है। आइये, 'पाठकनामा' के सफ़र में हो लेते हैं उनके साथ।
चित्रा मुद्गल का उपन्यास 'पोस्ट बॉक्स न० 203 नाला सोपारा ' समाज से बहिष्कृत और तिरस्कृत किन्नरों की जिंदगी के विविध पहलुओं को उकेरने की एक कोशिश है। उपन्यास में लिखे सारे पत्र नायक (पात्र) विनोद के ही हैं। पत्रों के माध्यम से विनोद जहां सामान्य-सी अपनी पारिवारिक और सामाजिक रस्मों–रिवाज एवं समस्याओं को उकेरने की कोशिश करता है वहीं वह अपने अड्डे पर होने वाली घटनाओं का जिक्र कर हिजड़ों की दुनिया की एक छोटी-सी तस्वीर भी पेश करता है। कुल सत्रह पत्रों में तीन से चार बार विनोद का पता बदल जाता है एक काल-खंड विशेष में।
उपन्यास में बताने की कोशिश की गई है कि किन परिस्थितियों में एक बच्चे का जन्म होता है। वह बच्चा किस प्रकार सामान्य लोगों के बीच असामान्य होते हुए भी सहज होने की कोशिश करता है। उसके बाल-सुलभ प्रश्नों को किस प्रकार टाल दिया जाता है। पढ़ाई के प्रति उसका कितना लगाव है और किस प्रकार उसके सारे सपने एक ही झटके में टूट कर बिखर जाते हैं जब चंपाबाई उसे हिजड़ों के समुदाय में शामिल करने के लिए जबर्दस्ती ले जाती है। परिवार वाले विनोद को बचाने की हर संभव कोशिश करने के बाद प्रतिकूल परिस्थितियों के सामने नतमस्तक हो जाते हैं। घरवाले घर–परिवार की इज्जत–प्रतिष्ठा के लिए न सिर्फ अपने रिश्तेदारों और विद्यालय से विनोद की सच्चाई छिपाते हैं बल्कि मरने की भी अलग-अलग कथा गढ़ लेते हैं...घर बदल लेते हैं। लेकिन विनोद अपने नये परिवेश और दुनिया में ढलकर भी सहज नहीं हो पाता है। शारीरिक रूप से विकृत और मानसिक एवं भावनात्मक रूप से विस्थापित विनोद उर्फ बिन्नी उर्फ दीकरा या बिमली अपने नारकीय कैद जिंदगी से पलायन भी करता है लेकिन जगह बदलने के सिवाय कुछ भी नहीं बदलता है। उसकी स्वतंत्रता भी सरदार के इच्छा विरुद्ध और सीमित दायरे में है, भले ही वह सबसे अलग दिखने की भरसक कोशिश करते रहता हो, जिसमें उसका कोई दोष भी नहीं है बल्कि वह माता-पिता और समाज की क्रूरता का प्रतिफल है। होश में आने के बाद वह घरवालों की सुध लेता है लेकिन वहां भी नकार दिया जाता है...अपरिचित और अछूता बना रहता है। अपमानित होने के बाबजूद किसी अज्ञात स्वाभिमान और स्वार्थवश अपनी माँ को दुविधा में रख चोरी-छिपे घर से जुड़ाव रखता है। फोन से होने वाली असजहता के कारण पत्र ही संवाद का जरिया बनता है, लेकिन विनोद के लिखे पत्रों को भी घर का पता नसीब नहीं होता है। सारी भावनाएँ, सारी चिंताएं, सारी शुभेच्छाएं और सहानुभूति कई–कई दिन तक पोस्ट बॉक्स न० 203 नाला सोपारा में छटपटाती रहती हैं। उन पत्रों को पढ़ने और बर्बाद करने या छिपाने में जितनी सतर्कता बरती जाती उतना ही कष्टसाध्य है सबसे छिपाकर उन पत्रों का जवाब देना।
