संकटों से उपजी कोकिलाशास्त्र : संदीप मील


किसी रचनाकार की कृतियों से परिचित होने के पश्चात पाठकों में एक सहज कुतूहल जगता है कि इस कृति के पीछे यानी इसकी सृजन-प्रक्रिया में रचनाकार किन परिस्थितियों से रूबरू था...उन हालातों ने उसे कैसे रचना के लिए प्रेरित किया। किसी मौलिक रचनाकार के पास इन सब सवालों के स्पष्ट जवाब होते हैं। ऐसे ही रचनाकार की रचना-प्रक्रिया को जानने का अवसर मिला...खुद रचनाकार की जुबानी। तो अवगत होते हैं...कहानीकार संदीप मील की लंबी कहानी 'कोकिलाशास्त्र' की रचना प्रक्रिया से। 

संकटों से उपजी कोकिलाशास्त्र



'कोकिलाशास्त्र' मेरी दूसरी लंबी कहानी थी, इससे पूर्व मैं 'दूजी मीरा' नामक एक लंबी कहानी लिख चुका था। इनके अलावा अभी तक मेरा छोटी कहानियाँ लिखने का ही अभ्यास था। इस स्तर पर कहानी की संरचना को व्यवस्थित गति से / धैर्यपूर्वक निभाना मेरे लिये एक चुनौती थी। लेकिन अभी तक मैंने यह तय नहीं किया था कि कोई बड़ी कहानी लिखकर इस चुनौती का मुकाबला करुं।

जब 'कोकिलाशास्त्र' के लिखने की शुरुआत हुई, तब मैं जयपुर में एक किराये के कमरे में रहता था। आर्थिक तंगी का दौर था, उस दिन जेब भी खाली थी और रसोई भी। यह तो मैंने बाद में तय किया था कि पैसा आते ही सबसे पहले पर्याप्त मात्र में आटा खरीद लिया जाए और मकान मालिक को किराया दे दिया जाए। उसके बाद का महीना खाली जेब के निकालने में संघर्ष की एक उम्मीद तो बनती ही है। कमरे में देखा तो सारी रद्दी पहले ही बेची जा चुकी थी। किताबें बेचकर आटा लाना कोई नई बात नहीं थी क्योंकि मेरी कुल चल–अचल संपत्ति किताबें ही हुआ करती थीं। वैसे भी एक रचनाकार के पास मिल ही क्या सकता है इनके सिवा।

अब दूसरे विकल्प के तौर पर यह बचा था कि किसी से उधार ले लिया जाये। इस पर बहुत देर तक चिंतन करने की जरूरत भी नहीं थी क्योंकि इस इलाके के जितने परिचित थे उन सबका पहले से ही कर्ज़दार था। वे इंतज़ार करते थे कि कब करार पर मेरी जेब में पैसे हों और उनका नसीब खुले।

जब कहीं कोई आशा ना दिखी, तब पिछले दिनों खरीदकर लाई पत्रिकाओं को पलटने लगा। हाँ, यह जरूर तय था कि शाम तक कुछ न कुछ व्यवस्था हो जायेगी। अगर कुछ भी नहीं हुआ, तो घर जाना पड़ेगा। वहाँ से आटा ले आयेंगे। पत्रिकाओं को पलटने के दौरान मेरी नज़र एक इश्तिहार पर पड़ी जो 'कथादेश' नामक पत्रिका में प्रकाशित था। इश्तिहार ऐसा था कि कोई विदेशी कम्पनी कथादेश के साथ मिलकर एक 'रहस्य–रोमांस कहानी प्रतियोगिता' का आयोजन कर रहे हैं। इस प्रतियोगिता की एक विशेष बात यह थी कि विजेताओं को पच्चीस हजार रुपये भी मिलने तय थे। यह बात मैं पहले बता चुका हूँ कि इस वक़्त मुझे पैसे की सख़्त ज़रूरत थी। इश्तिहार पढ़ते ही पत्रिका को बिस्तर के एक किनारे पर रखा और कहानी लिखना शुरु कर दिया।

चूंकि लिखने बैठ ही गया था, तो किसी किस्से की छोटी–सी डोर पकड़कर पार उतरना था। किस्से अपने पास जो थे, सारे के सारे स्मृतियों के खजाने में बंद थे। सबसे पहले यादों के दरवाज़े खोले, कई किस्सों ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई। लेकिन कोई किस्सा जम ही नहीं रहा था क्योंकि मेरे दिमाग पर प्रतियोगिता की एक शर्त सवार थी, किस्से में ‘रहस्य और रोमांस’ होना चाहिए। स्मृतियाँ लगातार कई ऐसे किस्से खोजकर ला रही थी जिनमें बहुतायत में ‘रहस्य’ थे। सिर्फ उन कहानियों में ‘रोमांस’ भरना था। मेरी सारी स्मृतियाँ लोक पर आधारित थी। यह काम बड़ा आसान होता है किसी भी रचनाकार के लिए कि वे लोक की कोई कहानी उठाकर उसके ढ़ाँचे में नये भावों की अभिव्यक्ति करे। ऐसा काफी लोगों ने किया भी है और बाद में उसी को अपना ‘सृजन’ घोषित किया जाता है ।

मैं ऐसा नहीं कर सकता था क्योंकि मेरे लिये कोई भी ‘रहस्य’ यथार्थ से दूर नहीं हो सकता। मुझे लगा कि जो मेरी स्मृतियों में ‘रहस्य’ के नाम पर जमा है, असल में वे चीजे़ं रहस्य ना होकर संसार का ‘अमूर्तीकरण’ है। इनका किसी प्रकार का तार्किक विवेचन नहीं किया जा सकता। तो फिर ये स्मृतियाँ आयी कहाँ से हैं ?

