शहर की व्यस्तता सहज ही अपनी ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है, पर उस व्यस्तता के पार पड़ा मौन ! उसका ख़याल किसे है ? कौन करना चाहता है साक्षात्कार उसके मौन का जो रिरिया रहा है। कई बार तो ऐसा होता है कि पूरी ज़िंदग़ी शहर में खपा देने के बावजूद भी शहर हमसे अपरिचित ही रह जाता है। क्यों हम उसे दिलोजां से चाह नहीं सके ? क्यूँ हमने उसे भींचकर गले नहीं लगाया ? क्या इसकी वजह हम सही-सही बता पाने में सक्षम होते हैं, नहीं न। क्या इसके पीछे भी वही कारण विद्यमान हैं जो हमारे पारिवारिक विघटन का है। शहर बाँहें फैलाये पितृवत हमारा आलिंगन करने को तैयार रहता है और हम मुंह फेरे उसकी उपेक्षा कर जाते हैं, आगे बढ़ जाते हैं। पर कभी-कभी संयोग से ही सही...हम आमने–सामने टकरा ही जाते हैं। ऐसे में भला आँखें कैसे चुरायें।
तो एक दुपहरी मेरा सामना अपने शहर से हो ही गया। हमने एक-दूसरे का कुशल–क्षेम पूछा। हालांकि शहर को तो मेरी हर एक बात की जानकारी थी। दरअसल मैं अपने एक संबंधी की मिजाजपुर्सी में दानापुर–गाँधी मैदान रोड पर स्थित महावीर वात्सल्य अस्पताल गया हुआ था। मित्र रजनीश साथ में थे। हॉस्पिटल से निकलते ही मेरी दृष्टि सामने फैली गंगा के विशाल सूखे पाट पर पड़ी। पता चला कि सामने जो द्वार है, वह एल सी टी घाट का प्रवेश द्वार है। पोस्टरों से ढंके उस द्वार पर घाट का नाम लिखा होगा या नहीं...नहीं पता। मित्र से ही पता चला कि हमारे ऑफिस के सहदेव भैया का घर इधर ही है। मोहल्ला का नाम है–मैनपुरा। ऐसी जानकारी हमें थी कि छुट्टी के दिनों में वे एल सी टी घाट की तरफ ही घूमते पाये जाते हैं। उनकी सुबह की शुरुआत तो नित्य गंगा–दर्शन से ही होती है।
खैर, हमें निराश नहीं होना पड़ा। अनुमान के मुताबिक हमारी नजर उन पर पड़ ही गयी। हम सड़क पार कर उनसे मिले, वे कुछ देर पहले ही पहुंचे थे। तय हुआ कि एल सी टी घाट पर गंगा का दर्शन करते चलें। अब आपका सवाल यह हो सकता है कि जब हम घाट पर थे ही तो आगे जाने की क्या आवश्यकता थी। तो सुनिये दुःख-भरी सच्चाई―गंगा घाट के प्रवेश-द्वार से दो किलोमीटर दूर चली गयी है, गर्मियों में तीन किलोमीटर दूर चली जाती है।
जी हाँ, आपकी तरह मेरे मन में पहला सवाल यही घुमड़ रहा था कि एल सी टी घाट का पूरा नाम क्या है। सहदेव भैया एवं उनके एक मित्र द्वारा यह जानकारी मिली कि पूरा नाम तो उन्हें भी नहीं मालूम। हाँ, इतना तो पता है कि घाट को यह नाम पहलेजा घाट से पटना तक चलनेवाले स्टीमर से मिला― बच्चा बाबू का एल सी टी जहाज। पहलेजा ( सोनपुर ) के बच्चा बाबू के जहाज़ पूरे बिहार में चलते थे। साहेबगंज और मनिहारी के बीच तो यह आज भी चल रही है। बातचीत के क्रम में ही पता चला कि एल सी टी जहाज का उपयोग ज्यादातर माल लदे ट्रक ढोने में होता था। यानी एल सी टी घाट एक नदी बंदरगाह का काम करता था। यात्रियों की आवाजाही भी इसके द्वारा होती थी। लोग अपनी गाड़ियों सहित पटना की यात्रा कर आते थे। पर महात्मा गाँधी सेतु बनने के पश्चात एल सी टी घाट सहित पटना के अन्य घाटों का महत्व परिवहन हेतु कम होता गया। भैया ने बताया कि 1991 के बाद से कभी गंगा एल सी टी घाट को छू नहीं पाई सिवा बरसाती बाढ़ के। एल सी टी जहाज इस घाट से भले ही दूर हो गया हो, पर उसकी स्मृति शहर को है एवं उसके निवासियों को भी―वह अपना नाम जो छोड़ गया है।
