नैनीताल : ठहरा हुआ समय – दिव्या विजय


दिव्या विजय के यात्रा-संस्मरण का पहला भाग–‘रामनगर : एक निंदासा शहर’ हम सबने करीब छह महीने पहले पढ़ा था। यह संस्मरण उसकी ही अगली कड़ी है। अबकी यात्रा है नैनीताल की। दिव्या विजय की यायावरी का वृतांत पढ़ते हुए आप जगहों को देखते हुए... छोड़ते हुए आगे नहीं बढ़ते हैं, बल्कि उनके साथ ठहरते हैं। वे एक गंभीर पाठिका हैं, इस कारण उनकी घुमक्कड़ी के वर्णन में साहित्यिक सन्दर्भ आपको मिलते रहेंगे। ... और उनकी भाषा का स्नेहिल स्पर्श तो हमेशा की तरह आपको संवेदित करेगा ही। तो आइए, आगे बढ़ते है... यायावर के साथ, वह चाहे जिधर ले चले।

अगली सुबह हमें नैनीताल के लिए निकलना था. नैनीताल...जहाँ हमारे लिए ओस की बूँदों के भार से गिर गए नरगिसी फूल-सी सुबहें प्रतीक्षारत थीं. नैनीताल के लिए मन में बहुत उत्सुकता थी. आठ साल पहले जब वहाँ जाना हुआ था तब पहाड़ों पर घूमने का अधिक अनुभव नहीं था. अचानक तय हुए कार्यक्रम में रेल के रिजर्वेशन के लिए समय नहीं बचा था. दिल्ली से जो पहली बस मिली उसी में बैठकर रात भर के सफ़र के बाद नैनीताल के बस अड्डे पर दो नितांत औघड़ युवा अपने सामान के साथ खड़े थे जिन्हें नहीं पता था आगे कहाँ जाना है. टैक्सी वाला जहाँ ले जाता उसके पीछे वहीं चले जाते. हर जगह प्राकृतिक सुन्दरता से अधिक लोगों की भीड़ मिली और मिली चिल्ल-पों. लेकिन सच कहूँ तो वो उम्र ही ऐसी थी कि यह सब भी अच्छा लगता था. जिसने दुनिया न देखी हो उसे अपनी चार-दीवारी की हद के बाहर हर जगह लुभाएगी. लगभग यही हाल हमारा था. पर्यटकों की तरह घूम-घूम कर हम थक गए थे पर मन उछाह से भरा था. सात तालों में से एक ताल भी देखने से छूट न जाए इसी की चिंता थी. कहाँ नाव पर बैठे और कहाँ नहीं ध्यान बस इसी ओर था. इस ओर ध्यान ही नहीं गया था कि खाने-पीने की दुकानों पर मिलने वाले सामान के साथ नावों का रूप-रंग और नाविकों की बातों तक सब एक जैसा है. तीन दिन इन एक जैसी बातों को दोहराने की बजाय हमें नयी चीज़ों को देखना-खोजना चाहिए था. यह समझ बाद में आई और जब आई तब कितने ही स्थान नए होकर हमसे मिले. 




इस बार यात्री के रूप में हम परिपक्व थे. अपनी पसंद-नापसंद का हमें था और हम जानते थे हमें किस ओर जाना है. जहाँ नहीं मालूम था वहाँ भी भटकने का अलग आनंद था. हम इस बार ज़िम्मेदार भी अधिक थे कि बच्चे अब साथ होते हैं. हर शहर का एक फील होता है. यह अदृश्य रस्सी के समान होता है जिसे पकड़कर संतुलन साध कर हमें आगे बढ़ना होता है. सही सिरा पकड़-समझ लेने पर शहर आपके सामने वह पेश करेगा जो वह अक्सर छिपा ले जाता है. लोग आते हैं और सतह छू कर लौट जाते हैं. 




बीते सालों में कितने ही पहाड़ देख डाले हैं. पहाड़ी स्थान देखने में एक-से लगते हैं. कुछ हद तक वे एक जैसे होते भी हैं. पहाड़ों के झुरमुट में बसा एक छोटा-सा गाँव जो प्रसिद्ध होने पर शहर-सा कलेवर धारण कर लेता है लेकिन शहर होता नहीं है. वहाँ चहल-पहल होगी, भीड़ होगी, खेल-तमाशे होंगे, बड़े ब्रांड होंगे, कुछ-एक जगह मॉल भी मिलेंगे लेकिन फिर भी पहाड़ों का भोलापन बचा रहता है. यही खासियत है पहाड़ों की कि उन पर नयी चीज़ों का कितना भी बोझ लाद दिया जाए वे सब संभाल लेते हैं. उनकी रीढ़ इतनी मज़बूत होती है कि बदलाव की बड़ी से बड़ी बयार उनकी आत्मा को चोट नहीं पहुँचाती. तभी आठ साल बाद वहाँ जाने पर शहर में कुछ बदलाव भले ही आप महसूस करें पर वहाँ की हवा उतनी ही मीठी लगती है. 