मुझे यह समझ में आया कि ये स्मृतियाँ मेरे बचपन की हैं, जब परिवार के लोग ऐसे ‘रहस्यों’ से मेरे दिमाग को व्यस्त कर देते थे जिन पर तर्क करना एक गुनाह माना जाता। इसलिये आप इन ‘रहस्यों’ को मानवीय स्वभाव पर पाबंदी लगाने के रूप में देख सकते हैं जो भय और भौतिक जगत के प्रति विरक्ति पैदा करते हों। यही इन रहस्यों की राजनीति है।

तो साब, मुझे ‘रहस्य और रोमांस’ पर एक कहानी लिखनी थी, जिससे कुछ पैसे मिलने थे और आप तो जानते ही हैं कि पैसों की मुझे सख़्त जरूरत रहती है। मैंने यह सोचना शुरु कर दिया था कि क्या कोई ‘वैज्ञानिक रहस्य’ भी होते हैं या फिर इन तथाकथित रहस्यों का कोई वैज्ञानिक अवलोकन किया जा सकता है। आप यह सोच रहे होंगे कि जो आदमी ज़िंदगी के हर मसले पर इतना उतावला हो, वह कहानी लिखने के दौरान इतना सोच कैसे सकता है ? आपका सवाल बिल्कुल ठीक है। लेकिन सच्चाई यह है कि मैं फुर्सत और सुकून में कहानी लिखने के दौरान ही होता हूँ। इस समय कोई चोर मेरा पूरा घर, जिस घर में आटा ना सही, किताबें तो होती हैं, उसको भी समेटकर ले जाये, तब भी कहानी को बीच में छोड़ना मुमकिन नहीं हो सकता।

एक स्मृति बार–बार चेतना के दरवाज़े पर दस्तक दे रही थी जो इतनी धुंधली थी कि उसका एक ही तार समझ में आ रहा था। वह तार यह था कि इंसान कभी जानवरों की भाषा समझता था। यह एक पुरानी लोक कथा का हिस्सा था जो सिर्फ इतनी लाइन में याद था। मुझे इस सूत्र में बहुत ताकत लगी। इस कहानी को जानने का प्रयास करना बहुत जरूरी था। गांव के दो–चार बुजुर्गों को फोन करके यह लोक कथा जाननी चाही लेकिन वे इससे अपरिचित थे। फिर मुझे अचानक यह याद आया कि किस्सा तो मेरी परनानी सुनाया करती थी और उस पीढ़ी का कोई बचा ही नहीं है। उसके बाद वाली पीढ़ी के कुछ लोग जरूर हैं लेकिन वे उम्र के इस पड़ाव पर हैं कि उनकी स्मृतियां साथ नहीं दे रही हैं।

इसी उधेड़बुन में शाम को जयपुर के रचनाकारों से मुलाकात हुई तो मालूम हुआ कि उस इश्तिहार की बात तो यहां के रचनाकारों की पूरी ज़मात में फैली हुई है। कई इस प्रतियोगिता के लिए कहानियाँ लिखने का मन बना चुके हैं और कइयों ने तो कथ्य भी तय कर लिए थे। वे अपने कथ्यों को ऐसे छुपा रहे थे जैसे कि उनकी जबां से एक लाइन फिसली कि सामने वाला उनके ज़हन में घुसकर पूरा किस्सा निकाल ले जायेगा। जबकि वे यह भी जानना चाह रहे थे बाकी लोगों के ख़्याल क्या हैं क्योंकि उन्हें ख़्याल टकराने का भी डर था। तो सारे लोग बातों को घूमा फिराकर कुछ तलाश कर रहे थे।

चूँकि मेरे पास कोई मुक़्कमल ख़्याल था ही नहीं तो चुराये जाने का सवाल ही नहींं उठता। वैसे भी, मेरा यकीन है कि वो ख़्याल किस काम का जो चोरी हो जाये। मैंने सबके साथ साझा किया लेकिन इस पर कोई सार्थक बात नहीं हो पाई क्योंकि एक तो मैं ख़ुद भी स्पष्ट नहीं था कि आख़िर यह ख़्याल है क्या। दूसरा यह था कि मेरे ज़हन में जो चल रहा था, वो अभी इस हालत में था कि उसे ठीक से बयां भी नहीं किया जा सकता।

