यह कहना कतई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि संजय कुमार 'कुंदन' अपनी ग़ज़लों एवं नज़्मों को जीते हैं। उन्हें जाननेवाले जानते हैं कि रचनाकर्म के प्रति इतना समर्पण दुर्लभ है। उनकी रचनाओं में जीवन के हरेक पहलू आते हैं...अपने पूरे यथार्थ एवं पूरी बेबाकी के साथ। बेचैनियाँ, एक लड़का मिलने आता है एवं तुम्हें क्या बेकरारी है के रचनाकार को पढ़ना–सुनना उम्मीदों एवं अहसासों की दुनिया में यात्रा करने जैसा है। उनकी रचनाओं में कभी हम समय के साथ होते हैं तो कभी भावों की दुनियां में बहुत आगे निकल जाते हैं। उनकी शुरुआती ग़ज़लें एवं नज्में आज भी समय से संवाद करती हैं। यही उनकी सार्थकता है। उनकी रचनाओं का सफर एक आम आदमी का सफर है। चलिए उनकी नज़्मों के साथ अनोखे सफर पर।
1. इक मुहज़्ज़ब सी दूरी
हाँ, वही रास्ते...हाँ, वही रास्ते
कितने दिल की
उन्ही नारसा सरहदों को
इक मुहज़्ज़ब सी दूरी से
छूकर गुज़रते रहे
इक मुहज़्ज़ब सी दूरी
दिल की सरहद के सारे मकाँ
अपने दरवाज़ों पे
कुछ तकल्लुफ़ के ताले लगाए हुए
अपने कमरों और आँगन के
ख़ुदसर तपाकों पे कुछ आहनी
सख़्त परदे गिराए हुए
दूर ही दूर से यूँ ही मिलते रहे
ऐसे मिलने का हासिल था वीरानापन
एक सहरा की हू
जैसे सूखे हुए ज़र्द पत्तों पे
चलने की आवाज़ हो
ऐसे वीरानों में
जिनपे आबादियों का हो प्यारा गुमाँ
सुब्ह से शाम तक
चंद सायों से मिलते हुए
घुलते मिलते हुए
अब तो वो शाम का
कुछ फ़सुर्दा दिया
टिमटिमाने लगा
जाँ की कमज़ोर लौ
थरथराने लगी
अब उन्ही रास्तों पे
थकन गिर गई
सोच का वो शातिर सा मुनकिर
उभरने लगा
छीनने के लिए
एतबारों के नाज़ुक खिलोने
दिल के बच्चे की जागीर से
बेअमां रास्तों का मुसाफ़िर
गर्मजोशी का रख़्ते-सफ़र
एतबारों की गठरी सहेजे हुए
हाँ, इन्हीं रास्तों पे
चले कब तलक
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नारसा–पहुँच के बाहर, मुहज़्ज़ब–शिष्टाचारी, ख़ुदसर–ज़िद्दी, आहनी–लौह, सहरा–रेगिस्तान, फ़सुर्दा–उदास, शातिर–चालाक, मुनकिर–नहीं माननेवाला, बेअमां–आश्रयहीन, रख़्ते-सफ़र–यात्रा का सामान.
2. यूँ ही बेसबब
यूँ ही बेसबब...