पहाड़ी जगहों का कैसा जादू होता है कि घुमावदार रास्ते कहीं भी पहुँचा देते हैं. अयरपट्टा की पहाड़ियों पर स्थित ‘नैनी रिट्रीट’ का प्रवेश द्वार काफी ऊँचाई पर जाकर था. नैनी रिट्रीट जो किसी ज़माने में पीलीभीत के महाराजा का महल था..जिसे रिसोर्ट में तब्दील कर दिया गया. २००० मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह रिसोर्ट झील का, सामने की पहाड़ियों का एक सुन्दर दृश्य प्रस्तुत करता था. घंटों यहाँ बैठ कर इस सुन्दर दृश्य को देखा जा सकता था. एक रास्ता गाड़ी के लिए था और माल रोड से वहाँ पहुँचने में लगभग पंद्रह मिनट लगते थे. वहीं होटल के दूसरी ओर से एक गोल-घुमावदार पैदल रास्ता जाता था जो पाँच मिनट में माल रोड पर ला छोड़ता था. जाते वक़्त यूँ लगता फिसलते हुए नीचे पहुँच गए. आते वक़्त मालूम होता कि हम कितनी दूर आ गए हैं. आदत न होने के कारण साँस भर जाती और टकटकी लगाये ऊपर देखते कि कितना रास्ता और बचा है. रास्तों का जाल इतना सुन्दर था कि होटल के कई गलियारे उस रास्ते आ पहुँचते. जिस दिन हम पहुँचे उस रोज़ जगह-जगह बोर्ड लगे थे...पर्यटन दिवस के. उसी उपलक्ष्य में कार्यक्रम चल रहा था फ्लैट्स में. अब मुझमें उत्सुकता जागी कि जब आ ही पहुँचे हैं तो क्यों न देखा जाए. लेकिन ये फ्लैट्स किस ओर होंगे. सब ओर ढूँढ कर, कुछ लोगों से पूछ कर, जो शायद मेरी ही तरह अनजान होंगे, भी जब पता नहीं कर पाए तो स्टेडियम में चल रहे एक उत्सव में शामिल हो गए. वहाँ पहुँच कर पता लगा कि जिसे स्टेडियम कहते रहे हैं वही फ्लैट्स हैं. वहाँ दो-तीन घंटे बिताने के बाद भी उठने का मन नहीं किया. अलग-अलग राज्यों के नर्तक अपने-अपने राज्य के नृत्यों की प्रस्तुति दे रहे थे. शुरुआत उत्तराखंड के नाच से हुई थी. शब्दों का अर्थ समझ न आने के बावजूद चेहरे के भावों ने मन मोह लिया. लड़की किसी बात पर रूठी हुयी और लड़का मान-मनौव्वल करता हुआ. पहाड़ी कपड़ों में लिपटे, पहाड़ी धुन पर थिरकते स्त्री-पुरुषों पर से आँख हटाने का मन नहीं था. एक-एक कर हरियाणा, पंजाब, राजस्थान से होते हुए सारा देश नाप लिया. हरीतिमा के बीच रंगों का मेल लाजवाब था. ऊँचे-ऊँचे साल, ओक, पाइन के वृक्षों से घिरे फ्लैट्स में तेज़ धुनों पर लोकगीतों पर नाच देखना सुखद अनुभव था. अधिकतर लोग वहीं के निवासी थे. रेलिंग से सट कर कुछ सैलानी भी खड़े थे जो पाँच-सात मिनट रुक कर आगे बढ़ जाते. सैलानियों के पास कहाँ वक़्त होता है कि ठहर कर कहीं शामिल हो सकें. उन्हें भागते हुए हर वो चीज़ देखनी होती है जिसके लिए वह स्थान प्रसिद्ध है. उन्हें चिंता रहती है कि कुछ देखने से रह न जाए. यात्राएँ नए स्थानों से परिचय के साथ अपने दैनंदिन जीवन को नया सुन्दर कलेवर पहनाने का निमित्त भी बनती हैं. चिंता की गठरी बाहर आकर भी नहीं उतारी तो यात्रा का अर्थ क्या? हजारों रूपये खर्च कर आया व्यक्ति भूल जाता है कि किसी भी स्थान का निवास निर्जीव जगहों से अधिक वहाँ के लोगों में, वहाँ की कला में होता है. 




संगीत अनायास ही थम गया था. भीड़ तितर-बितर हो रही थी. उनमें से कुछ अपने घर की ओर बढ़ रहे थे, कुछ झील की ओर और कुछ दुकानों की ओर. चाट के ठेलों पर अचानक गहमा-गहमी बढ़ गयी थी. बावजूद कि वहाँ की चाट खाने लायक नहीं थी. उसमें प्रयुक्त होने वाला तेल-मसाला निहायत ही निम्न स्तर का था. लेकिन स्वास्थ्य के प्रति सचेत न खाने वाले हैं न खिलाने वाले. ख़ासकर पर्यटन स्थलों पर यह बहुतायत में देखने को मिलता है. दीवाली के आस-पास के दिन थे तो लोग अपेक्षाकृत कम थे और रोशनियाँ ज़्यादा. शहर जगमगा रहा था और चमकते जुगनुओं की परछाईं झील में दिपदिप कर रही थी. रात घिर आने पर धीरे-धीरे चढ़ाई चढ़ कर लौटना न जाने क्यों उदास कर रहा था. शहर अचानक थमा हुआ प्रतीत हुआ. शोर-शराबे, हंगामे से दूर रात्रि की नीरवता मन पर हावी हो रही थी. लौटना सदा कठिन होता है...बाहर से भीतर की ओर, प्रेम से उदासीनता की ओर और जीवन से मृत्यु की ओर. दिन में पहाड़ दिखते हैं, झील दिखती है, आसमान दिखाई देता है और रात में सिर्फ एक रंग. वह एक रंग हर रंग को ढक लेता है. उसके नीचे कितना कुछ खो जाता होगा. वह कुछ जो हम जान भी नहीं पाते. ‘नैनी रिट्रीट’ तक पहुँचते-पहुँचते कुत्तों का भूंकना सुनाई देने लगा था. ये वही कुत्ते होंगे जिन्हें सुबह देखा था. वे किसी के पालतू कुत्ते थे. बहुत मोटे, कद्दावर कुत्ते जिन्हें देखते ही भय से भर उठें. लेकिन इस समय दूर से आती उनकी आवाजें संबल प्रदान कर रही थीं कि सब कुछ थमा नहीं है. बहुत कुछ जागा हुआ है...हमारे मन की तरह. 

