संदीप मील के लेखन का जादू : कोकिलाशास्त्र



संदीप मील के लेखन का जादू : कोकिलाशास्त्र
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न चिड़ियों की आवाज रही और न हवा की सनसनाहट। अब न फूल खिलते हैं और न ही आंधियों में पीपल की टहनियां झुककर जमीन को सलाम करती हैं। लोगों के कानों को मोर की आवाज़ और पपीहे की किलकारी में फर्क भी पता नहीं रहा।

संदीप मील की कहानी कोकिलाशास्त्रमें यह एक गाँव की व्यथा-कथा की आरंभिक पंक्तियाँ हैं। पर, व्यापक अर्थ में यह गाँव की नहीं बल्कि पूंजीवादी सत्ता द्वारा तैयार की जा रही उस दुनिया का सच है, जहां मानव प्रकृति एवं संवेदना से बिछुड़ता जा रहा है। उसकी आत्मसत्ता इस बाहरी सत्ता के समक्ष घुटने टेकती जा रही है या उसके लिए मजबूर की जा रही हैं। 

जब कोई सत्ता मनुष्य को प्राप्त नैसर्गिक अधिकारों से वंचित करने लगे तो एक विवेकशील मनुष्य में इसका प्रतिकार करने का भाव जागता है और समानांतर सत्ता का आविर्भाव होता है। अपने स्वतन्त्रता संग्राम के आन्दोलनों पर दृष्टिपात करें तो हमें उन कालखंडों में कई जगहों पर देशवासियों द्वारा समानांतर सता चलाने की जानकारी मिलती है। वे लोग आज आजाद राष्ट्र के गौरव हैं तथा उनसे हमें प्रेरणा मिलती है, किसी अन्यायपूर्ण व्यवस्था के प्रतिकार करने की...जूझने की...लड़ने-भिड़ने की। पर, आज के परिप्रेक्ष्य में वैसी ही अन्यायपूर्ण व्यवस्था से जूझने वाली समानांतर सत्ता को क्या हमारे लोकतंत्र में वही गौरव मिल पाता है?

संदीप मील की कहानियों से गुजरते हुए जो एक बात पकड़ में आती है कि इस कथाकार की मनुष्य-मात्र में आस्था है...तभी तो उसकी सार्वभौम सत्ता की रक्षा के लिये वे अपनी कहानी में अन्यायी व्यवस्था के खिलाफ समांतर सत्ता की कल्पना करते हैं, जो उत्पीड़क के सामने घुटने नहीं टेकता, बल्कि दृढ-संकल्पित होकर खुलेआम संघर्ष की घोषणा करता है।

जब सत्ता आवारा पूँजी के उड़नखटोले पर सवार होकर सभी संसाधनों पर अपना कब्ज़ा जमाना चाहती है तो परिणाम होता है संसाधनों का अन्यायपूर्ण बंटवारा। यह नीति धीरे-धीरे मानव की गरिमा को क्षति पहुंचाने लगती है। अपनी गरिमा एवं अस्तित्व को विस्मृत करने को मजबूर होता मनुष्य संख्या में बदलता चला जाता है, जो पूंजीवादी सत्ता चाहती है। ऐसी ही परिस्थियों में समांतर सत्ता भीड़ में तब्दील होते मनुष्य की आवाज बनती है। 

कोकिलाशास्त्रकहानी के गाँव को देखें तो वह पूंजीवादी नगरीय व्यवस्था का एक तस्वीर पेश करती है। यह व्यवस्था सत्ता के सहयोग से फल-फूल रही है, जहां साधारण मनुष्य का स्वामित्व उसके अपने ही संसाधनों पर से ख़त्म किया जा रहा है तथा वे चीजें जो उन्हें सहज सुलभ थीं, पैसे पर मिलने लगती हैं या सरकार की लोक-कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर।

ऐसा ही कुछ हाल था कहानी की नायिका सरिता के गाँव नीमागढ़ का, जहां वह ब्याह कर आयी थी। आप उस गाँव की जगह अपना गाँव, शहर, महानगर या देश को रखके भी सोच सकते हैं। बहुआयामी एवं बहुस्तरीय कहानियों की यही तो विशेषता होती है। गाँव की स्थिति देखिये – “हाँ, बिल्कुल बिना पेड़ का गांव था। करीब दस साल पहले गांव के दो फौजी रिटार्यड होकर आये और उन्होंने हिसाब लगाया कि एक पेड़ को पालने में दस हजार का खर्चा होता है। आमदनी कुछ नहीं। ऐसा करें कि सारे पेड़ों को काटकर बेच दिया जाये और उन पैसों को ब्याज पर दे दिया जायेगा तो हर महीने गांव के प्रत्येक परिवार को दो हजार रुपये ब्याज के मिलेंगे। पूरे गांव में घने पेड़ थे। सारे काटे गये और अब हर घर को दो हजार रुपये ब्याज के मिलते हैं।

