आज की प्रगतिशील स्त्री का सही परिचय सिर्फ उसकी संवेदनाओं एवं विचारों से ही नहीं मिलता बल्कि इसके लिए उसकी यथार्थपरक दृष्टि को जानना-समझना जरूरी हो जाता है। इसी प्रसंग में स्मिता सिन्हा की कविताएं महत्वपूर्ण हो जाती हैं। वे लंबे समय से पत्रकारिता से जुड़ी हुई हैं तथा रचनात्मक लेखन में उनकी दखल दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। उनकी कविताओं में जो यथार्थ है, वह हमारे समक्ष घटित सत्य ही तो है। अपनी रचनाओं में वे संवेदनाओं के बीहड़ में भटककर नहीं रह जाती हैं बल्कि एक नई राह को निकलती हैं। उनकी रचनाओं की स्त्री अपने भीतर-बाहर की दुनियां के सच को यथारूप नहीं स्वीकारती बल्कि उसका सामना करती है। कवयित्री की सहज काव्य-शैली पाठकों को सीधे उनकी रचनाओं से जोड़ती हैं तथा कविताओं का प्रवाह अंत तक बना रहता है। तो जुड़ते हैं उनकी कविताओं से।
देखो वह एक भीड़ है
जो चली जा रही है
अनंत अबूझ यात्राओं पर
एक ही धारा में लगातार
जिस ओर की हवा चली है
जिस ओर धरती धंसी है
जिस ओर उफन रहे हैं सागर
जिस ओर दरक रहे हैं पहाड़
देखो भीड़ के हाथ में एक पत्थर
जिसे वे उसे फेंक रहे हैं लगातार
उस बेहद खराब वक़्त के विरुद्ध
देखो वह भीड़ गुज़रती जाती है
ध्वस्त होते उन तमाम आदर्शों
और प्रतिमानों के बीच से
और बटोरती जा रही है
बिखरे पड़े विमर्शों की परछाईयाँ
भीड़ सतर्क है और सावधान भी
समझ रही है अपने खिलाफ फैलती
जटिलताओं को खूब बारीकी से
उनके हाथों में ख़ंज़र है और ढाल भी
ताकि वे बचा सकें अपने हिस्से की थोड़ी सी धूप
देखो उस भीड़ को
जिन्होंने निगल लिया है अपनी आत्मा को
या कि नियति पर अंकित अंधकार को
देखो वे भिंची हुई मुठ्ठियाँ
तनी हुई भौंहे
प्रतिशोध में लिप्त कठोर चेहरे
और मौन, खौफ़, क्षोभ
और गहराते रक्त के ख़ालिस ताजे धब्बे
यह भीड़ अब नहीं समझना चाहती
ककहरे, प्रेम या कि गीत
उसे सब विरुद्ध लगते हैं अब
धरती, सागर, पहाड़, कल्पना या कि कलम
तुम देखना ...
हमेशा यही भीड़ टाँग दी जाती है सलीब पर
इससे पहले कि वो आ पाये हमारे करीब
थूक पायें हमारे मुँह पर
2. चीखो, बस चीखो
चीखो
कि हर कोई चीख रहा है
चीखो
कि मौन मर रहा है
चीखो
कि अब कोई और विकल्प नहीं
चीखो
कि अब चीख ही मुखरित है यहाँ
चीखो
कि सब बहरे हैं
चीखो
कि चीखना ही सही है
चीखो
बस चीखो
लेकिन कुछ ऐसे
कि तुम्हारी चीख ही
हो अंतिम
इतने शोर में ... ...
3. विश्वास
उस दिन कितने विश्वास से
पूछा था तुमने
"माँ, तुम सबसे ज्यादा मज़बूत हो न !
तुम तो कभी नहीं रो सकती ।"
और
मैं बस मुस्कुरा कर रह गई
तुम्हें पता है
उस दिन
उसी वक़्त
मैंने छुपाई थीं
कुछ बूँदें
जो आँखों की कोर से
छलक पड़े थे
हो तो ये भी सकता था
कि मैं रोती तुम्हारे सामने
फूट-फूटकर
समझाती तुम्हें कि
रोने का मतलब
कमज़ोर होना नहीं
पर मैं चुप रही
तुम्हारा विश्वास बचाना
ज़रूरी लगा था मुझे
उस दिन ... ... ...