मौसम बेतहाशा ठंडा हो चला था. खाने के बाद सब दुबक जाना चाहते थे. कमरे की ओर बढ़ने लगे तो ‘बार’ के पास एक गायक गाते हुए दिखा. उसी ओर बढ़ चले. रात बहुत गहरी थी. छोटा-सा फ्रेंच स्टाइल का गार्डन रंग-बिरंगे छोटे लट्टुओं से जगमग कर रहा था. ठीक वहीं ‘बार’ था जहाँ से सारी घाटी दीख पड़ रही थी. बारिश के छींटे उन खिडकियों पर कुछ निशान छोड़ गए थे जो रात में भीतर से आती मद्धम रोशनी में जान-बूझकर बनाया गया पैटर्न लग रहे थे. बार खाली था. बार के बाहर बैठे उस गायक को सुनने वाला भी कोई नहीं था. चूँकि यह उसके काम का हिस्सा था वह अकेले ही पूरे मनोयोग से गाये जा रहा था. टोपी लगाकर देवानंद की तरह सर हिलाकर वह गा रहा था, 

“पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही.”

हम वहीं सामने लगी कुर्सियों पर बैठ गए. सारा होटल हरी-नीली रोशनियों से जगमगा रहा था. छोटे-छोटे लट्टुओं से जगमगाते पेड़ और सामने दूर तक फैली घाटी में कोहरे के बीच जड़ी छोटी, पीली रोशनियाँ. जैकेट पहने होने के बावजूद हवा की तेज़ी नश्तर चुभो रही थी. ऐसा महसूस हो रहा था ज्यों पिघली हुई बर्फ किसी ने भीतर भर दी हो. जो अलाव उस ओर जला रखा था, वह यहाँ क्यों नहीं जलाया. सोचते हुए हमें कुछ देर बाद भीतर जाना ही पड़ा लेकिन वह गाता रहा. अपने इकलौते दर्शक के चले जाने के बाद भी.

कोई सामने न हो तो क्या किसी की कल्पना उसे प्रेरणा देती होगी? अकेली, बर्फीली रात में बिना रुके गीत गाते जाना क्या कुछ और अकेलापन न बुन बैठता होगा. देर रात तक उसकी आवाज़ भीतर आती रही और हम गर्म कमरे में लेटे हुए बाहर की ठण्ड में वह किस तरह गा रहा होगा इसकी कल्पना करते रहे. वह बहुत सुरीला नहीं था पर नैनीताल की ठंडी रात में अस्सी के दशक के गानों के बीच माहौल रूमानी हो गया था. अगले दिन उसके चेहरे पर कुछ पढ़ने का प्रयत्न किया था पर उसका चेहरा सपाट था. उसके चेहरे का सपाटपन ही शायद हर प्रश्न का उत्तर था. बाद में मैंने जाना था कि वह शौकिया गाता है. उस रोज़ थोड़ी देर की बातचीत के बाद गीत गाते हुए उसके चेहरे पर मुस्कराहट थी. और हाँ, उसका नाम तेजिंदर है.

नैनीताल में देखने के लिए क्या है? वह नहीं जो पिछली बार देखा था या जहाँ लोग जाते हैं. मुझसे एक मित्र ने आग्रह किया था कि किलबरी ज़रूर जाना. मैंने उसकी बात मान ली थी. जाने क्यों उस जगह का नाम सुन कर टैक्सी वाले अनमने हो रहे थे. हमें बहलाने की कोशिश कर रहे थे कि वहाँ कुछ नहीं है और हमें कम कीमतों पर दूसरे पैकेज देने की चेष्टा कर रहे थे. या वहाँ जाने के इतने पैसे माँग रहे थे कि सुन कर हम खुद ही मना कर दें. किसी तरह वहाँ जाने के लिए एक टैक्सी वाले को तैयार किया. पौन घंटे की ड्राइव के बाद हम वहाँ पहुँचे तो कुछ क्षण निशब्द रह गए. वहाँ तो वाकई कुछ नहीं था. दूर तक पसरी नीरवता जिसे गाहे-बगाहे कुछ पक्षी तोड़ रहे थे. वहाँ प्रकृति थी...अपने निर्मल रूप में, रत्ती भर मिलावट नहीं. जंगल इतना घना कि दोपहर में भी सूरज को यहाँ पहुँचने के लिए मशक्कत करनी पड़ रही थी. नीचे के शोरगुल के ठीक उलट यह स्थल सिर्फ पेड़ों की सरसराहट और पक्षियों की कलरव से गुन्जायमान था. यह निर्जन स्थान थोड़ी देर को हमारी हँसी से भर गया था. 