पूँजीवादी सत्ता की हमेशा यह कोशिश होती है कि पहले आमलोगों के आश्रय और जीवनयापन के साधन छीन लो...वे अपनेआप घुटने टेक देंगे और उन्हीं के इशारों पर चलने लगेंगे। आज नगरों-महानगरों का यही हाल है। बिल्डर एवं व्यवसायी समूह आम लोगों की जमीन पर अपार्टमेन्ट और शॉपिंग कॉम्प्लेक्स बनाकर उन्हें नियत आमदनी पर जीने को मजबूर कर देते हैं। सामान्य लोग भी मेन रोड की अपनी जमीन पर अपना बढ़िया आवास और दूकानें बना सकते थे, पर उनकी आर्थिक स्थिति बाधा बन जाती है। फिर क्या, ये लोग उनके चंगुल में फंसते चले जाते हैं और जिन्दगी भर उबर नहीं पाते।

कुछ ऐसी ही स्थिति नीमा गाँव की है, जहाँ के लोग अपने आश्रयदाता पेड़ों को काटकर बेच चुके हैं तथा उनसे प्राप्त पैसों के ब्याज पर आश्रित हो जाते हैं। उन पेड़ों पर रहनेवाली बड़ी आबादी विस्थापित हो जाती है, सो अलग। यानी कहानी दो  स्तरों पर आगे बढ़ती है...आर्थिक गुलामी एवं निराश्रय होकर पलायन कर गए लोगों की कहानी। यहाँ से हम गाँव वाली आबादी और पेड़ों के कट जाने से विस्थापित हुए लोगों की समस्याओं को साथ लेकर चलते हैं। इनकी बदतर स्थिति के लिए जिम्मेवार पूँजीवादी सत्ता अर्थात गाँव के पटेलों की कहानी भी इनसे जुड़ी है।

तो, कहानी आगे बढ़ती है एक अजनबी आवाज से, जो रात के एक बजे गाँव के लोगों को सुनाई देती है और सभी मर्द-औरत पूर्व की और दौड़ पड़ते हैं। वहाँ अंतिम छोर पर कानाराम का मकान है, जिसके आगे अथाह रेगिस्तान शुरू होता है। इस आवाज के दहशत में लोग आगे नहीं जा पाते और गाँव में तरह-तरह की अफवाहें उडती जाती हैं। कोई इसे पक्षी की आवाज बताता है तो कोई सांप की आशंका जताता है, जो आवाज देकर बिल में घुस जाता है। पर, किसी को कोई निशान नहीं मिलता और लोग उसे अलबेला कहने लगते हैं।

सभी का ध्यान कानाराम की तरफ जाता है, क्योंकि उसके घर के पास ही आवाज आती है। यूं तो उसका परिवार गाँव का एक उपेक्षित परिवार था, पर बला की खूबसूरत बहू आने की वजह से लोग उसे पूछने लगे थे। इस पूछ में भी मर्दों की कुंठा छुपी होती है।

होता ऐसा है कि एक दिन पूरी तैयारी से सारा गाँव कानाराम के घर की बगल में आ जुटा। बसंत की लाठी, प्रमोद की बन्दूक और अन्य लोगों के पास भी कोई-न-कोई हथियार था ही। दिल में जोश, पर जहन में डर !

ऐसा नहीं था कि उस गाँव के लोगों ने कभी पेड़ लगाने की नहीं सोची थी...जरूर सोचा था, पर समझाने और धमकाने पर आगे बढ़ नहीं पाये। कुछ ऐसा ही है न हमारा नगरीय जीवन, जहाँ पूंजी और सत्ता ने मनुष्य को मशीनी जीवन जीने को मजबूर कर दिया है...सोचने का अवकाश तक छीन लिया है।

