कविता के विरुद्ध एवं अन्य कविताएं : योगेंद्र कृष्णा



पिछले वर्ष आये हिंदी कविता–संग्रहों में बोधि प्रकाशन से आया 'कविता के विरुद्ध एवं अन्य कविताएं' कवि एवं अपने कलेवर के कारण सहज ही ध्यान खींचता है। कुँअर रवीन्द्र का अद्भुत आवरण–चित्र जिसमें अँधेरे की पृष्ठभूमि में चिंतनशील मानस जो थोड़ा थका–परेशां तो दिखता है, पर उसपर पड़ती सुनहरी आभा संकेत कर रही है कि शीघ्र ही वह अँधेरे के खिलाफ उठ खड़ा होगा। कवि योगेंद्र कृष्णा अपने संग्रह में इसी उम्मीद का सृजन करते हैं।

नब्बे के दशक में जब देश काफी कुछ बदल रहा था, चरित्रों पर मुखौटे कुछ अधिक ही चढाए जाने लगे थे, ग्लोबलाइजेशन एवं निजीकरण ने सार्वजनिक पूंजी को अधीन करना शुरू कर दिया था, स्वतंत्रता एवं समरसता भंग की जाने लगी थीं ; ठीक उसी समय योगेंद्र कृष्णा आमजन का पक्ष रखने की शुरुआत करते हैं। 2001 में 'खोई दुनिया का सुराग' आई जिसमें समाज में व्याप्त रूढ़ि, असमानता एवं तत्कालीन राजनीतिक स्थिति पर प्रश्न–प्रतिप्रश्न करते कवि की बेचैनियां साफ–साफ नजर आती है। 2008 में आई 'बीत चुके शहर में' के पश्चात सितंबर 2016 में 'कविता के विरुद्ध एवं अन्य कविताएं' का पाठकों के समक्ष आना सिर्फ एक अवधि को इंगित नहीं करता, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि कवि ने अपने मानस में उठते हर प्रश्न पर मुकम्मल ढंग से सोचा है, उसमें विचारों के प्रस्तुतिकरण की हड़बड़ी नहीं है।

'बीत चुके शहर में' के आठ वर्षों बाद नए संग्रह को पढ़ने की प्रासंगिकता इस बात में निहित है कि इन सालों में क्या कुछ बदला, कवि ने इस बदलाव को कैसे महसूस किया एवं इन बदलावों के प्रति उसकी क्या प्रतिक्रिया रही। कवि 'बीत चुके शहर में' की कविता 'एक बदहवास दोपहर' में आशंका व्यक्त करते हैं― "पता नहीं / मौसम की यह बदहवासी / अब किधर जाएगी / किस मासूम पर अपना दोपहर बरसाएगी।" अब 'कविता के विरुद्ध एवं अन्य कविताएं' की कविता 'मेरे हिस्से की दोपहर' में कवि कहते हैं― "बंट रहे थे जब सारे पहर / बंट रही थीं जब / रोमांचक रातें / शबनम में नहायी / खुशनुमा सहर / मेरे हिस्से आई / बस गर्मियों की लंबी / चिलचिलाती दोपहर...।" (पृष्ठ-86) इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक तक आते–आते ऐसे परिवर्तन प्रत्यक्ष होने लगे थे जिसकी आशंका कवि अपने पूर्व संग्रहों में व्यक्त करता है। द्रष्टा अब भोक्ता बन चुका था। हरेक दरवाजे पर दस्तक दी जाने लगी थी जो मानव–मन को आशंकित कर रहा था। 

संग्रह की शुरुआत 'कविता के विरुद्ध' शीर्षक कविता से हुई है जिसे रचनाकार ने स्वयं 'कवियों–बुद्धिजीवियों के विरुद्ध एक शासनादेश उद्धृत किया है। वे शुरुआत में कहते हैं– "ध्वस्त कर दो / कविता के उन सारे ठिकानों को / शब्दों और तहरीरों से लैस सारे उन प्रतिष्ठानों को / जहाँ से प्रतिरोध और बौद्धिकता की बू आती हो।" सत्ता के अपने तर्क हैं जिससे वह अपने पक्ष को मजबूत करने की कोशिश करती है― "तब तक उन्हें इतिहास और अतीत के / तिलिस्म में भटकाओ / नरमी से पूछो उनसे / क्या दांते की कविताएं / विश्वयुद्ध की भयावहता और / यातनाओं को कम कर सकीं / क्या गेटे नाजियों की क्रूरताओं पर / कभी भारी पड़े।" आगे की एक पंक्ति 'पोएट्री मेक्स नथिंग हैपेन' की स्थापना के बावजूद सत्ता एवं व्यवस्था अंदर से भयभीत रहती है जो इन पंक्तियों में अभिव्यक्त होती है― "बावजूद इसके कि कविता के बारे में / महाकवियों की ये दिव्य स्थापनाएं / पूरी तरह निरापद और कालजयी हैं / घोर अनिश्चितता के इस समय में / हम कोई जोखिम नहीं उठा सकते।" (कविता के विरुद्ध, पृष्ठ 7-9)