ठण्ड इतनी कि बैग में रखी जैकेट और शॉल निकाल लेने पड़े. हम धूप का एक टुकड़ा खोज वहाँ बैठ गए. किरणें जैसे किसी प्रिज़्म से होते हुए अलग-अलग रंगों की छटा बिखेरते हुए ज़मीन चूम ले रही थी. यह आम पर्यटन-स्थलों जैसा नहीं था. यहाँ न दुकानें थीं, न पर्यटकों से कुछ खरीद लेने का आग्रह करते दुकानदार. गंदगी लेशमात्र भी नहीं. यहाँ सिर्फ वन विभाग का एक रेस्ट हाउस था जो आज़ादी के पहले से वहाँ है. उन दिनों अंग्रेज़ वहाँ ठहरा करते थे. उन लोगों ने अपनी आरामगाह के रूप में एक से एक सुन्दर जगहों का चुनाव किया है. बीहड़ वन में आकर रहने वाले वे निर्भीक लोग प्रकृति-प्रेमी भी रहे होंगें. उनके पास रोमांचक किस्सों का भी अम्बार होगा. जब हम भीतर गए तो वह बिलकुल खाली था. गार्ड रहता होगा पर उस समय नहीं था. वहाँ आने वाले पशुओं की सूची देख हमें रोमांच हो आया. एक से एक खतरनाक जीव वहाँ घूमने आते थे. उनकी तस्वीरें हम उत्सुकता से देखते रहे. तभी जैसे हवा रुक गयी. पक्षियों का कलरव भी थम गया. एक आहट, जो अभी तक हुई आहटों से भिन्न थी हमारी पीठ पीछे सरसरायी. एक झटके में पीछे मुड़ कर देखा तो कुछ नहीं था. लेकिन सामने वाली झाड़ियाँ काँप रही थीं. हमने एक-दूसरे को देखा और आँखों ही आँखों में बाहर जाने का निश्चय कर लिया. दबे पाँव हम बाहर निकल आये. बाहर आते ही ऐसा महसूस हुआ जैसे पलक झपकते ही किसी ने रिमोट कंट्रोल से दृश्य बदल दिया. जैसे किसी दूसरी दुनिया से अपनी दुनिया में लौट आये हों. कुछ क्षण पहले का डर, रहस्य सब बाहर की हवा के साथ बह गया. बाहर थीं हवा के साथ नाचती पेड़ों की शाखें और वही...छन-छन कर आती धूप. जितनी देर हम वहाँ बैठे रहे, समय रुका रहा. समय के सरकने का भान तब हुआ जब अचानक धूप के टुकड़े सरकते-सरकते इतनी दूर जा पहुँचे कि उन तक पहुँचना हमारे लिए संभव नहीं रह गया. तब भी उस जगह का मोह ख़त्म नहीं हुआ और हमने ड्राईवर से कहा कि वो मुख्य सड़क पर हमारी प्रतीक्षा करे. हम वहाँ तक पैदल चल कर पहुँचेंगे. सूखे पत्तों को चरमर की आवाज़ से भरते हुए हम देर तक वहाँ टहलकदमी करते रहे. धूप को दूर, हमसे बहुत दूर फिसलते देखते रहे. मुख्य सड़क पर पहुँच कर दृश्य फिर बदल गया था. इस बार अपनी दुनिया से उस दुनिया में लौट आना पड़ा था जहाँ होना हमारी नियति है. 

वापसी में हम माल रोड पर उतर गए. माल रोड पर किताबों की दो दुकानें दिखाई दे रही थीं. उसी मित्र का प्रेम भरा हठ था कि मैं हिमांशु जोशी का उपन्यास ‘तुम्हारे लिए’ खरीदूँ और नैनीताल में रहते हुए ही पढूँ. इस उपन्यास का अधिक भाग नैनीताल में ही घटता है. किसी स्थान को बैकग्राउंड बना कर लिखी गयी रचनाओं की सुन्दरता होती है कि वह स्थान उनमें एक मज़बूत चरित्र की तरह उभर कर आता है. लेखक ने उस स्थान को कैसे जिया-समझा-ग्रहण किया यह तो मालूम होता ही है. कई बार कुछ अनसुने स्थान भी मालूम पड़ते हैं जहाँ जाया जा सकता है. जैसे प्राग सुनकर सिर्फ निर्मल वर्मा याद आते हैं या कसप का ज़िक्र हो तो नैनीताल खुद ब खुद चला आता है. दोनों दुकानें छान मारीं पर यह किताब नहीं मिली. पता लगा कि यह किताब स्टॉक में ख़त्म हो गयी है. दुकानदार से पूछने पर उन्होंने बताया कि लोगों में पढ़ने के प्रति रूचि है और लोग खरीद कर पढ़ने के प्रति उदासीन नहीं हैं. जब मैं वहाँ थी तब भी दोनों दुकानें लोगों से भरी हुई थीं. लगभग सभी साहित्यिक पत्रिकाओं के नवीनतम अंक वहाँ चमक रहे थे. मैंने उन्हीं में से एक-दो लेकर चली आई. नैनी झील से लगती हुई है लाइब्रेरी. सोचा था वापसी में कुछ समय वहीं बैठेंगे. झील को खिड़की से तकते हुए किसी किताब में डूबे रहने का सुख वर्णनातीत होगा. पर वह लाइब्रेरी खस्ताहाल हो चुकी थी और बंद थी. किसी ने बताया जल्द ही इसकी मरम्मत की जायेगी. शायद अगली बार वह ठीक हालत में मिले. 






