'जीवन क्या जिया' के उत्कर्ष खंड को उसके सर्जक से ही शुरू करना उचित समझता हूं। राजकमल चौधरी के सगे चाचा नरेंद्र नारायण चौधरी बालक तारानंद के गुरु थे, ऐसे में फूल बाबू की चर्चाओं से भला वे कैसे विलग रह पाते। परिवार में कई प्रसंगों पर चर्चाएं होती थीं तथा यह भी ज्ञात हो चुका था कि वे लेखन करते थे, पर अद्भुत लेखन! इसका पता अभी तक नहीं चला था। इसका भी श्रेय महिषी के तारास्थान को मिलना था। वहीं राजेंद्र की पान–दूकान पर पोस्ट ऑफिस में नौकरी करनेवाले विनोदजी द्वारा यह जानकारी मिली कि राजकमल ने लेखन के क्षेत्र में हिला देने जैसी घटना की सृष्टि की है। फिर क्या, किशोर होते तारानंद एवं अन्य साथियों में जूनून पैदा हो गया। उन्होंने राजकमल परिवार के सरस्वती पुस्तकालय से शुरू कर सहरसा, सुपौल, दरभंगा, पटना आदि शहरों की दूरियां नाप डाली। 'राजकमल रचनावली' अपना आकार ले रही थी, पर उनके व्यक्तित्व की कई उलझी कड़ियां तब सुलझी जब राजकमल के रिश्ते में चाचा उपेन्द्र चौधरी उर्फ़ परदेशी काका से इस मार्फ़त बातचीत हुई। ये उत्साही लड़के उन्हें परदेशी काका क्यों कहते थे, उन्हें भी पता नहीं था। बस कहते थे क्योंकि फूल बाबू उन्हें इसी नाम से पुकारते थे। रूढ़ियों एवं वर्जनाओं को तोड़ने खातिर राजकमल की तस्वीर पूरे ग्राम–प्रांतर एवं साहित्य जगत में कुछ अलग ही बन रही थी, जिसका अंत उनकी मृत्यु के बाद भी नहीं था। परदेशी काका ने ही उनके व्यक्तित्व को खोलकर इन उत्साहियों के सामने रखा। राजकमल का कहना था― " मुझे बनना या बर्बाद हो जाना है, इसका निर्णय सिर्फ मेरे हाथ में है। फैसला मैं करूँगा। किसी दूसरे को न फैसला करने दूंगा न श्रेय लेने दूंगा। " इसी प्रसंग में महिषी में परदेशी काका एवं उत्साही जिज्ञासुओं के बीच हुए संवाद का अंश आप सबके समक्ष, सादर !
–देखो तारानंद, वह लड़का बारह की उमर के बाद ही अकेला पड़ गया था। हमेशा सोचता रहता। स्कूल में लोकप्रिय था। वहां तरह तरह की प्रवृत्ति के लड़के रहते थे। सबकी पारिवारिक पृष्ठभूमि भी अलग अलग थी। आदतें भी अलग अलग थीं। फिर, वह बाजार में रहता था। पिता के साथ रहता था तब भी, हॉस्टल में रहने लगा, तब भी। बाजार की अपनी जीवनशैली होती है। वह गांव के जीवन की तरह शांत स्थिर नहीं होता। वहां तरह तरह के बुलबुले उगते रहते हैं। अच्छी चीज रहती है, तो बुरी चीज भी रहती है। वह सबकी संगत में आता गया। दूसरी एक बात क्या होती है कि अगर तुम्हारा जीवन उपेक्षित है तो तुमको उपेक्षितों के प्रति हमदर्दी होगी। उसका दर्द तुम समझना चाहोगे। अब, कोई पासी का बेटा है। परिवार से उपेक्षित है। उसकी संगत में आया। वह पासी का बेटा ताड़ खजूर से ताड़ी उतारना जानता है। वह उसके कुल का पुश्तैनी रोजगार है। फिर, यह भी बात है कि पासी के बेटे की हिम्मत तो ऐसी नहीं होगी कि इतने बड़े हेड मास्टर साहब के बेटे को कहे कि चलो, ताड़ी उतारकर पीते हैं। तो, शुरुआत इस तरह हुई कि अकेलेपन के उपेक्षित समय में, तनाव से मुक्ति पाने की प्लानिंग कर रहा है तो आइडिया आया कि उस लड़के को साथ करके तड़बन्ना चला जाए और ताड़ी उतारकर पीया जाए। इस तरह उसके जीवन में दुर्व्यसनों का आरंभ हुआ। ताड़ीवाली बात तो हम बिलकुल ही वास्तविक बोले हैं। एक बार तो गाछ पर चढ़कर ताड़ी उतारने के चक्कर में वह गिर भी गया था। हड्डी टूट गई थी।
–हां काकाजी, संगत की भी तो रंगत होती ही है ।
–देखो, मानते हैं कि होता है। कहावत भी है संगत से गुण होत है संगत से गुण जात। लेकिन, राजकमल के साथ ठीक ठीक यही हुआ, यह भी तुम नहीं कह सकते हो।
–उनके साथ क्या हुआ था ?
