परितोष कुमार ‘पीयूष’ की कविताएं



परितोष कुमार ‘पीयूष’ अभी-अभी युवा हो रहे वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनके पास अपने सवाल हैं। उन सवालों के लिए जिम्मेदार परिस्थितियां उनके सामने हैं तथा परिस्थितियों के जटिलतर होते जाने के प्रति युवा मन के अंदर उपजा असंतोष है। उनकी कविता के विषयों में एक युवा होने के कारण जो ताजापन दिखनी चाहिए, वह नहीं दिखती और वे बयान का रूप लेने लगती हैं, पर वे बेहतरीन पाठक हैं और इसी क्रम में लिखते हुए अपने जमीन की तलाश कर रहे हैं। उन्हें समस्याओं को ही नहीं लिखना है वरन उनके कारणों की तह तक पहुंचना होगा, तभी उनकी मौलिकता रचनाओं में और मुखर हो सकेंगी। हम उम्मीद करें कि आगे वे अपनी रचनाओं की जमीन से और जुडें तथा उनकी बेहतरीन कविताओं से हमारी मुलाकात हो। तो, मिलिए उनकी कविताओं से।

1.मुट्ठी भर लोगों का देश!

हमारा देश कब देश हुआ के
हमारा देश कब आजाद हुआ
हमारा देश कब विकसित हुआ
हमारा देश कब लोकतांत्रिक हुआ

मुट्ठी भर लोगों का यह देश रहा
मुट्ठी भर लोगों को आजादी रही
मुट्ठी भर लोगों का विकास हुआ
मुट्ठी भर लोगों का राज रहा

मुट्ठी भर लोगों की
यह उपजाऊ भूमि रही
बीज हमारा रहा
मेहनत हमारी रही
फसल हम काटते रहे
गोदामें उनकी भरती रही

उनका ही धर्म रहा
उनकी ही सत्ता रही
उनका ही प्रशासन रहा
उनके ही फैसले रहे

मुट्ठी भर लोग तय करते रहे
हमारे आदमी होने की तमाम शर्तें
हमारे रिश्ते, हमारी संवेदनाएँ
हमारे प्रेम का समीकरण
हमारे आवाज की दिशा
हमारे मौन का वक्त
हमारे बचे रहने की आखिरी तारीख

बड़े गर्व से कहते हैं
सिर उठाकर कहते हैं
सीना तान कर कहते हैं
हमारा देश हमारा देश

पहले यह तो तय हो
कि यह देश
आखिर देश कब हुआ!


2. भूख!

इस पूरी धरती पर
भूख से बड़ी कोई सच्चाई नहीं
भूख से बड़ी कोई त्रासदी नहीं
भूख से बड़ी कोई आग नहीं
भूख से बड़ा कोई युद्ध नहीं
भूख से बड़ा कोई प्रेम नहीं

फिर भी यहाँ भूख पर
कभी कोई बात नहीं होती
भूख किसे चर्चे का हिस्सा नहीं होता
भूख किसी पर्चे में लिखा नहीं होता
भूख किसी अखबार की सुर्खियों में नहीं होता

वे भूख के कारणों को
कभी खत्म नहीं करना चाहते
असल में वे जानते हैं, कि
किस प्रकार मिटायी जाती है
भूखे की भूख

उन्होंने बखूबी सीख लिया है
भूखे का मुँह बंद कराना
उनकी बस्तियों की लकीरें
मानचित्र से मिटाना अच्छी तरह जानते हैं
वे मुठ्ठी भर लोग!

3. रोना!

एक बच्चा जब रोता है
उसके रोने की आवाज
सुनता है पूरा परिवार,
आस-पड़ोस, गली-मुहल्ला

एक जवान आदमी जब रोता है
मुँह के भीतर ही दबा लेता है
अपने रोने की आवाज
आँखों की कोर में
गालों के गलियारे में
सुखा लेता है आँसू की बूँदें

एक बुजुर्ग आदमी जब रोता है
उसकी आँखों में नहीं होते आँसू
उसका रोना नहीं सुनता है कोई
उसके अपने ही कानों तक
नहीं पहुँचती है उसके रोने की आवाज!