हम नैनी झील के किनारे-किनारे चलते रहे. सुबह तय किया था कि शाम को बोटिंग करेंगे पर अब मन नहीं रह गया था. लौटते हुए ड्राईवर ने बताया था कि हाल ही में बहुत से लोगों की मृत्यु इसमें डूबने के कारण हो गयी है. दो दिन पहले ही एक लाश निकाली गयी है. कुछ और लाशों की खोजबीन चल रही है. न, मृत्यु से डर नहीं पर मृत लोगों की देह पर उल्लास मनाना क्या निष्ठुरता नहीं होगी..बस यही सोचकर. चलते-चलते पिछली बार के शहतूत याद आये. पिछली बार झुकी कमर वाला एक वृद्ध कितनी प्रसन्नता से शहतूत पर नमक लगाकर बेच रहा था. हम दिन भर घूमने के करण थक कर बैठ गए थे और वह रात को खाना खा सकने के लिए दिन भर से खड़ा था. उस से बहुत-सी बातें हुई थीं. लेकिन इस बार कोई नमक लगाकर शहतूत खिलाने वाला नहीं मिला. आँखें उसको जानी-पहचानी राहों पर तलाशती रही थीं.




पिछली बार हर रात माल रोड पर टहलते हुए मशीन वाली कॉफ़ी पीते थे. पर अब कैसे तो उस कॉफ़ी में वो स्वाद नहीं रहा था. अब तो खैर नैनीताल में कैफ़े कॉफ़ी डे भी खुल गया है. युवाओं का जमघट वहीं लगता है. सीढियाँ चढ़ कर वहाँ पहुँचे तो झील के सुन्दर दृश्य ने फिर बाँध लिया. डूबते सूरज का प्रतिबिम्ब झील में था और सामने कोहरे में धुंधलाते पहाड़ थे. झील में बस एक-दो नाव बची थीं और थोड़ी ही देर में झील अकेली हो जाने वाली थी. हम वहीं बाहर बैठ गए. बैठते ही नज़र पड़ी लड़कियों के एक झुण्ड पर. वे किसी की ओर इशारा करती जाती थीं और हँसती जाती थीं. हँसी उनकी...कच्ची, रसपगी, उनकी उम्र-सी, हवा में तैरते हुए सब पर बिखर गयी. उनकी हँसी का स्रोत नीचे था. लड़कों की एक टोली नीचे से गुज़र रही थी. उन्हीं में एक लड़का था, किसी नायक-सा. सड़क पर भी सबकी नज़रें उस पर से हो गुज़र रही थीं. जीन्स-टीशर्ट और ढलती धूप में भी धूप का चश्मा लगाये वह लड़का जंगल की खुशबू लिए फिर रहा था. उसने भी लड़कियों को देख लिया था सो चाल ज़रा और सध गयी थी. अहा, इस उम्र का आकर्षण किसी भी युग में नहीं बदल सकता. यह उम्र लौटती नहीं है पर जीवन भर के लिए स्मृतियाँ दे जाती है. लड़के अब बार-बार पलट कर माल रोड का चक्कर लगा रहे थे और लडकियों के दल से हर बार उत्तेजना में सनी, हँसी मिली चीख सबके कानों तक पहुँचती. अपने दिनों की याद शायद वहाँ उपस्थित सभी लोगों के चेहरों पर मुस्कान ले आई थी. हमारी कॉफ़ी आ गयी थी और उन लोगों की अठखेलियों पर से ध्यान हटा हम अपनी कॉफ़ी में डूब चुके थे. सूरज झील में उतर चुका था और अचानक उस जगह का मिज़ाज पूरी तरह बदल गया. दिन भर गले में मफलर के तरह स्वेटर टाँगे रहे लोग अब उन्हें पहन कर बटन बंद करने की कवायद में लगे थे. रिक्शे वाले दिन के संभवतः आखिरी ग्राहक के साथ मोल-भाव में लगे थे. कम कीमत में उन्हें आस-पास घुमाने का प्रलोभन दे रहे थे. दिन भर घूम-फिर कर लौटे लोग अब माल रोड पर इकट्ठे हो रहे थे. वहाँ के रेस्तराओं में भीड़ अचानक बढ़ गयी थी. थोड़ी देर यहाँ रौनक रहेगी और फिर यह शहर नीरवता ओढ़ लेगा.