रात को घर आ गया और आपको यह बताते हुये बड़ी खुशी हो रही है कि उस रोज़ यूँ ही बेमतलब एटीएम चैक किया, यह जानते हुये कि यह अपनी आदत के मुताबिक पन्द्रह रुपये बैलेंस होने की जानकारी देकर मेरा मज़ाक उड़ायेगा। लेकिन अफसोस तो तब हुआ जब उस एटीएम ने मुझे एक हज़ार रुपये बैलेंस बताया और खुशी-खुशी दो पाँच सौ के नोट पकड़ा दिये । जीवन में पहली बार इस मशीन के प्रति मोहब्बत जैसा कुछ अहसास हुआ। एटीएम से बाहर आया तो एक बार अमीरी जैसा भाव मन में आया क्योंकि जेब में एक हज़ार रुपये थे और ज़हन में एक बिना लिखी हुई कहानी थी।
मैं यह सोच रहा था कि ये पैसे कहाँ से आये होंगे ? अब ऐसा नेक दिल कोई दोस्त ही नहीं था जो कहते ही खाते में धन डाल दे, इसलिये दोस्तों से कहना ही बंद कर दिया था। ऐसा याद आ रहा था कि पिछले दिनों एक पत्रिका के लिये कहानी लिखी थी, हो न हो पैसे उसे ही भेजे हों।

रात गहरा चुकी थी और इस समय आटा अगर खरीद भी लिया जाता तो भी ज़ाहिर तौर पर मेरे से रोटियाँ तो बनने से रहीं। खाना होटल पर ही खाया। बिस्तर पर सोकर वापस कहानी बुनने में लग गया। यह तो दिमाग ने अब तय कर लिया था कि इसी कथ्य पर कहानी लिखनी है। भरा पेट बहुत जल्दी निर्णय ले पाता है, भूखे पेट की बजाय। मसला यहाँ फंस रहा था कि क्या इंसान ने कभी जानवरों की भाषा की डिकोडिंग की है ?

सुबह उठते ही इसी सवाल को लेकर विश्वविद्यालय जाकर एक विज्ञान के विद्यार्थी से सलाह मांगी। उसने यह बताया कि एक बार ऐसे ही किसी काम पर एक नोबल पुरस्कार मिला था। मेरे दिल को कुछ राहत मिली। वह विद्यार्थी यह वादा करके गया कि आप कैंटिन में दोपहर तक इंतज़ार कीजिए, मैं पूरी जानकारी लेकर आता हूँ ।

कैंटीन में कुछ साथी हरदम वहाँ बैठ रहते हैं और बेमतलब वाली गप्पें हाँकते रहते हैं जिनका भी कोई मतलब होता है। मैं आज उनके साथ नहीं बैठना चाहता था, कहानी के लिए एकांत की जरूरत महसूस की गई। कैंटीन के पीछे एक पानी की टंकी है जिसके बगल में पेड़ की गहरी छाँव रहती है। मैं वहीं बैठकर सोचने लगा। अब मुझे यह लग रहा था कि जिस समय में मैं जी रहा हूँ उसके क्या–क्या सवाल हैं ? हिंसा, भेदभाव, बेइंतिहा पर्यावरण के दोहन जैसे कई सवाल उभरे। सोचा कि इनमें से किसी एक को केंद्र बनाकर कहानी लिखी जायेगी लेकिन इन सबको अलग करके देखना मेरे लिये मुश्किल काम लग रहा था। सारे अंतर्गूंफित थे। यह तय किया गया कि किस्सा अपने हिसाब से ही चले तो ज्यादा बेहतर हैै उसे किन्हीं खाँचों में कैद कर दिया जायेगा तो वह किस्सा कम, भाषण ज्यादा हो जायेगा।

एक एक्टिविस्ट होेने के नाते यह भाषण वाला संकट भी कई कहानियों की रचना प्रक्रिया में आता रहता है। पता ही नहीं चलता कि कब कथाकार की जगह एक राजनीतिक कार्यकर्ता ने ले ली। यह अंतर्द्वंद्व बड़ा ही मुश्किल होता है लेकिन फायदेमंद भी होता है। मुश्किल इन अर्थों में होता है कि हर पल सर्तक रहना पड़ता है कि एक लेखक के तौर पर ही किरदारों से सलूक किया जाये, राजनीतिक कार्यकर्ता कई बार किरदारों से संवाद खुद बेालने लगता है। यह नहीं समझ में आता कि कौन–सा संवाद किरदार का है और कौन–सा लेखक के हमजाद एक्टिविस्ट का।

फायदेमंद इन अर्थों में होता है कि यह एक्टिविस्ट की चेतना हमेशा लेखक को राजनीतिक रूप से सही करती रहती है। जब भी लेखक फंतासी के भंवर में फंसकर कोई तर्कहीन बात करता है तो उसके अंदर का एक्टिविस्ट कॉलर पकड़कर धड़ाम से यथार्थ के धरातल पर पटक देता है। थोड़े दिनों बाद में ये एक दूसरे के दोस्त भी हो जाते हैं। जैसे कि लेखक कोई कहानी लिखते वक्त पेंच में फँस गया, वह तुरंत उस एक्टिविस्ट को याद करेगा। कुछ देर तो वह नखरे दिखायेगा कि नहीं चला न मेरे बिना काम। बहुत अकड़ते थे। अंततः वह सुलह कर लेता और लेखक को राजनीतिक तौर पर बजा लेता। ठीक ऐसे ही उस एक्टिविस्ट के लेखक भी काम आता है। सृजनात्मक स्तर पर इतना काम आता है कि उसके हर भाषण की भाषा लेखक ही होती है।