वर्तमान समय में पूंजीवादी सत्ता एवं शक्तियां मानव-मस्तिष्क को बेजान कम्प्यूटरों में तब्दील करने की कोशिश कर रही हैं तथा इसमें सफल भी हो रही हैं। अब मानव-मन कंप्यूटर के सीपीयू की तरह बनता जा रहा है, जिसमें आवारा शक्तियों द्वारा तैयार सॉफ्टवेयर भरने की कार्रवाई चल रही है। मनुष्य को उसके तर्क, विवेक, प्रेम, समाजिकता आदि से रहित कर सूचनाओं के अथाह सागर में हिचकोले खाते रहने को तैयार किया जा रहा है। नेपथ्य में वे शक्तियां अपने उद्देश्य की ओर तेज़ी से बढ़ रही हैं और निरीह मानव अपने अस्तित्व को भूलते जाने को बेबस है। योगेंद्र कृष्णा आगाह करते हैं―"...कि अब खाली जगहों / खाली आदमी और उनके / अटूट रिश्तों पर / उनकी छोटी-छोटी खुशियों / आंसुओं और शोक पर भी / चौकन्नी नजर है / भरे-पूरे आदमी की / कि वह भर देना चाहता है / दुनिया भर के नये-नये कचरों से / तमाम खाली जगहों / और खाली आदमी को। (खाली आदमी और खाली चीजें, पृष्ठ-12)

योगेंद्र कृष्णा की कविताओं के केंद्र में 'आदमी' है। वे कहते हैं―"कोई भी ऐश्वर्य / कितना भी मोहक / पथभ्रष्टकारी क्यों न हो / आदमी से बड़ा नहीं।" (कोई भी ऐश्वर्य, पृष्ठ-14)

वे मनुष्य को मुखौटों से आगाह करते हैं। आज का हत्यारा मसीहा का रूप लेकर आ सकता है तो गांधी का रूप धरते भी उसे देर नहीं लगती। मनुष्य की आजादी को चुपचाप गुलामी में बदलने की साजिशें हो रही हैं...मनुष्य फिर बचेगा कैसे? कुछ पंक्तियां देखिए―"वे अपने झूठ पर चढ़ा लेते हैं / तुम्हारे ही सपनों के रंग / और इस तरह बिना झूठ बोले / तुमसे छुपा लेते हैं तुम्हारा सच।" आगे कहते हैं―"गुलामी की तुम्हारी दीवारों को / बड़ी खूबसूरती से शीशों से सजाते हैं / कि तुम आजाद दुनिया की तस्वीर / घर के भीतर चारों तरफ / आईने से झांकती / अपनी ही छवियों में तलाश लो" (हत्यारे जब गांधी होते हैं, पृष्ठ-18)

इसी क्रम में उनकी नज़र आमजन के शोषकों पर जाती है, जिनका कच्चा-चिट्ठा वे बयां करते हैं–"जहां बंद कमरे की एसी / से निकलता जहर / और बार-गर्ल्स की व्यापारिक मुस्कानें / उनकी चाय की प्याली में / तूफान खड़ा करती हैं / और वे साफ-शफ्फाक कपड़ों में भी / नंगे नजर आते हैं" (चाय के बहाने, पृष्ठ-26)

आमतौर पर माना जाता है कि उच्च वर्ग और निम्न वर्ग के बीच एक मध्यवर्ग है...जिसका कोई शरीफ आदमी समाज में अपना अस्तित्व बनाये रखने की जद्दोजहद में अपनी ज़िंदगी जी नहीं पाता, बस लुढ़कते-गिरते-बचते मानो अपनी पारी खेल जाता है। उसकी मुस्कान पर मत जाइए...अंदर वह कितना खाली होता जाता है, यह देखिये―"अपनी कार में बैठे / उस शरीफ आदमी को / जरा गौर से देखिए / मध्यवर्गीय सोच और / उच्चवर्गीय सपनों के बीच / हवा में डोल रहा / समाज में अपनी इज्ज़त का मारा / लहूलुहान और बदहाल इस आदमी का चेहरा / अपने देश के नक्शे से कितना बेमेल दिखता है" (धुंध, पृष्ठ-33) पर आज अपनी रीढ़ को बहुत पीछे छोड़...एक भीड़ बहुत आगे निकल गयी है। उस भीड़ के बीच अपनी रीढ़ ढोने के खतरे भी हैं।