अभी हमें कहीं और भी जाना था...नैना देवी मंदिर. मंदिर की घंटियों का निरभ्र शब्द हम तक आ रहा था. ईश्वर को मानें न मानें यहाँ का वातावरण चित्त को शांत कर देता है. घंटियों का पावन स्वर, लहरों की उमड़-घुमड़ में मिल कर दूर तक जाता है. मंदिर के प्रांगण में एक पीपल का वृक्ष है जिसके नीचे बैठकर सुस्ता लेने का सुख त्याज्य नहीं है. सती ने शिव के अपमान पश्चात् अपने प्राण त्याग दिए थे. सती की निष्प्राण देह को शोकाकुल शिव लिए जा रहे थे. सती के अंग एक-एक कर गिरते गए. जहाँ-जहाँ उनके अंग गिरे वे स्थान शक्तिपीठ हुए. यहाँ गिरी थीं सती की आँखें. यहीं बना नैना देवी का मंदिर...नैनी झील के एक छोर पर. इक्यावन शक्तिपीठों में से एक. यहाँ देवी अपने सम्पूर्ण रूप में नहीं विराजतीं. उनके नेत्र ही यहाँ स्थापित हैं. पंद्रहवीं शताब्दी में बना यह मंदिर 1842 में भू-स्खलन के कारण उजड़ गया था जिसे स्थानीय निवासियों ने तीन साल के भीतर फिर खड़ा कर दिया. नैना देवी के प्रति अटूट विश्वास और श्रद्धा है यहाँ के लोगों में. इसी के पास ठंडी सड़क है जहाँ तापमान नैनीताल की बाकी जगहों से हमेशा कम रहता है. नैनी झील के दूसरी ओर देवदार और शाहबलूत के वृक्षों से घिरा यह रास्ता सूरज की किरणों से वंचित रहता है और इसीलिए ठंडा रहता है. यहाँ वाहन नहीं आ सकते. शहर के बीचोंबीच लेकिन शहर के कोलाहल से दूर...प्रकृति की घनी चादर से लिपटा यह रास्ता पैदल चलने वालों के लिए स्वर्ग है. 




अगली सुबह पाँच बजे उठ कर सैर पर जाना था. नींद छोड़कर उठना सबके लिए दुष्कर कार्य था इसलिए सभी आनाकानी कर रहे थे. लेकिन मैं अड़ गयी थी कि कोई नहीं जाएगा तो मैं अकेली जाऊँगी. सुबह जब मैं जागी तो वाकई सब गहरी नींद में थे. मेरे उठाने पर कमरे में कुनमुनाहट का स्वर पसर गया. देखते-देखते मेरा उत्साह सब तक पहुँच गया और धीरे-धीरे सब अपने-अपने जूतों के तस्मे कसने लगे. हम जाने लगे तो हमारे साथ होटल वालों ने एक युवक को कर दिया. उसके साथ होने से निश्चिन्तता ही थी. किसी जगह को वहाँ रहने वाले की दृष्टि से देखना अपने आप में एक अनुभव है. इस से शहर का मनोविज्ञान समझने में मदद मिलती है. वह वैसा ही था जैसे आम तौर पर पहाड़ी लोग होते हैं. सरल और निश्छल. सारे रास्ते हमारे पूछे गए प्रश्नों का उत्तर वह बिना खीजे देता रहा. अपने बारे में बताता रहा कि नैनीताल के एक कॉलेज से एम बी ए कर रहा है. फिर लॉ करने कहीं बाहर जाएगा. यहाँ रोज़गार के अधिक अवसर नहीं हैं तो नौकरी भी बाहर ही लगेगी. अंततः पहाड़ छूट जायेंगे. उसकी आवाज़ तरल हो आई. पहाड़ों से राग मैं सहज ही समझ सकती हूँ. उनके प्रति अनुराग कभी ख़त्म नहीं होता. उनसे अलग होना सरल नहीं है. दूर रह्कर भी पहाड़ मन में बसते हैं. यह लिखते हुए एक व्यक्ति याद आ रहा है. वह खुद को पहाड़ों का आदमी कहता है जबकि वह पहाड़ों में नहीं रहता. हाँ, अक्सर पहाड़ों पर जाता ज़रूर है. सैलानियों की तरह नहीं बल्कि पहाड़ों का सहोदर होकर. दूर-दराज़ कहीं गुफा खोजकर वहीं बसेरा करता है. दिन में आबादी वाले क्षेत्र में जाता है और ज़रुरत भर के काम कर लौट आता है. चाँदनी रात में किसी नदी के ऊपर चमकते चाँद की नीली तस्वीरें उसने अक्सर बाँटी हैं. रातें उसकी बाँसुरी की धुन पर बहती हैं. वह कहता है कि उसका जीवट, फौलादी मन सब पहाड़ों की देन है. 