इतने में वह विज्ञान का विद्यार्थी आता दिखाई दिया जिसके हाथ में एक किताब थी । बहुत मोटी किताब थी जो नोबल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिकों के शोधों के बारे में थी। उसने एक पन्ना मोड़ रखाा था, वहीं से किताब खोलकर मुझे पकड़ा दी।

वैज्ञानिक का नाम था कार्ल वॉन फ्रिस्च और वह ऑस्टिया का निवासी था। फ्रिस्च को सन् 1973 में नोबल पुरस्कार मिला था। उन्होंने मधुमक्खियों के संवेदी धारणा पर शोध किया था और इन संवेदी धारणाओं को उन्होंने डिकोड करके अर्थ निकाले थे जोे उनकी किताब 'द डांसिंग बीस' में दर्ज़ हैं। अब मुझे एक ठोस प्रमाण मिल गया था कि एक वैज्ञानिक ने मधुमक्खियों की भाषा समझी है तो इंसान ऐसा कर सकता है।

शाम को कमरे पर आते ही कहानी शुरु हो गई थी। कहानी में एक चुनौती पात्रों के नामकरण की आती है। मेरी कहानियों के पात्रों के नाम बड़े आर्कषक नहीं होते, ऐसा कुछ मित्रों का मानना है। मुझे भी लगता है कि जब भी किसी पात्र का नाम रखना होता है तो मेरे ज़हन से नामों की फेहरिस्त ही ग़ायब हो जाती है। कोशिश के बाद भी मित्रों की भाषा में कहुँ तो ‘कोई ढ़ंग का नाम’ ना मिलता है तो कोई भी सामान्य नाम रख दिया जाता है। इसलिये पात्रों के नामों में एक तरह का रुखापन जरूर रहता है लेकिन क्या करुँ मेरे आसपास कोई तड़क–भड़क वाले नाम के लोग ही नहीं रहते हैं, वही मुरारी, शकील, सरिता, फातिमा नामों को जानता हूँ।

तो कहानी की मुख्य किरकार जो थी उसका नाम सरिता रखा गया। आधी कहानी लिखने के बाद वो प्रतियोगिता वाली शर्त याद आयी कि कहानी में रोमांस और रहस्य होना चाहिए। अचानक कलम रुक गई और सोचने लगा कि रहस्य तो इसमें हो जायेगा लेकिन रोमांस नहीं हो पायेगा। तब एक बार कहानी को वापस पड़ने लगा, अहसास हुआ कि कहानी बन रही है अब इसके साथ रहस्य–रोमांस करना छोड़ देना चाहिए। और वैसे भी, आज आटा आ चुका था तो निर्णय लेने में बहुत देर नहीं लगी।

हालांकि यह कहानी उस प्रतियोगिता में भेजी गई थी जहां इसे कुछ नहीं मिल पाया जबकि उसी दौरान जयपुर के एक मित्र द्वारा लिखी गई कहानी पच्चीस हज़ार रुपये हासिल करने में सफल रही। अब यह कहानी प्रतियोगिता के दायरे से बाहर जा चुकी थी। दूसरे दिन दोपहर तक इसका पहला ख़ाका खींचा जा चुका था। फिर काफी दिनों तक इसके साथ कोई मुलाकात नहीं हुई, मैं दूसरे अफसानों में मशगूल हो गया। एक दिन 'बया' पत्रिका के संपादक ने कहानी माँगी तो याद आई कि घर में एक कहानी तो पड़ी है। उस दिन कहानी को छपने के लिए भेजने से पूर्व एक बार पढ़ा तो अंत में इत्मिनान की सांस ली कि इतने दिनों बाद भी मुझे इसमें कुछ भी जोड़ने–घटाने की जरूरत महसूस नहीं हुई। बस, इतना लगा कि इसने मेरे अंदर कुछ जगह खाली कर दी है, जहाँ अब बरसात का पानी ठहरता है जिसमें बारह मास पक्षी बोलते हैं और मैं चुपचाप कलम लिए उनकी भाषा को डिकोड करता रहता हूँ। यही रोजग़ार चल रहा है।

संपर्क :
संदीप मील
मोबाइल – 09636036561
ईमेल –skmeel@gmail.com
ग्रा. पो. – पोसानी, 
वाया – कूदन, 
जिला – सीकर, 
राजस्थान - 302031

कविता के विरुद्ध एवं अन्य कविताएं : योगेंद्र कृष्णा



पिछले वर्ष आये हिंदी कविता–संग्रहों में बोधि प्रकाशन से आया 'कविता के विरुद्ध एवं अन्य कविताएं' कवि एवं अपने कलेवर के कारण सहज ही ध्यान खींचता है। कुँअर रवीन्द्र का अद्भुत आवरण–चित्र जिसमें अँधेरे की पृष्ठभूमि में चिंतनशील मानस जो थोड़ा थका–परेशां तो दिखता है, पर उसपर पड़ती सुनहरी आभा संकेत कर रही है कि शीघ्र ही वह अँधेरे के खिलाफ उठ खड़ा होगा। कवि योगेंद्र कृष्णा अपने संग्रह में इसी उम्मीद का सृजन करते हैं।

