राजू सारसर 'राज' की कविताएं


थार मानव की जिजीविषा का प्रतीक है। तेज आँधियों से थार के टीले भले ही अपनी आकृतियां बदलते रहें, पर थार की प्रीत कम नहीं होनेवाली। तभी तो उसकी गोद में बसे गांव किशनपुरा दिखनादा, जनपद हनुमानगढ़ के राजू सारसर 'राज' कहते हैं―थार, नहीं सिलवटों भरे / किरकिर वाले धोरे / थार घर है प्रीत का।

जनपथ का अगस्त 2016 अंक राजस्थान केंद्रित था। राजाराम भादू के संपादन में कविता–केंद्रित इस अंक का इंतजार बेसब्री से था। सबकुछ ठीक लगा, पर यह क्या ! राजस्थान केंद्रित अंक में थार कहीं भी नहीं था। भला थार बिन राजस्थान अपने अस्तित्व में रह सकता है? खैर इन बातों को जाने दें। नगरों में केंद्रित होते जाते साहित्यिक–संसार के बड़े रचनाकारों–संपादकों की ऐसी उपेक्षा अब हैरान–परेशान नहीं करती।

थार के कवि–कहानीकार राजू सारसर 'राज' की रचनाओं में वह राजस्थान नजर आता है जो पोस्टरों में नहीं दीखता। वे मानव की जीवेषणा देखते हैं तो शोषितों का संघर्ष भी। उनकी कविताओं में थार अपने पूरे अस्तित्व में है तो समकालीन परिस्थितियां, जन–प्रतिरोध पूरी मुखरता से समाहित होती है। उनकी कविताओं में उनका अंचल मुखरता से विद्यमान है। राजस्थानी एवं हिंदी में रची उनकी रचनाएँ अहम सवाल उठाती हैं। मुळकती माटी, म्हारै पांती रा सुपनां (राजस्थानी काव्य-संग्रह), मंडाण, थार सप्तक (राजस्थानी काव्य-संकलन), शब्दों की शीप, खुलते वातायन, अनुभूति के आयाम (हिन्दी काव्य-संकलन) के कवि को पढ़ा जाना आज प्रासंगिक हो गया है। 


1. जीवेषणा

थार की छाती पर,
नंगे पाँवों के निशान,
नहीं है फगत निशानी.
किसी के गुज़र जाने की ।

एक जीवेषणा है
जिन्दगी जीते जाने की
ले जाती है जो उस पार,
बनकर जीवन का आधार । 

जीनें का सच छिपाए.
थार की सलवटें,
फगत सिखाती हैं जीना,
सच में जीता है तो बस थार ।


2. थार एक दिल

थार नहीं सिलवटों भरे,
किरकिर वाले धोरे,
थार घर है प्रीत का ।

प्रीत के लिए,
घर नहीं, दिल चाहिए ।
दिल में हो प्रीत तो
घर बन ही जाता है,
धरती के किसी कोनें मे ।

तुम भी सुनना कभी,
इसकी धड़कनें ।
थार एक दिल है,
धरती की छाती में ।


3. थार यायावर

धूनी रमाते साधू सा,
अपनी ही धुन बहता,
निरपेक्ष पंथी जैसा,
उठाए हुए बरखान ।

अबखाइयां ओढ़ता,
अबखाइयां बिछाता ,
नहीं लेता बिसांई,
एक ठौड़ थम कभी ।

पीत समन्दर में,
उठती लहरों संग,
खाळों-पड़ालों से हो,
खींप-फोगों से बतियाता ।

मखमली रेत की छुअन से,
सहलाते धरती की छाती,
भींच लेता बाहों में भोगी सा,
झूम उठती है वह प्रीत पगी ।

पांवों में चक्कर लिए,
थार यायावर रुका कहाँ,
थिर नहीं है थार,
थिर है तो, थार में तृष्णा ।


4. खुद से दूर...

मौन ओढ़े सरकती रात में,
सोये हो चाँद सिरहानें रख ,
मैं भी लौट आया हूँ, तब
दिल से दिल का सफ़र कर ,

टूटकर बिखर चुके हैं,
मेरी कल्पनाओं में बसे,
मोतियों से मंहगे रिश्ते,
लोलुपता की लगी चोटों से |

साज़िशों की धूप में जले,
विश्वासों के पांव लेकर ,
तुम्हारी नींद में खलल ना पड़े,
फिर जाना चाहता हूँ, दूर कहीं 
बिना आह-आहट के ।

क्षमा करना, प्रियतम थार !
अब भग्नित भीतर लेकर,
यहाँ ज्यादा ठहरना नहीं चाहता,
खुद से खुद मिलना नहीं चाहता 
बस और अब जीना नही चाहता । 


5. मैं, थार और प्यास

थार-सा मैं,
प्यास-सी तुम !
आकुल-सी,
तुम बढ़ती गई,
मैं निढाल-सा,
पसरता गया ।

अंतस के झाड़खों में,
अनचाहे अवरोधों सी रेत,
बरक बांध,
मुळकती रही ।
जूण बूई सीणियों के हेत सी
टसकती रही ।

अपनें ही बनाए खोड-बिलों में
हमनें पाळ तो लिए,
सांप, बिच्छू, गोहरे ।
गलती ये रही,
हम जुगनू नही पाळ सके ।

हो सके तो लौट के देख,
जूण की एक जीवन्त आशा है ,
प्यास आज भी तड़पती है 
थार आज भी प्यासा है ।


6. रेत की नदी और तुम

हमनें कब खाई,
बेतवा की कसमें ।
कब डूबे कच्चे घड़ों पर
दरिया-ए चऩाब में ।
निहारे कहाँ थे,
अपनें अक्स यमुना में ।
कब भीगे सवसन,
किसी पहाड़ी झरनें तले ।

