रामनगर - एक निंदासा शहर : दिव्या विजय



‘यात्रा’ शब्द से ही अनवरतता का बोध होता है। यह यात्रा जीवन की हो सकती है या जीवन के ही अन्य क्षेत्रों की। कभी भीतर से बाहर की ओर होती है तो कभी बाहर से भीतर की ओर। इसी क्रम में हम देश-दुनिया घूम आते हैं, वहां के समाज, संस्कृति, संवेदना आदि को सहेज लेते हैं। दृष्टि और मन एकमेव होकर हमें इन जगहों से जोड़ते हैं। यह जुड़ाव काल के साथ होते हुए भी हमें काल-निरपेक्ष बना सकती है। किसी प्राकृतिक परिवेश, प्रतिमा, स्मारक, नदी, महल देख हम उनके समय में प्रवेश करने लग जाते हैं और सदियों पीछे की यात्रा कर आते हैं। यात्रा-वृतांत इसी तरह पाठकों को रचनाकार के साथ उनकी घुमक्कड़ी में साथ कर लेता है। तो आइए, हम गद्यकार दिव्या विजय के आत्मिक यात्रा-संस्मरण में उनके साथ हो लेते हैं।





रामनगर : एक निंदासा शहर
सुबह के झुटपुटे में दूरबीन आँखों से सटाए जंगल के गहन में आँखें गड़ाए लोग पत्तों की चरमर पर चौंक कर सजग हो उठते. थोड़े-थोड़े अन्तराल पर कोई जिप्सी गाड़ी पेड़ के नीचे शांति से प्रतीक्षा करती मिलती. छोटे बच्चे भी दम साधे चुप बैठे थे. आत्म-नियंत्रण का यह बेमेल उदाहरण था. जिम कॉर्बेट के जंगलों का यह क्षेत्र बिजरानी था और वर्षा ऋतु के ख़त्म होने के बाद पर्यटकों के लिए खुलने का पहला दिन. रोमांच सबके चेहरे पर दिखाई दे रहा था. सुबह के छः बजे वन विभाग के अफसर मुख्य दरवाज़े को फूल मालाओं से सजा कर अगरबत्ती घुमाने में व्यस्त थे. नारियल फोड़ा गया और प्रार्थना की गयी. एक पंक्ति में खड़ी गाड़ियों के ड्राईवर मना रहे थे कि पहले दिन शेर दीख पड़ जाए.  हमारे ड्राईवर ने बताया सुबह पाँच बजे हमें लेने आने से पहले वह हनुमान जी के दर्शन करने गया था. धर्म हमारे जीवन में कितना गहरा पैठा है.   


उनकी मान्यता है कि सीज़न के पहले दिन बाघ का दीख पड़ना शुभ होता है. अपनी इसी मान्यता के चलते बाघ को ट्रैक करने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी. वे रास्ते जिन पर अमूमन गाड़ियाँ नहीं जातीं उन रास्तों पर भी उसने जिप्सी दौडाई. बाघ के पैरों के निशान हम देर तक फॉलो करते रहे. एक मरा हुआ हिरण अपने सुन्दर देह के अवशेष लिए कच्चे रास्ते पर मिला. ज़रूर बाघ उसे खींच कर ले आया होगा. अधखाया शरीर सड़न की ओर अग्रसर था. कैसा सुन्दर शरीर, कैसी निश्छल आँखें, कैसी निर्दोष प्रवृत्ति....लेकिन विनाश भी तो प्रकृति का ही नियम है. विनाश के बगैर नया कैसे सिरजा जायेगा.


पक्षियों का एक झुण्ड हमारे सर पर से चीं-चीं करता गुज़र गया और सामने खड़े एक वृक्ष पर छितरा गया. पतझड़ की मार से ठूँठ हुए वृक्ष की शाख पर वे पक्षी पत्तों की भांति विराजमान थे. क्या वे जानते थे कैसा अद्भुत दृश्य वे प्रस्तुत कर रहे हैं...जैसे किसी चितेरे ने रेखाचित्र उकेर दिया हो...हमारी आँखों की परिधि में परन्तु हमारी पहुँच से बहुत दूर. काश जिप्सी से नीचे उतरा जा सकता. पर जंगल में आकर्षण ही नहीं एक भिन्न प्रकार का आतंक भी पैर जमाये रहता है... अजाने का आतंक. यह आतंक जंगल में विचरते हुए आप महसूस कर सकते हैं. एक सन्नाटा हमारे आगे रहता है जिसे भेदते हुए हम नहीं जानते कि कितनी जोड़ी आँखों के घेरे में हम हैं. यहाँ आप घंटों बाघ की प्रतीक्षा करते रहें, वह नहीं आएगा पर किस क्षण वो यकायक आपके सामने आ जाए और आपकी जिप्सी पर पंजे गड़ा कर खड़ा हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता. ऐसी कितनी कहानियाँ साथ आये गाइड के पास थी जब बाघ उनके ठीक सामने था और भागने का कोई रास्ता नहीं था. वे फिर भी भागे. जब कोई रास्ता न बचा हो तब भी जीवन उम्मीद को आखिरी दम तक थामे रखता है.