जिस रास्ते पर वह हमें ले गया, वह रास्ता अभी अधसोया था. एक ओर ऊँचा जंगल था. दूसरी ओर शहर और झील दिखाई पड़ रहे थे. हम शहर के सामानांतर चलते रहे. जंगल हमारे समानांतर. हम तीनों के बीच अलक्ष्य दौड़ थी कि दिन पूरी तरह उगने से पहले कौन कहाँ तक पहुँचता है. शहर और जंगल हमारी तुलना में अनंत थे..समय के उस क्षण. उनका कोई गंतव्य नहीं था. शहर सोते से जाग रहा था..हलचल इतनी ऊपर से भी दिखाई दे रही थी. जंगल की खुसुर-फुसुर हमारे कानों तक पहुँच रही थी. कीट-पतंगों की आवाज़ें, पक्षियों का गान, रात भर होती रही बारिश अब भी पत्तों पर ठहरी थी..उन बूँदों का हवा से छू कर गिर जाने का शब्द जंगल वाली दिशा से आकर हमारे ऊपर गिर रहा था. यह आवाजें इतनी कोमल होती हैं कि इनको सुनना चित्त को शांत कर जाता है. आजकल ध्यान करते समय इन आवाज़ों का उपयोग किया जाता है. बाज़ार में इनकी सीडी बिकती हैं. नेट पर इन आवाज़ों के हजारों संस्करण हैं. पर असल की कितनी ही नक़ल कर लें, वह असल तो नहीं हो सकता. 



बच्चे उस रास्ते पर बिना किसी भय के दौड़ लगा रहे थे. रास्ते में जिम कॉर्बेट का बंगला दिखा...गर्नी हाउस. 1881 में निर्मित इस बंगले को आज़ादी के बाद उनकी बहन बेच कर केन्या चली गयी थी. इस बंगले का निर्माण एल्मा हिल्स में स्थित उनके पुराने बंगले के अवशेषों से किया गया था. यह इमारत ऐतिहासिक महत्त्व की है. यहाँ की अधिकतर इमारतों की तरह यह बंगला भी ‘ओल्ड वर्ल्ड चार्म’ से भरपूर है. दिन में वहाँ रहने वालों से अपॉइंटमेंट लेकर भीतर जाया जा सकता है पर अभी इतनी सुबह वह बंद था. बच्चों को पानी पीना था पर उस पूरे रास्ते में कोई दुकान नहीं थी. किसी तरह उन्हें बहला कर राजभवन के पास पुलिस कैंटीन तक ले गए. पैसे वाला पर्स जल्दबाज़ी में होटल छूट गया था. परेशानी भाँप साथ आये लड़के ने झट पैसे दे दिए. वहीं था एक छोटा सा शिव मंदिर था और ढेर सारे बंदरों की फ़ौज. लड़का बच्चों को बंदरों के पास ले गया और हाथ मिलावाया. डरते हुए बच्चे बंदरों से दोस्ती हो जाने पर खुश थे. अब बच्चों के पास एक नयी बात थी जो उन्हें लड़के ने बताई थी. यही कि कैसे बन्दर, बन्दर नहीं होते बल्कि हनुमान जी होते हैं. 

हम चलते-चलते राजभवन तक आ गए थे. बादल छोटे-छोटे गुच्छों में राजभवन की ऊँची मेहराबों पर टंगे थे ज्यों किसी ने छतरी तानी हो. फर, पांगर, काठ-कुमकुम, देवदार, सुरई और न जाने कितनी प्रजातियों के ऊँचे पेड़ राजभवन की शोभा बढ़ा रहे थे. राजभवन...उत्तराखंड के राज्यपाल का सरकारी निवास. २०५ एकड़ क्षेत्र में फैला राजभवन कला का बेहतरीन नमूना है. राजभवन का गॉथिक शिल्प उसे किसी महल-सा प्रारूप देता है. सुन्दरता में बेजोड़ और भव्यता में बेमिसाल. कहते हैं यह बकिंघम पैलेस की प्रतिकृति है. कहाँ-कहाँ से कारीगर नहीं बुलाये गए. पत्थर के काम के लिए आगरा के संगतराश आये तो लकड़ी के काम के लिए पंजाब से बढ़ई आये थे. टीक, शीशम, साल से लेकर सरू की लकड़ी तक की बुनावट है भीतर. काँच, टाइलें, तांबे की फिटिंग, लोहे के पाइप मंगवाए गए इंग्लैंड से. बाकी के साज़ो-सामान का ज़िम्मा संभाला कलकत्ता और लन्दन की कंपनी ने. विक्टोरियाई शैली में बनाया गया यह भवन, तब का गवर्नमेंट हाउस, जब तैयार हुआ तो लोग अश-अश कर उठे थे. यहाँ का विंटेज गोल्फ कोर्स दुनिया के सबसे चुनौतीपूर्ण गोल्फ कोर्स में से एक है. . यहाँ कदम-कदम पर ऐसा महसूस होता जैसे किसी और काल में आ गए हों. एक जनकथा के अनुसार राजभवन में मौजूद एक सुरंग विगत में सुल्ताना डाकू की शरणस्थली बनी थी. 

लौटते में क्राइस्ट चर्च देखा. चर्च भी ठीक इसी तरह के..मेहराबें और उन्हें धारण किये ऊँचे सुन्दर खम्भे. वापसी में सारा रास्ता बंदरों से भर गया. दोनों ओर बन्दर पंक्ति में बैठे इस तरह दिखाई दे रहे थे जैसे किसी वी आई पी की स्वागत-पाँत हो. होटल वापस पहुँच कर लडके ने हमें एक आत्मीय मुस्कराहट के साथ विदा किया. 