हम तो फगत चले,
रेत की नदी पर |
चलते-फिरते धोरों के बीच,
जहाँ खोए निशान फिर नहीं मिलते ।
कहीं कोई ऊंघता सा फोग,
भर प्रीत में दामन थाम ले ।

धोरों की ढाळ, पड़ालों के पार,
रेत की नदी के उस छोर से ।
तुम्हारे होने का मखमली अहसास,
मेरे दिल को छूता है ऐसे 
थार की रेत, नंगे पांवों को जैसे ।

तुम्हारी सौरम, थार के अमृत-सी
बह गई है भीतर तक,
झड़बेरी के खीचड़े, काचरों की,
सुगन्ध को एकाकार करती ।
यहीं कहीं हो तुम अभी भी
रेत की नदी में, लहर-सी घुली हुई ।

हां, मगर हमनें नही जाना,
बेतवा-चऩाब या झेलम की प्रीत ।
हो सकता है प्रीत के रंग ही हों, 
थार-सी मखमली रंगत वाले ।


7. नीम-नीम दवा

प्रिय मित्र , 
तुम खुश रहो,
शेष सब ठीक हैं
कैसी रहे चिन्ता कहो ।

शहर के सीने पर ये,
गंदी बस्तियां दाग-सी ।
गांव का गंवारपन भी,
फूंके सीने में आग-सी ।
बेशर्मी के ये उदारहण कैसे सटीक है 
बस तुम चिन्ता न करो, शेष सब ठीक है ।

यहाँ प्रजातंत्र का राज है,
जनता तो कोढ में खाज है |
भेड़ों के तो गले ही कटे हैं,
यही तो सनातन रिवाज है |
देश चलेगा उसी पर जो पुरातन लीक है ।
बस तुम चिन्ता न करो, शेष सब ठीक है ।

बाजार-सी सौदागरी है
फैसले हाथ दलालों के ।
जज भी ये तो कबूल चुके,
है हाथ खड़े न्यायालयों के |
डर तो बस आम को, शेष सब निर्भीक है ।
बस तुम चिन्ता न करो, शेष सब ठीक है  ।

नीम-नीम दवा है बस
पहाड़-पहाड़ सी पीर है ।
कह रहे हैं पंडित जी.
ये तुम्हारी तकदीर है ।
सोचता हूँ लिखने वाला भी कैसा गुणीक है ।
बस तुम चिन्ता न करो, शेष सब ठीक है ।


8. समय आएगा

घड़ी का बढ़ता हुआ कांटा,
उद्वेलित नहीं आनन्दित करता है ।
समय गुज़र नही रहा,
आ रहा है ।
मैं साफ पदचाप सुन रहा हूँ ।
मेरे लिए मगर नहीं गाए जाएं,
विदाई गीत ।
बस मैं चाहता हूँ मूक मिलन ।
जो अधूरा रहा,
वो कोई ओर लिखेगा ।
जितना कुछ छूट गया,
वो कोई और संभालेगा ।
चलाचली की वेला में,
तुम साथ दो तो एक बार,
मैं मेरे ही अंदाज़ में हँसना चाहता हूँ ।
समय को आना है आएगा,
मैं, समय को आगोश में कसना चाहता हूँ ।


9. इतिहास गवाह है

राजनीति पर जब भी,
कोई संकट खड़ा हुआ है,
या कि नीति पर सवाल उठा है ।

भूख-गरीबी-बेरोजगारी का,
ग्राफ ज्यौं ऊपर चढ़ा है ।
धूप- हवा- पानी का सौदा,
पूंजीवाद के हक में हुआ है ।

धूल-सनी खेतों की पगडंडी से
राजमार्गों नें जब़रजीना किया है
लाचार गांव कस्बाई गलियों नें,
बहे लहू का हक मांगा है ।

चूल्हों को डुसकता देख,
फटेहाल मजदूर झोंपड़ा,
विरोध को मज़बूर हुआ है ।

मूर्ख बनाने के लिए तब,
हर प्रयास सायास हुआ
सत्ता ने बना तब नशा धर्म को,
जन की रगों में उतार दिया है ।
इतिहास गवाह है स्वयं सत्ता ने
युद्धोन्माद पैदा किया है ।


10. अंतिम कड़ी का बंध

मुंह, सिर, हाथ, चेहरा,
लिसकाए, पुस्काए जाते रहे है ।
सदियों से,
सजाए जाते रहेगे सदियों तक ।

धर्म, वर्ण, वर्ग भाग्य से
टिकाए, बरगलाए जाते रहे हैं
सदियों से,
बचाए जाते रहेंगे सदियों तक ।

किस तरह कुछ चेहरों को,
अपनाया गया, अपने लिए,
बनाने को मोहरे, जन-मन को उनींदा कर
सत्ता द्वारा, सत्ता के लिए ।

घांटियों के बीच विलुम्बी सांसे,
ना भीतर गई ना बाहर निकली,
भीतर जाती, जीवन मिलता,
बाहर आती, पिंड छुटता ।

फिर से कुछ सिर उठेंगे ही,
हां, कुछ हाथ हवा में लहराएं ही,
नाउम्मीद अब भी नहीं हूँ मैं,
अंतिम कड़ी के बंध काटे जाएंगे ही ।



संपर्क :
राजू सारसर 'राज'
शिक्षा विभाग राजस्थान में वरिष्ठ अध्यापक (अंग्रेजी) पद पर कार्यरत
निवास – किशनपुरा दिखनादा 
जनपद – हनुमानगढ़ (राज.)
पिनकोड – 335513
मो. – 9587100377

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