4. वो लड़कियाँ (1)
मुझे अच्छी लगती हैं
वो लड़कियाँ
जो छटपटाहट में भी करती हैं
हँसी की बात
पक्षियों की बात
उस नीली नदी की बात
गीत की बात
गज़ल की बात
जो अँधेरी रात में छत पर बैठीं
गिनती हैं तारे-सितारे
बनाती हैं आकाश की दुछत्ती
और बेवजह खिलखिलाती रहती हैं देर तक
जो ओढ़ती हैं आकाश की नीरवता
और चुपके से वहीं कहीं
किसी बादल की ओट में छुपा आती हैं
अपने आँसुओं को
मुझे अच्छी लगती हैं
वो लड़कियाँ
जो बेहिचक नज़रें मिलाती हैं
उस रुपहले सूरज से
सम्भालती हैं उससे रिसते अंगारों को
अपने परों पर
लहकती हैं
झुलसती हैं
होती हैं राख
फ़िर खुद ही बनाती हैं खुद को
कि फिनिक्स लुभाते हैं उन्हें
कि जहन्नुम से जन्नत का रास्ता
दुरुह नहीं उनके लिये
मुझे अच्छी लगती हैं
मुझ-सी लड़कियाँ
जो पहरों में गुज़रती हैं
रहती हैं जिस्म में परछाईं-सी
जो बेख्याली में करती हैं
इश्क की बातें
पर कभी किसी से
इश्क नहीं करतीं ... ... ...
5. वो लड़कियाँ (2)
मुझे अच्छी लगती हैं
धूप में तपती
सुर्ख गुलाबी रंगत वाली
वो लड़कियाँ
जिनके गालों में पड़ते हैं
गहरे गड्ढे
जिनकी खिलखिलाहट से
छन छनकर गिरते हैं
इंद्रधनुष के सारे रंग
हमारे आस पास
मुझे अच्छी लगती हैं
वो लड़कियाँ
जो हाथों में हाथ डाले
घुमती हैं जनपथ पर
इधर से उधर बेमतलब
आपस के पैसे जोड़कर
बड़े ठसक से करती हैं
खरीददारी
लॉन्ग स्कर्ट ,स्कार्फ ,
बैग, जूतियाँ, चूड़ियां
जाने क्या-क्या
और फ़िर खोमचे वाले से
मूँगफली लेकर बढ़ जाती हैं
पालिका की तरफ़
मुझे अच्छी लगती हैं
वो लड़कियाँ
जो हरी घासों पर लेटकर
बेखौफ ताकती हैं आकाश को
बेपरवाह, बेख़बर सी
बस आँखें बंद कर गुनगुनाती हैं
एक रुमानी सी ग़ज़ल
मुझे अच्छी लगती हैं
वो लड़कियाँ
जो बस यूँ ही
तोड़ती चली जाती हैं
उस गुलाब की सारी पंखुड़ियां
जो होती हैं
मौसम की पहली बारिश में भींगी
सोंधी मिट्टी सरीखी
बारिश की नन्ही बूँदों को
पकड़ने में मशगूल
मुझे बेहद अच्छी लगती हैं
वो लड़कियाँ
जो उस फिसलते लुढ़कते सूरज के साथ
चलती चली जाती हैं
और अपनी पीठ पीछे छोड़े जाती हैं
एक लम्बी उदास शाम ... ... ...
6. बेवजह
कभी - कभी बेवजह ही होता है
घर से निकलना
भटकना बेफिक्र रास्तों पर
और फ़िर
एकाएक मुड़ जाना
वापस उसी घर की ओर
यूँ ही बेवजह नहीं होता !
कभी - कभी बेवजह ही होता है
रेशमी ख्यालों को सजाना
बड़े करीने से
सफ़्फ़ाक सफ़ेद पन्नों पर
और फ़िर
एकाएक मिटाना
हर एक शब्द
जैसे वे कभी थे ही नहीं
यूँ ही बेवजह नहीं होता !