बिजरानी का यह इलाका बिलकुल अनछुआ था...अपने कच्चेपन से बाँध लेने वाला. साल, हल्दू, पीपल, आम के वृक्षों से भरा यह पर्णपाती वन अभी बहुत हरा था. ऊँची-ऊँची घास होने के कारण पशुओं का दीख पड़ जाना लगभग नामुमकिन ही था लेकिन वन को महसूस करने के लिए यह वक़्त बिलकुल मुफीद था. अपने सुन्दर लैंडस्केप के लिए जाना जाने वाला यह क्षेत्र अभी उन्मादी हवाओं और मीठी गंध से लदा था. जैसे-जैसे भीतर की ओर बढ़ते जा रहे थे, वन का घनत्व बढ़ता जा रहा था और उसी अनुपात में बढ़ रही थी गंध की रागिनी.


आड़े-तिरछे सींगों वाले, अलग-अलग प्रजातियों के हिरण कुलाँचे मारते हुए खूब दिखे. आपस में सींग उलझाये चीतलों को देख मैंने रुकने को कहा. साथ आये गाइड ने बताया कि ये झगड़ा नहीं कर रहे वरन खेल रहे हैं. मैं सोच में पड़ गयी कि क्या जानवर भी ऊब से भर जाते होंगे और क्या उसी ऊब को मिटाने के लिए नए-नए खेल रच लेते होंगे. जैसे जंगल को काट कर हमने सभ्यता विकसित की और अब उसी विकास से ऊब कर हम जंगल, पहाड़ों और प्रकृति के बीच आश्रय लेते हैं. ऊंची मचान पर चढ़े तो नीचे झूल आयी दशकों पुराने वृक्ष की शाखों पर बन्दर झूला झूलते मिले परन्तु वे बन्दर न हम पर झपटे और न हमें डराने का कोई उपक्रम उन्होंने किया. परन्तु बंदरों की फ़ौज को देख एक नैसर्गिक भय का संचार हुआ क्योंकि हम उनके क्षेत्र में थे परन्तु वे हम मनुष्यों से अधिक सहृदयी थे. हमें देख उनके मुख पर कौतूहल कौंधा था परन्तु वे तुरंत ही अपने खेल में लीन हो गए. वन्य जीव मनुष्यों के बीच पले-बढ़े जानवरों से भिन्न होते हैं. वे छीना-झपटी जैसी अवधारणाओं से अनभिज्ञ होते हैं.


शाम की सफारी में लौटते हुए अँधेरा हो चला था. एक जानवर तेज़ी से गाड़ी के आगे से भागता हुआ निकल गया. अँधेरे में उसकी आकृति से उसे पहचानने की कोशिश की लेकिन चमकती हुई एक जोड़ी आँखों के सिवा कुछ न दिखा.  प्रवेश द्वार के पास कई हाथी ज़ंजीरों में बंधे हुए थे. गाइड ने बताया ये हाथी वन के भीतर पेट्रोलिंग में काम आते हैं. यही एक जानवर है जिस से बाघ भी दूर रहते हैं परन्तु मनुष्य ने उसे साध लिया है.