ओह! मैं तो परिचय में ही आगे बढ़ता जा रहा हूं। आखिर एल सी टी का पूरा नाम भी तो बताना है। इसका पूरा नाम है―लैंडेड क्राफ्ट टैंक। इसे पहले टैंक लैंडिंग क्राफ्ट ( टी एल सी ) के नाम से भी जाना जाता था। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान इसका निर्माण टैंकों को समुद्र या नदी के तट पर उतारने के लिए ब्रिटिश रॉयल नेवी द्वारा किया गया था। युद्ध के पश्चात् इसका उपयोग बदला, लेकिन नाम रह गया। इसका उपयोग माल ढुलाई एवं यात्रियों की आवाजाही के लिए होने लगा।
अब फिर से अपने सफ़ऱ पर लौटा जाय। घाट का प्रवेश–द्वार पार करते ही हमारा सामना एक स्टीमर के जीर्ण–शीर्ण होते जाते अवशेष से होता है जो मिट्टी में आधा धंसा आज भी वहां के वाशिंदों को अपनी पुरानी स्मृतियों में खिंच ले जाता है। अगल–बगल दो-चार गुमटियां खड़ी हैं जहाँ से आप बिस्किट, नमकीन, कोल्ड ड्रिंक, पानी आदि चीजें खरीद सकते हैं। वहाँ फैली गंदगी को देखकर हो सकता है कि आप आगे बढ़ने का विचार त्याग दें, पर गंगा का चुम्बकीय आकर्षण कदमों को आगे बढ़ने पर मजबूर कर देता है। आगे नहरनुमा नाला पड़ता है जहाँ सीवरेज की गंदगी आकर जमा होती रहती है। नाला में प्रवाह नहीं है जैसा कि दिल्ली के नालों का प्रवाह होता है। यहाँ रुका हुआ पानी सड़ता ही जा रहा है...अनवरत!
आगे बढ़ने पर हमारा सामना गंगा एक्सप्रेस-वे के निर्माण कार्य से होता है। गंगा की छाती पर अनवरत कील ठोंकने का काम चल रहा है और गंगा यीशु की तरह कराहकर कहती है―हे ईश्वर! इन्हें माफ़ कर देना। ये नहीं जानते, ये क्या कर रहे हैं। इन्हीं सोच में आगे बढ़ रहा था कि फर्राटे मारती मोटरसाईकिल धूल उड़ाती निकल गयी। आगे का रास्ता हरियाली से भरा था। दोनों तरफ सब्जियों के खेत दिखने लगे। यह दियारा है जो खूब उपजाऊ क्षेत्र है। बैंगन, टमाटर, करेला, नेनुआ, कद्दू इत्यादि सब्जियां यहाँ उगाई जा रही हैं। परवल की लतायें नई अंगड़ाई ले रही हैं। खेतों में टमाटर ज्यादा पक कर सड़ रहे हैं, सूख रहे हैं। पता चलता है कि मंडियों तक पहुँचाने का खर्च लागत से अधिक पड़ रहा है और मंडी में दाम भी कम मिल रहे हैं। इस साल पैदावार अधिक होने के कारण वैसे भी सब्जियों की कीमतें कम रही हैं।
दियारा क्षेत्र पर किसानों का अधिकार परंपरागत रूप से कायम है, पर इस जमीन के स्वामित्व का कोई लिखित प्रमाण इनके पास नहीं है जिसके कारण निर्माण-कार्य में चली गयी जमीनों का कोई मुआवजा इन्हें नहीं मिल पाता है। खेतों के बीच से गुजरते हुए आखिर हम वहाँ पहुँचते हैं जहाँ एल सी टी घाट का बोर्ड लगा हुआ है। वहीं रास्ते के दोनों तरफ़ कुछ झोंपड़ीनुमा घर हैं, कुछ मचान बने हुए हैं। ज्ञात हुआ कि खेतों में काम करनेवाले लोग यहीं बस गए हैं। ये लोग खेती के साथ-साथ मवेशी भी पाले हुए हैं। पिछली बरसात में जब गंगा का पानी एल सी टी घाट पर खतरे के निशान से खतरनाक ढंग से ऊपर बह रहा था तो ये लोग मचान पर अपना डेरा जमाये हुए रहे। और तो और...नाव पर सवारी करते शहर में दूध भी बेच आते थे। खेतों में सूखी जमीन पर उनकी नावें भी पड़ी थीं।
वापस होते समय मन में एक ही बात आ रही थी कि आखिर हम कब रुकेंगे...रुकेंगे भी या नहीं। क्या हम गंगा की धारा को पूरी तरह रुक जाने का इंतज़ार करेंगे। वैसे हम कर तो यही रहे हैं। बड़े बाँध बनाकर रास्ते में गाद जाम कर रहे हैं तथा शहर का कचरा सीधे इसमें प्रवाहित कर रहे हैं। एक समय साहिर ने लिखा था―
" गंगा तेरा पानी अमृत झर-झर बहता जाए
युग-युग से इस देश की धरती तुझसे जीवन पाए "
आज गंगा के प्रति हमारी उपेक्षा से तो यही जाहिर होता है कि हमारा प्रयोजन अब इससे नहीं रहा। तभी तो भूपेन हजारिका गा उठते हैं―
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