नब्बे के दशक में जब देश काफी कुछ बदल रहा था, चरित्रों पर मुखौटे कुछ अधिक ही चढाए जाने लगे थे, ग्लोबलाइजेशन एवं निजीकरण ने सार्वजनिक पूंजी को अधीन करना शुरू कर दिया था, स्वतंत्रता एवं समरसता भंग की जाने लगी थीं ; ठीक उसी समय योगेंद्र कृष्णा आमजन का पक्ष रखने की शुरुआत करते हैं। 2001 में 'खोई दुनिया का सुराग' आई जिसमें समाज में व्याप्त रूढ़ि, असमानता एवं तत्कालीन राजनीतिक स्थिति पर प्रश्न–प्रतिप्रश्न करते कवि की बेचैनियां साफ–साफ नजर आती है। 2008 में आई 'बीत चुके शहर में' के पश्चात सितंबर 2016 में 'कविता के विरुद्ध एवं अन्य कविताएं' का पाठकों के समक्ष आना सिर्फ एक अवधि को इंगित नहीं करता, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि कवि ने अपने मानस में उठते हर प्रश्न पर मुकम्मल ढंग से सोचा है, उसमें विचारों के प्रस्तुतिकरण की हड़बड़ी नहीं है।

'बीत चुके शहर में' के आठ वर्षों बाद नए संग्रह को पढ़ने की प्रासंगिकता इस बात में निहित है कि इन सालों में क्या कुछ बदला, कवि ने इस बदलाव को कैसे महसूस किया एवं इन बदलावों के प्रति उसकी क्या प्रतिक्रिया रही। कवि 'बीत चुके शहर में' की कविता 'एक बदहवास दोपहर' में आशंका व्यक्त करते हैं― "पता नहीं / मौसम की यह बदहवासी / अब किधर जाएगी / किस मासूम पर अपना दोपहर बरसाएगी।" अब 'कविता के विरुद्ध एवं अन्य कविताएं' की कविता 'मेरे हिस्से की दोपहर' में कवि कहते हैं― "बंट रहे थे जब सारे पहर / बंट रही थीं जब / रोमांचक रातें / शबनम में नहायी / खुशनुमा सहर / मेरे हिस्से आई / बस गर्मियों की लंबी / चिलचिलाती दोपहर...।" (पृष्ठ-86) इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक तक आते–आते ऐसे परिवर्तन प्रत्यक्ष होने लगे थे जिसकी आशंका कवि अपने पूर्व संग्रहों में व्यक्त करता है। द्रष्टा अब भोक्ता बन चुका था। हरेक दरवाजे पर दस्तक दी जाने लगी थी जो मानव–मन को आशंकित कर रहा था। 

संग्रह की शुरुआत 'कविता के विरुद्ध' शीर्षक कविता से हुई है जिसे रचनाकार ने स्वयं 'कवियों–बुद्धिजीवियों के विरुद्ध एक शासनादेश उद्धृत किया है। वे शुरुआत में कहते हैं– "ध्वस्त कर दो / कविता के उन सारे ठिकानों को / शब्दों और तहरीरों से लैस सारे उन प्रतिष्ठानों को / जहाँ से प्रतिरोध और बौद्धिकता की बू आती हो।" सत्ता के अपने तर्क हैं जिससे वह अपने पक्ष को मजबूत करने की कोशिश करती है― "तब तक उन्हें इतिहास और अतीत के / तिलिस्म में भटकाओ / नरमी से पूछो उनसे / क्या दांते की कविताएं / विश्वयुद्ध की भयावहता और / यातनाओं को कम कर सकीं / क्या गेटे नाजियों की क्रूरताओं पर / कभी भारी पड़े।" आगे की एक पंक्ति 'पोएट्री मेक्स नथिंग हैपेन' की स्थापना के बावजूद सत्ता एवं व्यवस्था अंदर से भयभीत रहती है जो इन पंक्तियों में अभिव्यक्त होती है― "बावजूद इसके कि कविता के बारे में / महाकवियों की ये दिव्य स्थापनाएं / पूरी तरह निरापद और कालजयी हैं / घोर अनिश्चितता के इस समय में / हम कोई जोखिम नहीं उठा सकते।" (कविता के विरुद्ध, पृष्ठ 7-9)

वर्तमान समय में पूंजीवादी सत्ता एवं शक्तियां मानव-मस्तिष्क को बेजान कम्प्यूटरों में तब्दील करने की कोशिश कर रही हैं तथा इसमें सफल भी हो रही हैं। अब मानव-मन कंप्यूटर के सीपीयू की तरह बनता जा रहा है, जिसमें आवारा शक्तियों द्वारा तैयार सॉफ्टवेयर भरने की कार्रवाई चल रही है। मनुष्य को उसके तर्क, विवेक, प्रेम, समाजिकता आदि से रहित कर सूचनाओं के अथाह सागर में हिचकोले खाते रहने को तैयार किया जा रहा है। नेपथ्य में वे शक्तियां अपने उद्देश्य की ओर तेज़ी से बढ़ रही हैं और निरीह मानव अपने अस्तित्व को भूलते जाने को बेबस है। योगेंद्र कृष्णा आगाह करते हैं―"...कि अब खाली जगहों / खाली आदमी और उनके / अटूट रिश्तों पर / उनकी छोटी-छोटी खुशियों / आंसुओं और शोक पर भी / चौकन्नी नजर है / भरे-पूरे आदमी की / कि वह भर देना चाहता है / दुनिया भर के नये-नये कचरों से / तमाम खाली जगहों / और खाली आदमी को। (खाली आदमी और खाली चीजें, पृष्ठ-12)

