दुर्दिनों की बारिश में रंग : विजय कुमार



विजय कुमार की कवितायें उनके परिवेश के यथार्थ को व्यक्त करती हैं। उनका परिवेश जंगल है...कोलियरी एवं आग उगलती बड़ी फैक्टरियां हैं...यानी शोषण का हर औजार आस-पास विद्यमान है उनका संग उनकी जमीन से जुड़े संघर्षरत लोगों का है...रचनाओं में उनलोगों की जिजीविषा है तो उनकी उम्मीद-नाउम्मीद भी दिखाई देती है। अब ऐसे कवि की पाठकीयता कैसी होगी जब वह अन्य कवियों को पढ़ रहा होता है? हाल ही में उन्होंने मणि मोहन की कविता-संग्रह "दुर्दिनों की बारिश में रंग" को पढ़ा है आइये 'पाठकनामा' के अंतर्गत उनकी अनुभूति से परिचित होते हैं


मणि मोहन की कविता-संग्रह "दुर्दिनों की बारिश में रंग" पढ़ते हुए
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प्रिय युवा कवि और बेहतरीन अनुवादक मणि मोहन भाई की कविता संग्रह "दुर्दिनों की बारिश में रंग" पढते हुये मैं बेहद आश्चर्यचकित हूँ कि लगता है जैसे शब्द भी किसी गुल्लक में सम्भाल कर रखने वाली चीज़ हो। कहना नहीं होगा कि एक सजग कवि के लिए शब्द ही एक निहायत जरूरी संपत्ति है। एक कवि अपनी कविताओं में शब्दों को जिस तरह बहुत ही सावधानीपूर्वक यथोचित पंक्तियों में खर्च करता है, यह मणि मोहन भईया के विचारों की परिपक्वता को भी भली-भाँति दर्शाता है ।

इस संदर्भ में क्या यह कहना उचित नहीं जान पड़ता है कि कविता लिखने के लिए मात्र कलम उठाना और चंद पंक्तियाँ घसीट भर देना ही नहीं बल्कि शब्दों में विचारों को मथना ही सृजनशीलता को जन्म देना है। इस संदर्भ में मणि मोहन मेरी नज़रों में एक सचेत कवि और सच्चे साहित्यिक मर्मज्ञ हैं। वे अपनी पहली ही कविता 'लीला' में कहते हैं―

सपनों ने आवाज दी
कि चलो
और पीछे-पीछे चल दी कविता
साथ में कुछ जुगनू
विचारों के
जलते-बुझते
टिमटिमाते... ...


इतना ही नहीं, मानो वह अन्य कविता लिखने वाले कवियों और साहित्यिक मर्मज्ञों को आगाह भी करते दिखते हैं...जब वह इस संग्रह की अपनी ही अन्य कविता 'डंपिंग ग्राउंड' में कहते हैं―

किसी मक्कार आदमी के ड्राइंग रूम में पसरे
उसके किंग साइज सोफे
और टायलेट में लगी
कमोड की तारीफ के बाद
ज़ेहन में बची रह गयी भाषा से
कविता नहीं बनती... ...


इस कविता संग्रह की शुरुआत की चार-पांच कविताओं को पढ़ते ही मुझे यह बोध हो गया कि शब्दों के प्रति सचेत कवि ही एक अर्थपूर्ण और यथार्थपूर्ण कवितायें लिख सकता है। इन बेहद छोटी और अर्थपूर्ण कविताओं को पढ़ते हुए मैं कह सकता हूँ कि कवितायें लिखना शब्दों की कोई जादूगरी नहीं...भाषा और यथोचित शब्दों की बाजीगरी भी है।

लेकिन इस संग्रह से ही उनकी एक कविता 'रूपांतरण' का पाठ करते हुए मुझे इसकी पंक्तियाँ कोई फैंटेसी-सी रचती प्रतीत होती हैं। यह पूरी कविता जो मुझे बेहद आश्चर्यचकित करती है कि शब्दो की फिजूलखर्ची के बिना भी ऐसी बेहतरीन कविताएं लिखी जा सकती हैं। आप भी पढ़ें यह पूरी कविता...

हरे पत्तों के बीच से
टूटकर ख़ामोशी के साथ
धरती पर गिरा है
एक पीला पत्ता
अभी-अभी एक दरख़्त से

रहेगा कुछ दिन और
यह रंग धरती की गोद में
सुकून के साथ
और फिर मिल जायेगा
धरती के रंग में

कितनी ख़ामोशी के साथ
हो रहा है प्रकृति में
रंगों का यह रूपांतरण


कोई कवि जो शब्दों के फिजूलखर्ची और भाषा के प्रति इतना संजीदा हो, वह क्या कभी फकीरों-सा फक्कड़ भी हो सकता है, इसके जवाब में उनकी एक और कविता 'इंतज़ार' को पढ़ते हुए चंद पंक्तियों में ही इस कवि में एक फकीर का भी दर्शन हो आता है।

किसी दिन
डाल दूंगा
एक कटोरी आटे के साथ
अपनी थोड़ी भाषा भी
किसी मंगते की झोली में

किसी दिन
अख़बार की रद्दी बेचते हुए
चढ़ा दूंगा
अपनी थोड़ी भाषा भी
किसी कबाड़ी की बेतरतीब तराजू पर

किसी दिन
डाल दुंगा चुपके से
एक सिक्के के साथ
अपनी थोड़ी सी भाषा भी
आरती की थाली में ... ...


मणि मोहन भाई की कविताओं का पाठ करते हुए मैने यह पाया कि उनकी कविताएं छोटी होने के बावजूद क्यों बेहद महत्वपूर्ण, अर्थपूर्ण और यथार्थपूर्ण होती हैं। मुझे अब धीरे-धीरे समझ आने लगा है कि कविता-लेखन में भावों के साथ उचित शब्दों का संयोजन कितना जरुरी है...कि कोई कविता हमारे दिलो-दिमाग में उतर कर बेहद जरूरी विचारो का सृजन करती है।

संपर्क :
विजय कुमार
मोबाइल - 9097217563
ईमेल- jeevandharacraftpromotion123@gmail.com
स्थायी पता: द्वारा- मिलन चन्द महतो, 
कृषि बाज़ार प्रांगण के नजदीक, भवानीपुर साईट, चास, बोकारो- 827013

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