कभी - कभी बेवजह ही होता है
बेतकल्लुफी में खिलखिलाना ,
हँसना , मुस्कुराना
और फ़िर
एकाएक बिल्कुल शांत होकर
खुद को ही समझाना
छोड़ो भी......जाने दो यार
यूँ ही बेवजह नहीं होता !
कभी - कभी बेवजह ही होती है
ओस से धुली सुबह की प्रार्थना
मंदिरों में बजती घंटियाँ
और पवित्र दिये की लौ !
कि ख्वाहिशों को
बंदिशों में रहने का
हुनर सीखना
यूँ ही बेवजह नहीं होता ... ...
7. ठिकाना
उनके सपनों को
जन्म से ही
पता होता है अपना ठिकाना
अपना विस्तार
उन्हें पता होता है
एक पूरी चाँद रात
और एक पूरी रोटी का फ़र्क !
वे कभी नहीं उलीचते
आँखों के आँसू
दूध से भरी
उस नदी के लिये
उनके पास नहीं होती
कोई कहानी
परियों की, सुर्खाब की
या फ़िर अमलतास की !
उन्हें पता होता है कि
पहाड़ी के उस पार
कोई बुढ़िया नहीं
जिसके पास है
चॉकलेट का घर
और इंद्रधनुष का झूला !
वे नहीं दौड़ते
मुट्ठीभर जुगनुओं को लिये
उस चमकते सूरज की ओर
वे जान चुके हैं कि
कोहरे की धुंध में लिपटी
सुबह भी रात - सी ही होती है !
कार के शीशों पर जमी
ओस - कणों पर उकेरी गयी
उनकी उन आड़ी-तिरछी रेखाओं का
कोई अर्थ नहीं
कि अंत में बचती है तो
सिर्फ़ कुछ नन्ही बूँदें
और उनकी भूख !
उन्होंने सीख लिया है
उबड़ - खाबड़ संकरी
पगडंडियों पर पैरों को जमाना
साधना अपने कदमों को
ज़िंदगी की ओर
वे खूब जानते हैं
बेतरतीब से फैले
अपने सपनों को समेटना
कि अभी उन्हें तय करना है
एक लम्बा सफ़र
निश्चितताओं की ओर
तमाम अनिश्चितताओं के विरुद्ध !
कि सम्भव है
वे कभी भी खदेड़ दिये जायें
इस ठिकाने से भी ... ...
8. उन दिनों
उन दिनों
मैं चलती रहती थी लगातार
बिना जाने कि
आखिर मुझे पहुँचना कहाँ है ?
उन दिनों
मैं नहीं समझ पाती थी कितनी ही बातें
कि आखिर क्यों सुलाती है माँ मुझे अपने पास
जब दूर गाँव से रिश्तेदारी में कोई भाई,
चाचा, मामा या फूफा घर आते हैं
मेरे जोर से खिलखिलाकर हँसने पर
क्यों झिड़कती हैं मामी
और पापा क्यों तरेरते हैं अपनी आँखें
जब मुझे देर होती है घर लौटने में
मैं उस दिन भी कुछ नहीं समझ पायी थी
कि आखिर क्यों उदास है पड़ोस का घर
जबकि दशहरे के मेले में गुम हुई
उनकी लड़की कल वापस भी मिल गयी
मैं उस दिन भी कुछ नहीं समझी थी
कैसे जलकर मर गयी सामने वाली भाभी
मैं पढ़ती गयी
लिखती गयी
समझने लगी थी बहुत कुछ
अब मैंने छोड़ दिया था गुड़ियों से खेलना
हँसने का सलीका भी आ गया था मुझे
अब मैं उन अंकल के पास भी नहीं जाती थी
जो पढ़ाने के बहाने से कभी मेरे गालों को ,
तो कभी मेरे कंधों को सहलाते थे
अब मैं बनाती थी मानव शृंखला
बेली रोड से लेकर गाँधी मैदान तक
लड़ती थी अपनी सहेलियों के हक के लिये
अब मैं समझ रही थी मेरी बढ़ती उम्र का सच
जिसने परेशान कर रखा था पापा को
अब मैं अपने दुपट्टे को सम्भालना भी सीख चुकी थी
उन दिनों अक्सर मैं जा बैठती थी
दरभंगा हाउस की सीढ़ीयों पर
और देर तक निहारती रहती थी
गंगा की लहरों को
अब मैं चुप रहने लगी थी
किंतु एक कोलाहल सा चलता रहता कहीं भीतर
जाने कितने ही शब्द टकराते आपस में
और मैं जूझती रहती थी इनसे
ये लड़ाई मेरी खुद की थी खुद से
मैं खोज रही थी जीवन की जड़ें
कहाँ, कितनी गहरी
उम्मीदों का आसमान
कितना ऊँचा, कितना विस्तृत !