कहानीकार को यह यथास्थिति मंजूर नहीं। स्थितियों में परिवर्तन को लेकर वे संकेत देते हैं। कानाराम का मकान पूर्व दिशा के अंतिम छोर पर है और पूर्व दिशा आशा-उम्मीद का सूचक है यानी स्थिति में बदलाव यहीं से होना है। कानाराम भी गांववालों की तरह चारे की कमी के चलते अपनी बकरी कसाई के हाथों बेच देना चाहता है, पर बहू उसे रोक देती है। परिवर्तन की आहट मिलने लगती है। समाज का प्रभु वर्ग यथास्थिति बनाए रखना चाहता है, पर क्या उपेक्षित वर्ग हाथ पर हाथ देकर बैठा रहे। नहीं ! आवाजें तो उठेंगी और ये आवाज समाज के उपेक्षित तबकों से उठेंगी...कमजोर वर्गों से उठेंगी। कहानी में परिवर्तन की सुगबुगाहट एक उपेक्षित दलित परिवार के यहाँ से उठती है और इसे स्वर देती है एक स्त्री।     

कहानी आगे बढ़ती है। उस रात की सारी तैयारियों के बावजूद अलबेला पकड़ में नहीं आता है। उस रात की चर्चा में ही कहानी की नायिका सरिता की सास शारदा घोषणा कर देती है कि सरिता अगली बारिश में नीम भी लगाएगी आँगन में, गाँव वाले चाहें तो दो हजार बंद कर दें। रात की कहानी को लेखक ने बड़ी ही ख़ूबसूरती से साधा है...रहस्य-रोमांच, हँसी मजाक की बातों के साथ भय का वातावरण ! लोग घेरे के बाहर जाकर पेशाब करने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाते, पर सरिता घेरे से बाहर पेशाब करने चली जाती है कि तभी आवाज आती है --- गिलगिलगिलगिलगिल...! आवाज को सुनते ही सभी की आवाज पतली हो जाती है। लोग घर जाने की हिम्मत भी जुटा नहीं पाते, पर सरिता घर आकर मजे से सो गयी थी। उसके बाद पूरा गाँव दहशत में जीने लगता है। क्या इसी तरह चुनौती देनेवाली किसी अजनबी आवाज पर पूरा नगर सन्नाटे में नहीं आ जाता है ?

सरिता के सास की नीम का पेड़ लगाने की घोषणा के गाँव के पटेल कानाराम को समझाने तथा मना करने गए। उनलोगों की धमकी पर सरिता घोषणा करती है कि नीम तो इसी बरसात में लगेगा चाहे दो हजार रुपये बंद कर दिये जांय। एक साथ आर्थिक गुलामी के विरुद्ध बगावत एवं निराश्रित लोगों की वापसी की उम्मीद ! गाँव के पटेल उसे गाँव से अलग करने की साजिश में लग जाते हैं, पर कानाराम का परिवार डटा रहता है। यहीं पर पटेलों की सत्ता के विरुद्ध एक अलग समानांतर सत्ता उठ खड़ी होती है। 

इसके बाद तो एक दिन अलबेला दिन में भी बोला और गाँव के दैनिक कार्यकलाप भी खामोशी में होने लगे। वहीं कानाराम दिन में हारमोनियम पर भजन गाता जिसमें उन पक्षियों के नाम आते जो आश्रयहीन होने के कारण सदा के लिए चले गए थे। कभी-कभी तो अलबेला बोलता और कानाराम का भजन भी चलता रहता। कानाराम को अलबेला से डर नहीं लगता और उसकी आवाज उसे अपनी-सी और दिल के करीब भी लगती है। अलबेला ने कभी इंसान तो क्या बकरी के बच्चे को भी नुकसान नहीं पहुंचाया। वह यह भी विश्वास नहीं कर पाता कि यह किसी पक्षी की आवाज है क्योंकि पिछले सात सालों से उसने किसी पक्षी को तो देखा तक नहीं है। कुछ पटेल सोचते कि कहीं कानाराम अलबेला को जानता तो नहीं है और उनकी शिकायत कर सकता है, सो उससे माफी भी मांगना चाहते पर उनकी अकड उन्हें रोक लेती। गाँव के और लोग कानाराम के पास आना चाहते, पर पटेलों के आदेश के कारण पास आने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। आज जहां कहीं भी अन्याय और उत्पीडन है...क्या वहाँ का दृश्य ऐसा ही नहीं है ?