–यह तुमको हमेशा याद रखना पड़ेगा कि राजकमल के व्यक्तित्व का निर्माण बहुत उदात्त तरीके से शुरू हुआ था। और, तुम यह भी नहीं कह सकते हो कि यह उदात्तता बारह की उमर के बाद खतम हो गई। बहुत चीजें तो ऐसी थीं, जो कुल का संस्कार थीं। चारों तरफ वैसा ही होता था। वैसा ही होते वह देखता आया था। लालभाई में दोनों चीजें थीं–नैष्ठिकता भी थी और आभिजात्य का गुण भी था। पितामह फूदन चैधरी की प्रतिष्ठा का भी असर था। बुधवारय कुल के गौरव की परंपरा सामने थी। फिर, ऐसी बात भी नहीं थी कि वह आर्थिक रूप से विपन्न परिवार का हो। वह आर्थिक कष्ट में था, यह अलग बात है। लेकिन जिस माहौल में पालन पोषण हुआ, वह विपन्न नहीं था। ऊपर से ब्राह्मण था। मैथिल ब्राह्मणों में बुधवारय कुल को एक जमाने में श्रोत्रिय कुल माना जाता था। इसलिए बाकी ब्राह्मण इसे सम्मान की दृष्टि से देखते थे।
–हां काकाजी, यह बात तो है ।
–राजकमल के व्यक्तित्व में, तुम देखोगे कि शालीनता की कमी कभी नहीं हुई। संस्कारहीन वह कहीं भी दिखाई नहीं पड़ेगा। उजड्ड गंवार जिसको कहा जाए, ऐसा कहीं देखते हो उसको ?
–नहीं। कभी नहीं।
–फिर देखो। जो दायित्व उसने एक बार मन से स्वीकार कर लिया, उसको जिंदगी भर निभाया। किसी बात के विरुद्ध हुआ तो विरोध भी लगातार बना रहा। किसी भी दृष्टि से तुम देखो तो पाओगे कि वह एक जिम्मेवार आदमी था। अगर उसने किसी के साथ बदतमीजी की, कोई झूठ बोला, किसी को धोखा दिया–तो वह सब जान बूझकर, सोच समझकर, प्लानिंग बनाकर किया। उस आदमी के साथ उसको यही करना चाहिए था, इसलिए किया।
–हां, ये बात तो समझ में आने लायक है।
–इसलिए तुम जो बोले संगत और रंगत। वह बात उसमें नहीं थी कि कहीं किसी के साथ हुए तो फिर उसी के रंग में रंग गए। उसको दौरा चढ़ता कि उस रंग में रंगना है, तब वह उस तरफ बढ़ता था।
–बहुत पते की बात आप कह रहे हैं और कह भी आप ही सकते हैं काकाजी!
–तो फिर, धीरे धीरे क्या होने लगा कि वह ज्यादा से ज्यादा समय घर से बाहर रहने लगा। नवादा की बात बताते हैं। बस स्टैंड के पास एक चाय की दुकान थी। वहां वह दस बजे जाकर बैठ जाता और शाम चार बजे तक वहीं बैठा रहता था। उसके पास एक नोटबुक रहती थी। दिनभर वह लिखता रहता था। और, यह तो थोड़ा आगे चलकर हुआ। इसके पहले यह दौर चला कि वह घर से भाग जाता था। पंद्रह दिन, महीना तक गायब रहता था। लेकिन, फिर बताते हैं, वह कहां जाएगा, किसके साथ क्या करेगा–इसका फैसला कोई दूसरा आदमी नहीं कर सकता था। हमेशा इसका फैसला वह खुद करता था। नवादा के दिनों के बारे में कई बातें उग्रानंद ने भी अपने संस्मरण में लिखी हैं। उनका यह संस्मरण अब तक अप्रकाशित है। मुझे इसकी प्रति डॉ– रमानंद झा रमण (प्रसिद्ध मैथिली समालोचक) के पास देखने को मिली। उग्रानंद ने लिखा है कि नवादा में कोई भी आदमी उन्हें राजकमल के नाम से नहीं जानता था। लिखने पढ़ने में तो उनकी गति बाद को हुई, उसके पहले वह वहां एक बदमाश गुंडे के रूप में कुख्यात थे। वहां एक दबंग सरकारी ठेकेदार था, जो अपनी दबंगई कायम रखने के लिए हर अनैतिक काम करता था, तरह तरह के हथकंडे अपनाता था। राजकमल यूं तो उमर में उससे काफी छोटे थे, लेकिन उनकी साहसी प्रवृत्ति ने उन्हें ठेकेदार का बहुत करीबी बना दिया था। किसी को भी पीट देना उनके लिए बहुत मामूली बात थी। उग्रानंद के ही शब्दों में–‘वह इतना जीवट का आदमी था कि कितनी भी भीड़ हो, अकेले वह हाथ छोड़ देता था। वह अपने घर पर भी नहीं रहता था। हॉस्टल के ही एक कमरे में दो–तीन विद्यार्थियों के साथ रहता था। हॉस्टल के अहाते में ही उसका डेरा था और हॉस्टल से सटा हुआ। मगर वह जाता था केवल खाना खाने के लिए। इसके अतिरिक्त उसे अपने पिता के क्वार्टर से कोई वास्ता नहीं था। दिनभर वह उस गंदी गली के उस गंदे कमरे में अपने दोस्तों के साथ ठर्रा पिया करता था और फ्लश खेला करता था।’
–भागलपुर के दिनों में वह कहां जाते थे ? आपको तो कुछ कुछ जरूर बताते होंगे!
