अज्ञातवास की कविताएँ : हिंदी कविता का एक युवा स्वर





समकालीन यथार्थ के प्रति सजगता एवं तदनुसार दृष्टि एक लेखक के साथ ही पाठक के लिए भी अनिवार्य है. अविनाश मिश्र का कविता-संग्रह 'अज्ञातवास की कविताएँ' एक सचेत एवं चिंतनशील युवा की अभिव्यक्ति है. 'पुनपुन' के कवि प्रत्यूष चन्द्र मिश्र ने उनकी कविताओं की गहराई में जाकर पड़ताल की है. आइये उनकी सारगर्भित पाठकीय टिप्पणी पर नज़र डालते हैं.

अज्ञातवास की कविताएँ : हिंदी कविता का एक युवा स्वर
                                                    
- प्रत्यूष चन्द्र मिश्र  

साहित्य अकादमी की नवोदय योजना के तहत प्रकाशित अविनाश मिश्र के कविता संग्रह अज्ञातवास की कविताएँ’ से गुजर रहा हूँ. संग्रह की भूमिका में असद जैदी ने लिखा है कि ‘अविनाश की कविता में एक ऐसे युवक की आत्मा रहती है, जो अपनी अस्मिता और अपनी आजादी के महत्व को जानता है और जो अपने किरदार को मजबूती से संभाले अपनी जगह पर डटा हुआ है.’ संग्रह की कुल उनचालीस कविताओं से गुजरते हुए हमारा परिचय एक ऐसे कवि से होता है जो अपनी समझ, संवेदना और विचार के स्तर पर तो परिपक्व है ही साथ ही अपनी सहज और प्रवाहमयी भाषा की बदौलत जल्द ही हमारे भीतर प्रवेश कर जाता है. अविनाश की कविताओं में एक आम मध्यवर्गीय जीवन की विडम्बनाओं और उसके भीतर का हाहाकार बहुत ही तीव्र अनुभूति के स्तर पर अभिव्यक्त होता है. संग्रहकी पहली ही कविता ‘मूलतः कवि’ एक कवि के सोद्देश्यपूर्ण कार्यो के प्रति आश्वस्त करती है. कविता लिखना अपने आप में जीवन को उसकी सम्पूर्णता में देखना है. इस जीवन में जो कुछ भी बेहतर है उसके प्रति एक उम्मीद भरी नजर पैदा करना और जो चीजें भयावह है उससे संघर्ष का माद्दा पैदा करना एक सजग रचनाकार की पहचान है. अविनाश की नजर उन चीजों की ओर भी जाती है जहाँ विचारों की कीमत सबसे कम रह गई है और जहाँ मनुष्यता की पहचान सिरे से गायब है. अविनाश बहुधा जीवन और उसके आसपास से जुडी गतिविधियों को अपनी कविता का विषय बनाते हैं और एकदम सहज और स्पष्ट तरीके से अपनी बात रखते है. वे कविता के लिए कोई भाषिक कौतुक नहीं रचते. दर्शन और सैद्धांतिकी के अबूझ इलाके से अलग वे अपनी कविताओं में जीवन के अप्रकट संसार को पाठको के समक्ष रखने की कोशिश करते हैं और कहने की जरुरत नहीं कि उनकी कविताओं से गुजरते हुए पाठको को अपने ही जीवन का कोई छूटा हुआ सिरा अक्सर नजर आता है.