"बहुत खतरनाक हो सकता है / एक रीढ़विहीन भीड़ के बीच / बहुत जिद में / या तन कर रहना भी... ...उन्हें लगता है / मैं भीड़ में अकेला / बहुत नकारा / नाचीज़ रह गया हूं" (रीढ़, पृष्ठ-61)

योगेंद्र कृष्णा की कविताओं में यथार्थ के साथ-साथ एक जीवन-दर्शन उद्घाटित होता है, जो बारीकी से परखी हुई चीज है...केवल जानी हुई नहीं। जितनी गहराई से वे बदलते समय की विद्रूपता को पहचानते हैं, उतनी ही गहराई से प्रेम को भी। कुछ पंक्तियां देखिए―"जंगल होने के लिए / प्रेम करने का हौसला चाहिए / उन चीजों से, जो तुम्हारी नज़र में / जरूरी नहीं सुंदर हो।" (यायावर, पृष्ठ-37) 

कवि अपनी रचनाओं में आदमी के अपने जड़ों की ओर लौटने की बात करते हैं। इसमें आड़े आती है...खुद मानव-सभ्यता के विकास के उपकरण... जिसके कारण आदमी के अस्तित्व पर ही सवाल उठता है। कवि आगाह करते हैं―"विकास के नए उपकरणों को / आदमी इस पृथ्वी पर / जब-जब सजाता है / और अपनी / उपलब्धियों का उत्सव / जब पूरे विश्व में मनाता है / स्वयं आदमी के लिए ही / क्यों इस पृथ्वी का / आकाश सिकुड़ जाता है..." (पृथ्वी का आकाश, पृष्ठ-55) मानव-सभ्यता के विकास के नये-नये उपकरण...उसके कारण मानव पर ही मंडराते खतरों को देख कवि कहते हैं―"लेकिन फिलहाल / तुम्हारे पैरों के नीचे / तुम्हें कुछ दिनों तक / एक मुक़म्मल निष्कंप धरती का / विश्वास नहीं सौंप सकता।" (निष्कंप धरती का विश्वास, पृष्ठ-88)

समकालीन यथार्थ तथा भविष्य की चुनौतियों एवं उम्मीदों पर बात करते इस संग्रह को पढ़ते समय एक बात पाठकों को खटक सकती है―रचनाओं में कवि की स्थानिकता का अभाव। उनका अंचल या वहीं का कोई पात्र, पाठकों से संवाद करने नहीं आता। तो क्या कवि अपने सफ़र में कहीं जम नहीं पाया...जुड़ नहीं पाया...किसी परिवेश ने उसे आकर्षित नहीं किया या कविताओं में कथ्य ने उनकी स्थानिकता की मांग नहीं की। संग्रह की कविताओं में कवि का लोकेल अनुपस्थित है तो जाहिर है कि बिंबों की उपस्थिति भी कम होगी। क्या भाषा, शिल्प एवं कथ्य के प्रति सजग योगेंद्र कृष्णा ऐसा सायास करते हैं या उनकी रचनाओं की प्रकृति ही ऐसी है या उन्होंने जीवन ही ऐसा जिया कि हर जगह से उखड़ते रहे जिसका प्रभाव उनकी कविताओं पर पड़ा है, यह एक अलग चर्चा की मांग करती है।

'कविता के विरुद्ध एवं अन्य कविताएं' को समग्र रूप से पढ़ते हुए लग रहा था कि मैं अपने समय को पढ़ रहा हूं। इसके केंद्र में आदमी है...उसकी जिजीविषा है...प्रेम एवं विश्वास है...उसकी उम्मीद एवं सपने हैं। आदमी के सपनों पर घात लगाए सत्ता एवं पूंजीवादी शक्तियों के गठजोड़ को कवि बखूबी पहचानते हैं तथा आसन्न खतरों से आगाह करते नज़र आते हैं। कवि की संयमित लेखनी के कारण रचनाओं में शब्दो का चयन एवं संयोजन अद्भुत है जिसके कारण पाठक आसानी से अपने को संग्रह से जोड़ लेता है। अंततः पाठकों से संवाद बना पाना ही तो एक रचनाकार की सार्थकता है।


कृति – कविता के विरुद्ध एवं अन्य कविताएं
कवि – योगेंद्र कृष्णा
प्रकाशन – बोधि प्रकाशन, जयपुर
वर्ष – 2016
मूल्य – 100 रुपये


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