यात्राएँ रोज़मर्रा के एकरस जीवन में एनर्जी-टॉनिक सी होती हैं...झट ऊर्जा से भर देने वाली. किसी यात्रा पर निकलने से पहले जिज्ञासा, उत्साह और एक किस्म का अधैर्य भी लपेटे में ले लेता है. जिज्ञासा नए स्थान को जान लेने की और अधीरता उस स्थान पर जा पहुँचने की. कहीं जाने से पहले ऐसी प्रसन्नता-मिश्रित उत्तेजना का संचार होता है...किंचित यूफोरिया सा. अनगिनत लोगों के पूर्वागमन का लेखा-जोखा रखे और आने वाली पीढ़ियों की प्रतीक्षा में रत स्थानों को जान लेने, छू लेने से अधिक सुख भला और कहाँ प्राप्त होता होगा.
दीपावली की छुट्टियों में बाहर निकलने का यह पहला अवसर था. कंडीशनिंग ऐसी है कि दीपावली पर घर छोड़कर जाना सबके लिए अचरज का विषय हो चला था फिर भी हमने यही वक़्त चुना क्योंकि कहीं जाने के लिए मन छटपटा रहा था और मौसम के लिहाज़ से भी यह समय उचित था. यूँ भी घर चार-दीवारियों से अधिक हृदय में बसता है तो अपने घर को हृदय में समेटे हम निकल चले थे. अलस्सुबह रामनगर में कदम रखते ही ठंडी हवाओं ने सिहरा दिया था. छोटा मगर खूबसूरत स्टेशन उस समय यूँ निंदासा पड़ा था जैसे किसी को कच्ची नींद में उठा तो दिया गया हो पर नींद ने दामन न छोड़ा हो. अलसाए स्टेशन को थपक कर हम कार में सवार हुए तो खिड़की से नज़र आते दृश्य ने सफ़र की थकन क्षण भर में मिटा दी. पेड़ों की पाँत थी कि ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही थी...रास्ते ने जैसे हरे की चादर ओढ़ ली हो. सर्दियों की पहली दस्तक और हवा इतनी शुद्ध कि जैसे साँस के साथ हवा नहीं जीवन प्रवेश कर रहा हो. कोई बिरला ही होगा जिसका मन प्रकृति के बीच आकर हर्षा न जाता हो.
कॉटेज भी ऐसा ही...एकदम जंगली. एंटीक फर्नीचर से भरा जिसकी बड़ी-बड़ी आदमकद खिड़कियों से हिम-चंपा के फूल भीतर झरकर अपनी खुशबू से कमरा तर कर देते. दूर तक फैला जंगल रात को शोर करता खिड़कियों से भीतर चला आता. साथ आती झींगुर और टिड्डों की आवाजें,  पत्तों की सरसराहट. नक्काशीदार आईनों में सुनाई देती अतीत की फुसफुसाहट. दीवार पर टंगे थे आदमखोर शेर और उनके शिकार की कहानियाँ. फूलों और लतरों  से लदा बगीचा जहाँ घंटों चुप बैठ कर पीछे बहती नदी का स्वर आत्मसात किया जा सके. तितलियों की ढेरों अनदेखी, मनमोहक प्रजातियाँ ज्यों  फूल-फूल जाकर रंगों को पी रही थीं जिनके पंखों को लाख चाहने पर भी हम छू नहीं पाए.


