नियति के विरुद्ध


जब तुम विशाल सभागारों में
भाषण देते हो या
वातानुकूलित कक्ष में
सोफे में धँसकर
साक्षात्कार देते हुए कहते हो
कि नियति एक झूठ है
सब मेहनत और जज्बे से होता है
मैं भी तुम्हारे साथ
कह उठता हूं कि 
सच में नियति कुछ नहीं है
एक छलावे के सिवा

मैं चाहता हूं कि
किसान फ़सल बर्बाद होने पर
यह न कहे
कि नियति में यही बदा था
भगवान की यही इच्छा थी
उसकी जगह वह कहे कि 
तुम्हारी आग उगलती चिमनियों
एवं धुंआ छोड़ती मोटरगाड़ियों ने
उसकी फसल बर्बाद की
एसी से निकलती गर्म हवाओं ने
उसकी फसल समय से पहले सूखा दी
अपहृत पेड़-पौधों की रुलाई ने
कभी बाढ़ तो कभी सुखाड़ ला दिया
वह पेड़ों की बची टहनियों को लेकर
चढ़ दौड़े
तुम्हारे साम्राज्य पर
जमींदोज कर दे तुम्हारी चिमनियां
तोड़-ताड़ दे 
गरम हवा उगलते एसी के डिब्बों को
पंचर कर दे तुम्हारी मोटरगाड़ियों के पहिये
और अंतिम चेतावनी देकर जाए कि
तुम्हें अपने हिस्से का ही
ऐश्वर्य मिले, ठंडक मिले
अपने हिस्से की गरमी भी तुम संभालो
सूखा, बाढ़-अकाल भी

मैं चाहता हूं कि
औरतें ही सिर्फ रिश्ते न संभालें
नियति के अधीन !
न ये सोचें कि
तुम मर्दों के सुख में ही
उनका सुख है
क्यों होती रहें
तुम्हारे चाहने पर नंगी
क्यों डोलती रहें
तुम्हारे इशारों पर
सजती-संवरती रहें तुम्हारे लिए
बल्कि ये कहें कि
उनके सुख में ही
तुम्हारा सुख शेष है
बलात तुम्हारी किसी भी इच्छा पर
तुम्हारा मुँह नोच ले
और न मानने पर
चुनौती दे
तुम्हारे अस्तित्व को भी

मैं चाहता हूं कि
मजदूर कभी ये न सोचे
कि उसकी रोटी
तुम्हारी कृपा पर मिलती रही है
उसका भाग्य तुम्हारे चरणों में ही
फलता है
बल्कि ये कहे कि
तुम चोर-डकैत हो जिसने
उनके पसीने पर धावा बोला हुआ है
उनके खून से ही तुम्हारा साम्राज्य
सींचा जा रहा है
वह दौड़े अपनी नियति को दुत्कार
चढ़ बैठे तुम्हारी छाती पर
और ठोंक दे अंतिम कील।

भावना शेखर की कहानी ' वंचना '


भावना शेखर के दो कथा-संग्रह आ चुके हैं –  'जुगनी' एवं 'खुली छतरी'। कविताओं की तरह उनकी कहानियां उनके संवेदनात्मक पक्ष को व्यक्त करती हैं। समाज में फैली अव्यवस्था एवं कुरीतियों के साथ ही परंपराओं को चुनौती देती आधुनिकता उनकी नजर में हैं। उस आधुनिकता के नफा-नुकसान की वे बात करती हैं। समाज में व्यक्ति की निरूद्देश्य अंधी-दौड़ एवं विवेकहीन महात्वकांक्षा की पहचान उनकी कहानियों में होती हैं। कहानियों की भाषा सहज है जो पाठकों से अपना जुड़ाव स्थापित कर लेती हैं। पढ़ते हैं उनकी एक कहानी – 'वंचना'।

जल्दी-जल्दी नाश्ता खत्म करके नीलिमा ने पर्स उठाया, कुछ जरूरी किताबें लीं और गाड़ी की चाबी लेकर जैसे ही दरवाजे की ओर लपकी कि नौकर ने टोका–मेमसाब, दोपहर में क्या बनेगा?

नन्दू ! कितनी बार कहा है, जाते समय यह सब मत पूछा कर, एक तो मैं वैसे ही लेट हो रही हूँ...अब बच्चों से पूछ लेना, उन्हें जो खाना हो, बना देना – कहकर नीलिमा ने कलाई की घड़ी पर नजर डाली।

जल्दी-जल्दी काॅलेज पहुँची। एक बजे वाली क्लास लेकर जैसे ही घर आने को निकली कि काॅलेज से सटे बस-स्टाॅप पर खड़ी एक महिला पर नजर टिक गई। गाड़ी को ब्रेक लगाया और दिमाग पर जोर डालते ही बेसाख्ता चीख पड़ी–विशाखा ! महिला पलटी, नीलिमा गाड़ी से उतरकर दौड़ी और उससे लिपट गई।

"नीलू तू ! और यहाँ ..."

यहीं बगल वाले काॅलेज में पढ़ाती हूँ। पर तू यहां कैसे? कितने सालों बाद मिल रही है! कहाँ थी ...नीलिमा ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी।

विशाखा कुछ कहती, उससे पहले ही नीलिमा ने मोबाइल लिया और फोन करके लंच के बाद की मीटिंग में न आ पाने की असमर्थता व्यक्त की। बरसों बाद पुरानी सहेली को देखकर वह बेहद उत्साहित थी।

विशाखा ने बताया कि वह केवल एक दिन के लिए इस शहर में आई है। कोर्ट का आवश्यक काम है और सामान भी होटल में पड़ा है। पर नीलिमा कुछ सुनने को तैयार नहीं थी। विशाखा का हाथ पकड़कर उसे गाड़ी में बिठाया और गाड़ी स्टार्ट की। होटल पहुँची, विशाखा का सामान उठाया और उसे लिये-दिये अपने घर चली आई। अनुराग एक सप्ताह के लिए चेन्नई गये थे, सो विशाखा का सामान अपने बेडरूम में ही रखवा दिया।

खाना खाकर नीलिमा ने बच्चों को आवश्यक निर्देश देकर उनके कमरे में भेजा दिया। नन्दू को एक घंटे बाद काॅफी लाने का आदेश देकर विशाखा के साथ अपने कमरें में लौट आई।

...और सुनाओ, जीजा जी कैसे है? अब भी वैसे ही मस्तमौला हैं, शायरी करते हैं या रोमांस का भूत उतर गया है ....और वो तुम्हारे साथ क्यों नहीं आये। शिरीष जी का मुस्कुराता चेहरा नीलू को स्मरण हो आया।

विशाखा ने एक लंबी साँस लेकर कहा, "अब हम साथ नहीं रहते। हमारे बीच कानूनी लड़ाई चल रही है।"

सुनते ही नीलिमा सन्न रह गई – पर यह सब कैसे हो गया ?

विशाखा के दिल में जमा दुख का ग्लेशियर संवेदना की गरमी पाकर पिघल गया और सैलाब बनकर उमड़ पड़ा। दोनों हाथो से मुँह ढाँपकर वह फूटफूट कर रोने लगी। नीलू ने उसे गले लगा लिया पर उसका बाँध रोके न रूकता था। मानों अरसे से सीने में एक ज्वालामुखी धधक रहा हो। बरसों बाद उसे रोने के लिए एक कंधा मिला था। देर तक नीलू के गले से लगकर वह सुबकती रही।

नीलू विशाखा के रूदन से सहम-सी गई थी। उसने परदा गिराया और विशाखा को सुला दिया। धीरे से कमरा बन्द कर अनुराग की स्टडी में आकर बैठ गई और शून्य में ताकने लगी।

यादों की धूमिल परछाइयाँ एक-एक कर प्रकट होने लगीं। कैसे थे वो काॅलेज के दिन ? हर दिन जोश और मस्ती से भरा। नये काॅलेज में आये एक महीना हो गया था तभी एक नई छात्रा विशाखा ने क्लास में प्रवेश किया। लंबा कद, भरी हुई देहयष्टि, गेहुँआ रंग, बड़ी-बड़ी आँखे वेशभूषा से संभ्रात दिखने वाली विशाखा जल्दी ही नीलिमा से घुलमिल गई। आत्मीयता बढ़ी और दोनों पक्की सहेलियाँ बन गई।

विशाखा एक राजनेता की पुत्री थी। पिता प्रभावशाली ओहदे पर थे पर स्वभाव से बेहद सख्त और रूखे। राजनीति में दिन-रात व्यस्त रहते। उसके दोनों भाई विदेश में पढ़ते थे। प्रतिभा की कमी थी, सो पैसे के दम पर देश छोड़, विदेश में अध्ययन कर रहे थे। घर में तमाम सुविधाएँ और सत्ता का सुख था पर मन का एक कोना विशाखा ही नहीं उसकी माँ का भी खाली था। अतः जब-जब उसके मंत्री पिता दौरे पर बाहर जाते, घर में उन्मुक्तता छा जाती मानों कर्फ़्यू में ढील दी गई हो। ऐसे में मस्ती का जितना सामान जुटाया जा सकता, माँ-बेटी जुटा लेतीं। कभी पाटिल अंकल, तो कभी अय्यर साहब, कोई-न-कोई राजनैतिक सहयोगी माँ-बेटी को सैर-सपाटे या शाॅपिंग के लिए ले जाते। कभी पिकनिक तो कभी सिनेमा।

नीलू को याद है, कितनी ही बार विशाखा का फोन आने पर वह माँ की अनुमति से उसके साथ घूमने जाती। कई बार 'रीगल' या 'रिवोली' पर फिल्म देखते हुए उसने विशाखा साथ दिया था क्योंकि अपनी माँ और अंकल के साथ अकेले फिल्म देखना विशाखा को बहुत अखरता था।

बी0 ए0 का अंतिम वर्ष था। क्लास की छात्रा कुमकुम की बहन की शादी थी। आठ-दस सहेलियों ने शादी में जाने की योजना बनायी। तय हुआ कि सब एक निश्चित समय पर उसके घर पहुँचेंगे और नीलू विशाखा के घर से उसके साथ जायेगी। नीलू के घर में विशाखा की छवि बहुत अच्छी थी, अपनी मृदुल वाणी और विनम्र स्वभाव के कारण वह सबको बहुत प्रिय थी अतः नीलू के माता-पिता ने विशाखा के यहाँ जाने से बेटी को कभी नहीं रोका। विशाखा की माँ ने अपने वाॅर्डरोब से दोनों को पंसदीदा साड़ियाँ चुनने को कहा। खूब उत्साह से तैयार होकर दोनों जाने के लिए बेचैन थीं किन्तु गाड़ी का कोई पता न था। जबकि अमूमन मंत्री जी के बंगले के अहाते में हमेशा चार-पाँच गाड़ियाँ मौजूद रहतीं।

तभी एक गौरवर्ण और मंझोले कद के सज्जन पधारे और विशाखा की माँ का अभिवादन करके विशाल ड्राइंगरूम के सोफे पर बैठ गए। विशाखा ने उन्हें नमस्ते कहा और मचल कर माँ से बोली - मम्मी! जीजा जी हम लोगों को छोड़ देंगे! मैं कुछ समझ पाती, इससे पूर्व ही वे सज्जन उठ खड़े हुए और बोले–हाँ...हाँ, जरूर! कहाँ चलना है?

