संतोष चतुर्वेदी की कविता : आशीष सिंह


कविता जीवन से उत्पन्न होती है और उसके ही गिरि-गह्वर से गुजरती हुई प्रवाहमय बनी रहती है। यह अचेतन में भी चेतना भरती है तो चेतना में विक्षोभ पैदा करती है...यानी आपको बेचैन कर सकती है। आज 'पाठकनामा' के अंतर्गत कवि संतोष चतुर्वेदी की कविता पर आलोचक एवं समीक्षक आशीष सिंह बात कर रहे हैं...शीर्षक है―'प्रेम'। वे कविताओं को संजीदगी से पढ़ते हैं और धैर्य के साथ अपनी बात रखते हैं। तो कविता पढिये, फिर कवि को जानिये-समझिये।


प्रेम || संतोष चतुर्वेदी

जो बात तुम्हारे लिए राज है

उसे दुनिया की तमाम स्त्रियाँ

खुलेआम जानती हैं
कि हर तरह के पानी से नहीं गलती दाल

पानी का तनिक भी खारापन
सारे ताप को बेकार कर देता है
वह तो मिठास भरे पानी का प्रेम है
जिसमें डूब कर
गल जाती है दाल

वह घुला देती है दाल को पानी में इस तरह
कि पानी दाल का
और दाल पानी की हो जाती है

सचमुच
ऐसा ही निश्चल होता है यह प्रेम
जब भी जहाँ भी होता है
जीवन के समूचे व्याकरण को बदल देता है
और यह राज भी स्त्रियाँ खुलेआम जानती हैं

दोस्तों ! यह कविता अभी पिछले दिनों 'कविता बिहान' पत्रिका में पढ़ने को मिली। आज के जरूरी कवियों में संतोष चतुर्वेदी का नाम आता है जिन्होंने अपनी काव्य-भाषा और कहन को पहचान दी है। जब आप किसी कवि की कविता पढ़ते हुये जान जाते हैं कि यह अमूक कवि की ही कविता है, तब उसके यही मायने होते हैं कि अमूक कवि ने अपने कविता का ढंग-ढर्रा बना लिया है अर्थात उस खास ढंग को विकसित करने में...बनाने और संवारने में ही उस कवि की आत्मछाया उसकी कविता में झांकने लगती है। तभी वे कहते हैं कि मैंने 'मैं' शैली अपनायी...यानि इसमें हमारा रक्त, मांस-मज्जा और अनुभूति घुल-मिलकर शब्दबद्ध हुई है।

संतोष चतुर्वेदी की कविता पढ़ते हुए ऐसा लगता है मानो हमारे सामने प्रत्यक्ष जीवन की क्रियाशीलता की तस्वीर उभर आयी है। वह तस्वीर अपने दैनंदिन काम में ही अपने समय की जरूरी बात कह रही होती है। मतलब एक तरफ हमारी आँखो के सामने वह जीवन गतिमय हो जाता है...अपनी उपादेयता प्रकट कर रहा होता है, वहीं दूसरी तरफ उसमें निहित गहरे निहितार्थ वक्रोक्ति के तौर पर साधारणतः कहे जाने वाले वाक्यांश में भी कुछ ऐसी बात कह जाता है जो अपने समय पर महत्वपूर्ण जरूरी हस्तक्षेप के रुप में पढ़ा जा सकता है और कविता अपनी पूरी बनावट में, स्थापत्य में एक दूसरे में गुंथी-बुनी होती है। यहाँ अंत में चमत्कारी कथन या अतिरिक्त दार्शनिक अभिव्यक्ति से प्रभावित करने की कोशिश कतई नहीं रहती है। जैसा कि निराला भी कविता में शब्दचित्र या कहें कि बोलते हुये शब्द को प्राथमिक मानते हैं क्योंकि महज अर्थ में नहीं प्रथमतः चित्र में हमारे हृदय में अपनी जगह बनाती है। उसी प्रकार संतोष जी की कविता का गठन भी देखने को मिलता है। जब कभी आज की असमानतापूर्ण नीतियों को चाक्षुष शब्दों में देखना हो तो उनकी 'उलार' नामक कविता का स्मरण आ जाना स्वाभाविक है। इसी प्रकार उन्होनें बहुत साधारण जीवन प्रसंगो को अपनी कविता का विषय बनाया है। 