–झूठ बताता था कि दुलारीबाई कि प्यारीबाई वेश्या के पास गए थे, वही पंद्रह दिन नहीं आने दी। कभी बताता कि आसाम बोर्डर पर स्मगलिंग का धंधा कर रहे थे। बताने का मकसद यह होता कि हमारी मारफत लालभाई को पता चले और वे दुखी हों। लेकिन हम थोड़ा सोच समझकर ही उनको जानकारी देते थे। कभी–कभी पिता के प्रति आक्रोश में आता तो उनको पतित, धूर्त, अय्याश, मक्कार वगैरह कहता। हम उसको शांत कराते। दूसरी तरफ लालभाई भी उसके लिए इसी प्रकार का संबोधन व्यवहार करते। दबी जुबान से हम उनको कहते भी कि लालभाई, उसको क्षमा कीजिए, अपनत्व दीजिए। पिता के साथ राजकमल के कठिन संबंध का कुछ जिक्र उग्रानंद के संस्मरण में भी आया है। उन्होंने लिखा है कि अपने स्कूल के हीरो थे। पढ़ने में सचमुच तेज थे लेकिन पढ़ाई से अधिक आवारागर्दी में मन लगता था। दो–चार लड़के हमेशा उनके साथ पाए जाते । शुरू शुरू में उनके पिता इस सबके लिए उन्हें बहुत पीटते थे। मगर, बाद में उन्होंने ऐसा विद्रोह किया कि पिता ही उनसे डरकर रहने लगे। उन दिनों राजकमल खुलेआम बोला करते थे कि एक दिन वह समूचा छुरा उनकी लंबी तोंद में घुसेर देगा और सारी अंतड़ियां बाहर निकाल लेगा। ऐसा इसलिए था कि पिता उन्हें बहुत सताते थे, उसकी अवहेलना करते थे। उन्होंने यह भी लिखा है कि ‘उसके पिता बहुत ही पुराने खयाल के आदमी थे। अधिकतर पूजा पाठ में समय बिताते थे। बड़े कड़े मिजाज के आदमी थे। इतना तक कि अपने स्कूल के एक शिक्षक को उन्होंने इसलिए हटा दिया था कि वह सिगरेट पीता था। मगर इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि उस धार्मिक पिता का पुत्र इतना अधार्मिक कैसे हुआ! राजकमल की अधार्मिकता उसके पिता की अवहेलना की प्रतिक्रिया थी। पिता बहुत अधिक भोजन करते थे। अच्छी–अच्छी चीजें खाते थे। मगर राजकमल तथा उसके दोनों छोटे भाइयों को नौकरों जैसा खाना मिलता था। राजकमल के कपड़े फट जाते थे, जूते टूट जाते थे, मगर पिता को इसकी परवाह नहीं रहती थी। राजकमल यह सब देखकर गुस्से से भर जाता था। मगर पिता का दबदबा ऐसा था कि उनके सामने वह अपना गुस्सा अच्छी तरह प्रकट भी नहीं कर सकता था । इसीलिए पिता को तंग करने की नीयत से वह गलत रास्ते पर आ गया था ।’
–काकाजी, इस प्रकार का आक्रोश क्या किसी दूसरे के प्रति भी होता था ?