योगेंद्र कृष्णा की कविताओं के केंद्र में 'आदमी' है। वे कहते हैं―"कोई भी ऐश्वर्य / कितना भी मोहक / पथभ्रष्टकारी क्यों न हो / आदमी से बड़ा नहीं।" (कोई भी ऐश्वर्य, पृष्ठ-14)

वे मनुष्य को मुखौटों से आगाह करते हैं। आज का हत्यारा मसीहा का रूप लेकर आ सकता है तो गांधी का रूप धरते भी उसे देर नहीं लगती। मनुष्य की आजादी को चुपचाप गुलामी में बदलने की साजिशें हो रही हैं...मनुष्य फिर बचेगा कैसे? कुछ पंक्तियां देखिए―"वे अपने झूठ पर चढ़ा लेते हैं / तुम्हारे ही सपनों के रंग / और इस तरह बिना झूठ बोले / तुमसे छुपा लेते हैं तुम्हारा सच।" आगे कहते हैं―"गुलामी की तुम्हारी दीवारों को / बड़ी खूबसूरती से शीशों से सजाते हैं / कि तुम आजाद दुनिया की तस्वीर / घर के भीतर चारों तरफ / आईने से झांकती / अपनी ही छवियों में तलाश लो" (हत्यारे जब गांधी होते हैं, पृष्ठ-18)

इसी क्रम में उनकी नज़र आमजन के शोषकों पर जाती है, जिनका कच्चा-चिट्ठा वे बयां करते हैं–"जहां बंद कमरे की एसी / से निकलता जहर / और बार-गर्ल्स की व्यापारिक मुस्कानें / उनकी चाय की प्याली में / तूफान खड़ा करती हैं / और वे साफ-शफ्फाक कपड़ों में भी / नंगे नजर आते हैं" (चाय के बहाने, पृष्ठ-26)

आमतौर पर माना जाता है कि उच्च वर्ग और निम्न वर्ग के बीच एक मध्यवर्ग है...जिसका कोई शरीफ आदमी समाज में अपना अस्तित्व बनाये रखने की जद्दोजहद में अपनी ज़िंदगी जी नहीं पाता, बस लुढ़कते-गिरते-बचते मानो अपनी पारी खेल जाता है। उसकी मुस्कान पर मत जाइए...अंदर वह कितना खाली होता जाता है, यह देखिये―"अपनी कार में बैठे / उस शरीफ आदमी को / जरा गौर से देखिए / मध्यवर्गीय सोच और / उच्चवर्गीय सपनों के बीच / हवा में डोल रहा / समाज में अपनी इज्ज़त का मारा / लहूलुहान और बदहाल इस आदमी का चेहरा / अपने देश के नक्शे से कितना बेमेल दिखता है" (धुंध, पृष्ठ-33) पर आज अपनी रीढ़ को बहुत पीछे छोड़...एक भीड़ बहुत आगे निकल गयी है। उस भीड़ के बीच अपनी रीढ़ ढोने के खतरे भी हैं।

"बहुत खतरनाक हो सकता है / एक रीढ़विहीन भीड़ के बीच / बहुत जिद में / या तन कर रहना भी... ...उन्हें लगता है / मैं भीड़ में अकेला / बहुत नकारा / नाचीज़ रह गया हूं" (रीढ़, पृष्ठ-61)

योगेंद्र कृष्णा की कविताओं में यथार्थ के साथ-साथ एक जीवन-दर्शन उद्घाटित होता है, जो बारीकी से परखी हुई चीज है...केवल जानी हुई नहीं। जितनी गहराई से वे बदलते समय की विद्रूपता को पहचानते हैं, उतनी ही गहराई से प्रेम को भी। कुछ पंक्तियां देखिए―"जंगल होने के लिए / प्रेम करने का हौसला चाहिए / उन चीजों से, जो तुम्हारी नज़र में / जरूरी नहीं सुंदर हो।" (यायावर, पृष्ठ-37) 

कवि अपनी रचनाओं में आदमी के अपने जड़ों की ओर लौटने की बात करते हैं। इसमें आड़े आती है...खुद मानव-सभ्यता के विकास के उपकरण... जिसके कारण आदमी के अस्तित्व पर ही सवाल उठता है। कवि आगाह करते हैं―"विकास के नए उपकरणों को / आदमी इस पृथ्वी पर / जब-जब सजाता है / और अपनी / उपलब्धियों का उत्सव / जब पूरे विश्व में मनाता है / स्वयं आदमी के लिए ही / क्यों इस पृथ्वी का / आकाश सिकुड़ जाता है..." (पृथ्वी का आकाश, पृष्ठ-55) मानव-सभ्यता के विकास के नये-नये उपकरण...उसके कारण मानव पर ही मंडराते खतरों को देख कवि कहते हैं―"लेकिन फिलहाल / तुम्हारे पैरों के नीचे / तुम्हें कुछ दिनों तक / एक मुक़म्मल निष्कंप धरती का / विश्वास नहीं सौंप सकता।" (निष्कंप धरती का विश्वास, पृष्ठ-88)

