दिव्या विजय : सामाजिक परिवर्तन और साहित्य (तीसरा भाग)



दिव्या विजय मानती हैं कि अपने समकालिकों को पढ़ना इसलिए जरूरी है क्योंकि समकालीन साहित्य सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया से जुड़ा होता है। सामाजिक परिवर्तनों के साहित्य में दर्ज़ होने तथा साहित्य पर पड़नेवाले उसके प्रभाव के संबंध में उन्होंने अपनी बात रखी है। समकालीन साहित्य को ये परिवर्तन भाषा-शिल्प एवं वैचारिकी के स्तर पर किस तरह प्रभावित करते हैं? इन परिवर्तनों के कारण मनुष्य में आये बदलाव को दर्ज़ करने में लेखक अपने बैकग्राउंड के कारण कैसे चूक जाता है… जहाँ वह अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकता था। आइये बात करते हैं।


नरेन्द्र कुमार : एक लेखक के लिए अपने समकालिकों को पढ़ना कितना जरुरी है?


दिव्या विजय : कल-आज के संयोग से ही तो सृजनात्मक चेतना निर्मित होती है और समकालीन साहित्य सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है इसलिए इसे न पढ़ना तो वर्तमान से मुख मोड़ने जैसा है। अतः समकालिकों को पढ़ने के लिए मैं उत्साहित रहती हूँ, अधुनातन प्रयोगों और नज़रियों को देखने की लालसा भी इसमें शामिल है। कई बार हम अपनी कुछ मानसिक आवश्यकताओं के प्रति अनभिज्ञ होते हैं और क्योंकि समकालीन साहित्य हमारे समय का प्रतिबिंब होता है इसलिए वे ज़रूरतें पढ़ने के दौरान स्वतः ही पूरी हो जाती हैं।


नरेन्द्र कुमार : आपकी दृष्टि में वे सामाजिक परिवर्तन कौन-से हैं जिनसे हमारा समाज दो-चार हो रहा है? क्या हिंदी साहित्य में इसे दर्ज़ किया जा रहा है?


दिव्या विजय : केवल दर्ज करने की बात कह कर तो हम साहित्यकार की रचनाशीलता को अनदेखा कर देते हैं। साहित्य में समाज को केवल सादृश्यता के आधार पर खोजने से अधिक सरलीकरण और क्या होगा? वह लेखन में समाज की पुनर्रचना करता है जिसमें न केवल उसका दृष्टिकोण बल्कि उसकी कल्पना और आकाक्षाएं भी शामिल होती हैं। 


सामाजिक परिवर्तन अंतर्वस्तु के स्तर पर ही नहीं वरन् भाषिक स्तर पर, शिल्प के स्तर पर, रूपादि के स्तर पर भी देखा जाता है। साहित्य क्योंकि वैश्विक दृष्टि को लेकर चलता है इसलिए परिवर्तनों को संज्ञा से अभिहित करने पर दृष्टि संकुचन का ख़तरा है। केवल अपने समाज में हो रहे बदलावों पर भी दृष्टिपात करें तो भी सबको समान बटखरों से कैसे तौला जाए।


नरेन्द्र कुमार : सामाजिक परिवर्तन भाषा, शिल्प एवं रूप के स्तर पर साहित्य को किस प्रकार प्रभावित करते हैं?


दिव्या विजय : साहित्य का ऐतिहासिक अनुशीलन करें तो आदि महाकाव्यों से ही समाज का प्रभाव भाषा, रूपादि पर गहरे दिखता है। इनका मूल रूप गेय और मौखिक था। यूनान में होमर के महाकाव्यों की स्थिति भी रामायण महाभारत जैसी ही थी। गण समाज में अवतारवाद और परलोकवाद की आवश्यकता की पूर्ति करते रामायण जैसे महाकाव्य कालिदास तक आते नाटक रूप ले लेते हैं जो नायकों के चार प्रकारों में ही बँधे रहते हैं और सामंती समाज से ही चुने जाते हैं। इस काल में विकसित लेखन संस्कृति में रचे गए, अलंकृत महाकाव्यों में कुलीन पात्रों तथा स्त्रियों और दासों की भाषा में अन्तर साहित्य निर्माण में वर्गीय मूल्यों के प्रभाव को ही दिखाता है। पश्चिम में ट्रेजेडी का आधार अभिजात्य वर्ग रहता था जबकि कॉमेडी में आम जन को स्थान मिलता था। यूनानी क्लासिकल रचनाओं के बरक्स शुरुआत में जो रोमन में लिखा गया और रोमान्स कहलाया, हेय माना जाता था परन्तु कालान्तर में समाज ने उसे भी क्लासिकल में ही गिना।