–देखो, आक्रोश उत्पन्न करनेवाला एक ही व्यक्ति उसके जीवन में था। वे थे उसके पिता । लेकिन देखना पड़ेगा न कि पिता से क्यों आक्रोश होता था, क्या बात थी, क्योंकि उसके सबसे प्रिय व्यक्ति भी तो पिता ही थे। तब, बात यह थी कि पिता में आक्रोश उत्पन्न करनेवाली जो बात थी, वह बात, वह प्रवृत्ति यदि कहीं दूसरे व्यक्ति में दिखती थी तो उसके प्रति भी आक्रोश होता था। उसमें मूल बात यह थी कि साहब, जैसे आप दिखाई पड़ रहे हैं या अपने आपको घोषित कर रहे हैं, वैसे असल में हैं नहीं । तो उसने ऐसा भी किया कि जो बात उसको सही लगी, उसको उसी रूप में आचरण करने लगा। यही बात उसके साहित्य में भी है। सुनते हैं कि उसके जमाने में और भी कई लेखक विश्व–साहित्य में थे, जो इसी विचारधारा को मानते थे। उसका पत्राचार भी था उन लोगों से।
–काका जी, हम उनकी कल्पनाशीलता के बारे में बात करना चाह रहे थे। और, खास करके इस बारे में कि आप बोले थे कि इसी ने उनको मार दिया।
–देखो तारानंद, राजकमल जब यह बात बोला कि जीवन तो मैंने सिर्फ बारह साल की आयु तक जीया, बाकी समय तो दुःस्वप्न में बीता, तो वह वैसे ही नहीं बोल रहा था। इस बात में बहुत भारी मर्म है। उस मर्म को समझना चाहिए ।
–बताइए ।
–एक तो यह कि बारह वर्ष के बाद का जो उसका जीवन था, वह लगातार तनाव, संघर्ष और उथल–पुथल से भरा रहा। शुरुआती समय में तो यह केवल मानसिक था, बाद में इसका दायरा दिनोंदिन बढ़ता ही गया। कभी वह चैन से रहा ही नहीं। ऊपर से, उसकी जीवनशैली ऐसी थी कि वह हमेशा एक्टिव दिखता था। हमेशा कुछ नया करने की ताक में लगा रहता था। नए–नए विचार आते थे। यह कल्पनाशीलता के ही कारण होता था। हमेशा किसी–न–किसी अभियान में लगा ही रहता था। मित्रों की संख्या भी अनगिनत थी। बहुत लोग तो समझ भी नहीं पाते थे कि वह लिखता कब है, क्योंकि लोग तो हमेशा उसको किसी न किसी मामले में व्यस्त ही देखते। वह अक्सर बताता था कि उसको नींद नहीं आती है। लिखने का काम भी वह रात में बिस्तर पर जाने के बाद ही करता था। इस कारण से आई हुई नींद भी भाग जाती थी। कभी–कभी वह यह भी बताता था कि खौफनाक दृश्य दिखाई पड़ते हैं। अब भाई, शरीर की तो सीमा होती है। नींद तो स्वास्थ्य के लिए जरूरी चीज है। और नींद तो आपको तभी आएगी, जब आपका दिमाग चैन में होगा। और, उसका दिमाग कभी चैन में रहा ही नहीं। उधर से भागा तो इधर, इधर से भागा तो उधर। यही चलता रहा। हम समझते हैं कि यह उसकी भयानक कल्पनाशीलता के ही कारण हुआ। शुरू में तो होता यह था कि समय काटना था या पिता से बदला चुकाना था। बाद में उसका रूप बदलकर रचनात्मक हो गया। लिखने पढ़ने में वह लग गया। लेकिन दिमाग कभी थके नहीं, कल्पनाशीलता लगातार बरकरार रहे, बल्कि और बढ़े और बढ़े–इसके लिए वह जीवननाशक चीजों की ओर बढ़ गया। उसका नशा सेवन या गलत लोगों की संगति–यही चीज थी। और, इसका तो कोई अंत नहीं है न! फिर आप आइडिया मास्टर भी हैं। सिगरेट पर सिगरेट पिये जा रहे हैं लेकिन ताजगी नहीं आ रही है, थकान नहीं मिट रही है, तब आप क्या करते हैं कि एक बार में दो सिगरेट ओठ पर लगाते हैं। फिर, दो और लगाते हैं, फिर लगाते हैं । उस दिन तो आपको ताजगी मिल जाती है, लेकिन फिर अगले दिन ? इस दुष्चक्र में वह फंस गया था जी। उसका टेलेंटेड दिमाग ही उसको लेकर डूब गया। नशा का तो अंत नहीं है, लेकिन जीवन का तो अंत है न!
संपर्क :
तारानंद वियोगी
मोबाइल – 09431413125
ईमेल – tara.viyogi@gmail.com
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