समकालीन यथार्थ तथा भविष्य की चुनौतियों एवं उम्मीदों पर बात करते इस संग्रह को पढ़ते समय एक बात पाठकों को खटक सकती है―रचनाओं में कवि की स्थानिकता का अभाव। उनका अंचल या वहीं का कोई पात्र, पाठकों से संवाद करने नहीं आता। तो क्या कवि अपने सफ़र में कहीं जम नहीं पाया...जुड़ नहीं पाया...किसी परिवेश ने उसे आकर्षित नहीं किया या कविताओं में कथ्य ने उनकी स्थानिकता की मांग नहीं की। संग्रह की कविताओं में कवि का लोकेल अनुपस्थित है तो जाहिर है कि बिंबों की उपस्थिति भी कम होगी। क्या भाषा, शिल्प एवं कथ्य के प्रति सजग योगेंद्र कृष्णा ऐसा सायास करते हैं या उनकी रचनाओं की प्रकृति ही ऐसी है या उन्होंने जीवन ही ऐसा जिया कि हर जगह से उखड़ते रहे जिसका प्रभाव उनकी कविताओं पर पड़ा है, यह एक अलग चर्चा की मांग करती है।

'कविता के विरुद्ध एवं अन्य कविताएं' को समग्र रूप से पढ़ते हुए लग रहा था कि मैं अपने समय को पढ़ रहा हूं। इसके केंद्र में आदमी है...उसकी जिजीविषा है...प्रेम एवं विश्वास है...उसकी उम्मीद एवं सपने हैं। आदमी के सपनों पर घात लगाए सत्ता एवं पूंजीवादी शक्तियों के गठजोड़ को कवि बखूबी पहचानते हैं तथा आसन्न खतरों से आगाह करते नज़र आते हैं। कवि की संयमित लेखनी के कारण रचनाओं में शब्दो का चयन एवं संयोजन अद्भुत है जिसके कारण पाठक आसानी से अपने को संग्रह से जोड़ लेता है। अंततः पाठकों से संवाद बना पाना ही तो एक रचनाकार की सार्थकता है।


कृति – कविता के विरुद्ध एवं अन्य कविताएं
कवि – योगेंद्र कृष्णा
प्रकाशन – बोधि प्रकाशन, जयपुर
वर्ष – 2016
मूल्य – 100 रुपये


संतोष चतुर्वेदी की कविता : आशीष सिंह


कविता जीवन से उत्पन्न होती है और उसके ही गिरि-गह्वर से गुजरती हुई प्रवाहमय बनी रहती है। यह अचेतन में भी चेतना भरती है तो चेतना में विक्षोभ पैदा करती है...यानी आपको बेचैन कर सकती है। आज 'पाठकनामा' के अंतर्गत कवि संतोष चतुर्वेदी की कविता पर आलोचक एवं समीक्षक आशीष सिंह बात कर रहे हैं...शीर्षक है―'प्रेम'। वे कविताओं को संजीदगी से पढ़ते हैं और धैर्य के साथ अपनी बात रखते हैं। तो कविता पढिये, फिर कवि को जानिये-समझिये।


प्रेम || संतोष चतुर्वेदी

जो बात तुम्हारे लिए राज है

उसे दुनिया की तमाम स्त्रियाँ

खुलेआम जानती हैं
कि हर तरह के पानी से नहीं गलती दाल

पानी का तनिक भी खारापन
सारे ताप को बेकार कर देता है
वह तो मिठास भरे पानी का प्रेम है
जिसमें डूब कर
गल जाती है दाल

वह घुला देती है दाल को पानी में इस तरह
कि पानी दाल का
और दाल पानी की हो जाती है

सचमुच
ऐसा ही निश्चल होता है यह प्रेम
जब भी जहाँ भी होता है
जीवन के समूचे व्याकरण को बदल देता है
और यह राज भी स्त्रियाँ खुलेआम जानती हैं

दोस्तों ! यह कविता अभी पिछले दिनों 'कविता बिहान' पत्रिका में पढ़ने को मिली। आज के जरूरी कवियों में संतोष चतुर्वेदी का नाम आता है जिन्होंने अपनी काव्य-भाषा और कहन को पहचान दी है। जब आप किसी कवि की कविता पढ़ते हुये जान जाते हैं कि यह अमूक कवि की ही कविता है, तब उसके यही मायने होते हैं कि अमूक कवि ने अपने कविता का ढंग-ढर्रा बना लिया है अर्थात उस खास ढंग को विकसित करने में...बनाने और संवारने में ही उस कवि की आत्मछाया उसकी कविता में झांकने लगती है। तभी वे कहते हैं कि मैंने 'मैं' शैली अपनायी...यानि इसमें हमारा रक्त, मांस-मज्जा और अनुभूति घुल-मिलकर शब्दबद्ध हुई है।