भक्तिकालीन 'अति मलीन वृषभानु कुमारी' रीतिकाल में आकर 'राधा नागरि सोई' हो जाती है। रीतिकालीन प्रशस्ति काव्य की भाषा आलंकारिकता से आक्रांत रही तो आधुनिक काल में पूर्ववर्ती भाषायें समाज के विचारों की वहन क्षमता ही खो बैठीं और खड़ी बोली सिरमौर हो गयी। इस भाषा ने अपने अनुरूप कितने ही साहित्यिक रूपों निबंध, उपन्यास, कहानी आदि का विकास कर लिया। मध्यवर्ग के महाकाव्य और आधुनिक चेतना के प्रतिनिधि साहित्यिक रूप उपन्यास ने तो नायक के लिए कभी कुलीन-अकुलीन का विचार ही न किया। सामाजिक परिवर्तन के फलस्वरूप शब्दों की अर्थवत्ता ही बदल गयी। स्वतंत्रता पूर्व 'नेता' शब्द क्या आज भी साहित्य में वही अर्थ रखता है?


नरेन्द्र कुमार : सामाजिक परिवर्तन जहाँ समाज को बदलता है, वहीं वह मनुष्य में भी बदलाव लाता है। मनुष्य में आये बदलाव को देखने में साहित्यकार की दृष्टि महत्वपूर्ण होती है। साहित्यकार का अपना बैकग्राउंड यथा - जाति, वर्ग, नस्ल, जेंडर आदि उसकी दृष्टि को किस प्रकार प्रभावित करता है?


दिव्या विजय : साहित्यकार सामाजिक चेतना का वाहक बनता है परंतु उसकी दृष्टि सामाजिक यथार्थ पर भी होती है। कई बार वह बहुत आगे की यात्रा कर सामाजिक क्रांति तक भी पहुँचता है और कई बार उसकी दुविधा उसके पैर पीछे खींच लेती है। इसमें उसकी अपनी मान्यताएं, बैकग्राउंड, वर्ग इत्यादि उसकी दृष्टि को प्रभावित करते हैं। 


गुजराती भाषा में बहुत ही चर्चित उपन्यास रहा 'सरस्वतीचंद्र'। समाज सुधार आन्दोलनों के प्रभाव में गोवर्धनराम त्रिपाठी ने इसमें विधवा विवाह के विषय को लिया और इसकी ख़ूब वकालत की। विधवाओं के प्रति सहानुभूति का स्वर रखते हुए इसे समाज की ज़रूरत बताया पर इतना सब कहने-लिखने पर भी वे उपन्यास के अंत में विधवा नायिका का विवाह नहीं दिखा पाए। ख़ासी आदर्शवादिता दिखा नायिका को त्याग की मूर्ति बना दिया। धार्मिकता, नैतिकता या वर्ग, कुछ तो था ही जो लेखक नारी से जुड़े सामाजिक सुधार को वैचारिक तौर पर तो स्वीकार कर पाया पर व्यावहारिक तौर पर नहीं। बंकिमचंद्र चटर्जी के उपन्यासों और लेखों में भी विधवा विवाह के प्रति यह व्यावहारिक हिचक दिखती है। 