थोड़ी देर में हम दोनों उनकी गाड़ी में सवार हो गंतव्य की ओर जा रहे थे।
        
यह शिरीषकांत से नीलू की पहली मुलाकात थी। शिरीष बाबू बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी थे। सौम्य, शिष्टाचारी, पेशे से व्यवसायी, शौक से कवि। पिछले छः माह से विशाखा के यहाँ आते-जाते थे। मंत्री जी से सम्पर्क साधकर राजनीति में भी पैठ जमाने की कोशिश कर रहे थे।

नीलिमा और विशाखा ने एम0 ए0 में साथ-साथ दाखिला लिया। मित्रता और प्रगाढ़ हो गई। एक दिन दोनों ने देखा कि आर्ट्स-फैकल्टी के पोर्टिकों में शिरीष बाबू खड़े हैं। बोले- "किसी काम से आया था। चलो विशाखा तुम्हें घर छोड़ता चलूँ।"

विशाखा उनके साथ चली गई। कुछ दिनों बाद फिर वही हुआ। नीलू का माथा ठनका। यह बार-बार का संयोग उसके गले न उतरा। अगले दिन उसने अधिकार से विशाखा को डाँटा- ‘‘अब दोबारा तू इनके साथ नहीं जाएगी...।" पर विशाखा को नीलू का हस्तक्षेप न भाया। अब वह छिपकर शिरीष बाबू से मिलने लगी। वास्तव में वह उनसे प्रेम करने लगी थी। नीलू ने समझाने की बहुत कोशिश की क्योंकि शिरीष शादीशुदा, दो बच्चों के पिता और उम्र में विशाखा से लगभग पन्द्रह साल बड़े थे।
        
इस बीच विशाखा के घर में भी इस प्रेम-प्रसंग का विस्फोट हो चुका था। उस पर पहरे बिठाए गए, यूनिवर्सिटी आना बंद हो गया। एम0 ए0 पूर्वार्ध की परीक्षा दिलाने उसकी माँ साथ आती रहीं किन्तु शिरीष बाबू के प्रेम का जादू विशाखा के दिलोदिमाग पर ऐसा छाया कि एक सुबह तड़के चार बजे अपने बंगले की दीवार फाँदकर वह शिरीष के साथ भाग गई और एक मंदिर में जाकर माला बदलकर शादी कर ली। उसकी माँ ने रो-रोकर यह सब फोन पर नीलू को सुनाया। नीलू सकते में थी पर सखी के ऐसे अनुचित कृत्य पर शोक जताने के अतिरिक्त वह कर भी क्या सकती थी।
                 
दो-तीन महीने बाद एक दिन नीलू यूनिवर्सिटी के बस स्टाॅप पर खड़ी थी कि एक गाड़ी आकर रूकी। दरवाजा खुला और विशाखा आकर नीलू से लिपट गई। बहुत खुश थी, चहक रही थी। नीलू को खींचकर वह गाड़ी के पास ले गई। शिष्टाचारवश नीलू ने शिरीष बाबू का अभिवादन किया, और पिछली सीट पर बैठ गई। नीलू को आज भी याद है, टेप में शिरीष बाबू का वही पसंदीदा गीत बज रहा था जो पहली बार कुमकुम के घर जाते हुए भी कार में बज रहा था ! बड़े अरमानों से रखा है बलम तेरी कसम, प्यार की दुनिया में ये पहला कदम ओ ... ...। बगल में बैठी विशाखा का मन गाने की रूमानियत से सराबोर था। वह शिरीष बाबू से छेड़छाड़ भी कर रही थी पर नीलू मौन धारण किए खिड़की से बाहर देख रही थी।
       
"लगता है साली जी हमसे नाराज हैं ... शिरीष बाबू का मजाक नीलू को अच्छा न लगा।"
        
"अरे, अभी इसकी नाराजगी दूर किये देती हूँ।" विशाखा मनाने की कोशिश कर रही थी। गाड़ी रूकते ही हाथ पकड़कर उसे एक सजे-सजाए नए फ्लैट में ले गई और बोली - देख, यह है मेरा नया घर।
        
नीलू दो घंटे वहाँ रही। बातचीत से पता चला कि शिरीष की पत्नी को कैंसर है और वह मृत्युशैय्या पर है। बच्चों के भविष्य का वास्ता देकर उन्होंने तलाक के कागज भी उससे साइन करा लिए हैं। केवल आठ और दस साल के दो बच्चों की समस्या है। पर धन का तो अम्बार लगा है, सो उन्हें भी हाॅस्टल में डाल देंगे।
      
अच्छा तुझे मेरा घर कैसा लगा? यह शादी का तोहफा है इनकी तरफ से ... जिंदगी की नई खुशियां विशाखा के रोम-रोम से छलक रही थीं। उस दिन विशाखा और शिरीष बाबू से मिलकर नीलू के मन का मलाल कुछ कम हुआ था।
        
इधर एम0 ए0 खत्म करने के बाद नीलू फैलोशिप लेकर तीन वर्ष के लिए विदेश चली गई। वापस आकर अनुराग से शादी हुई और फिर इस शहर में आ बसी। विशाखा से संपर्क टूट गया।
         
आज पंद्रह वर्ष बाद यूँ विशाखा का इस हाल में मिलना...नीलू इसके आगे कुछ अनुमान लगा पाती, इससे पहले देखा कि नन्दू हाथ में ट्रे लिए खड़ा है- "मेमसाब, काॅफी।"
       
नीलू बेडरूम में आई और विशाखा को उठाकर दोनों कॉफी पीने लगी। जैसे-जैसे विशाखा ने नीलू से बिछड़ने के बाद का ब्यौरा देना शुरू किया, वैसे-वैसे शिरीष के चेहरे से झूठ और फरेब का नकाब हटने लगा। उस मक्कार ने जिस पत्नी के कैंसर की झूठी कहानी सुनाकर विशाखा को फुसलाया था, वह आज भी जीवित और भली-चंगी है।
      
"लेकिन वो तो तुम्हारे साथ उस फ्लैट में रहते थे जो तुम्हारे नाम से था।"

―"किराए का था।" विशाखा एक के बाद एक उसके छलावे का पर्दाफाश कर रही थी।
        
"हाय विशाखा! ये तूने क्या किया। आखिर तुमने बिना तलाक के कागजात देखे इतनी जल्दबाजी क्यों की?"
         
"मैं डर गई थी, डैडी तुरन्त अपने मित्र के बेटे से मेरी शादी करने का निर्णय सुना चुके थे। तू तो जानती है उनकी हर बात पत्थर की लकीर होती थी।" विशाखा की आँखे फिर छलछला उठी थीं।
         
"तो अब तू कहां रहती है?" नीलू ने पूछा।
       
"अपने दोनों बच्चों के साथ।" विशाखा बोली।

―'बच्चे?'

―"हाँ अनुज चौदह साल का है और अर्चिता बारह की। डैडी अब नहीं रहे।"

"और आँटी?" नीलू ने कौतुहलवश पूछा।

"वो अंसारी अंकल के साथ रहती हैं।"
          
नीलू को विशाखा की माँ की बात याद आई। जब उन्होंने बताया था कि अंसारी अंकल और विशाखा के डैडी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में साथ-साथ वकालत की पढ़ाई करते थे। तब की मित्रता बाद तक बरकरार रही पर जैसे-जैसे विशाखा के पिता राजनीति की सीढ़ियाँ चढ़ते गए, अंसारी से दूरी बढ़ती गई लिहाजा उनकी पत्नी से घनिष्ठता जरूर बढ़ती गई। मंत्री महोदय के सख्त और उग्र रवैये के चलते घर के सभी सदस्य, नौकर-चाकर थर-थर काँपते थे। इसी माहौल में पत्नी का हृदय अंसारी के साहचर्य में संबल खोजने लगा। अंसारी एक वकील थे और विधुर थे। विशाखा के शिरीष के साथ पलायन करने के बाद उसकी माँ भी पति का जंगल-सा एकाकी घर छोड़कर अंसारी के साथ रहने चली गई। दोनों पुत्रों ने पहले ही विदेश में विवाह कर लिया था।
         
पाँच वर्षों तक शिरीष के धोखे, मक्कारी और मारपीट के बीच झूठे आश्वासनों की डोर थामे विशाखा सब झेलती रही। एक दिन बेटे को 106 डिग्री बुखार हुआ जिसने बच्चे के मस्तिष्क पर आघात किया और अनुज अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठा। इस दुर्दिन ने असहाय विशाखा को पिता के द्वारा पर ला पटका। पिता, पत्नी के जाने से कुंठित हो गए थे। विरक्त मन और भी कठोर हो गया। उन्होंने राजनीति त्याग दी और बौद्ध धर्म अपना लिया। करोड़ों की संपत्ति बौद्ध मठों के नाम लिख दी। केवल विशाल रिहायसी इमारत जीते जी अपने पास रख छोड़ी। मरणोपरान्त उसे भी मठ की सपंत्ति घोषित करने वाली वसीयत उन्होंने जीते जी ही तैयार कर ली थी।
           
लाचार बेटी को उसके बच्चों सहित अनमने भाव से अपनी भव्य अट्टालिका में स्वीकार तो लिया, रोगग्रस्त अनुज का इलाज भी करवाया एवं बेटी को एक निजी कम्पनी में नौकरी पर लगवा दिया किन्तु बिना किसी मोह में पड़े वसीयत को जस का तस छोड़ दिया और दो वर्षों बाद चल बसे।
          
विशाखा एक किराये के मकान में रहने लगी। माँ से संपर्क बना रहा। किन्तु अंसारी अंकल इतने सक्षम नहीं थे कि विशाखा की भरपूर आर्थिक मदद करते। उनकी अपनी भी दो शादीशुदा बेटियाँ थीं। पर विशाखा अंसारी अंकल का अहसान नहीं भूलती जिन्होंने उसकी माला बदली से की गई नाममात्र की शादी को उस पंडित की मदद से रजिस्टर्ड करवा कर किसी तरह कानूनी वैधता प्रदान की। आज उसी कागज के टुकड़े के एकमात्र सबूत पर वह शिरीष से कानूनी लड़ाई लड़ रही है।
          
एक रात के प्रवास के बाद विशाखा अपने शहर लौट गई। नीलू नहीं जानती विशाखा को उसका हक मिलेगा या नहीं पर बहुत दिनों तक विशाखा के वंचनाग्रस्त जीवन की पीड़ा से विचलित रही और विश्लेषण करती रही कि ऐसा क्यों हुआ? कौन इसके लिए जिम्मेदार था - उसके पिता का कठोर स्वभाव, संस्कारों की कच्ची डोर, सत्ता का निरंकुश सुख या विशाखा के पैरों तले की फिसलन भरी जमीन या फिर उसका प्रारब्ध !
       