संदीप कहानी को आगे बढाते हैं, एक सूत्र से...वह है धर्मेन्द्र, सरिता का पति जो अपने दोस्त बसंत से नशे में कह उठता है कि उसकी बीबी रात के ग्यारह बजे कहीं जाती है और एक बजे वापस आती है। यूँ तो वह शादी के बाद से ही खामोश रहने लगा है। कानाराम के बहुत पूछने पर भी कुछ नहीं बताता। उसकी चेतना आम युवक की तरह स्वतंत्र स्त्री या स्त्री के स्वतंत्र विचार एवं निर्णय को स्वीकार नहीं करती। वह गाँव की आर्थिक गुलामी वाली जिन्दगी का आदी होता जाता युवक है तथा इसीके कारण परिवर्तनों को स्वीकार करने का माद्दा उसमें नहीं है। परिवार द्वारा उठाया गया कोई कदम इस कारण उसे प्रभावित नहीं कर पाता है। वह पटेलों द्वारा लगाये गये प्रतिबंधो के कारण और परेशान हो जाता है। इस सन्दर्भ में मुझे वे क्लीव भारतीय नरेश याद आते हैं, जो अंग्रेजों के नियत किये गये पैसों पर ही ऐशो-आराम की जिन्दगी गुजार रहे थे। देश के अपने लोग ही क्रांति में भाग ले रहे थे, पर इनका संवाद तक उनसे नहीं हो पाता था। कुछ हद तक धर्मेन्द्र और सरिता की संवादहीनता भी मुझे ऐसी ही लगती है। पर, कानाराम और शारदा जो वर्षों से शोषण को महसूस कर रहे हैं, सरिता में विश्वास करते हैं। यहाँ तक कि कानाराम अपने चरित्र पर लगाया गया लांछन बर्दाश्त कर लेता है। जब कानाराम तमाम बन्धनों के आगे झुक नहीं रहा था तो गाँव के पटेलों ने उसका गाँव के कुएं से पानी बंद कर दिया। कोई भी सत्ता एक व्यक्ति के जीवन और गरिमा को तो इसी तरह नष्ट करने की कोशिश करती है। अब सरिता अपने गहने बेचकर कुआँ बनवाने का ऐलान करती है।

अगले दिन कानाराम के घर कुआँ खुदवाने के लिए मशीन आती है। यह पटेलों के मुँह पर तमाचे की तरह पड़ता है क्योंकि बड़े-बड़े पटेलों के घर भी कुएँ नहीं थे। गाँव में कुआँ खोदनेवाली मशीन का आना बड़े परिवर्तन की और ईशारा करता है। यह गाँव की जड़ता को तोड़ने का काम करती है। उसके बाद तो घटायें उमड़ी, तेज हवा चली और साल की पहले बारिश हुई। संकेत में लेखक उस तथ्य की और इशारा कर जाते हैं कि प्रकृति के साहचर्य के साथ ही जीवन-धारा बहती है। कानाराम का कबीर के भजन गाना भी रूढ़ होते गाँव में प्रगतिशीलता के बयार की ओर संकेत करता है। उस रात में ही आँगन में नीम लगा। पलायन कर गये लोगों की वापसी की उम्मीद का संकेत मिला।

तो एक रात बसंत सरिता के पति धर्मेन्द्र के साथ चल पड़ता है सरिता के पीछे। अब देखिये संदीप मील की कहानी में जादू यानी जादुई यथार्थवाद! रेगिस्तान के बीच उन्हें कलकलाहट और सरसराहट सुनाई पड़ती है। फिर तो पेड़ के पत्तों के हिलने की आवाज, चिड़ियों की चहचहाहट भी। घने पेड़ों का बाग़, झरने, तालाब सभी दिखने लगे। सरिता के पहुँचते ही पक्षियों का झुंड मंडराने लगा। कौए, कोयल, कुत्ते सभी घेरकर बैठे थे।

रात है, पर पक्षियों, बिल्लियों एवं कुत्तों की आवाजें आ रही हैं। सरिता पक्षियों की बोली बोलती है...उनसे बात करती है...उनके साथ नाचती-गाती है। यह रात दरअसल हमारे समय का अन्धेरा है। इस अँधेरे में पक्षियों, बिल्लियों आदि का जागे रहना हमारे आश्रयहीन और साधनहीन लोगों की जिजीविषा ही तो है। सरिता पूंजीवादी सत्ता के विरुद्ध उनके संघर्ष एवं विद्रोह की प्रतिनिधि आवाज है। अब देखिये, इन बाहर कर दिए गये लोगों के ‘समानांतर सत्ता’ की झलक – उसके कंधे पर कोयल बैठी थी, घुटने पर कौआ था और बगल में इतने पक्षी और कुत्ते बैठे थे जैसे कि संसद की कार्यवाही चल रही हो। फिर सरिता ने अलबेला की आवाज निकाली तो बसंत को पैंट में पेशाब निकल आया