लेखक की राजनैतिक पक्षधरता उसके साहित्य में राष्ट्रभक्ति और राजभक्ति की विभाजन रेखा को अनदेखा भी कर सकती है। जाति-वर्ग तो क्या लेखक के रहने का स्थान भी उसके साहित्य को प्रभावित करता है। एक आलोचक ने कहा है कि प्रसाद ने कभी भी दोपहर का दृश्य नहीं लिखा और कहीं है भी तो सूचना-भर। कारण? वे बहुत तंग गली में रहते थे जहाँ आसमान की चीर भर दिखती थी। 'पथ के साथी' में महादेवी ने भी प्रसाद से मिलने उनके घर जाते समय गलियों को अजगर के उदर में घूमने जैसा बताया है। साहित्यकार में साहित्यिक वैचारिकता तथा जाति-धर्म आदि से चालित नैतिक व्यवहारिकता का द्वंद्व रहता है, जीत जिसकी भी हो साहित्य इससे अछूता नहीं।


नरेन्द्र कुमार : सामाजिक परिवर्तन समाज में नई चेतना लाने का काम करते हैं, जिसका प्रसार साहित्य के विभिन्न रूपबंधों के माध्यम से होता है। इस प्रकार साहित्य समाज में होनेवाले संभावित परिवर्तनों की भूमिका तैयार करता है। आप वर्तमान में साहित्य की इस भूमिका को किस तरह देखती हैं?


दिव्या विजय : साहित्य चेतना को जगाता है, संवेदना को माँजता है और जीवन को नयी दृष्टि भी प्रदान करता है। काल का अतिक्रमण कर आगामी परिवर्तनों की भूमिका तैयार करने की ज़िम्मेदारी तो साहित्य के पास हर काल में रहेगी यदि यह समाप्त हुई तो साहित्य की आवश्यकता भी समाप्त हो जाएगी। जेट स्पीड जेनरेशन में साहित्य की इस ज़िम्मेदारी के साथ इसकी चुनौतियों में भी इज़ाफ़ा हुआ है। माध्यमों की पहुँच ने जातीय साहित्य के बीच अलगाव मिटा कर उसे विश्व साहित्य बना दिया है। स्थानीय समाज के परिवर्तनों व समस्याओं के साथ विश्वदृष्टि और मूल्यबोध का प्रभाव भी उस पर है। बाज़ार में हर चीज़ के इंस्टैंट होने का दबाव साहित्य पर भी असर डाल रहा है, साहित्य सृजन के 'बरस बीते एक मुक्ता रूप को पकते' में पीछे छूट जाने का भय है तथा कलावादी हो या 'स्वांतः सुखाय' लेखन, पाठक की अपेक्षा तो है ही। कलात्मकता भी उत्पाद है और व्यक्ति के लिए वस्तु ही नहीं अपितु वस्तु के लिए व्यक्ति पैदा करने की शक्ति भी बाज़ार में है। ऐसे में बाज़ार के दबाव और सूचनाओं की बॉम्बार्डिंग के बीच साहित्य को ख़ुद को केवल इंद्रियोपजीवी बनने से बचाना होगा और सामाजिक विसंगतियों से आँख मिलाने का काम बदस्तूर जारी रखना होगा।


परिचय :

नाम - दिव्या विजय, जन्म - 20 नवम्बर, 1984, जन्म स्थान – अलवर, राजस्थान, शिक्षा - बायोटेक्नोलॉजी से स्नातक, सेल्स एंड मार्केटिंग में एम.बी.ए., ड्रामेटिक्स से स्नातकोत्तर

विधाएँ - कहानी, लेख, स्तंभ

‘अलगोज़े की धुन पर’ एवं ‘सगबग मन’ कहानी-संग्रह प्रकाशित। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे नवभारत टाइम्स, कथादेश, इंद्रप्रस्थ भारती, पूर्वग्रह, जनपथ, नया ज्ञानोदय, परिकथा, सृजन सरोकार आदि में नियमित प्रकाशन। इंटरनेट पर हिन्दी की अग्रणी वेबसाइट्स पर अद्यतन विषयों पर लेख। रविवार डाइजेस्ट में नियमित स्तंभ।