संतोष चतुर्वेदी की कविता पढ़ते हुए ऐसा लगता है मानो हमारे सामने प्रत्यक्ष जीवन की क्रियाशीलता की तस्वीर उभर आयी है। वह तस्वीर अपने दैनंदिन काम में ही अपने समय की जरूरी बात कह रही होती है। मतलब एक तरफ हमारी आँखो के सामने वह जीवन गतिमय हो जाता है...अपनी उपादेयता प्रकट कर रहा होता है, वहीं दूसरी तरफ उसमें निहित गहरे निहितार्थ वक्रोक्ति के तौर पर साधारणतः कहे जाने वाले वाक्यांश में भी कुछ ऐसी बात कह जाता है जो अपने समय पर महत्वपूर्ण जरूरी हस्तक्षेप के रुप में पढ़ा जा सकता है और कविता अपनी पूरी बनावट में, स्थापत्य में एक दूसरे में गुंथी-बुनी होती है। यहाँ अंत में चमत्कारी कथन या अतिरिक्त दार्शनिक अभिव्यक्ति से प्रभावित करने की कोशिश कतई नहीं रहती है। जैसा कि निराला भी कविता में शब्दचित्र या कहें कि बोलते हुये शब्द को प्राथमिक मानते हैं क्योंकि महज अर्थ में नहीं प्रथमतः चित्र में हमारे हृदय में अपनी जगह बनाती है। उसी प्रकार संतोष जी की कविता का गठन भी देखने को मिलता है। जब कभी आज की असमानतापूर्ण नीतियों को चाक्षुष शब्दों में देखना हो तो उनकी 'उलार' नामक कविता का स्मरण आ जाना स्वाभाविक है। इसी प्रकार उन्होनें बहुत साधारण जीवन प्रसंगो को अपनी कविता का विषय बनाया है। 


अभी मैने उनकी छिटपुट कवितायें ही पढ़ी है लेकिन उससे एक छवि जो बनकर सामने आती है वह उन्हें साधारण जनों का अपना कवि बनाकर हमारे सामने प्रस्तुत कर देती है जो अपनी काव्य-कला में गहन आन्तरिक गुत्थियों और अपने डेरे में धंसते जाने वाले कवि की नहीं बल्कि आज के सवालों को हमारे सामने पेश करता हुआ कवि अपनी कविता के साथ स्वयं खड़ा मिलता है। इस प्रकार यहां वर्णन की प्रधानता नहीं बल्कि अपने विषयवस्तु के साथ सक्रिय आत्मीय छवि भी झांकती है जो आज के कविता में या तो कम है या उसकी आत्मगतता की अतिशयता के रुप में हावी है। इन दोनों छोर की कवितायें अक्सर कलात्मकता का अतिरिक्त आग्रह लिये होती है या अपने व्यक्ति को लेकर कुछ ज्यादा ही सचेत नजर आती है। इनके बारे में कहा जाने लगता है कि यह अपने समय को अपनी निगाह से देख रही है। लेकिन उस निगाह की दिशा, जमीन और आन्तरिक वस्तुस्थिति कैसी है, इस पर बात नहीं करते। मेरी नजर में ऐसी कवितायें अपनी नहीं लगती हैं। वे अपने ऊबे हुये जीवन का भाषाई, दार्शनिक उहाफोह का शाब्दिक अभिव्यक्ति ही होती है...अपने गुफा-गह्वर में गमन करती हुई...अकेले का उत्सव मनाती हुई। वह भी हमारे समय, काल की एक ध्वनि ही है लेकिन वह आत्मकेंद्रित और आत्मसेवी ध्वनि है, वहाँ जीवन की गतिमयता का...सामूहिक ऊहापोह का...कहीं अता-पता नहीं होता, जबकि संतोष चतुर्वेदी जैसे कवियों की कविताओं में सामूहिक जिंदगी की हलचल व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करती और अपने साथ चलने की जरुरत पर अनचाहे बल देती है, जहाँ जीवन का राग है उस तरफ...!


प्रस्तुत कविता प्रेम कितनी सहजता से अपनी सबसे जरूरी बात कह जाती है और लगता है कहने जैसा तो अभी कहा जाना है, यही चीज इसे बार बार देखने और उस जीवन की जद्दोजहद को देखने की ओर प्रेरित करती है। अब कोई इसमें स्त्री-विमर्श तलाश सकता है, कोई इसमें पुरुष और स्त्री के सामंजस्यपूर्ण दाम्पत्य सम्बन्धों के बीच पनपते अहसास को देख सकता है तो कोई प्रेम की घनीभूत अभिव्यक्ति...लेकिन निष्प्राण नहीं बल्कि जीवन स्पन्दन से भरपूर !


यह कविता अपने छोटे-से स्थापत्य में जानी-पहचानी ढाँचागत सीमाओं का अतिक्रमण कर जाती है जब अपने होने न होने को एक दूसरे में विलयित कर देती है। कविता का प्रारम्भ ही संबोधक भाषा में उनको संबोधित करती मिलती है जो प्रेम को शब्दों में तलाशते हैं। गहन दार्शनिक भाषा-भंगिमा में बात तो करते हैं लेकिन प्रेम का किंचित भी संस्पर्श नहीं पाते हैं...यानि यह होशियार एवं ज्ञानीजनों को संबोधित है। जो सबकुछ शब्दों में ही जानते हैं उनके लिए यह दो लफ्ज महज राज बनकर रह जाते हैं।


संपर्क :
आशीष सिंह
E-2 / 653
सेक्टर -F
जानकीपुरम, लखनऊ - 226021
मोबाइल – 08739015727