फिर क्या था, राज खुल गया। गोविन्द पटेल सच ही कह देता है अनजाने में कि पक्षी की भाषा समझने और बोलने के लिये एक शास्त्र पढ़ना पड़ता है जिसका नाम ‘कोकिलाशास्त्र’ है। इसको पढने के बाद इंसान किसी भी जानवर की बोली बोल लेता है।” यह पक्षी की भाषा आश्रयहीन हो रहे उत्पीड़ित लोगों की भाषा ही तो है। पटेलों की तरफ से हुक्म आया कि गाँव छोड़ दो। सरिता ने कानाराम और शारदा को हौंसला बंधाया। अब लड़ाई आर-पार की होनी थी। भोर होते ही सारा गाँव लट्ठ लेकर हमले के लिए आया तो कानाराम के घर पर मोर्चा संभाले मोर, कबूतर, कौए, कुत्ते, बिल्ली आदि उनपर टूट पड़े। भगदड़ मच गयी और सभी दौड़कर अपने घरों में घुस गये। फिर से अपनी दुनिया बनाने की शुरुआत हो चुकी थी...खुला विद्रोह! इसके साथ उम्मीद की पहली किरण सूरज की पहली किरण के साथ फूटती है...कानाराम के आँगन में भी नीम की पहली कोंपल फूटी।

इस कहानी को पढ़कर कुछ को यह कहानी पर्यावरण केन्द्रित लगी तो कुछ को दलित, शोषितों के उत्पीड़न एवं संघर्ष की गाथा। पर इन मूल्यांकनों ने संदीप मील की कहानी के जादुई यथार्थ के जादू को शायद नहीं पकड़ा। इस कहानी के विस्तृत फलक को पकड़ने की कोशिश में पता नहीं मैं कितना सफल हुआ हूँ...या अभी भी कुछ गुत्थियों का सुलझना बाक़ी रह गया है।

कुल मिलाकर कहानी में संदीप का जादू हमें कई बार उलझा देता है, पर जैसे ही हम उसके पार जाकर यथार्थ का साक्षात्कार करते है तो हमें अपनी ही दुनिया का विद्रूप चेहरा दिखायी देता है और इस स्थिति से लड़ते हमारे लोग नजर आते हैं। वाकई यह कहानी इस समय की बेहतरीन रचना है।  

अस्मुरारी नंदन मिश्र की पहली कहानी : दौड़


अस्मुरारी नंदन मिश्र का प्रथम काव्य-संग्रह 'चाँदमारी समय' साहित्य की दुनिया में उनके मौलिक विचारों का महत्वपूर्ण दस्तावेज है, जिसमें उनका लोक है और उस लोक के प्रति उनकी आत्मीयता है। आत्मीयता होगी, तो जाहिर है कि उनमें आमजन की आवाज भी शामिल होगी। उनकी रचनाओं को पढ़ते हुए महसूस होता है कि वे लेखन में धैर्य रखने वाले रचनाकार हैं। वे अपनी सोच को समय देते हैं तथा समकालीनता की कसौटी पर रखके ही कोई विचार निर्धारित करते हैं। इधर उन्हें अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए कविता से इतर फॉर्मेट की जरूरत महसूस हुई और परिणाम सामने है...उनकी पहली कहानी - दौड़। इसके अलावा वे आजकल एक संस्मरणात्मक उपन्यास पर काम कर रहे हैं जो शीघ्र आप सबके समक्ष होगी। इस कहानी पर मैं क्या कहूँ, आप ही विचार करें।

दौड़ 
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उसे अब किसी तरह की पदचाप सुनाई नहीं पड़ रही| एक जो लगातार धप-धप चल रही है, उसे वह पहचान चुका है| वह उसकी अपनी ही पदचाप है| उसने पीछे मुड़ कर देखना चाहा, लेकिन उसे बताया गया था कि रेस में पीछे मुड़कर देखना समय गँवाना है| वहाँ तो सिर्फ़ भागना ही भागना है| पूरा ध्यान बस दौड़ने-भागने पर ही रखना है| अपनी पूरी ऊर्जा झोंक देनी है|


तो क्या वह सचमुच किसी रेस में है? शायद- उसने ऐसा सोचा| सोचा कि नहीं , यह भी उसे नहीं पता; लेकिन उसने खुद को समझाया कि वह उस तरह के रेस में नहीं है, अथवा उसे यह लगा कि वह इस स्थिति में है कि पीछे मुड़कर देखने में नुकसान नहीं है| वह पीछे मुड़कर देखने से खुद को रोक नहीं सका|