फिर आधा दिन साड़ियाँ देखते गुज़र गया. यह बात यहाँ लिखना इसलिए ज़रूरी लगा कि वे साड़ियाँ महज़ तन ढकने का कपड़ा भर नहीं थीं. वे कला का सुन्दर नमूना थीं. उन्हें बनाने का तरीका न सिर्फ अलग था बल्कि उन पर उकेरे गए चित्र भी लाजवाब थे. वे गुलाब, बाँस, गन्ने के तंतुओं से बनी साड़ियाँ थीं जो अपने चटक रंगों के कारण और लुभावनी हो उठी थीं. कितनी कहानियाँ उन साड़ियों पर उकेरी गयी थीं. धार्मिक आख्यानों से लेकर लोक-कथाएँ तक उन साड़ियों पर थीं. कला के सरंक्षण का यह कारगर तरीका हो सकता है. 

वापसी में टैक्सी-ड्राईवर अपनी कहानी सुनाता रहा. वह मुसलमान था. हिन्दू लड़की से विवाह किया था. घर वालों ने दोनों को घर से निकाल दिया. बड़ा व्यवसाय था लेकिन घर से मदद नहीं मिली तो टैक्सी चलाने लगा. शुरू में अजीब लगता था पर अब अच्छा लगता है. कहता था सारा नैनीताल उनकी कहानी जानता है. उनकी प्रेम कहानी तलवारों और बंदूकों के बीच से रास्ता खोज कर निकली है. घर-परिवार का कोई व्यक्ति उनसे बात नहीं करता लेकिन वे एक-दूसरे के लिए काफी हैं. 

“अब वही सब कुछ है मेरी.” उसकी बातों सुनकर मैं कहीं दूर निकल जाती हूँ...प्रेम की अनचीन्ही गलियों में. ऐसे ही लोगों के लिए फैज़ ने कहा होगा,

सभी कुछ है तेरा दिया हुआ, सभी राहतें, सभी कुल्फतें

कभी सोहबतें, कभी फुर्कतें, कभी दूरियाँ, कभी कुर्बतें

हम अपनी मंजिल तक पहुँच गए थे. पैसे लेते हुए उसने कहा,

“दो लडकियाँ हैं मेरी भी..रुखसार और गुलनार. उन्हें पढ़ा लिखा कर कुछ बनाऊंगा. वे अपनी मर्ज़ी से शादी करेंगीं तो भी हम उन्हें प्यार करेंगे.” मैं मुस्कुरा उठी.

अब इतने समय बाद नैनीताल के ज़िक्र से एक बात याद आती है, 

“आपने मल्लीताल में बाल-मिठाई नहीं खाई न? फिर क्या फायदा वहाँ जाने का. कोई बात नहीं...कभी मैं खिलाऊँगा आपको वहाँ की बाल-मिठाई..भर दोना.” 

कुछ शब्द, कुछ इच्छाएँ समय के विस्तार में खो जाते हैं. 




झील के पास वाली सड़क पर बहुत-सी बेंच हैं. पिछली दफ़ा हम देर रात तक यहाँ बैठकर मॉल रोड की रौनक देखा करते. मैं उस बेंच पर फिर कुछ वक़्त गुजारना चाहती थी लेकिन जब भी हम उस तरफ गए वहाँ कोई न कोई बैठा मिलता और मेरी इच्छा टलती जाती. कहते हैं लौट कर फिर कहीं जाने की इच्छा हो तो वहाँ अपनी कोई चीज़ छोड़ आनी चाहिए. आखिरी दिन मुझे यह बेंच खाली दिखाई दी लेकिन चाहने पर भी मैं सड़क पार कर वहाँ तक न जा सकी. बेंच पर बैठने की चाहना मैं वहीं छोड़ आई हूँ कि मैं एक बार फिर लौट कर वहाँ जा सकूँ. एक ही बार में सब कुछ ले लेने के लालच की बजाय धीरे-धीरे, कई बार में उस जगह को आत्मसात करूँगी. जब बड़ी-सी बिंदी लगाये किसी फौजी की बीवी खिलौने की दुकान पर मोल-भाव करेगी तो मैं मुस्कुराते हुए उसे एक बार फिर देख सकूँगी.


परिचय :


नाम - दिव्या विजय, जन्म - 20 नवम्बर, 1984, जन्म स्थान – अलवर, राजस्थान, शिक्षा -  बायोटेक्नोलॉजी से स्नातक, सेल्स एंड मार्केटिंग में एम.बी.ए., ड्रामेटिक्स से स्नातकोत्तर
विधाएँ - कहानी, लेख, स्तंभ

‘अलगोज़े की धुन पर’ कहानियों की पहली किताब। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे नवभारत टाइम्स, कथादेश, इंद्रप्रस्थ भारती, पूर्वग्रह, जनपथ, नया ज्ञानोदय आदि में नियमित प्रकाशन। इंटरनेट पर हिन्दी की अग्रणी वेबसाइट्स पर अद्यतन विषयों पर लेख। रविवार डाइजेस्ट में नियमित स्तंभ।

अभिनय : अंधा युग, नटी बिनोदिनी, किंग लियर, सारी रात, वीकेंड आदि नाटकों में अभिनय। रेडियो नाटकों में स्वर अभिनय। 

सम्मान - मैन्यूस्क्रिप्ट कॉन्टेस्ट विनर, मुंबई लिट-ओ-फ़ैस्ट 2017 
सम्प्रति - स्वंतत्र लेखन,  वॉयस ओवर आर्टिस्ट 
ईमेल- divya_vijay2011@yahoo.com

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