गुनाहों का देवता : स्मिता सिन्हा



हिंदी साहित्य में 'गुनाहों का देवता' एक ऐसी कृति है, जो अपने प्रकाशन के समय से आजतक पाठकों का प्यार पाती आई है। धर्मवीर भारती के इस उपन्यास में कई लोगों की अव्यक्त पीड़ा एवं अद्वितीय आस्था पाठकों तक पहुंचती है, वहीं इलाहाबाद खुद इस कृति का पात्र बन जाता है। स्मिता सिन्हा की रचनाएं नैसर्गिक रूप में सामने आती हैं...कविताएं इसका प्रमाण देती हैं। वहीं वे किसी कृति को बड़ी संजीदगी से पढ़ती हैं। उनका मानना है कि दीर्घ अंतराल पर किसी कृति को पढ़ने पर उसमें अंतर्निहित विचार और लेखक के उद्देश्य और अधिक परिलक्षित होते हैं। पाठकनामा के अंतर्गत आइये परिचित होते हैं 'गुनाहों का देवता' के उनके पाठकीय अनुभव से।



कहते हैं, यदि किसी किताब को बहुत ही अच्छे तरीके से समझना हो तो उसे उम्र के दो विभिन्न पड़ावों पर पढ़ना चाहिए। कहानी के पात्र, उनकी परिस्थितियां और उनके विचार ज्यादा स्पष्ट रुप से परिलक्षित होते हैं। धर्मवीर भारती की 'गुनाहों का देवता' संभवतः मेरे जीवन की वह पहली कृति है जिसने मुझे हिन्दी साहित्य से जोड़ा...मुझमें लंबी कहानियों और उपन्यास पढ़ने की ललक पैदा की। वैसे मैं इस बात का सारा श्रेय चंदर और सुधा को देती हूं, जिनके सम्मोहन से मैं आज तक निकल न सकी। मैं आठवीं कक्षा में थी, जब मेरे जन्मदिन पर उपहारस्वरूप यह किताब मुझे मिली। मुझे अच्छी तरह से याद है कि 'गुनाहों का देवता' वह पहली किताब है जिसे मैंने एक बार में पढ़ा...टुकड़ों में नहीं। पढ़ते-पढ़ते जाने कितनी बार आँखें भर आती थीं, आँसू लुढ़क पड़ते थे और घर में सबसे अपने आँसुओं को छुपाने की कोशिश में मैं देर तक आँखें बंद किये रहती तथा इस दौरान भी यह किताब मेरे सीने से चिपटी रहती। मुझे तक़लीफ़ भी होती और गुस्सा भी आता। मुझे तो बस प्रेम समझ में आता, उसकी जटिलताएं नहीं। चंदर और सुधा के प्रेम की पवित्रता और देवत्व मुझपर हावी होता जा रहा था। मुझे याद है कि अपने कॉलेज के दिनों में भी मेरा प्रेम बस इन दोनों के प्रेम के जैसा ही होता। दैहिक प्रेम हमेशा से ही गौण रहा। खैर लाख कोशिशों के बाद भी उस वक़्त मुझे यह बात समझ नहीं आयी कि आखिर क्यों चंदर और सुधा ने डा.शुक्ला से अपने प्रेम की बात छुपायी। मुझे यह बात भी समझ नहीं आयी कि आपस में इतना निश्छल और अटूट प्रेम होने के बाद भी वे दोनों एक दूसरे से इतनी दूर क्यों छिटक गये। पूरी किताब पढ़ने के बावजूद भी मैं उसके शीर्षक तक को नहीं समझ पायी। इसे समझने की कोशिश में मैंने यह किताब दो बार और पढ़ी। फ़िर भी जाने कितने सवाल अनुत्तरित ही रह गये।
       
फ़िर स्कूल, कॉलेज, पढ़ाई, परीक्षा के चक्कर में सिलेबस से अलग ज्यादा कुछ पढ़ना सम्भव ही नहीं हो पाया। बढ़ती उम्र के साथ भावनाओं की जगह तर्कों ने ले लीं और विचारों में उम्र व अनुभव की परिपक्वता नज़र आने लगी। अब मैं उपन्यासों और लंबी-लंबी कहानियों को ज्यादा बेहतर तरीके से समझ पा रही थी। लगभग 22-23 साल के लंबे अंतराल के बाद पिछले वर्ष मैंने फ़िर से पढ़ी वही किताब 'गुनाहों का देवता'...और इस बार सारे किरदार और उनकी जद्दोजेहद मेरे सामने परत-दर-परत खुल रहे थे। मैं समझ पा रही थी चंदर, सुधा, बिनती, पम्मी और कैलाश को भी...उनके अलग अलग नज़रियों और तजुर्बों के आधार पर परिभाषित प्रेम को भी...जीवन के उलझते धागों को सुलझाने की उनकी सारी कोशिशों को भी। मैं समझ पा रही थी कि किस तरह अव्यावहारिकता और हद से अधिक पवित्रता की चाह उन्हें कमज़ोर बनाती चली गयी। समझ पा रही थी कि वास्तविक जीवन की शर्तें भावनाओं में बंधी नहीं होती। जैसे-जैसे पन्ने पलट रही थी, वैसे-वैसे चंदर के लिये मेरा गुस्सा भी  पिघल रहा था। कैलाश को लेकर भी मन में कोई क्षोभ नहीं रहा। सुधा और बिनती के लिये दिल में सहानुभूति ज़रुर थी, पर आँख गीले नहीं थे। मुझे कहीं कोई गलत नहीं लग रहा था...मैं उनके अन्तर्द्वन्द को महसूस कर पा रही थी और इस किताब के अंतिम पन्ने पर मेरे पास कोई सवाल शेष नहीं रह गया था। मैं खूब बेहतर तरीके से जान गयी थी कि इतना भी आसान नहीं होता 'गुनाहों का देवता' होना।


संपर्क : 
स्मिता सिन्हा
स्वतंत्र पत्रकार, 
फिलहाल रचनात्मक लेखन में सक्रिय
मोबाईल : 9310652053

ईमेल : smita_anup@yahoo.com

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