पीछे सचमुच कोई नहीं था| धूल उड़ रही थी, जो उसकी चाल और बदहवासी की गवाही दे रही थी| उसे धूल देखकर अच्छा लगा, जैसे खुद पर संतोष हुआ कि उसने अपनी पूरी ऊर्जा लगाने में कसर नहीं छोडी है| पीछे किसी अन्य को न देखकर उसे यह भी तसल्ली हुई कि अन्य लोगों को उसने अच्छा-ख़ासा पीछे छोड़ दिया है|

अभी तक वह चलते-चलते ही पीछे देख ले रहा है| पीछे किसी का नहीं होना उसे बड़ी खुशी दे रहा| इसे वह गर्व से देखना चाह रहा था| उसे लगा कि क्या हर्ज है एक बार रुक कर पीछे देख ले| कम-से-कम इसे देखने के लिए ही देखे कि दूर कोई पीछा कर तो नहीं रहा हो| कम-से-कम यह आँक तो ले कि अब वह कैसी चाल चल कर अपना यह अंतराल बनाए रख सकता है| लेकिन उसे सामने का टीला दिख रहा था| क्या पता उस तरफ कोई उससे आगे हो ही|

उसने दौड़ते-दौड़ते ही निर्णय लिया कि अब रुकने या पीछे मुड़कर देखने का काम टीला पर पहुँचकर ही करेगा| उसने खुद से पूछा कि क्या वह टीला पर से आराम से पीछे देख पाएगा? टीला पर से देखने का एक लाभ है कि पीछे दूर-दूर तक दिखेगा, जिससे पीछे के लोगों से अपनी दूरी का अनुमान कर सकता है| यदि पीछे कोई दिखा तब क्या वह रुक पाएगा? नहीं, तब तो बढ़ते रहना ही होगा| वैसे उसे यह उम्मीद है कि वह इतना आगे आ गया है कि पीछे दूर-दूर तक कोई दिखेगा नहीं| 

और यदि आगे ही कोई दिख गया तो? तब फिर वह कैसे रुक पाएगा?

इतनी दूर तक आते-आते वह महसूस कर रहा चुका था कि आगे का बड़ा छलावा है| वह बहुत देर से दौड़े चला जा रहा है, और बहुत देर से उसे आगे कोई नहीं मिला| हां, बस कभी-कभी लगा कि जैसे कोई बहुत आगे तेजी से बढ़ा जा रहा हो| उसने अपनी चाल तेज कर दी, वहाँ तक पहुँचा तो कभी धूल का बगूला भर था, अथवा कभी कोई झाड़ी-पेड़ को हिलते पाया| इस तरह उसे यह उम्मीद हो चुकी है कि अब आगे कोई नहीं रहा| अब तो शाम होने को आई| लेकिन फिर भी टीले पर पहुँचकर अंतिम बार आश्वस्त होने में क्या बुराई है? अब आगे-पीछे जहाँ भी देखना होगा, वहीं से होगा, टीले पर से ही| इस तरह उसने रुक जाने के ख्याल को फिलहाल रोक दिया| उसने याद किया यह चौथी बार है, जब वह इस ख्याल को पीछे धकेल कर आगे ही बढ़ता गया हो| यह याद कर उसे अपने आप पर गर्व हुआ- इस ऊर्जा और जज्बा के साथ वह किसी भी रेस में किसी को भी पीछे छोड़ सकता है!

शाम का समय | सामने टीले पर के पेड़-पौधे धूप में चमक रहे हैं, जबकि वह अभी छाया में है| उसने जैसे पहली बार ध्यान दिया कि वह लम्बे समय से छाया में ही चल रहा है| यानी कि यह टीला अच्छा ख़ासा ऊँचा होगा| तभी तो| लेकिन खैर, इस ऊँचाई पर तब ही ध्यान आया जब वह ऊपर पहुँचने को ही है| 

इस तरह की शाम और ऊपर चमकती धूप तथा अपनी दौड़ पर सोचते हुए उसे बचपन में पढ़ी एक कहानी याद आई- “वह दिन भर में जमीन नाप लेने वाली कहानी| किसी ने कहा कि जितनी जमीन दिन भर में घेर लो तुम्हारी| और वह दौड़ता रहा| हर पल घेरा को बड़ा करता हुआ| आखिरकार शाम हुई और घेरा को पूरा करने की बदहवासी में वह अचेत हो कर गिर पड़ा| ऐसा गिरा कि मर ही गया|”

