साहित्य एवं कला हमेशा अपने अनवरत प्रसार एवं समृद्धि हेतु समर्पित शख्सियतों का चुनाव कर लेती है। संजू शब्दिता का हिंदी साहित्य में एम.ए. एवं नेट जे.आर.एफ. करना कुछ अकस्मात नहीं था वरन यह वर्षों की लगन एवं मेहनत का परिणाम था जो उन्हें अपने साध्य की ओर बढ़ने को प्रेरित कर रहा था। परिणाम हुआ कि आज वे 'समकालीन हिंदी ग़ज़ल' विषय पर शोधरत हैं। साहित्य–सृजन में उनकी प्रमुख विधा भी ग़ज़ल है। अपने मनोवेगों एवं भावनाओं का संयोजन जिस खूबसूरती से वे ग़ज़लों में करती हैं वह वाकई काबिलेतारीफ है। ग़र आज की भाग–दौड़ से भरी ज़िन्दगी में सुकूँ के कुछ लम्हों की तलाश हो तो बेशक इनकी ग़ज़लें पढ़ सकते हैं। हालांकि उनकी ग़ज़लें देश की विभिन्न पत्रिकाओं में छपी हैं तथा कई ब्लॉगों पर भी आई हैं, पर उनमें इन सबके प्रति कोई जल्दबाज़ी...कोई महत्वाकांक्षा नहीं है। बस उनके पास अपनी रचना के प्रति समर्पण है जो उन्हें विशेष बनाती है तथा उनकी ग़ज़लों को उम्दा ! तो उनकी ग़ज़लों के साथ सफर में हम भी साथ हो लें।
1-
ख्वाहिशें बेहिसाब होने दो
ज़िन्दगी को सराब* होने दो
उलझे रहने दो कुछ सवाल उन्हें
खुद ब खुद ही जवाब होने दो
तुम रहो दरिया की रवानी तक
मेरी हस्ती हुबाब होने दो
जागना खुद ही सीख जाओगे
अपनी आँखों में ख़्वाब होने दो
हार का लुत्फ़ भी उठा लेंगे
इक दफ़ा कामयाब होने दो
*सराब - मृग-तृष्णा
2 -
मुद्दतों रूबरू हुए ही नहीं
हम इत्तेफाक़ से मिले ही नहीं
साथ वो ले गया बहारें भी
फूल बागों में फिर खिले ही नहीं
चाहने वाले हैं सभी उनके
वो सभी के हैं बस मेरे ही नहीं
दरमियाँ होता है जहाँ सारा
हम अकेले कभी मिले ही नहीं
सादगी से कहा जो सच मैंने
वो मेरे सच को मानते ही नहीं
3-
जो चाहें हम वही पाया नहीं करते
खुदाया फिर भी हम शिकवा नहीं करते
विदा के वक़्त वो मिलने का इक वादा
उसी वादे पे हम क्या -क्या नहीं करते
ज़माने की नज़र में आ गए हैं वो
अकेले हम उन्हें देखा नहीं करते
सितमगर पूछता है, मुझसे हालेदिल
ज़हर में यों दवा घोला नहीं करते
इशारों को समझना भी जरुरी है
किसी से बारहा पूछा नहीं करते
उन्हें है इश्क हमसे जाने फिर भी क्यों
ये लगता है हमें गोया नहीं करते
4-
पहले शाइर समझने लगते हैं
फिर वो मुज़हिर* समझने लगते हैं
इतना ज्यादा है मेरा सादापन
लोग शातिर समझने लगते हैं
थोड़ी सी दिल में क्या जगह मांगी
वो मुहाज़िर समझने लगते हैं
हम सुनाते हैं अपनी ताबीरें
आप शाइर समझने लगते हैं
इक जरा से किसी क़सीदे पर
खुद को माहिर समझने लगते हैं
जो समझने में उम्र गुज़री है
उसको फिर-फिर समझने लगते हैं
*मुज़हिर - प्रदर्शन करने वाला
5-
ऐब औरों में गिन रहा है वो
उसको लगता है की ख़ुदा है वो
मेरी तदवीर को किनारे रख
मेरी तक़दीर लिख रहा है वो
मैंने माँगा था उससे हक़ अपना
बस इसी बात पर खफ़ा है वो
पत्थरों के शहर में ज़िन्दा है
लोग कहते हैं आइना है वो
उसकी वो ख़ामोशी बताती है
मेरे दुश्मन से जा मिला है वो
6-
खुले आसमां का पता चाहते हैं
परिन्दे हैं हम और क्या चाहते हैं
उड़ेंगे हवा में ख़ुदी के परों से
उड़ानों में सारी फ़ज़ा चाहते हैं
बहुत रह चुके क़ैद में हम परिन्दे
असीरी* से अब हम रिहा चाहते हैं
कहो कितना कुचलोगे गैरत हमारी
जुनूँ की हदों तक अना चाहते हैं
गुनहगार ही मुंसिफ़ी कर रहा हो
वहां क्या बताएं कि क्या चाहते हैं
* असीरी - क़ैद
7-
हमारी बात उन्हें इतनी नागवार लगी
गुलों की बात छिड़ी और उनको ख़ार लगी
बहुत संभाल के हमने रखे थे पाँव मगर
जहां थे ज़ख्म वहीं चोट बार-बार लगी
कदम कदम पे हिदायत मिली सफ़र में हमें
कदम कदम पे हमें ज़िंदगी उधार लगी
नहीं थी क़द्र कभी मेरी हसरतों की उसे
ये और बात कि अब वो भी बेक़रार लगी
मदद का हाथ नहीं एक भी उठा था मगर
अजीब दौर कि बस भीड़ बेशुमार लगी
8-
मन मेरा उलझनों में रहता है
और वो महफ़िलों में रहता है
आग मज़हब की जिसने फैलाई
खुद तो वो काफ़िरों में रहता है
इश्क़ में था किसी ज़माने में
आज वो पागलों में रहता है
बीच लहरों में जो मज़ा साहिब
वो कहाँ साहिलों में रहता है
खौफ़ शायद किसी का है उसको
आजकल काफिलों में रहता है
9-
बदगुमाँ आज सारी महफ़िल है
जाने किस राह किसकी मंज़िल है
हाले -दिल हम बयां करें कैसे
शहर का मसअला मुक़ाबिल है
उम्र बीती है मेरी सहरा में
दूर तक दरिया है न साहिल है
वो मेरी ग़ज़लों का ही है हिस्सा
वो कहाँ जिन्दगी में शामिल है
दिल मेरी एक भी नहीं सुनता
कैसा गुस्ताख़ ये मेरा दिल है
10-
इंसानियत का पता मांगता है
नादान है वो ये क्या मांगता है
वो बेअदब है या मैं बेअसर हूँ
मुझसे वो मेरी अना मांगता है
हद हो गई है हिक़ारत कि अब वो
रब से दुआ में फ़ना मांगता है
बरक़त खुदाया मेरे घर भी कर दे
बच्चा खिलौना नया मांगता है
किस्मत में मेरे नहीं था वो लेकिन
दिल है कि फिर भी दुआ मांगता है
संपर्क :
संजू शब्दिता
ईमेल - sanjushabdita@gmail.com
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