उन दिनों
उसी गंगा ने सिखाया मुझे
ज़िंदगी का सच
कि इसमें डूबकर कर ही
इससे उबरना है मुमकिन
और उस दिन से लगातार आज तक
बिना सवाल
मैं सोती हूँ चुपचाप
अपने हिस्से की रात को ओढ़कर
हाँ ...
तारे गिनने छोड़ दिये अब मैंने।
9. नमक पसीने का
घर से निकलना तो बस
ये बात याद रखना
की तुम अकेले हो
इस भागती सी भीड़ में
जहाँ शक्ल नहीं देखी जाती
सिर्फ़ कंधे टकराते हैं
कि तुम्हारे पास पैर नहीं
लोहे के पहिये हैं
जिन्हें भागना है लगातार
जंग लगने तक
कि तुम धौंकनी हो
उस चूल्हे की
जिसे लहकना है
तपना है
झुलसना है
पकानी है रोटी
कि घर में सब भूखे हैं
तुम हो वो पहाड़
जिसे अपने सीने को खरोंच कर
उगानी है हरी कोंपलें
तुम हो वो एक टुकड़ा जमीं
तुम्हें उतरना है खुद में
कहीं गहरे तक
और रखनी है नींव ज़िंदगी की
तुम सोचना तो बस ये की
अभी आज़माइश का वक़्त है
कि अभी आयेंगी
जाने कितनी ही सिलवटें
तुम्हारे वजूद पर
उलझेंगे जाने कितने ही सवाल
आपस में
कि अभी तुम्हें समझना है
ज़िंदगी को और करीब से
कि अभी तुम्हें समझना है
अपने होने का अर्थ
कि अभी तुमने कहाँ चखा है
नमक पसीने का ... ...
10. उदास समय
यह इस उदास धरती का
एक बेहद उदास समय है
जब शब्दकोश खो रहे हैं लगातार
अपने तमाम ताकतवर शब्दों को
और तसल्ली भी विलुप्तप्राय है
बावजूद इसके
हम खड़े होने की कोशिश में हैं
अपने उदास सपनों के साथ
इस बेहद उदास समय के खिलाफ
हम शून्य आँखों से देखते हैं
रोटी की लड़ाई लड़ता
आग में झुलसता बचपन
उस दारु के ठेके के पास से
उठायी जा रही वो तीन लड़कियाँ
और चारों तरफ़ फैलता
कब्रों का बाज़ार
हम प्रतिभागी हैं
इन विडम्बनाओं के
रात्रि की निस्तब्धता में फैलती
वो अदृश्य गंध
और आकाश की
वो गहन नीरवता
बेचैन करती है हमें
और भ्रमित भी
हम फ़िर भी टिके रहते हैं
अपने धारदार तर्कों के साथ
अपने अपने पक्ष में
कि कोई प्रतिपक्ष
पैमाना हो भी नहीं सकता
हमारी ईमानदार आश्वस्ति का
हाँ , फिसलते वक़्त पर
सधकर चलना ही
बस ज़रुरी है अब
क्या तुमने कीचड़ में
धंसते हुए नहीं देखा
कभी किसी को ?
संपर्क :
स्मिता सिन्हा
स्वतंत्र पत्रकार,
फिलहाल रचनात्मक लेखन में सक्रिय
मोबाईल : 9310652053
ईमेल : smita_anup@yahoo.com
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