4. इस समय के हत्यारे!

हत्यारे अब बुद्धिजीवी होते हैं
हत्यारे अब शिक्षित होते हैं
हत्यारे अब रक्षक होते हैं
हत्यारे अब राजनेता होते हैं
हत्यारे अब धर्म गुरु होते हैं
हत्यारे अब समाज सेवक होते हैं

हत्यारे अब आधुनिक हो गये हैं
हत्यारों ने बदल लिया है हत्या को अंजाम देने के
अपने तमाम पौराणिक तरीकों को, औजारों को
अब धमकियाँ, चिट्ठियाँ, पर्चियाँ, फोन नहीं आते
पहले होती है हत्या बाद में औपचारिकताएँ

इस दुरूह समय में
हत्या यहाँ बेहद मामूली सी बात है
हत्या के पीछे कोई खास वजह नहीं होती
बात-बात पर हो जाती है हत्या
हत्या अब यहाँ चोरी छिपे नहीं होती
सिर्फ रात के अँधेरे
व सूनसानी जगहों पर ही नहीं होती
हत्या यहाँ दिन दहाड़े खुले आम
घरों, संस्थानों, महाविद्यालयों में घुसकर
अस्पतालों में हवा रोककर
रेलगाडियों से खींचकर
सड़कों चौराहों पर घसीटकर
बलात्कार के बाद योनियाँ क्षत-विक्षत कर
भीड़ में अफवाह फूँककर होती है

अपने खिलाफ उठती
हर आवाज को दबाना अच्छी तरह जानते हैं
वे बड़े ही चालाक हैं
बड़ी साफगोई से हत्या को अंजाम देते हैं
हत्या को आत्महत्या में बदलने का
हुनर भी बखूबी जानते हैं वो
बड़ी आसानी से बेकसूरों, मासूमों के नाम
देशद्रोही, आतंकवादी होने की
झूठी घोषणाएँ करते हैं
और इस प्रकार वे तमाम हत्यारे
हर बार हो जाते हैं पाक साफ!

5. वही लोग!

इन दिनों मैं हर रोज
पहले से थोड़ा अधिक
चिंतित
सशंकित
और भयभीत हुआ जाता हूँ

वे तमाम लोग
आज के कवि हैं
आज के लेखक हैं
आज के संपादक हैं
आज के बुद्धिजीवी हैं
जो हमारे बीच
हमारी ही शक्ल में
दिनरात हमें चरे जा रहे हैं

देखो यह समय की कैसी विडंबना है
वही हमारी संवेदनाएँ लिख रहे
वही हमारा पक्ष रख रहें
वही हमारे फैसले कर रहे
वही हमारा मार्ग प्रशस्त कर रहे

हाँ, वे वही लोग हैं
जो कभी
आदमी हुए ही नहीं

6. बड़ा आदमी!

बड़ा आदमी होने से
पहले जो एक शर्त होती है
आदमी होने की
वह शर्त उन्हें
हमेशा से नामंजूर रही

बहरहाल
हम उन्हें अब भी
बड़ा आदमी ही कहते हैं!

परिचयः
नाम- परितोष कुमार 'पीयूष'
जन्म- 28/10/1995
जन्म स्थान- जमालपुर (बिहार)
शिक्षा- बी०एस०सी० (फ़िजिक्स)

रचनाएँ-
विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं, ब्लागों, ई-पत्रिकाओं एवं साझा काव्य-संकलनों में कविताएँ, समीक्षाएँ, आलेख आदि प्रकाशित। कुछ प्रतिनिधि कविताएँ कविता कोश में संकलित।

संप्रति- अध्ययन एवं स्वतंत्र लेखन।
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पता-
S/o स्व० डा० उमेश चन्द्र चौरसिया (अधिवक्ता)
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पिन- 811214, जिला- मुंगेर (बिहार)