पत्रों में विनोद की भाषा यथार्थ की कम और आदर्शवाद की अधिक है, भले ही वह अपने घरेलू मसले पर व्यवहारिक बनने की कोशिश करता हो। शिक्षा के महत्त्व की बात होती है तो वैकल्पिक रोजगार की भी। गाड़ी धोने से लेकर कंप्यूटर चलाने और मोबाइल जैसे आधुनिक तकनीकों की भी चर्चाएं होती हैं।
राजनेताओं के बीच भी वह सहज नहीं रह पाता, वहां भी अपनी नई राह तलाशने की कोशिश करता है। कठपुतली बनना उसे मंजूर नहीं। वह किन्नरों के स्वाभिमान की बात करता है। आरक्षण की सीढ़ी को वह पसंद नहीं करता। समाज में उनकी वापसी की वकालत करता है। जाति–धर्म जैसी कुप्रथा से परे किन्नरों को वह फिर से उनके उन्हीं प्रचलित खांचों में स्त्री–पुरुष के रूप में रखकर आरक्षण की बात करता है।
उपन्यास का अंत निराशाजनक है। न विनोद घर वापसी कर पाता है ना ही बा यानि विनोद की माँ वसीयत को अख़बारों में छपवाकर भी अपने दीकरा को कोई सुख दे पाती है, भले ही इसे एक अच्छे कदम के रूप में देखा जाए। दोनों अपनी–अपनी विधि अकाल काल के गाल में समा जाते हैं।
भले ही किन्नरों की जिंदगी की पड़ताल करती किताबें कम लिखी गईं हों लेकिन फिल्मों के माध्यम से इनकी सामाजिक और राजनीतिक भूमिका लोगों के नज़रों के सामने खूब आईं हैं। हिजड़ा कहें या किन्नर...शब्द बदल जाने के बाबजूद न तो गाली के मायने बदल गए हैं न हीं इनके जीवन में कोई खास बदलाव आया है। जड़ समाज में जागरूकता के असर पर चुप्पी ही ज्यादा कारगर है लेकिन विभिन्न परिस्थितियों में व्यक्तिगत रूप से कुछ किन्नरों को विभिन्न व्यवसाय में लगे कमोबेश जरूर देखा जा सकता है। कोख पर माँ की स्वतंत्रता या हक की बात करना आसान है लेकिन यथार्थ कोरी–कल्पना ही है। कदम (आवाज) तो वाकई में स्वागत योग्य है लेकिन विचारणीय यह भी है कि क्या वाकई में भ्रूण हत्या के मामले में भी स्त्री अभी तक स्वतंत्र हो पाई है एक दो उदाहरण को छोड़ कर। पूरे उपन्यास में बहुत कुछ नयापन नहीं दिखता है सिवाय आरक्षण के विरुद्ध आवाज उठाने के। पढ़ने के दरम्यान यह भी खलता जरूर है कि माँ के एक भी पत्र को ज्यों का त्यों नहीं रखा गया है।
जहां तक शब्दों के चयन और भाषा की शिष्टता की बात है तो उस पर चित्रा मुद्गल का अपना अधिकार है। कहीं-कहीं वर्णन उबाऊ भी लगता है लेकिन पढ़ने में में वह कहीं भी बाधक साबित नहीं होता है। उपन्यास का अंत न सिर्फ दारुण कथा का व्याख्यान है बल्कि आपको निःशब्द कर सोचने–विचारने पर भी मजबूर कर देता है। हिन्दी या अंग्रेजी साहित्य में इस तरह का उपन्यास एक अरसे के बाद पढ़ने को मिला है।
संपर्क:-
सुशील कुमार भारद्वाज
A-18, अलकापुरी, पो - अनिसाबाद, थाना - गर्दनीबाग, जिला – पटना (बिहार), पिन – 800002, मोबाइल - 8581961719
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