उसने गरदन झटक कर इस कहानी को झटक देना चाहा| संतोष के नाम पर ऎसी कहानियाँ मनुष्य को आगे बढ़ने से ही रोक देती हैं| क्या महत्त्वाकांक्षाओं के बिना किसी तरह का विकास हो पाया है? हुंह! बड़े कहानीकार बनने चले हैं| जो मनुष्य को आगे बढ़ने की प्रेरणा न दे, वह कैसा साहित्यकार! आदमी में एक भूख तो होनी ही चाहिए|

फिर उसने खुद से तुलना कर खुद को कहानी से अलग कर लिया- यह कोई गोल-गोल चक्करदार दौड़ नहीं है, जो है सब सीध में, आगे-ही-आगे| फिर, यहाँ किसी और के देने पर नहीं जीना है, बल्कि यहाँ तो पाना-ही-पाना है, वह भी अपनी सामर्थ्य और इच्छा पर| वह कहीं भी रुक सकता है, कहीं भी ठहर कर जीवन का मजा ले सकता है| घेरा पूरा करने की कोई मजबूरी नहीं है उसके पास| 

टीला कुछ ज्यादा ही ऊँचा है| अभी तक तो ऊपर तक पहुँच जाना चाहिए था| लेकिन होता है| ऊँचाई सीधे पता नहीं चलती| वह तो चलती-चलती मिलती जाती है| क्या दिक्कत है? अभी उसके पास बहुत ऊर्जा है| उसने खुद से सवाल किया- किसी तरह की थकान तो नहीं महसूस हो रही है? उसके अन्दर से जोशीला जवाब आया- ‘वह थकने वाला आदमी नहीं है| थकने वाला आदमी कहीं यहाँ तक पहुँच सकता है? कभी नहीं|’

सचमुच थकनेवाला आदमी यहाँ तक नहीं पहुँच सकता| वह कब से दौड़ा चला आ रहा है, दूसरा आदमी तो कब का गिर चुका होता|

कब से? उसे याद आया- वह दौड़ने के लिए चला तो नहीं था| वह तो अपनी मौज में ही चला जा रहा था कि उसने देखा सब जैसे दौड़े जा रहे हों| अपनी मौज में अभी तक वह यही समझ रहा था कि लोग अपनी मौज में ही चल-दौड़ रहे हों, लेकिन पहली बार उसने महसूस किया कि नहीं वे एक रेस में भी हैं| मौज-ही-मौज में उसने उस आदमी से तेज चलना शुरू किया, जो अभी तक उसके साथ चल रहा था| दोनों साथ-साथ ही निकले थे और अभी तक हँसी-मजाक भरी बातें करते हुए चल रहे थे| उस साथ वाले आदमी ने कहा भी कि कहाँ जाना है, थोड़ा धीरे ही चलो न! लेकिन उसने मुस्करा कर अपनी चाल तेज ही बनाये रखी|

साथ वाले आदमी ने पीछे से कहा- ‘’अच्छा! तो तुम मुझसे तेज चलोगे क्या? देखो, तुम्हें पीछे करता हूँ!’’ यह सुनकर उसने अपनी चाल और तेज कर दी| कुछ देर बाद उसे पीछे से हल्की और हाँफती-सी आवाज सुनाई पड़ी- “छोड़ो, यार! तुम जीते, मैं हारा| अब तो रुक जाओ|” यह हार और जीत की बात उसने पहली बार सुनी थी| यह तो बड़ी सुकूनदायक बात है-“तुम जीते, मैं हारा|” यानी कि मैं जीता और वह हारा|

भई, वाह! मैं जीता, वह हारा|

लेकिन उस एक के हारने से क्या होता है? उसे लगा जैसे आगे जा रहा आदमी भी उसे देखकर यही सोच रहा हो कि “मैं जीता, वह हारा|” इस सोच ने उसे तिलमिला दिया| उसे लगा कि अब तो रुका नहीं जा सकता, आख़िर कोई उसे हारा कैसे सोच सकता है?

तब से वह न जाने कितनों को हराते हुए दौड़ता चला आ रहा| अब तो सब से आगे है| दूर-दूर तक कोई नहीं| वह और सिर्फ वह| वह जीता और बाक़ी सब हारे| वाह!