आज के विचारहीन समय पर टिप्पणी करते हुए अपनी एक कविता ‘अव्यक्त आश्चर्य’ में अविनाश कहते हैं कि सबसे कम कीमत रह गई विचारों की और पहुंच से दूर हो गई कुछ सबसे जरुरी चीजें. सवाल है कि क्यों कुछ सबसे जरुरी चीजें पहुँच से दूर होती गई. एक आम मध्यवर्गीय जीवन की जरूरतों को पूरा करने वाली व्यवस्था में भी यदि घर और जरुरी चीजें सिर्फ सपनों के ही भरोसे रहे तो एक नागरिक होने के नाते इस व्यवस्था पर सवाल उठाना हमारा नैतिक कर्तव्य है. कोईचंद रुपयों की खातिर कत्ल कर दे रहा है तो कोई कर्ज के चलते आत्महत्या कर ले रहा है. आलोक धन्वा कहते हैं कि इस आधे अँधेरे समय में हत्याएं और आत्महत्याएं एक जैसी रख दी गई है. कवि और हर संवेदनशील आदमी को इनके बीच फर्क करना होगा. आज एक ऐसी व्यवस्था हमारे हिस्से आन पड़ी है जिनमे ‘समझदारियां खोखली और बुराइयाँ एकदम सामान्य होती चली गई है’. मगर इस जीवन का क्या करें जो तमाम बुराइयों और तकलीफों को झेलते हुए लगातार आगे ही बढ़ता चला जाता है. आत्मस्वीकृतियों, पीड़ाओं और सांत्वनाओं के साथ जीने की ख्वाईश रखने वाला कवि अपने सीने  में कौन सा दर्द दबाये है इसे सिर्फ कवि ही जान सकता है या उसकी कविताओं से गुजरने वाला एक सजग पाठक. पिछली सदी में विकास के कितने दुखद परिणाम मानव जाति को भोगने पड़े हैं इसे सूचकांकों के बढ़ते-घटते ग्राफ से नहीं समझा जा सकता. नदियों, पहाड़ों और जंगलों को खो देने की पीड़ा के बरक्श समृतियों को खोने की पीड़ा कम गहरी नहीं है. अपनी एक कविता ‘सेवानिवृति’ में अविनाश एक व्यक्ति के सार्वजनिक जीवन से अवकाश के बहाने उन ब्योरों और गतिविधियों की ओर तफसील से बताते हैं जो एक नौकरीशुदा आदमी के जीवन में अनिवार्यता की तरह घटित होता है. 'भारोत्तोलन’ कविता में अविनाश खेल कोटे से नौकरी लगे एक व्यक्ति की विडंबनाओं को रेखांकित करते हैं जिसे व्यवस्था की चक्की में लगातार पीसा जा रहा है क्योंकि ‘व्यवस्था कभी भी हाथ पैरों से नहीं लडती’. समझदार बनना, संभलकर चलना और दायें-बायें देखकर चलना इस व्यवस्था को अक्षुण्ण बनाये रखता है. जो इस व्यवस्था के नियम को नहीं मानेगा वो कभी सडक किनारे, कभी पुल के उपर से, कभी सल्फास खाकर, कभी गोलियों का शिकार होते हुए व्यवस्था की चक्की से खिसका दिया जाएगा. अविनाश की नजर व्यवस्था की इन सारी दुरुह्ताओं और कारगुजारियों पर है. वे न केवल इसे प्रश्नांकित करते है बल्कि एक नई और संवेदनशील व्यवस्था की प्रस्तावना भी देते हैं. ’प्रतिभाएं अपनी ही आग में’ कविता में अविनाश क्षेत्रीयताओं और जातीयताके सवाल को बहुत ही कम मगर धारदार शब्दों में व्यक्त करते हैं. ’सफदर हाश्मी से निर्मल वर्मा में तब्दील होते हुए’ कविता में अविनाश जिन विडम्बनाओं की ओर इशारा करते हैं वे आम और औसत हिंदी जगत का यथार्थ है. सफदर को पढ़ते हुए निर्मल बने रहना हिंदी पट्टी के बुद्धिजीवियों का वो यथार्थ है जिससे लगता है कि साहित्य अंततः सिर्फ वाग्विलास का मामला भर है. मुक्तिबोध जिस अन्तःकरण के आयतन के संकुचित होने की बात करते थे वह अविनाश की कविता तक आते-आते एक कटू यथार्थ में तब्दील हो चुका है. ‘गणमान्य तुम्हारी...’ कविता हिंदी साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में व्याप्त जड़ता और मठाधीशी की न केवल बखूबी शिनाख्त करता है बल्कि एक उम्र के असंख्य पांच मिनट,गणेश और सरस्वती वन्दनाएँ, सत्कार और दो शब्द के साथ ही माइक से गायब होती आवाजों के माध्यम से एक रूढ़ होती व्यवस्था को प्राश्नंकित करती है. कहना न होगा कि हिंदी पट्टी का जो सांस्कृतिक वितान है उसकी सीमाओं को इस कविता में बखूबी और साहस के साथ रखने काम अविनाश ने किया है. ’पार’ कविता में अनुवाद की समस्या की ओर एक अलग नजरिये से देखने की कोशिश की गई है. हर बार किसी कृति का अनुवाद करते हुए सामाजिक परिवेश और यथार्थ को अक्षुण्ण रखना एक अनुवादक के लिए सहज नहीं है. इस कविता में यह तथ्य बखूबी दर्ज किया गया है. इसी तरह ‘प्रूफरीडर्स’, ’जेबकतरे’, ‘घरे-बाइरे’, ‘आफ्टर थर्ड बेल’ जैसी कविताओं में अविनाश अपनी समझ, अपनी संवेदना और अपने ज्ञान के साथ पूरा न्याय करते दिखाई देते हैं. यहाँ जिस कविता का उल्लेख मैं करना चाहूँगा वह है ‘एक अन्य युग’.अपनी इस कविता में अविनाश कहते हैं कि ‘बहुत सारे विभाजन प्रतीक्षा में हैं/ स्त्रियों को स्त्रियों में ही अलगाते हुए/बलात्कारों को बलात्कारों में ही अलगाते हुए/वंचितों को वंचितों में ही अलगाते हुए/अत्याचारियों को अत्याचारियों में ही अलगाते हुए/संकीर्णता इस कदर बढ़ी है कि संदेहास्पद हो गये हैं समूह/अब पीठ या कंधे पर कोई हाथ महसूस नहीं होता/आँखों के आगे केवल उँगलियाँ हैं उठी हुई. यह कविता आज के समय में हमारे सामने उपस्थित ‘उत्तर-सत्य’ की विकट और विकराल उपस्थिति को सामने रखती है. इस संग्रह की एक और कविता है ‘बाहर बारिश’.इस कविता में कवि कहता है कि ‘वह खुल कर रोना चाहता है/लेकिन वे जगहें नहीं हैं जहाँ खुलकर रो सकूं.’ सचमुच आज बाजार के दैत्याकार होते जा रहे स्वरुप और उसकी माया के बरक्श कितनी कम बची है रोने की जगहें. ‘विरुद्ध प्रस्थान’ कविता में कवि ने एक शिखर पुरुष के आत्मवक्तव्य को दर्ज किया है. वह पुरुष एक उम्र के साथ सब कुछ सीख लेने के भ्रम में हैं. जीवन की तमाम कारगुजारियों और गोरखधंधों में शामिल रहते हुए भी वे जीवित बने रहने के लिए वाजिब वजहों और योजनाओं के साथ अपने व्यापक वैभव में उदासीन हैं. यह कविता आज के दौर में सफलता के प्रचलित प्रतिमानो पर कुछ सवाल और कुछ टिप्पणियाँ एक साथ दर्ज करती है. ‘मुफलिसी में मुगालते’ कविता में एक महानगरीय जीवन के कोलाहल में एक संवेदनशील मनुष्य की आशंकाओं, अपेक्षाओं और नाउम्मीदियों के उतरोत्तर गहराते जाने को दर्ज किया गया है. संग्रह की अन्य कविताओं यथा ‘एक अख़बार : दस कविताएँ’ एवं ‘सात वर्ष लम्बी कविताएँ और विस्थापन का एक क्षण’ इस कठिन समय को अभिव्यक्त करने वाली वे कविताएँ हैं जिससे अविनाश का एक पूरा काव्य व्यक्तित्व उभर कर पाठकों के सामने आ खड़ा होता है. ‘अज्ञातवास की कविताएँ’ पढ़ते हुए इन पंक्तियों के लेखक को हिंदी की जिन कृतियों का सहज स्मरण हो आया उनमें विजय कुमार की ‘रात पाली’ और कुमार अम्बुज की ‘क्रूरता’ के अलावा विष्णु खरे की गद्य कविताएँ शामिल हैं. यह अविनाश की कविता की खासियत है कि वे हिंदी की इस विराट काव्य परंपराको अपने काव्य अनुभव से न केवल समृद्ध करते हैं बल्कि हिंदी की युवा कविता को एक आश्वस्ति भी प्रदान करते हैं.







प्रत्यूष चन्द्र मिश्र

पटना, ई मेल- pcmishra2012@gmail.com


कविता संग्रह - अज्ञातवास की कविताएँ
कवि – अविनाश मिश्र
प्रकाशक - साहित्य अकादमी
मूल्य - 100 रूपये

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