दो माह बाद नीलू अनुराग के साथ बैठी समाचार चैनल पर ताजा चुनाव बुलेटिन देख रही थी। तभी विजयी उम्मीदवारों की सूची में एक नाम उभरा―बरेली से लोकसभा के लिए निर्वाचित उम्मीदवार–शिरीषकांत त्रिपाठी !

संपर्क :
डॉ. भावना शेखर
ईमेल – bhavnashekhar8@gmail.com

संदीप मील की कहानी ' कोकिलाशास्त्र '


पिछली बार कब आपने कोई कहानी कहानीकार की ज़ुबानी सुनी है? अगर सुनी है तो क्या उनकी कहानी में 'किस्सागोई' अथवा 'कहन' अस्तित्व में थी। मुझसे अगर पूछेंगे तो कहूंगा―हां, मैंने सुनी है...वो भी पहली बार, लोकविमर्श के बांदा शिविर में संदीप मील की कहानी 'कोकिलाशास्त्र' का उनके द्वारा प्रवाहमय वाचन ! यह शिविर की प्रमुख उपलब्धियों में थी। अब आगे आप खुद सोचिये–एक पाठक होने के नाते आप क्या करेंगे? आप ठीक सोच रहे हैं, वही मैंने भी किया। तुरंत 'लोकोदय प्रकाशन' के स्टॉल से संदीप मील का कहानी-संग्रह 'कोकिलाशास्त्र' खरीदा। पटना में उनका पहला संग्रह 'दूजी मीरा' भी उपलब्ध हो गया जो 'ज्योतिपर्व प्रकाशन', गाजियाबाद से प्रकाशित है।

हमारे यहां की कहानियों में किस्सागोई प्राचीन काल से चली आ रही है। विष्णु शर्मा का 'पंचतंत्र', देवकीनंदन खत्री की 'चंद्रकांता संतति' एवं कथा-सम्राट प्रेमचन्द, अमरकांत आदि की कहानियों से होती हुई यह धीरे-धीरे कमजोर पड़ती जा रही है। ऐसे में संदीप मील अपने यहाँ के ही महान कथाकार विजयदान देथा की तरह कहानियों में अपनी बोली एवं किस्सागोई के अंदाज़ में रोचकता एवं कुतूहल बनाये रखते हुए अपनी जमीन से जुड़ी जीवंत कहानियां सामने लाते हैं जिनमें समय की विद्रूपता है तो वैचारिक प्रतिबद्धता भी...टूटती हुई रूढियां हैं तो भविष्य के संकटों की आहट भी साफ-साफ सुनाई देती है। ये क्या ! मैं ही कहता जा रहा हूं। आप खुद ही पढिये मील की कहानी 'कोकिलाशास्त्र' और अपने अनुभव बताइये क्योंकि कहानी अब बाकी बातें कहेगी




न चिड़ियों की आवाज रही और न हवा की सनसनाहट। अब न फूल खिलते हैं और न ही आंधियों में पीपल की टहनियां झुककर जमीन को सलाम करती हैं। लोगों के कानों को मोर की आवाज़ और पपीहे की किलकारी में फर्क भी पता नहीं रहा। यह भी मालूम नहीं कि वह आवाज़ किस जानवर की है लेकिन जब रात के करीब एक बजे गांव के पूर्व में एक पक्षी जैसी आवाज सुनती है तो पूरा गांव आवाज़ की दिशा में दौड़ पड़ता। पक्षी की आवाज़ का अंदाजा भी इसलिये लगाया जाता है क्योंकि यह आवाज़ इंसानों जैसी नहीं थी। गांव की सीमा पर लोगों की भीड़ लग जाती लेकिन पक्षी का अता-पता नहीं लगता। कहां गया होगा वह आवाज़ निकालने वाला ? 

आप सोच रहे होगें कि किसी पेड़ पर बैठ गया होगा, घने बरगद की टहनियों में छुप गया होगा ? लेकिन ऐसा किसी भी कीमत पर संभव नहीं था क्योंकि बरगद की तो छोड़िये, उस गांव में झाड़ी तक का दरख़्त नहीं था। हां, बिल्कुल बिना पेड़ का गांव था। करीब दस साल पहले गांव के दो फौजी रिटार्यड होकर आये और उन्होंने हिसाब लगाया कि एक पेड़ को पालने में दस हजार का खर्चा होता है। आमदनी कुछ नहीं। ऐसा करें कि सारे पेड़ों को काटकर बेच दिया जाये और उन पैसों को ब्याज पर दे दिया जायेगा तो हर महीने गांव के प्रत्येक परिवार को दो हजार रुपये ब्याज के मिलेंगे। पूरे गांव में घने पेड़ थे। सारे काटे गये और अब हर घर को दो हजार रुपये ब्याज के मिलते हैं। 

जब पेड़ नहीं रहे तो पक्षियों को इंसानों के घरों में कौन रहने देता ? हालांकि उस समय कुछ कबूतर के बच्चों ने इंसानों के घरों में घुसकर शरण जरुर ली थी लेकिन जब घरवालों ने देखा तो झाड़ू लेकर भगा दिया और इस प्रकार गांव से अंतिम परिंदों की भी विदाई हो गई। गावं के लोग जब किसी रिश्तेदारी में बाहर जाते हैं तो बड़े चाव से पक्षियों को देखते हैं। जो बच्चे गांव से बाहर नहीं गये, वे सिर्फ किताबों में तोता-मैना देख पाते हैं। 

तो साहब, रात को एक बजे वह आवाज़ सुनते ही गांव के मर्द-औरत सब के सब दौड़ पड़ते पूर्व की ओर। गांव के अंतिम छोर पर कानाराम का मकान था, वहां आकर भीड़ जमा हो जाती। इससे आगे अथाह रेगिस्तान शुरु हो जाता है। कौन जाये उन रेत के पहाड़ों पर इन अंधेरी रातों में। पूर्णिमा के दिन कुछ लोगों ने रेगिस्तान में जाने की कोशिश की लेकिन मुश्किल से दो किलोमीटर गये होंगे कि फिर उसी आवाज़ ने दस्तक दे दी और लोग दबे पांव वापस गांव की ओर...। गांव वालों के सामने सबसे बड़ा सवाल तो यह था कि यह आवाज़ किस पक्षी की है और वह इतनी तेजी से चला कहां जाता है? किसी ने नहीं देखा लेकिन लोग अपने अंदाज से उसकी रुपरेखा बना लेते। 

बसंत का कहना है कि भैंस जितना पड़ा पक्षी है और प्लेन जितनी तीव्रता से उड़ता है। एक रात उसे छत पर सोते हुये थोड़ी-सी झलक मिली थी। जबकि प्रमोद उसकी बात को सीरे से नकारता है क्योंकि उसका मानना था कि सांप जैसा कोई जीव है और आवाज़ देकर बिल में घुस जाता है। कई लोग जाहिर नहीं करते अपनी राय मगर उनकी भी एक छवि है इस अलबेले जीव की। सुमित्रा जो अतिंम बार अपने पीहर में पक्षियों को देखकर आई थी उसके दिमाग में है कि यह अलबेला हरियल जैसा होगा और बोलते ही भागकर किसी औरत की गोद में छुप जाता होगा। जब उसने यह शंका अपने पति को बताई तो उसने गांव वालों से सलाह-मशविरा करके पूरे गांव के हर घर के हर कमरे की तलाशी ली गई। लेकिन न हरियल मिली, न हरियल का कोई निशान। 

कानाराम से भी सारा गांव पूछता है कि यार, तेरे घर के पास जब बोले है तो तेरे को तो मालूम होना ही चाहिये। 

‘‘बोले तो मेरे घर के आस-पास ही है लेकिन उठकर देखता हूं तो नज़र नहीं आता। कई बार रात को जगकर भी देख लिया। पकड़ में नहीं आ रहा है।’’ कानाराम भी निराश ही था। 

पहले तो कोई उसे रास्ता तक नहीं पूछता था लेकिन बेटे की शादी के बाद हर कोई उसे पूछने लगा। एक कारण तो यह था कि बहू बला की खूबसुरत आयी थी। घूंघट के अंदर से भी चांद की तरह चमकती दिखाई देती। औरतें कहती हैं कि काना के छोरा तो घरवाली को देखकर ही जी लेगा। बुड्ढ़े बुजुर्ग भी कानाराम से मजाक के लहजे में कहते, ‘‘भाया, इस माटी की ओर छोरी है तो हम भी बुढ़ापा खराब करने को तैयार हैं ?’’

कानाराम का भी एक ही रटा-रटाया जवाब था, ‘‘इस माटी की तो यही बनी थी। अब बुढ़ापा बिगड़ने का मुझे तो कोई रास्ता नहीं दिख रहा।’’ 

बहू के कारण कानाराम की पूछ हुई लेकिन बहू के आने के कुछ समय बाद ही यह आवाज़ शुरु हुई और तब से कानाराम की बात को प्रमाणिक माना जाने लगा। गांव की सीमा पर घर उसी का था और आवाज़ भी वहीं से आ रही थी। 

एक दिन गांव वालों ने तय किया कि शाम के समय से ही लालटनें लेकर कानाराम के घर के बगल में डेरा डाल लेते हैं, आवाज़ आयेगी तो देखेंगे कि आखिर क्या बला है ? सारे गांव में इसकी जानकारी दे दी गई। बसंत ने बांस वाली लाठी ले ली थी कि देखते ही एक में ही आवाज़ बंद कर देगा। पक्षी हो या फिर कोई बला। उधर से प्रमोद ने अपने दादा की पुरानी बंदूक निकाल ली और उसमें बजरी के छर्रे भरकर चलाकर भी चैक कर लिया था। वह सोच रहा था कि बसंत की लाठी से पहले उसके दादा की बंदूक आवाज़ की बोलती बंद कर देगी। सारा गांव शाम को जल्दी ही खाना बना चुका था और दिन में लालटनों में तेल और बाती डालकर तैयार कर दिया गया था। 

यूं तो हर कोई बहादुर बन रहा था लेकिन सबके मन में यह डर भी बैठा हुआ था कि कहीं आवाज़ वाला अलबेला भैंस जितना बड़ा हुआ और प्लेन जितना तेज उड़ता होगा तो क्या किया जायेगा ? लेकिन अब तो गांव में अकेला रहना भी ठीक नहीं था। कहीं अलबेला इधर आ जायेगा तो क्या होगा ? करीब पांच बजे सारा गांव खाना खाकर चौक में आ गया था। बच्चे, बुड्ढ़े और औरतें घर में अकेले कैसे रह सकते थे। सभी आ गये। तभी बसंत ने तेज आवाज़ में कहा, ‘‘हर कोई लाठी, कुल्हाड़ी आदि हथियार ले लो। पता नहीं अलबेला क्या हो ?’’