लेकिन सब हारे, इसके लिए एक बार टीले पर के आगे को देख लेना जरुरी है| यद्यपि वह जिस चाल से आगे बढ़ता चला आया है कि आगे किसी के होने की संभावना बचती नहीं है| यदि आगे कोई होता, तो इतनी देर में दिखता जरूर| लेकिन भाई! रेस है यह, बिना तसल्ली के रुक जाना मूर्खता ही तो है| अब तो ऊँचाई आ ही गयी|

वह चढ़ता हुआ भी इस बात की तसल्ली में है कि एक बार चढ़ जाने पर आगे उतरना तो आसान हो ही जाएगा| पीछे वाले जब तक इस टीले तक पहुँचेंगे वह काफी दूर आराम से उतरता चला जा सकता है|

आख़िर में वह उस टीले की चोटी तक भी पहुँच गया| सचमुच आगे कोई नहीं दिख रहा है| यद्यपि थोड़ा अँधेरा-सा घिरने लगा है, लेकिन अभी भी दूर-दूर तक दिखाई पड़ रहा है| और उसने देखा कि आगे कोई नहीं| इस दौड़ में उसने पहली बार आराम से पीछे भी देखा| सचमुच कोई आसपास में भी नहीं था| उसके ही पदचिह्न दिखाई पड़ रहे थे और उड़ती धूल| अपने पदचिह्नों को देखकर उसे बात समझ में आई कि वह यदि एक बार आराम से पहले पीछे देख लेता, तो कम-से-कम इस रास्ते के बारे में इतना तो पता चल ही जाता कि पदचिह्न भी बनते हैं| तब तो स्पष्ट ही है कि कोई उससे आगे अब बचा नहीं| कोई पदचिह्न नहीं है आगे| ओह! अपनी बदहवासी में उसने यह मामूली बात पर ध्यान नहीं दिया| धत्त तेरे के!

लेकिन इसे भी वह सकारात्मक ढंग से सोचने लगा- यदि पहले देख लेता तो अनपेक्षित संतोष या तसल्ली आकर उसेक जज्बा को कम कर सकती थी, अब देखो तो कितना निर्णायक अंतराल वह बना चुका है|

उसने गहरी-गहरी साँसें लीं| टीले के चारों और नजरें दौड़ाई| कहीं कोई नहीं था| वह था सिर्फ वह| सबसे आगे और सबसे ऊँचा| एकाएक उसे बड़ा अकेलापन जैसा लगा| यह अकेलापन प्रथमतः तो इतना आवेगमय था कि उसे डर-सा लगने लगा, फिर उसे पीछे की बात याद आ गयी| सुबह-सुबह वह तो उस मित्र के साथ चाय और नाश्ता कर साथ-साथ ही निकला था और अब...

अब वह न जाने कहाँ पर होगा? वह दौड़ भी रहा होगा कि थक कर ठहर गया होगा? वह भावुक-सा हो चला, लेकिन उसने अपने को जल्दी ही इस सोच से निकाला| 

छोड़ो! अब किसी और के बारे में क्या सोचना!

सूरज पूरी तरह डूब गया था| यह चाँदवाली रात नहीं लग रही है| तिथियों पर उसने ध्यान ही कब दिया| चलो! अब आराम भी कर लिया जा सकता है| दूर-दूर तक कोई पीछा करनेवाला नहीं है|

उसने निर्णय लिया कि थोड़ी देर इस पत्थर पर बैठ कर सुस्ता ही लिया जाए| अभी अँधेरा है, शायद कुछ देर में चाँद ही निकल आए, तब आगे बढ़ने में सुभीता होगी| वैसे भी जैसी निर्जन रात है कि किसी भी तरह की पदचाप आसानी से सुनाई पड़ सकती है| किसी की पदचाप आने ही लगे, फिर वह उसके अनुपात में आगे बढ़ेगा|

इस सोच से उसके मन में एक अन्य बात उभरी| क्या पता कुछ लोग रात के अँधेरे का ही इन्तजार कर रहे हों| आगेवाले को पीछे छोड़ने के लिए सचमुच इससे अच्छा अवसर नहीं मिल सकता है| 

वह चौकन्ना हो गया| ऐसा हुआ तब तो वह कहानी वाला खरगोश साबित हो जाएगा| 

नहीं, वह नहीं बैठेगा| चलता ही रहेगा| चले क्यों? रात की शीतलता से लड़ने के लिए दौड़ा भी जाना चाहिए|

घुप्प अँधेरा है| किसी तरह का रास्ता नहीं सूझता, शायद रास्ता है ही नहीं|और वह दौड़ा चला जा रहा है- अकेला और तेज! बहुत तेज! 

संपर्क :
अस्मुरारी नंदन मिश्र
केंद्रीय विद्यालय दानापुर कैंट
मोबाइल नंबर- 9798718598
नवादा जिले ( बिहार ) के एक छोटे-से गाँव अरण्यडीह से।
शिक्षा - हिन्दी से स्नातकोत्तर ।
अभी केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक।