कवि एवं अनुवादक मणि मोहन अपनी सहज काव्यशैली की वजह से जाने जाते हैं। शब्दों के मामले में मितव्ययी ! छोटी-से-छोटी घटनाओं एवं उपेक्षित पात्रों में सहजता से वे कथ्य ढूँढ लेते हैं। प्रकृति एवं परिवेश का असाधारण चित्रण उनकी रचनाओं में मिलता है तथा अनुभूतियों को वे मूर्त रूप दे देते हैं। कविताएं पढ़ने के बाद पाठक बरबस कह उठता है – अरे यार! कवि ने तो मेरी ही बात कह दी। यहीं पर कवि अपनी सार्थकता प्रमाणित करते हैं। उनकी छोटी कविताएं जिन्हें शब्दचित्र कहना उचित होगा, अपने पाठकों से जुड़कर अद्भुत रूप धारण कर लेती हैं। उनकी कविताओं में जीवन के गूढ़ दर्शन समाहित होते हैं तो बिंब समाज के यथार्थ को यथारूप सामने रख देते हैं। कविताओं में शब्दों के चयन पर खास ध्यान रखने वाले कवि अपनी रचनाओं के मामले में भी सजग एवं धैर्यवान हैं। देश की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र - पत्रिकाओं के माध्यम से उनकी कविताएं तथा अनुवाद पाठकों तक पहुंचते रहते हैं। कविता–संग्रह 'कस्बे का कवि एवं अन्य कवितायें' और 'शायद' के पश्चात अभी हाल में ही बोधि प्रकाशन की पुस्तक–पर्व योजना के अंतर्गत एक काव्य–संकलन 'दुर्दिनों की बारिश में रंग' पाठकों के बीच आ चुकी है। उनकी कविताओं ने भाषाई सीमाओं का अतिक्रमण भी किया है। इस क्रम में कुछ कवितायें उर्दू , मराठी और पंजाबी में अनूदित हुई हैं। वर्ष 2012 में रोमेनियन कवि मारिन सोरेसक्यू की कविताओं की अनुवाद पुस्तक 'एक सीढ़ी आकाश के लिए' खासी चर्चित रही है एवं मुइसेर येनिया की तुर्की कविताओं के संग्रह का अनुवाद 'अपनी देह और इस संसार के बीच' पाठकों के समक्ष आ चुका है। तो चलिये अपने कवि की अनुभूतियों के साथ अनोखे सफर पर !
उदास हुए हम
अपनी भाषा में
मुस्कराए...खिलखिलाए
अपनी भाषा में ।
प्रेम पत्र लिखे
लिखीं प्रेम कवितायेँ
धड़कते रहे दिल
अपनी भाषा में ।
उत्सवों में
रात भर नाचती रही
हमारी भाषा...
भाषा में
मदमस्त हुए हमारे उत्सव ।
प्रार्थनाओं में
गूंजती रही हमारी भाषा...
भाषा में
गूंजती रहीं
हमारी प्रार्थनाएं ।
सुख - दुःख बहते रहे
दीप बनकर
भाषा की नदी में
दूर तक ......
2. थोड़ी - सी भाषा
बच्चों से बतियाते हुए
अंदर बची रह जाती है
थोड़ी - सी भाषा
बची रह जाती है
थोड़ी - सी भाषा
प्रार्थना के बाद भी ।
थोड़ी - सी भाषा
बच ही जाती है
अपने अंतरंग मित्र को
दुखड़ा सुनाने के बाद भी ।
किसी को विदा करते वक़्त
जब अचानक आ जाती है
प्लेटफॉर्म पर धड़धड़ाती हुई ट्रेन
तो शोर में बिखर जाती है
थोड़ी - सी भाषा ...
चली जाती है थोड़ी - सी भाषा
किसी के साथ
फिर भी बची रह जाती है
थोड़ी - सी भाषा
घर के लिए ।
जब भी कुछ कहने की कोशिश करता हूँ
वह रख देती है
अपने थरथराते होंठ
मेरे होंठो पर
थोड़ी - सी भाषा
फिर बची रह जाती है ।
दिन भर बोलता रहता हूँ
कुछ न कुछ
फिर भी बचा रहता है
बहुत कुछ अनकहा
बची रहती है
थोड़ी - सी भाषा
इस तरह ।
अब देखो न !
कहाँ - कहाँ से
कैसे - कैसे बचाकर लाया हूँ
थोड़ी - सी भाषा
कविता के लिए ।
3. सौदागर
उन्होंने पेड़ों से कहा
खाली करो यह धरती
हम यहां एक खूबसूरत
शहर बनाने जा रहे हैं
पेड़ों ने सुनी
उनकी यह धमकी
और भय से सिहर उठे
पेड़ों की छाती से चिपके
घोंसलों में दुबके
परिंदे भी सहम गए
सौदागर दरिंदे अपने साथ
कुछ दुभाषिये भी लाये थे
( जो पेड़ों और परिंदों की
भाषा जानने का दावा करते थे )
दरिंदों ने दुभाषियों से पूछा
क्या कहा पेड़ों ने ?
क्या कहते हैं परिंदे ?
दुभाषिये बोले -
हुज़ूर , पेड़ों ने अपनी
सहमति दे दी है ...
और परिंदे भी
उत्साहित हैं
किसी नए ठिकाने पर जाने के लिए
खूब खुश हुए दरिंदे
और दुभाषियों ने ताली बजाईं ।
4. उऋण
अकसर तो यही होता है
कि सर्जक ही करता है आह्वान
अपने शब्दों का ...
पर कभी-कभी
इसके ठीक उलट भी होता है ,
जब शब्द खुद पुकारने लगते हैं
अपने सर्जक को !
जो सुन लेता है
अपने ही शब्दों की पुकार
और चल पड़ता है
समय के अन्धकार में
शब्दों के पीछे-पीछे
उऋण हो जाता है !
5. निर्वस्त्र
अपने चेहरे
उतार कर रख दो
रात की इस काली चट्टान पर
कपड़े भी !
अब घुस जाओ
निर्वस्त्र
स्वप्न और अन्धकार से भरे
भाषा के इस बीहड़ में
कविता तक पहुंचने का
बस यही एक रास्ता है ।
6. इतवार
खूँखार कुत्तों के जबड़ों से
बमुश्किल
छीन के लाया हूँ
सप्ताह का यह दिन
हाथ अभी तक लहुलुहान है ।
7. यह रात
कहीं नींद है
कहीं चीखें
कहीं दहशत
पर सबसे भयावह बात है
कि यह बिना स्वप्न की रात है ।
8. गिनती
गिन रहा हूँ
अपराजिता की लता में लगे
छोटे छोटे नीले शंख
गिन रहा हूँ
अपने अन्डे उठाये
भागती चींटियों को
गिन रहा हूँ
अमरुद के पेड़ पर बैठे हरियल तोतों
और सिर के ऊपर से उड़ान भरते
सफेद कबूतरों को
गिन रहा हूँ
अनगिनित
पेड़ , परिंदे
फूल , तितली
स्कूल से घर लौटते
धींगा मस्ती करते बच्चों को
बहुत अबेर हुई
बन्द हो चुके तमाम बैंक
खत्म हुए
संसद और विधानसभाओं के सत्र
बन्द हुए
गिनती से जुड़े तमाम कारोबार
धीरे-धीरे फैलने लगा है अँधेरा
पर अभी चैन कहाँ
अभी तो सितारों से सजा
पूरा आसमान बाकी है ।
संपर्क :
डॉ. मणि मोहन
शा. स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गंज बासौदा ( म.प्र ) में अध्यापन।
मो. – 9425150346
ई-मेल : profmanimohanmehta@gmail.com
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