हालांकि बसंत के कहने की ही देर थी लोगों ने पहले से ही हथियार छुपा रखे थे, तुरंत बाहर निकाल लिये। अब प्रमोद उससे पीछे कैसे रह सकता था, उसने कहा, ‘‘सब अपनी-अपनी लालटनों को भी जलाकर देखो एक बार।’’

लोगों ने दिन के उजाले में ही लालटनें जलाकर चैक की। सारी जल रही थीं क्योंकि वे पहले से ही कई बार चैक करके लाई गईं थीं। हो गये रवाना, गावं की सीमा की तरफ कह लीजिये या फिर कानाराम के घर की तरफ। ऐसा लग रहा था कि पूरा गांव उजड़कर कहीं पलायन कर रहा हो। हाथों में हथियार, दिल में जोश और जहन में डर वाली यह भीड़ आज अलबेले को देखने के लिये जा रही थी। औरतों की गोद में नन्हे बच्चे अपने रोने की आवाज़ से ही भीड़ के ज़िन्दा होने का सबूत दे रहे थे। बाकी तो सारे लोग सहमे से जा रहे थे। 

ऐसा नहीं था कि उस गांव में फिर किसी ने पेड़ लगाने की सोची भी नहीं होगी। कई लोगों ने खूब कोशिश की लेकिन सारा गांव उसे पहले तो समझाता कि देख भई, दस हजार रुपये क्यों बरबाद कर रहा है, इससे अच्छा तो यह है कि कुछ बाॅण्ड खरीद लो। या तो वह इस समझाने से मान जाता और अगर नहीं मानता तो गांव वाले तुरंत धमकी देते कि तेरे घर के दो हजार बंद कर दिये जायेंगे। इस धमकी को लांघने की कोशिश किसी ने नहीं की। पिछले दस सालों में भेड़-बकरी गांव में आधे हो गये हैं। बरसात के समय हरी घास मिल जाती है लेकिन बचे आठ महिनों की मुश्किल नहीं कटती है। खरीदकर चारा डालने से सस्ता तो यह है कि शहर से सूखे दूध का डिब्बा ले आते हैं और आजकल अधिकांश घर सूखे दूध पर ही जीते हैं। 

कानाराम भी एक दिन बकरी बेचने के लिये कसाई को बुलवा लिया था लेकिन बहू ने मनाकर दिया। वह बोली, ‘‘आपके ज्यादा ही भूख आ गई है तो मैं कुछ काम कर लूंगी लेकिन चाय घर में बकरी के दूध की ही बनेगी।’’

पहले तो कानाराम को बहू की यह बात अजीब लगी लेकिन फिर उसे भी बकरी के दूध की चाय का स्वाद याद आ गया। 

सूर्य अस्त होने से पहले तो गांव की सीमा पर खूब आवाजें आ रहीं थीं लेकिन अंधेरा होते ही लोगों ने लब बंद करना शुरु कर दिया। सारे लोग एक-दूसरे से चिपककर बैठ रहे थे। बसंत ने खड़े होकर कहा, ‘‘डरने की बात नहीं है। अलबेला गांव में घुसकर भी तो खा सकता है। सारा गांव है, पछाड़ लेंगे।’’ उसकी बात से लोगों में कुछ विश्वास का संचार हुआ कि तभी प्रमोद ने भी ऐलान कर दिया, ‘‘बंदूक देख रहे हो, लग जाती है तो पत्थर में भी छेद कर सकती है।’’

‘‘अबे! बजरी के छर्रे से कभी पत्थर में छेद हुआ है। मूर्ख बनाता है।’’ बसंत से रहा नहीं गया। 

‘‘ले तेरे को अभी बताता हूं।’’ प्रमोद उसकी तरफ लपका कि लोगों ने पकड़ लिया। 

फिर बुजुर्गों ने समझाया, ‘‘यह लड़ाई का वक्त नहीं है, पूरे गांव पर संकट है। मिलकर लड़ना होगा और प्रमोद की बंदूक से पत्थर में छेद तो नहीं हो सकता लेकिन जानवर तो मर ही जायेगा।’’ 

औरतों ने डर को दूर करने के लिये कुछ बातें शुरु कर दी क्योंकि गांव वालों की हिदायत थी कि दस बजे के बाद कोई आवाज़ नहीं निकालेगा। हर इंसान चैकन्ना रहेगा और चारों तरफ नजरें रखो। लालटनें जल रही थीं और सहमे चेहरे दिल बहलाने को कुछ होठ हिला रहे थे। क्या बात की जाये ऐसी स्थिति में। कोई बात उपज ही नहीं रही थी, फिर भी कुछ बोलने से ध्यान बंटता है और डर कम होता है। इसी सोच से लोग बिना मतलब की बातें ही कर रहे थे। पानी की तीन टंकियां रखी गईं थीं और लालटनों में डालने के लिये तेल की दो टंकियां भी थीं। 

औरतों के पास बात करने का एक ही मजेदार टाॅपिक था और वह थी कानाराम के बेटी की बहू सरिता। वह भी अपनी सास के साथ आ गई थी। जब सारा गांव सीमा पर था तो सरिता घर में अकेली कैसे रह सकती थी। औरतें उसके हुस्न की तारीफ करती थक नहीं रही थीं। अब नई बहू थी तो सरिता तो कम ही बोल रही थी, गर्दन हिलाकर या मुस्कान से काम निकालती। उसकी सास शारदा बड़ा सीना चौड़ा करके बहू की तारीफ कर रही थी और चैलेंज भी कर रही थी कि इतनी सुन्दर बहू सारे जिले में नहीं आयी होगी। गांव की औरतों को मानना भी पड़ रहा था क्योंकि उनके पास इस बात को काटने का कोई उदाहरण नहीं था। हालांकि अधिकांश औरतें मन ही मन में जल भी रही थीं। शारदा ने उन्हें यह भी बताया कि एक दिन उसका पति कसाई को बकरी देने के लिये ले आया था लेकिन सरिता ने मना कर दिया। वह बकरी के दूध की चाय ही पीती है। यहां तक तो ठीक था लेकिन जब शारदा ने जोश में आकर यह कहा, ‘‘सरिता अगली बारिश में नीम भी लगायेगी आंगन में, गांव वाले चाहे तो दो हजार बंद कर दें।’’

ज्यों ही ये शब्द शारदा के मुंह से निकले तो औरतों की सांस गले में आ गई। एक के मुहं से तो अचानक ‘ओ...’ निकल गया। 

पास में बैठे मर्द यह ‘ओ....’ सुनते ही तुरंत लाठी-कुल्हाड़ी लेकर खड़े हो गये, ‘‘किधर है.....किधर है....।’’

‘‘अरे भाई, यह अलबेले के बोली नहीं है। रोज सुनते हो, भूल गये।’’ कानाराम ने हंसते हुये कहा। 

सारे लोग तुरंत शांत हो गये। उन्हें कानाराम की बात बिल्कुल लाख टके की लगी। वैसे भी आजकल उसकी बात का खूब सम्मान किया जाता है। लगभग छोटे बच्चे सो गये थे और जो कुछ समझदार थे वे डर के मारे मांओं की गोद में दुबककर सोने का नाटक करने लगे। 

उधर मर्दों के खेमे में भी कुछ खास बातें नहीं हो रही थी। कुछ नौजवान सरिता के पति धर्मेंद्र से मजाक कर रहे थे। उसकी पत्नी को लेकर छोरे बड़े ही उत्साहित थे। कोई पूछ रहा था कि चेहरा कैसा है, कोई गर्दन का नाप और लम्बाई जानने की कोशिश में था। जो धर्मेंद्र के ज्यादा नजदीक थे वे कमर तक या उससे नीचे की जानकारियां भी लेने की फिराक में थे। लेकिन वह कोई भी उत्तर नहीं दे रहा था। बिल्कुल डरा हुआ-सा लग रहा था। कुछ छोरों ने सोचा कि शायद अलबेले के कारण डर रहा है। सच्चाई यह है कि वह शादी के बाद यूं ही रहने लगा है। कई दोस्तों ने पूछा कि यार, इतनी सुन्दर पत्नी के बाद भी उदास रहोगे तो कैसे काम चलेगा। वह किसी को अपना दुख नहीं बता सका। 

अब रात के दस बजने वाले थे और उसी के साथ शुरु होना था चुप्पी का वह दौर जो अंदाज ही नहीं था कि कब टूटेगा। जब दस बजने में करीब दस मिनट रहे तब प्रमोद ने ऐलान कर दिया कि सारे लोग पानी पीकर तैयार हो जायें। अलबेला बोलेगा तो एक बजे लेकिन हमें अभी से उसकी निगरानी रखनी होगी। बसंत भी कहां पीछे रहने वाला था, उसने भी लालटनों का तेल संभालने और हथियारों को हाथ के नीचे करने की सलाह दे डाली। 

लालटनों में तेल शाम को ही भरा गया था लेकिन जो बूंदे इस दौरान जली, वे भी दोबारा भर दी गईं। अपने लाठी-कुल्हाड़ी तो लोग पहले से ही हाथ में लिये हुये थे। पानी भी बिना प्यास के ही दो-दो घूंट सबने पिया क्योंकि डर के मारे लोगों के कंठ सूख रहे थे। और यह लो बज गये दस!

किसी ने एक आवाज दी, ‘‘तैयार....।’’

चारों और खामोशी थी। हवा चल रही थी या नहीं, इसका तो पता नहीं क्योंकि इस गांव में दरख़्त तो थे नहीं कि पत्ते हिलें और लोग हवा की तीव्रता का अंदाज़ा लगायें। वैसे सबको गर्मी लग रही थी। डर के कारण या हवा बंद थी, कौन जाने! 