ज़रा शह्र की आज
सड़कों पे घूमा
न दफ़्तर का चक्कर,
न घर के मसाइल
न सोचा के हैं मुल्क के कैसे रहबर
न देखा उसे रास्ते के किनारे
जिसे कोई भी देखता ही नहीं है
न चाहा के
बाँटूँ मैं ग़म दूसरों का
न कोशिश ये की
शब की नादानियों में
जो ख़्वाबों को देखा है
ताबीर कर लूँ
न तरसा के
जो शायरी अब तलक की
उसे बैठकर चाय की इक दुकाँ पे
सुनाकर करूँ
ख़ुदसताइश का सामाँ
यूँ ही बेसबब और यूँ ही बेइरादा
ज़रा शह्र की आज सड़कों पे घूमा
मगर आज जब थक के बिस्तर पे लेटा
वो ख़्वाबों का चेहरा बड़ा अजनबी था
कुछ ऐसे सवालात थे सब्त जिसपे
जवाबात जिनके थे सड़कों पे बिखरे
3. कैटवॉक
मुक़ाबिल आईने के
मेकअप के लिए मसरूफ़
ये दुनिया
ये नस्लो-ज़ात के मेकअप
ये मज़हब का भड़कता तुन्द ख़ू ग़ाज़ा
अजब मेकअप के जो इन्सान की
सूरत बदल दे
और फिर
फ़सादों के इन्हीं स्टेजों पर
मुनक़्क़द हों कई फ़ैशन परेड
और फिर फैशन परेडों के
ये संजीदा से जज
यही पंडित, यही मुल्ला, यही अपने सियासत दाँ
ये देखें रैंप पर ये कैट वॉक
के जिसमें मुल्क के हर गोशे से
आए नुमाइन्दे
असलहे हाथों में लेकर
कई चौंकानेवाले पैरहन में
के जिनपे ख़ून के धब्बे हों
हाँ, उसी मासूम ख़ूँ के
जो बहते थे कभी
किसी मासूम बच्चे,किसी पुर मामता माँ,
सजीले से जवाँ, किसी लाग़र से बूढ़े की
रगोँ में
बड़ी मेहनत हुई होगी,
अजब फ़नकारी की होगी
खेंच कर ऐसा लहू पैरहन को
अपने रंगने में
सिला इसका तो देंगे
ये मुन्सिफ़
यही पंडित, यही मुल्ला, यही अपने सियासत दाँ
ये जन्नत बख़्श देंगे, खोल देंगे स्वर्ग के दर
ओहदे भी देंगे,
हुब्बुलवतनी के कई एजाज़ देंगे
मगर मैं सोचता हूँ
ये घबराई हुई दुनिया
हज़ारो ही मसाइल सर पे ले के
खुली सड़कों पे
अजब इक बदहवासी में
लिए चेहरे पे दीवाना तआस्सुर
बस इक रोटी के पीछे
दौड़ती और भागती दुनिया
भला कब तक
अपने ख़ूँ के क़तरे-क़तरे को
इन्हीं फैशन परेडों में रंग भरने
के लिए बिना कुछ सोचे समझे
अता करती रहेगी
4. ज़िन्दगी सख़्त है
ज़िन्दगी सख़्त है
ज़िन्दगी सख़्त है
बख़्शती ही नहीं
इक ज़रा भी ख़ता
कोई लम्हा करे
कोई पोशीदा सा एक जज़्बा बदलता हो जब पैरहन
चोरी चुपके उसे देख ले
बख़्शती ही नहीं कोई मासूम सी भूल हो
चाँदनी रात में
चन्द यादों की पकड़े हुए ऊँगलियाँ
घूमते उस मुसाफ़िर को माफ़ी नहीं
ज़िन्दगी के कई काम उसके तआक़ुब में हैं
ये ही बेहतर है दूकाँ पे जा के कहीं
घर की ख़ातिर रसोई का सामाँ मुहैय्या करे
अपने दफ़्तर की फ़ाइल पे ख़म हो ज़रा
अपने आक़ाओं की इर्तिक़ा के लिए
झूठ-सच की मिलावट का धन्धा करे
चाँदनी रात में
एक बेकल सफ़र का है क्या फ़ायदा
ज़िन्दगी सख़्त है
ज़िन्दगी सख़्त है
देख लो, देख लो
अपने अहबाब के ऊँचे-ऊँचे मकाँ देख लो
क़ीमती कार का कारवाँ देख लो
बैंक में उनके लॉकर को देखो ज़रा
उनकी फ़र्बा अहलिया, हसीं दाश्ता
हर क़दम पर हिफ़ाज़त का इक सिलसिला
है सलाम उन रफ़ीक़ों को
जो बिक गए
चाँदनी रात से उनको मतलब न था
है सलाम उन हबीबों को
दाना थे जो
तर्क मासूमियत को जिन्होंने किया
फिर भी लगता है ये
चाँदनी रात में
भूली-बिसरी हुई याद की ऊँगलियाँ
रूह के ज़र्फ़ में
क़तरा-क़तरा है ताक़त कोई डालती
चाँदनी रात की बेसबब राह पर
घूमता राह-रौ
जिससे ये कह सके
हम लताफ़त के लश्कर के जाँबाज़ हैं
सख़्ती गर है परिन्दा तो शहबाज़ हैं
तुम ये कहते रहो
ज़िन्दगी सख़्त है
ज़िन्दगी सख़्त है
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