रिसोर्ट के पीछे बहती कोसी का फेनिल स्पर्श...मन हुआ नदी में अब तक का जिया हुआ सब बहा दूँ. निरंतर बहती नदियाँ सब समेट लेती हैं और ले जाती हैं अपने साथ अनंत यात्रा पर. जिया हुआ सब बहा देने पर मैं नयी-नकोर हो उठूँगी. नदी मेरे मन की बात जान कर मेरे कान में गुनगुना उठी...अपनी नदी स्वयं बनना. नदी के उस पार सफ़ेद रेत थी. गोल-चिकने पत्थरों के बीहड़ से गुज़र कर जंगल की हदबंदी थी. कितनी देर तक तकती रही. एक घोड़े वाला वहां से गुज़रा. वह अपने घोड़े को घास खिलाने नदी किनारे आया था और यहाँ से निकल कर जाना था वहाँ जहाँ घोड़े की सवारी करने सैलानी आते थे. मुझे वहाँ बैठ नदी को तकता देख उसने पूछा,
“दीदी, नदी के पार जाओगे? उस पार यहाँ से भी सुन्दर है. आपको जंगल के बीचोंबीच उतार देंगे. हमें बहुत-सी ऐसी जगह मालूम हैं जो किसी को नहीं पता.”
पता नहीं वो मेरा मन पढ़ रहा था कि आँखें. मैंने उसे बोर्ड दिखाया जिस पर चेतावनी थी कि नदी में न उतरें. तारों के पार जाने की अनुमति भी नहीं थी. उसकी आँखें ज़रा बुझ कर फिर जल उठीं,
“हम यहीं पले-बढे हैं..इन्हीं के बीच. ये भी हमें उतना ही जानते हैं जितना हम इन्हें.”
मैंने उसे मुस्कुरा कर देखा और और न में गर्दन हिला किताब में रम गयी. एक पत्थर को मेज बनाकर मोहन राकेश की अँधेरे बंद कमरे पढ़ने लगी. मैं पन्ना नंबर अड़तीस पर थी. वह पन्ना स्मृतियों में गुंथ गया है. किताबें मात्र शब्द नहीं होतीं, अनुभव होती हैं. बाह्य अनुभव जब आंतरिक अनुभव से टकराते हैं तो नयी स्मृतियों को जन्म देते हैं.  मोहन राकेश कह रहे थे,
‘कभी-कभी तो मुझे लगता है कि रास्ता चाहे कितना भी सुनसान हो, उस पर गुज़रे हुए कदमों की आहट हर समय मौजूद रहती है और कोई भी व्यक्ति , किसी भी रास्ते पर कभी अकेला नहीं होता.’
वह सच ही तो कह रहे थे. हम सचमुच कभी अकेले नहीं होते, तब भी नहीं जब हम अकेले होना चाहते हैं और तब भी नहीं जब हम अकेला महसूस करते हैं. कितनी बातें, कितने लोग, कितने क्षण हमारे साथ होते हैं.
धूप तीखी हुई तो एक पेड़ के नीचे जा लेटी. पत्ते धीरे-से चूम कर ठहर जा रहे थे.  गिरती धूप के टुकड़े इकट्ठे करते शाम होने को आई थी. आस-पास कोई नहीं था. बाहर आकर लोग कैसे भीतर रह लेते हैं.  उस सुनसान में टिमटिमाता पीला बल्ब रात को यूँ पुकार रहा था ज्यों प्रिय अपनी प्रियतमा का आह्वान कर रहा हो. रात आई और तारे आसमान पर खिलते गए. दो लड़के गिटार पर गाना बजाने लगे. उनकी आवाज़ उदास थी...किसी स्त्री के मन की हूक लिए. तार पर उनके सधे हुए हाथ फिसलते रहे और नदी सुर की गति के साथ बहती गयी.


थोड़ी देर बाद उनके स्थान पर राजस्थान के लोक-कलाकार आ बैठे. गुलाम अली, मेहदी हसन को लोक के रंगों में रंग कर उन्होंने समां बाँध दिया. थोड़ी देर पहले जो नदी उदास लग रही थी वह भी वाचाल हो उठी. गयी रात तक उनको सुनते रहने के बाद जब रात फिर अकेली रह गयी तब एक तितली मेरे कंधे पर आ बैठी. मैं निशब्द रह गयी. सारा दिन जिसे छूने के लिए हम प्रयासरत रहे उसने सारा प्रेम एक क्षण में उंडेल दिया. बच्चे यह देखकर किलक उठे. अहा! जीवन यही तो है. कब कौन सी घटना विस्मय से भर जीवन में प्रसन्नता का समावेश कर दे कौन जानता है. 







परिचय :


नाम - दिव्या विजय, जन्म - 20 नवम्बर, 1984, जन्म स्थान – अलवर, राजस्थान, शिक्षा -  बायोटेक्नोलॉजी से स्नातक, सेल्स एंड मार्केटिंग में एम.बी.ए., ड्रामेटिक्स से स्नातकोत्तर
विधाएँ - कहानी, लेख, स्तंभ

‘अलगोज़े की धुन पर’ कहानियों की पहली किताब। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे नवभारत टाइम्स, कथादेश, इंद्रप्रस्थ भारती, पूर्वग्रह, जनपथ, नया ज्ञानोदय आदि में नियमित प्रकाशन। इंटरनेट पर हिन्दी की अग्रणी वेबसाइट्स पर अद्यतन विषयों पर लेख। रविवार डाइजेस्ट में नियमित स्तंभ।

अभिनय : अंधा युग, नटी बिनोदिनी, किंग लियर, सारी रात, वीकेंड आदि नाटकों में अभिनय। रेडियो नाटकों में स्वर अभिनय। 

सम्मान - मैन्यूस्क्रिप्ट कॉन्टेस्ट विनर, मुंबई लिट-ओ-फ़ैस्ट 2017 
सम्प्रति - स्वंतत्र लेखन,  वॉयस ओवर आर्टिस्ट 
ईमेल- divya_vijay2011@yahoo.com