लालटेन की रौशनी में अंधेरी रात में सैंकड़ों सिर नज़र आ रहे थे और कुछ लोगों की अंधरे में चमकती हुई आंखें भी दिखाई दे रही थी। कभी किसी औरत की चूड़ी खनकने की आहट होती तो लोगों की सांसे थम-सी जातीं। पूरे परिवेश पर अलबेला छाया हुआ था। ज्यों-ज्यों घड़ी की सूईयां घूम रही थी, लोगों की सांसें भी तेज हो रही थी। सब पसीने से तर-ब-तर। कंठ सबके सूख गये थे लेकिन पहले जाकर टंकी से पानी पीने की हिम्मत किसी की नहीं हो रही थी। होठों पर जीभ फेरकर कुछ नमी लेने की कोशिश कर रहे थे। 

तभी एक बच्चे के रोने की आवाज़ ने इस खामोशी को तोड़ा। उसे शायद भूख लगी थी। बच्चे के मुंह से एक किलकारी ही निकली थी कि तुरंत उसकी मां ने मुंह में स्तन दे दिया। वह दूध पीने लगा और लोग अपनी धड़कनों को ठिकाने पर लाने की बेमतलब कोशिश कर रहे थे क्योंकि आज ये धड़कने ठिकाना छोड़ चुकी थीं। 

अब करीब ग्यारह बज चुके थे। लोगों का गला और धीरज जवाब दे चुका था। तभी प्रमोद ने अगला आदेश दिया, ‘‘पांच मिनट में सब लोग पानी पीकर वापस अपने स्थान पर आ जायें। हो-हल्ला नहीं करना है।’’

‘‘सारे लोग एक साथ पानी नहीं पीयें। कुछ लोग रखवाली पर रहें।’’ बसंत ने अगला आदेश देना जरुरी समझा। 

औरतें और मर्द पानी पीने के लिये उठे। वे कुछ बातें भी करना चाहते थे लेकिन दिल और ज़बान दोनों साथ नहीं दे रहे थे। फिर भी हल्का होने के लिये कुछ खुसर-पुसर शुरु कर दी। पानी गले से नीचे उतरा तो गला तो गिला हुआ लेकिन दिल का चैन तो उस अलबेले की आवाज़ के नीचे दबा था। कुछ औरतों ने अपने बच्चों के होठ भी गिले किये। लोग वापस आकर अपने स्थान पर जम गये थे। वैसे ही सन्नाटा छा गया था। कुछ लोग आंखों के इशारों से कुछ बातें जरुर कर रहे थे। इस पूरे हुजूम में सरिता के चेहरे पर किसी प्रकार की सिकन नहीं थी। हालांकि प्रसन्नता का भाव फिर भी नहीं झलक रहा था। 

आज वक्त जैसे रुक-सा गया हो। एक मिनट सदियों जितनी लम्बी हो रही है। बुजुर्गों को थकान महसूस हो रही थी और वे लोगों की नज़रें चुराकर झपकियां मार लेते क्योंकि उनका मानना था कि अब जीवन के अंतिम छोर पर अलबेला से डरने का मतलब नहीं है, यूं ही किसी रोज चुपके से चले जाना है। गांव वालों के साथ आने का इतना-सा मकसद था कि घर में रुक गये और बीमार हो गये तो कोई सम्भालने वाला ही नहीं होगा। अलबेला पकड़ में आ जायेगा तो उसका परिवार भी सुरक्षित रहेगा। 

कानाराम को भी डर नहीं लग रहा था क्योंकि अलबेला रोज़ ही उसके घर के बगल में बोलता है। आज तक इंसान की तो छोड़िये, बकरी के बच्चे तक का नुकसान नहीं किया। फिर डर किस बात का! उसे तो जब भी अलबेला बोलता है तो ऐसा लगता है कि यह आवाज़ बहुत जानी पहचानी है और उसके दिल के करीब है। फिर वह सोचता है कि उसने तो करीबन सात सालों से किसी पक्षी को बहुत नज़दीक से देखा तक नहीं है, आवाज़ दिल के करीब कैसे हो सकती है ? यूं ही इसे बेहुदा ख्याल मानकर नज़रअंदाज़ कर देता है। 

अंतिम बार वह जब शहर गया था तो वहां पर एक मोर देखा था। बहुत खूबसूरत था। वैस ही था जैसी उसने अपने घर में मोर की तस्वीर लगा रखी थी। काफी देर तक कानाराम मोर को निहारता रहा, इतनी देर तक निहारा कि गांव जाने वाली बस निकल गई और फिर शहर से जीप किराये करके आना पड़ा। जीप वाले को घर आकर कानाराम ने पांच सौ रुपये किराये के दिये तो सारा घर उस पर पिल पड़ा और तभी से उसका शहर जाना बंद कर दिया गया। खरीददारी अधिकांश तो गांव में ही हो जाती थी लेकिन कुछ सामान के लिये शहर जाना होता था। उस दिन के बाद धर्मेंद्र शहर की खरीददारी के लिये जाने लगा और कानाराम ने सात साल से कोई पक्षी नहीं देखा। वह तो चाहता था कि यह अलबेला कैसा भी हो, एक बार सामने आये तो कम से कम पक्षी को तो देखा जा सके। 

पता नहीं ऐसा भी क्या हुआ कि पेड़ काटे जाने के दो तीन साल बाद बारिश में आने वाले पतंगें भी बंद हो गये। आसमान में कभी कुछ उड़ता हुआ नहीं देखा गया सिवाय प्लेन और कुछ पोलथिनों के। आप गांव का नाम भी पूछ सकते हैं जो अभी तक नहीं बताया गया है। गांव का नाम नीमागढ़ था और यह नाम भी इसलिये रखा गया था कि किसी जमाने में यहां बहुतायत में नीम के विशाल पेड़ थे। अब नीम की एक पत्ती भी नहीं है यहां। गांव के नाम में और पुराने लोगों की यादों में नीम है। 

यह लो ! बारह भी बज गये और आवाज़ नहीं आयी। कुछ लोगों ने घर चलने की बात कही तो खामोशी फिर टूटी। कई लोग इसके पक्ष में थे कि थक चुके हैं, घर चलना ही मुनासिब है। बहुत से लोगों ने कहा कि जब रात बर्बाद कर ही चुके हैं तो अब एक बजे का इंतजार करना ही चाहिये। रोज-रोज का झंझट हो गया है, जो बला है आज देख लेंगे। 

सरिता बैठी-बैठी थक चुकी थी और पेशाब भी लग चुका था। हालांकि पेशाब तो बहुत से मर्दों और औरतों को लगा था लेकिन डर के मारे किसी की अकेले जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। पेशाब दबाकर बैठे थे सारे लोग। सरिता अकेली ही पेशाब करने के लिये भीड़ की उत्तर दिशा में निकली। उसकी सास को एक बार तो अजीब-सा लगा की बहू सबके सामने अकेले ही पेशाब करने जा रही है। लेकिन फिर उसे फक्र हुआ कि बहू इतनी निडर है कि जिस समये तीसमार खां भी पेशाब दबाये बैठे हैं, वह अकेली जा रही है। 

‘‘गिलगिलगिलगिलगिलगिल...........।’’

‘‘अरे...बोल गया अलबेला...देखो किधर है।’’ भीड़ में आवाज़ सुनते ही भगदड़ मच गई थी। लोग इधर-उधर अलबेला को खोजने की बजाय एक दूसरे से चिपक रहे थे। सरिता भी भागकर भीड़ में शामिल हो गई। प्रमोद ने चुपके से बंदूक फैंक दी थी। बसंत की लाठी भी मालूम नहीं कहां गायब हो गई! लोगों की हड़बड़ाहट से लालटनों को ठोकरें लगीं और वे बूझ गईं। स्याह अंधेरा था और भयानक चुप्पी थी। लोगों की सांसों की आवाजें भी बगल वाले को नहीं सुन रही थीं। 

रातभर लोग वैसे ही दुबके रहे। इस अंधेरे में न घर जा सकते थे और अलबेले को पकड़ने का इरादा तो लोगों के मन से गायब भी हो चुका था। पेशाब सरिता के अलावा लगभग लोगों ने जहां बैठे थे वहीं किया। अचानक किसी के खांसने आवाज़ आ जाती तो लोगों की जान निकल जाती। हालांकि खांसने वाला, खांसी को खूब दबाता लेकिन जब बात काबू में नहीं रहती तो अंततः दो-चार आवाजें निकल ही जातीं। सरिता घर आकर मजे से सो गई थी। 

भोर को जब कुछ उजास हुआ तो लोग अपने घरों की तरफ रवाना हुये। शाम को जो भीड़ दुनिया फतह करने निकली थी, सुबह कुछ हारे हुये सिपाहियों की तरह मुंह लटकाये आ रही थी। दोपहर तक गांव में सन्नाटा रहा। सारा गांव सो रहा था क्योंकि रात की नींद और थकान से लोग टूट चुके थे। इस वाकये के बाद गांव के लोग शाम होते ही अपने-अपने घरों में कुंडी लगाकर सो जाते हैं और उसी वक्त करीब एक बजे अलबेले की वही आवाज़ आती है। डर के मारे बिस्तर में दुबके लोगों की फिर कभी हिम्मत नहीं हुई की अलबेले को देखा या पकड़ा जाये। दिन में भी किसी चर्चा में उसका जिक्र तक नहीं करते। अब कानाराम को भी कोई पूछता नहीं है कि आपके घर के ही पास बोलता है, आपने तो देखा ही होगा। कैसा है अलबेला ? 

कानाराम की उदासी भी लगातार बढ़ने लगी है। एक तो लोगों में पूछ कम होने के कारण और दूसरा बेटे की वजह से। वैसे धर्मेंद्र को हुआ कुछ नहीं है लेकिन वह शादी के बाद से बिल्कुल खामोश हो गया है। दुनिया से विरक्ति का भाव छा गया है उसके जहन में। न किसी काम में मन लगता है और न कभी हंसता-खेलता है। कानाराम ने कई बार पूछने की कोशिश की, ‘‘बहू से नहीं बनती है क्या ?’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।’’ धर्मेंद्र का एक ही जवाब होता था। 

गांव में एक नया बवाल भी हो गया है। उस दिन जब अलबेले के लिये गांव की सीमा पर डेरा डाला गया था तो शारदा ने जोश में आकर कह दिया था ना, ‘‘सरिता कहती है कि इस बारिश में आंगन में एक नीम जरुर लगायेंगे। चाहे दो हजार बंद कर दें गांव वाले।’’ 

यह बात उस दिन तो डर के माहौल के कारण औरतों के खेमे से मर्दों के पाले में जा नहीं पाई थी। कई दिनों तक अलबेले का डर इतना था कि लोगों के पास एक-दूसरे की बातें करने का साहस ही नहीं रहा। अब यह बात मर्दों के पाले में भी चली गई। फिर क्या था, सारे गांव में चर्चा होने लगी और सरिता पर तरह-तरह के ताने कसे गये। 

गांव के प्रमुख लोग इकट्ठा होकर कानाराम के घर गये। दिन के करीब बारह बजे का समय रहा होगा। ये लोग उस रात के बाद गांव की सीमा की तरफ पहली बार जा रहे थे, इसलिये मन में अलबेले का डर भी किसी न किसी कोने से बार-बार बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था। लेकिन गांव वाले जानते हैं कि यह जानवर नियम का इतना पक्का है कि दिन में नहीं बालेगा। 

कानाराम दरवाजे में बैठा चिलम पी रहा था। गांव के पटेलों का आते देखकर उसने सहज ही अंदाजा लगा लिया था कि कोई न कोई खतरा जरुर है। उसे तो यह भी जानकारी नहीं थी कि शारदा ने औरतों को नीम वाली बात बता दी है। 

‘‘राम-राम काना।’’ गोविंद पटेल ने शुरुआत की। 

कानाराम ने भी अभिवादन करके पटेलों को बैठने के लिये खाट दी। फिर उसने सरिता को आवाज दी, ‘‘बेटा, चाय बनाना। दूध वाली।’’

पटेलों ने राजी-खुशी के सामाचार पूछकर मुद्दे की बात शुरु की। उन्होंने समझाया कि काना गांव के नियमों को तो मानना ही पड़ेगा। किसी ने दस सालों में एक गुलाब नहीं लगाया और तू नीम लगाने की सोच रहा है। भई, एक नीम को पालने में दस हजार रुपये खर्च हो जाते हैं। तेरे कौन-सी आसामी लुटती है। किसी तरह अपना गुजर-बसर कर रहा है। बता, नीम से क्या फायदा होगा?

कानाराम पहले तो चुप रहा। फिर उसने कहा, ‘‘सरिता की जिद है। हमने शादी के बाद उसकी कोई बात टाली नहीं।’’

‘‘सरिता’’ का नाम सुनते ही सारे पंचों को जैसे सौ वाॅल्ट का झटका लगा हो। उन्होंने एक-दूसरे की तरफ आश्चर्यजनक भाव से देखा। उन्हें तो यह विश्वास ही नहीं हो रहा था कि इस गांव का कोई मर्द, वह भी रिश्ते में ससुर लगता हो, औरत के बारे में ऐसी बात कह सकता था। 

गोविन्द ने गहरी सांस ली और एक फिर समझाया, ‘‘देख काना, ठीक है तू बहू की बात नहीं टालता है लेकिन इस मामले में तेरा ही नुकसान है। यार, तू मर्द है और घर की सारी जिम्मेदारी तेरी है। औरतों को सर पर नहीं चढ़ाया जाता है।’’

सरिता चाय लेकर आ गई थी। सारे पटेलों को चाय दी। कानाराम ने जब कोई जवाब नहीं दिया तो गोविन्द ने कड़े लहजे में कहा, ‘‘देख काना, दो हजार रुपये बंद कर दिये जायेंगे अगर नीम लगाने के बारे में सोचा भी तो।’’

‘‘कर दो पटेलों!’’
‘‘तुम्हारे दो हजार के रहम पर जिंदा नहीं हैं। नीम तो लगेगा और इसी बरसात में लगेगा।’’ सरिता ने एक झटके में घूंघट हटाकर पटेलों को चेतावनी थी। 

घूंघट से जब चांद-सा चेहरा निकला तो पटेलों के होश उड़ गये। सरिता की सुन्दरता की उन्होंने तारीफ तो जरुर सुनी थी लेकिन बला की खूबसूरत हो सकती है, यह सपने में भी नहीं सोचा था। उनकी नजरें सरिता के चहरे से हट ही नहीं रही थीं। वे यह भी सोच रहे थे कि कानाराम उसे जोरे से डांटेगा और अन्दर जाने की हिदायत देगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वह मन ही मन में बहू की बात से खुश हो रहा था। 

चंद पलों की पटेलों की चुप्पी के बाद उनकी नज़रें सरिता के चेहरे से हटी और एक-दूसरे के चेहरे पर गईं। नज़रों से कुछ बातें हुई और फिर गोविन्द ने पहल की, ‘‘ठीक है तू नीम लगायेगा तो हमारा भी फैसला सुन ले! गांव से तेरा रिश्ता खत्म।’’

‘‘हां, बिल्कुल।’’ अन्य पटेलों ने भी समर्थन किया। 

कानाराम जो अब तक चुप था और किसी प्रकार का झंझट करने के मूड में नहीं था, उसने एक गहरी सांस ली और कहा, ‘‘वैसे भी मैं कमाकर खाता हूं, गांव वाले मेरे घर अनाज की बोरी नहीं डालकर जाते हैं। नीम तो इसी बारिश में लगेगा।’’

‘‘तू काना इस छोरी का गुलाम हो गया है। बहू की तरह रख। हमें तो कुछ गड़बड़ लग रही है।’’ गोविन्द ने गुस्से से कहा। 

‘‘सारी ही गड़बड़ है भाई। चलो अब इसके घर में बैठने तक का मतलब नहीं है।’’ सारे पटेल उठकर चल पड़े। 

कानाराम चुपचाप बैठा रहा और उन पटेलों के जाने के लिये तैयार होने पर खाट से उठा तक नहीं। इससे पटेलों का गुस्सा चरम पर पहुंच गया और उन्होंने जाते वक्त कह दिया, ‘‘नीच जात को गांव में रहने देने से यही होता है। बहुत पछतायेगा।’’

इसके बाद गांव में कानाराम के खिलाफ कई साजिश रची गईं। उससे लोगों ने बात करना तक बंद कर दिया और गांव के दुकानदारों ने सामन देना भी बंद कर दिया। हालांकि कानाराम नीम लगाने के फैसले से पहले इन खतरों के बारे में सोच चुका था। लोगों ने सरिता और कानाराम के रिश्तों के बारे में कई कहानियां बनाई। शारदा ने भी बहू का साथ दिया और अपने पीहर जाकर एक सूखी निम्बोली भी ले आई नीम लगाने के लिये। 

धर्मेंद्र अब ज्यादा खामोश रहने लगा। उसे लगातार सामान लाने के लिये गांव के बाहर शहर जाना पड़ता था। खर्चा भी ज्यादा होता और परेशानी भी। बसंत भी शहर जाता था। उसने धर्मेंद्र से दोस्ती शुरू कर दी। हालांकि इसकी भनक गांव वालों को किसी को नहीं थी। इसी दोस्ती में धर्मेंद्र को शराब पीना भी सीखा दिया। अवसाद में धर्मेंद्र को नशे की लत लग गई। 

अलबेला एक बार दिन में भी बोला। 

वही रात वाली आवाज़ और वही दिशा लेकिन इस बार आवाज़ में दर्द कुछ ज्यादा था। दिन में इसके बोलने से सारा गांव फिर डर में डूब गया क्योंकि गांव वालों के अनुसार इस जानवर ने अपना नियम तोड़ा है। कभी भी गांव में भी घुस सकता है। गांव वाले दिन में भी घरों में कुंडी लगाकर रहने लगे। सुबह दस बजे के बाद गांव में कोई नहीं दिखता है, दुकानें भी बंद हो जाती हैं। रात के खामोशी जब दिन में उतर आये तो उजाले और अंधेरे का भेद मिट जाता है। यहां भी ऐसा ही हुआ। बच्चों के स्कूल तक के गेट दिन में बंद रहने लगे। ऐसी स्थिति हो गई थी कि यहां के लोग हंसना और ठहाका लगाना भूल चुके थे। कहीं कोई आवाज़ नहीं। एक मुर्दा शांति छा गई थी। 

दिन में एक ही आवाज़ सुनती थी। कानाराम के गाने की। वह अपने दरवाजे में हारमोनियम पर भजन गाता था। बहुत सुरीली आवाज थी। गांव के कई बुजुर्गों का दिल करता था कि कानाराम के दरवाजे में जाकर भजन सुन लें लेकिन पटेलों का आदेश था कि उससे बात भी नहीं करनी है। उसके भजनों में भी मोर, पीपल, नीम और कोयल का कई बार हवाला आता तो लोग अपने जहनों में इनकी तस्वीरें बनाने लगते। 

अब धर्मेंद्र और बसंत की दोस्ती प्रगाढ़ हो चुकी थी। वे रोज शाम को कानाराम के घर के पीछे बैठकर शराब पीते। एक दिन नशे में धर्मेंद्र ने बसंत को अपना दुख सुना डाला। वैसे तो बसंत ने कई बार पूछने की कोशिश की लेकिन वह हमेशा खामोश ही रहा। 

आज कहा, ‘‘इस ब्याह ने मेरा जीवन बरबाद कर दिया।’’

‘‘क्या हुआ भाई ? इतनी सुन्दर बीवी है यार।’’ बसंत ने उसके कंधे पर हाथ रखकर दिलासा दिया।

‘‘दूर से ऐसा ही लगता है। ऐसी सुन्दरता मेरे क्या काम की। बाप समझता ही नहीं मेरा दर्द। उस हूर की परी पर ही फिदा रहता है।’’ धमेंद्र ने पैग खत्म करते हुये कहा। 

‘‘यार बुरा मानो तो कहुंगा कि तेरे बाप के इरादे मुझे ठीक नहीं लगते हैं। अपनी बीवी को समझाओ।’’ बसंत मन ही मन में उछल रहा था। 

‘‘समझाना तो तब हो जब मेरी उससे बातें हों!’’