अभी मैने उनकी छिटपुट कवितायें ही पढ़ी है लेकिन उससे एक छवि जो बनकर सामने आती है वह उन्हें साधारण जनों का अपना कवि बनाकर हमारे सामने प्रस्तुत कर देती है जो अपनी काव्य-कला में गहन आन्तरिक गुत्थियों और अपने डेरे में धंसते जाने वाले कवि की नहीं बल्कि आज के सवालों को हमारे सामने पेश करता हुआ कवि अपनी कविता के साथ स्वयं खड़ा मिलता है। इस प्रकार यहां वर्णन की प्रधानता नहीं बल्कि अपने विषयवस्तु के साथ सक्रिय आत्मीय छवि भी झांकती है जो आज के कविता में या तो कम है या उसकी आत्मगतता की अतिशयता के रुप में हावी है। इन दोनों छोर की कवितायें अक्सर कलात्मकता का अतिरिक्त आग्रह लिये होती है या अपने व्यक्ति को लेकर कुछ ज्यादा ही सचेत नजर आती है। इनके बारे में कहा जाने लगता है कि यह अपने समय को अपनी निगाह से देख रही है। लेकिन उस निगाह की दिशा, जमीन और आन्तरिक वस्तुस्थिति कैसी है, इस पर बात नहीं करते। मेरी नजर में ऐसी कवितायें अपनी नहीं लगती हैं। वे अपने ऊबे हुये जीवन का भाषाई, दार्शनिक उहाफोह का शाब्दिक अभिव्यक्ति ही होती है...अपने गुफा-गह्वर में गमन करती हुई...अकेले का उत्सव मनाती हुई। वह भी हमारे समय, काल की एक ध्वनि ही है लेकिन वह आत्मकेंद्रित और आत्मसेवी ध्वनि है, वहाँ जीवन की गतिमयता का...सामूहिक ऊहापोह का...कहीं अता-पता नहीं होता, जबकि संतोष चतुर्वेदी जैसे कवियों की कविताओं में सामूहिक जिंदगी की हलचल व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करती और अपने साथ चलने की जरुरत पर अनचाहे बल देती है, जहाँ जीवन का राग है उस तरफ...!


प्रस्तुत कविता प्रेम कितनी सहजता से अपनी सबसे जरूरी बात कह जाती है और लगता है कहने जैसा तो अभी कहा जाना है, यही चीज इसे बार बार देखने और उस जीवन की जद्दोजहद को देखने की ओर प्रेरित करती है। अब कोई इसमें स्त्री-विमर्श तलाश सकता है, कोई इसमें पुरुष और स्त्री के सामंजस्यपूर्ण दाम्पत्य सम्बन्धों के बीच पनपते अहसास को देख सकता है तो कोई प्रेम की घनीभूत अभिव्यक्ति...लेकिन निष्प्राण नहीं बल्कि जीवन स्पन्दन से भरपूर !


यह कविता अपने छोटे-से स्थापत्य में जानी-पहचानी ढाँचागत सीमाओं का अतिक्रमण कर जाती है जब अपने होने न होने को एक दूसरे में विलयित कर देती है। कविता का प्रारम्भ ही संबोधक भाषा में उनको संबोधित करती मिलती है जो प्रेम को शब्दों में तलाशते हैं। गहन दार्शनिक भाषा-भंगिमा में बात तो करते हैं लेकिन प्रेम का किंचित भी संस्पर्श नहीं पाते हैं...यानि यह होशियार एवं ज्ञानीजनों को संबोधित है। जो सबकुछ शब्दों में ही जानते हैं उनके लिए यह दो लफ्ज महज राज बनकर रह जाते हैं।


संपर्क :
आशीष सिंह
E-2 / 653
सेक्टर -F
जानकीपुरम, लखनऊ - 226021
मोबाइल – 08739015727

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