‘‘यार बीवी से बात ही नहीं होती है! ते फिर बाकी काम......।’’

‘‘मैं डरता हूं उससे। वह रात को कहीं जाती है।’’ धर्मेंद्र इतना कहकर घर चला गया। 

आज बसंत को सारे झंझटों का एक सूत्र मिला था - वह रात को कहीं जाती है। उसने खूब सोचा कि कहां जाती होगी? पहले पहल उसे लगा कि कानाराम के पास जाती होगी लेकिन फिर उसने सोचा कि वहां जाती तो धर्मेंद्र देख लेता और डरता क्यों ? वह दूसरे दिन पूरी बोतल लेकर आया और तय समय पर कानाराम के घर के पीछे। धर्मेंद्र आज थोड़ा हल्का था क्योंकि उसने अपने दिल की बात बसंत को कह दी थी। उस बात को कह डाला था जिसे कहने की हिम्मत पांच सालों से नहीं जुटा पाया था, मां को भी नहीं बता पाया था। जबकि शारदा और कानाराम ने कई बार उसकी उदासी का सबब जाने की कोशिश की थी लेकिन धर्मेंद्र आत्मविश्वास नहीं जुटा पाया था। और उस दिन शराब की दो बूंद गटकी और उगल दिया सारा राज। दोनों ने पीना शुरु किया। दो पैग होने तक चुप्पी ही रही। चुप्पी इस गांव का चरित्र बन चुकी है, वह शराब की महफिलों से लेकर उत्सवों तक देखी जा सकती है। अगर किसी के घर में मेहमान आ जाये और वह जोर से बोल, हंसने लगे तो गांव वाले उसे आश्चर्य से देखते हैं। कई लोगों ने हंसने की कोशिश भी की लेकिन वे मात्र दांत दिखाकर रह जाते हैं, दिल और चेहरे ने हंसने की तरकीब खो दी। बच्चे भी हंसने के लिये बाथरूम का सहारा लेते हैं क्योंकि बाहर हंसने पर घरवाले डांटते हैं क्योंकि अलबेला आजकल दिन में बोलने लग गया है। 

तो साहब, बसंत ने दो पैगों के बाद चुप्पी को अलविदा कहा, ‘‘कहां जाती होगी रात को यार ?’’

‘‘पता नहीं !’’ धर्मेंद्र कोई ओर बात करना चाहता था ताकि दिल बहले। 

‘‘कितने बजे जाती है ?’’ बसंत को तो यही बात करनी थी।

‘‘करीब ग्यारह बजे और एक बजे आती है।’’ धर्मेंद्र ने अगले सवाल का जवाब भी पहले ही दे दिया। 

हालांकि शाम होने के बाद कोई घर से बाहर नहीं निकलता है लेकिन फिर भी बसंत को हमेशा डर लगता है कि कोई उसे धर्मेंद्र के साथ देख लेगा तो हंगामा हो जायेगा। आज भी उसने जल्दी ही शराब खत्म की और घर की तरफ रवाना हो गया। 
कानाराम तमाम बंधनों के बाद भी गांव वालों के सामने झुक नहीं रहा था। पटेलों ने नई तरकीब निकाली और उसका गांव के कुएं से पानी बंद कर दिया। 

‘‘अब कैसे जियेगा ? हमारे कुएं के पानी से नीम लगायेगा!’’ पटेल मन ही मन में खुश हो रहे थे। 

हालांकि यह बहुत बड़ी समस्या थी और कानाराम की आर्थिक स्थिति भी इतनी मजबूत नहीं थी कि घर में कुंआ बनवा सके। अब तो बेटा अवसाद के साथ शराब भी अपना चुका था, इससे कानाराम कुछ कमजोर हो गया था लेकिन नीम वाली बात पर अब पक्का था। और सरिता इस विश्वास में उसके साथ थी। आज जब वह पानी लाने गई तो पटेलों ने कहा, ‘‘इस कुएं से पानी नहीं भर सकती। अपना कुआं बनवाओ। बहुत अकड़ रही थी नीम लगाने के लिये।’’

और सरिता को खाली घड़ा लेकर घर आना पड़ा। जब वह दरवाजे में घुसी तो कानाराम भजन गा रहा था। सरिता उसे पूरी कहानी बताने ही वाली थी लेकिन वह खाली घड़ा देखकर सब समझ गया। 

‘‘अब तो गांव छोड़ना पड़ेगा बेटा।’’ पहली बार कानाराम आंखें डबडबाई।

‘‘गांव तो नहीं छोड़ेंगे बापू।’’ सरिता ने घड़ा कानाराम के सामने रखकर उसे दिलासा दिया।

‘‘पानी बिना कैसे जियेंगे ?’’

‘‘कुआं बनायेंगे बापू।’’

‘‘पैसा ?’’

‘‘मैं अपने गहने बेच दूंगी। आप चिंता मत कीजिये।’’ सरिता ने समाधान कर दिया। 

सरिता के इस निर्णय ने कानाराम की आंखों की सरहदे तोड़ दीं। आंसुओं की धार बही और चंद बूंद सामने रखे घड़े में भी गिरी। धर्मेंद्र का नशा नहीं उतरा था, वह सो रहा था। जाग भी रहा होता तो नीम लगाने के इस संघर्ष में उसकी कोई भूमिका नहीं होती। वह तो पूरे घर को अपना दुश्मन समझ रहा था और सरिता को एक डरावनी औरत जो पता नहीं रोज रात को कहां जाती है। 

शारदा भी दरवाजे में आ गई थी। कानाराम आंखें खाली हुई तो उसने सारी कहानी सुनाई। शारदा को आज फिर एक बार सरिता पर बेइंतिहा मोहब्बत आयी और कुएं के ख्याल से तो वह गदगद हो गई। वह सोचने लगी कि नीम का पेड़ जब बड़ा होगा तो कुएं की मुंडेर के सहारे छांव में बैठकर पोते को अफसाने सुनायेगी। 

‘‘कहां बनवायें कुआं ?’’ सरिता ने सवाल किया। 

अचानक सामने आये इस सवाल का जवाब न तो शारदा के पास था और न ही कानाराम के पास क्योंकि उन्होंने इस घर में कभी कुआ बनाने की सोची भी नहीं थी। आगे दरवाजा था, पीछे चार कमरे थे और बीच में बड़ा-सा आंगन था। आंगन के बायीं तरफ एक कच्ची टपरी थी जिसमें वह गांव की एकमात्र बकरी बंधती थी। तीनों आंगन में खड़े थे और सोच रहे थे कि कुआं कहां खुदवाया जाये?

‘‘सबसे पहले नीम की जगह तय करो।’’ शारदा ने कहा। 

यह बात उन दोनों को भी अच्छी लगी क्योंकि सारा बवंडर तो नीम के लिये ही हो रहा था। तीनों ने न जाने कितनी बार इस आंगन को देखा है लेकिन अब आंगन कुछ अलग ही नजर आ रहा है। सरिता को तो ऐसा लग रहा था कि आंगन का हर कोना कह रहा हो कि उसकी कोख में नीम लगाओ। मिट्टी का कण-कण नीम की जड़ों को संजोने के लिये लालायित हो जैसे। कानाराम को  भी पूरा आंगन हंसता हुआ नजर आया। एक बैखोफ हंसी उसकी कानों में गूंज रही थी। बायें कोने में बंधी बकरी भी मिमयाने लगी। 

‘‘नीम तो बीच में अच्छा रहेगा।’’ सरिता ने राय रखी। 

कानाराम और शारदा कुछ देर चुप रहे। उनके ज़हन में आंगन के बीच में लगे नीम की तस्वीर घूम रही थी। शारदा ने उस तस्वीर को एडिट करना शुरु किया और बकरी वाली टपरी के ठीक सामने, नीम से करीब दस फीट दूर एक कुआं बनाया। वह तेज कदमों से उस जगह जाकर खड़ी हुई जहां पर तस्वीर में अभी उसने कुआं बनाया था, ‘‘यहां बनायेंगे कुआं।’’

ख्यालों में खोये हुये सरिता और कानाराम का ध्यान अचानक शारदा की तरफ गया। कानाराम ने जूती से नीम लगाने के लिये तय स्थान पर मिट्टी पर एक गोल घेरा बनाया और फिर शारदा के पास गया। वहां कुएं के स्थान पर भी एक वैसा ही घेरा बनाया। सरिता भी पास आ चुकी थी। तीनों ने उन दोनों घेरों को काफी देर तक निहारा और फिर एक स्वर में कहा, ‘‘ये जगहें ठीक हैं।’’

कानाराम दरवाजे में आकर हारमोनियम पर वापस भजन गाना शुरु कर दिया था। आज उसकी आवाज़ में ग़म और खुशी के मिश्रित भाव थे। शारदा अन्दर अपने कमरे में गई और एक बक्सा खोला। पुराना-सा लोहे का बक्सा था। एक लाल रंग के कपड़े की छोटी-सी गठरी निकाली। गठरी में लगी हुई गांठ जकड़ गई थी, नाखूनों की कोशिश से नहीं खुल पाई तो दांतों का सहारा लिया। कितनी ही जकड़ी हो, आखिर थी तो गांठ ही। खुल गई। गांठ खुलते ही उसके सामने वे गहने थे जो उसे अपनी शादी में मिले थे और बेटे की शादी में शारदा को दे दिये थे। चंद पलों तक वह उन्हें निहारती रही। यादों के पुराने भंवर में वह जा चुकी थी जब जवानी में ये गहने पहनकर निकलती थी तो जमीं डगमगाने का अहसास होता था। धीरे-धीरे उसकी अंगुलियां उन गहनों पर फिर रही थी और फिर कुएं के पानी जैसा गीलापन महसूस होने लगा। पसीने से अंगुलियां गिली हो गई थी और आंसुओं से गाल। फिर उसने गांठ वापस दी और गठरी को वापस बक्से में रखा। चूनरी के पल्लू को गिले गालों पर फिरा रही थी कि उसे फिर एक ख्याल आया। बक्से के दूसरे कोने में हाथ डालकर एक बहुत छोटी गठरी निकाली जिसका रंग भी लाल था। गंठरी तो नहीं थी, एक गांठ दिख रही थी और यह गांठ आसानी से खुल गई। एक सूखी निम्बोली निकली जिससे नीम लगाया जाना था। सरिता चाय के लिये बकरी का दूध निकालने गई थी। उसने फिर एक बार जमीन पर बने उन गोलों को देखा। 

आज जब दिन में अलबेला बोला तो उसकी आवाज़ में ग़म और खुशी का सम्मलित भाव था। 

गांव के पटेलों को अब विश्वास हो गया था कि बिना पानी के कानाराम नहीं रह सकता है और गांव तो छोड़ना ही पड़ेगा। हेकड़ी टूटकर गले में फंस जायेगी। नीम की छांव में तो सपने में ही बैठेगा। इसी ख्याल से उनका मन किया कि जोर से हंसी का ठहाका लगाया जाये। खूब कोशिश की। दांत निकाल, होठ हिलाये और आवाज़ भी निकाली लेकिन हंसी नहीं बन पाई। 

आज जब दिन में कानाराम भजन गा रहा था, तभी अलबेला की आवाज़ सुनाई दी। सारे लोग हमेशा की भांति डरे लेकिन कानाराम का सुर वैसी ही गति से जारी रहा। पटेलों को कुछ शक हुआ कि कहीं कानाराम अलबेला को जानता होगा तो ? वह उससे पटेलों की शिकायत करे देगा तो मुश्किल हो जायेगी। दो पटेलों की राय तो यह थी कि चलकर कानाराम के पैर पकड़ लेते हैं, इस अलबेले के खतरे से बच जायेंगे। लेकिन गोविंद पटेल ने कहा कि एक नीच जाति वाले के पैरों में पड़ने की सोच भी कैसे सकते हो! चाहे अलबेला मार दे लेकिन कानाराम की अक्ल ठिकाने लाकर रहेंगे। 

अगले ही दिन कानाराम और सरिता दोनों शहर गये। गहने बेचे और कुएं खोदने वाली मशीन को साथ लिया। जब मशीन गांव में घुसी तो चारों तरफ हड़कंप मच गया। कानाराम का कुआं खुदवाना सबके लिये आश्चर्य का काम था क्योंकि गांव में मात्र एक सार्वजनिक कुआं था। बड़े-बड़े पटेलों के घर भी कुएं नहीं थे। जब गोविंद पटेल को खबर मिली तो वह इतना दुखी हुआ कि कमरा बंद करके सो गया। अन्य पटेल भी घरों में ही दुबके रहे। कुछ देर अलबेला का डर भूलकर लोग चर्चा करने लगे कि यह कानाराम तो सारे गांव के ही काबू में नहीं आ रहा है। मशीन लगी और रातभर में कुआं तैयार। गांव के बच्चों का बड़ा चाव था कि वे जाकर मशीन देखें लेकिन कानाराम के घर पर जाना तो पाबंद था। वे छतों पर चढ़कर मशीन को देख रहे थे। 

जिस दिन कानाराम के कुएं से पानी निकला, उसी दिन घटायें भी उमड़ी। तेज हवा चली और साल की पहली बारिश हुई। शाम को कानाराम दरवाजे के बाहर खाट डालकर अकेला ही बैठा और कबीर का एक भजन शुरु किया। तेज तपन के बाद पानी पी हुई धरती से एक ऐसी खुशबू आ रही थी जो रोम-रोम पुलकित कर देती है। मंद-मंद हवा भी चल रही थी, सारे बादल आसमान से जमीन पर उतर चुके थे। अनगिनत तारे दिख रहे थे और एक चांद भी। धीमी हवा की बयार में गूंजते बोल सुनने वालों की नींद उड़ा रखी थी। आज आवाज़ में कुछ ऐसा था कि गांव के कई लोगों की मोहब्बत उमड़ पड़ी थी कानाराम पर। आपको तो मालूम ही है कि पटेलों के फैसलों के आगे मोहब्बत की धज्जियां उड़ती हैं। इश्क की कद्र कातिलों के यहां नहीं होती। मन मसोस के रह गये। यूं कह सकते हैं कि कुछ गांव वाले बोलना तो ‘वाह’ चाह रहे थे लेकिन ‘आह’ भरकर रह गये। उसी समय अलबेला भी बोला। उसकी आवाज़ में भी मस्ती थी आज। 

कानाराम ने भजन गाते हुये उतना गहराई में चला गया था कि आंखें भी बंद कर ली थी। अचानक उसे अहसास हुआ कि कोई उसकी चारपाई पर आकर बैठा है। 

कौन हो सकता है ? 

क्योंकि पटेलों के हुक्म के बाद तो कोई उसके घर आता ही नहीं है। आंखें खोलकर देखा तो सरिता थी। रात के ग्यारह बजे उसे देखकर एक बार तो कानाराम का दिल दहल गया था। तभी सरिता ने कहा, ‘‘बापू बारिश तो हो गई, नीम लगायें।’’

कानाराम ने यह भी नहीं कहा कि इतनी रात को नीम लगाने की क्या जरूरत है, सुबह लगा देंगे। वह खड़ा हुआ और आंगन की तरफ चल पड़ा। आंगन के बीच में शारदा खड़ी थी निम्बोली लिये। चांद की गवाही में तीनों ने नीम लगाया।

बसंत अपने मिशन पर लग गया। एक शाम को धर्मेंद्र के साथ खूब शराब पी और उसे भी रात के लिये तैयार कर लिया। बसंत कानाराम के घर के पीछ बैठा ग्यारह बजे का इंतजार करने लगा। धर्मेंद्र रोज की तरह कमरे में जाकर चारपाई पर सो गया। सरिता भी घर का काम निपटाकर कमरे में आयी और रोज की तरह अलग चारपाई पर सो गई। धर्मेंद्र ने खर्राटे मारकर सोने का नाटक किया। करीब ग्यारह बजे होंगे कि सरिता उठकर चल पड़ी। धर्मेंद्र तो चुपके से देख ही रहा था, वह भी पीछे हो गया। घर के पिछवाड़े से निकली थी वह। बंसत भी धर्मेंद्र के साथ हो लिया। 

आगे सरिता थी और पीछे ये दोनों। वह गांव की सीमा से बाहर रेगिस्तान में घुस चुकी थी। हालांकि इन दोनों को खूब डर लग रहा था लेकिन कुछ शराब के कारण आत्मविश्वास था और कुछ सरिता के रहस्य को जानने की उत्सुकता थी। चांदनी रात थी और वे तीनों लगातार चले जा रहे थे। सरिता को मालूम नहीं था कि कोई उसका पीछा कर रहा है। 

बसंत मन ही मन में धर्मेंद्र की हिम्मत को दाद दे रहा था कि बंदा तो दिलदार है जो इतनी खतरनाक औरत के साथ रह रहा है। यह दुबला ही हुआ है, ज़िन्दा रहना मुश्किल है। रेत के टीलों पर चढ़ रहे थे, उतर रहे थे। उनके पैरों के निशान चांद की रोशनी में साफ नज़र आ रहे थे। कहीं कोई दरख़्त नहीं था और उन दोनों को तो समझ ही नहीं आ रहा था कि यह जा कहां रही है ! 

अचानक उन्हें कलकलाहट और सरसराहट सुनाई दी। कलकलाहट ऐसी थी जैसे नदी की हो और सरसराहट बिल्कुल सैंकड़ों पेड़ों के पत्ते हिलने जैसी थी। लेकिन इस रेगिस्तान के भंवर में नदी होने की तो वे सोच भी नहीं सकते थे और पेड़ बिना पानी कैसे हो पाते। तभी अचानक उन्हें चिड़ियों की चहचाहट भी सुनी। दोनों के पांव थरथराने लगे। सामने नज़र उठाकर देखा तो पहाड़-सा रेत का टिला था। वे थक भी चुके थे। हांपते हुये चढ़ने लगे। आवाजें लगातार तेज होती जा रहीं थीं। पक्षियों के साथ कुत्ते और बिल्लियों की भी आवाज़ें थीं। टीले की चोटी पर पहुंचे और सामने देखा तो पैरों तले की जमीन किसक गई हो जैसे। चारों तरफ रेत की टीले थे और बीच में घने पेड़ों का बाग। एक झरना फूट रहा था और पानी से छोटा तालाब भी बना हुआ था। उन्हें ऐसा लग रहा था कि वे किसी अज़ीब दुनिया में आ गये हैं या फिर ख्वाब देख रहे हैं। बसंत ने धर्मेंद्र को छुकर देखा तो अहसास हुआ कि ख्वाब नहीं, हकीकत है। 

सरिता के पहुंचते ही उसके चारों और पक्षियों का झुण्ड मंडराने लगा। कुत्ते भी पास आ गये। वह जाकर तालाब के किनारे बैठ गई। ये दोनों जासूस भी पेड़ों के पीछे छुपते हुये सरिता के बीस कदम दूर ओट में बैठ गये। उसके कंधे पर कोयल बैठ थी, घुटने पर कौआ था और बगल में इतने पक्षी और कुत्ते बैठे थे जैसे की संसद की कार्यवाही चल रही हो। हालांकि आज बसंत और धर्मेंद्र को कई आश्चर्य हुए लेकिन सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह था कि सरिता पक्षियों की बोली बोलती है। वह उनसे बात कर रही थी। बसंत की पेंट में तो तब पेशाब ही निकल गये थे जब सरिता ने अलबेला वाली आवाज़ निकाली। फिर वह पक्षियों की भाषा में ही गाने लगी और मोर के साथ नाची भी। सारे कारनामे देखकर वे उसके पीछे-पीछे घर आये। 

सुबह गांव में अलबेला का राज खुल गया था। पूरे गांव में सरिता की चर्चा थी। कोई उसे ‘डायन’ कह रहा था और कोई उसे ‘भूतनी’। गोविंद पटेल ने अपना ज्ञान बघारा कि पक्षी की भाषा समझने और बोलने के लिये एक शास्त्र पढ़ना पड़ता है जिसका नाम ‘कोकिलाशास्त्र’ है। इसको पढ़ने के बाद इंसान किसी भी जानवर भी बोली बोल लेता है। कानाराम की बहू ने भी यह शास्त्र पढ़ा होगा। अब तो भाई लोगो इस परिवार को गांव के बाहर खदेड़ना ही पड़ेगा। सालों तक अलबेला बनकर हमारा जीवन गंध कर दिया इस औरत ने। पता नहीं कल क्या कर दे। सारे पटेलों सहित गांव ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया। तय यह हुआ कि आज उन्हें गांव छोड़ने की चेतावनी दे देंगे और कल सुबह तक अगर गांव नहीं छोड़ा तो पूरा गांव उन्हें नहीं छोड़ेगा। 

शाम को प्रमोद जाकर कानाराम के घर कह दिया था कि ज़िन्दा रहना है तो सुबह तक गांव छोड़ दो। पटेलों का हुक्म है। 

अब क्या करें! कानाराम और शारदा खूब रोये। कहां जायेंगे!

सरिता ने हौसला बंधाया कि इसी गांव में रहेंगे और डरने की कोई बात नहीं है। हालांकि उन्हें गांव में रहना नामुमकिन-सा लग रहा था लेकिन उसकी बात पर यकीन था। खाना खाकर सब लोग सो गये। धर्मेंद्र आज भी पीकर सोया। रात के उसी वक्त सरिता उठकर चली गई और एक बजे आई। 

भोर को ही सारा गांव लट्ठ लेकर कानाराम के घर पर हमले के लिये चल पड़ेे लेकिन घर के पास पहुंचे तो गजब हो गया। कानाराम के घर पर मोर, कबूतर, कौआ, कुत्ता, बिल्ली मोर्चा संभाले हुये थे। वे गांव वालों पर टूट पड़े। अब कौए को उड़कर तो मार नहीं सकते थे और उसने चोंच से कई लोगों की आंखें फोड़ दी। भगदड़ मच गई। लोग दौड़कर अपने घरों में घुस गये। सुबह का सूरज निकला और उसी के साथ कानाराम के आंगन में नीम की पहली कोंपल भी फूटी।

संपर्क :
संदीप मील
मोबाइल – 09636036561
ईमेल –skmeel@gmail.com
ग्रा. पो. – पोसानी, 
वाया – कूदन, 
जिला – सीकर, 
राजस्थान - 302031