अभिनय : अंधा युग, नटी बिनोदिनी, किंग लियर, सारी रात, वीकेंड आदि नाटकों में अभिनय। रेडियो नाटकों में स्वर अभिनय। 

सम्मान - मैन्यूस्क्रिप्ट कॉन्टेस्ट विनर, मुंबई लिट-ओ-फ़ैस्ट 2017 

सम्प्रति - स्वंतत्र लेखन, वॉयस ओवर आर्टिस्ट 

ईमेल- divya_vijay2011@yahoo.com

जमीन अपनी तो थी : स्मिता सिन्हा




जगदीश चन्द्र ने उपन्यास त्रयी ‘धरती धन न अपना’, ‘नरककुण्ड में बास’ तथा ‘जमीन अपनी तो थी’ की रचना की, जिनमें उन्होंने भारतीय समाज के अत्यंत दीन-हीन एवं उत्पीड़ित वर्ग दलित मजदूरों की त्रासद स्थिति का वर्णन किया है। उनकी बेबाक लेखन-शैली से युग-स्थिति का यथार्थ चित्र हमारे सामने उभरता है। स्मिता सिन्हा ने उस त्रयी का अंतिम भाग अभी पढ़कर खत्म किया है। वे कृति को संजीदगी से पढ़ने एवं मनन करने में विश्वास करती हैं।  तो आइए, उनके पाठकीय अनुभव से अवगत होते हैं।


देश के राजनीतिक हलके पर भले ही सामाजिक, आर्थिक और वर्गीय समानता व विकास की बातें जोर-शोर से प्रचारित-प्रसारित की जाती रही हों, लेकिन इससे विलग जो परिदृश्य यथार्थ के मानचित्र पर हमें देखने को मिलते हैं, वह न सिर्फ हमें वैचारिक स्तर पर प्रभावित करते हैं, बल्कि सच और झूठ का आईना भी दिखला जाते हैं।

         

पिछले दिनों बहुत सारी बेहतरीन किताबों के संगत में रही। किताबों को पढ़ने के बाद उन पर लिखने की हड़बड़ी मुझे कभी नहीं रही। किसी किताब को पढ़कर उसे मन में गुनना वनिस्पत आपको ज्यादा समृद्ध बनाता है लिखने के। कागजों पर शब्दों को उतार कर हम कहीं न कहीं खुद को खाली करते जाते हैं। खैर! तो ऐसी ही एक किताब रही 'जगदीश चंद्र' की 'जमीन अपनी तो थी'। मजदूर जीवन के संघर्ष का एक पूरा दस्तावेज… श्रमिक व पिछड़े समाज पर होने वाले अत्याचार व शोषण की मार्मिक दास्तान!

          

यह उत्पीड़ित वर्ग कोई भी हो सकता है... भूमिहीन खेतिहर मजदूर या कि डोम, चमार, भंगी जैसे वर्ण-व्यवस्था के अंतिम सोपान पर फेंक दिए गए लोग! अब आप चाहे मजदूर कहकर उनका शोषण करिए... चाहे जातिगत विडंबनाओं के हाशिए पर धकेल दीजिए... अपने अधिकारों के लिए उनका संघर्ष कभी कम नहीं होने वाला। ऊँची जातियों के लोग कृषि पर आश्रित होते हैं, मगर वे जमीन के मालिक होते हैं… जमीन पर काम करने वाले मजदूर नहीं। तो अगड़े और पिछड़े दोनों ही वर्गों में संघर्ष इसी जमीन को लेकर है। आर्थिक विपन्नता ने सामाजिक तौर पर न सिर्फ श्रमिक वर्ग को शोषित किया, अपितु एक हद तक उनका बहिष्कार भी किया। पहले दबे-कुचले कमजोर वर्ग को जमींदारी प्रथा ने हाशिए पर रखा था, आजादी के बाद भी उनकी स्थिति में कोई खास फर्क नहीं पड़ा। इसी संदर्भ में बाबा साहेब आंबेडकर की उद्धृत एक पंक्ति याद आती है कि, "हर आदमी जो मिल के सिद्धांत को दोहराता है कि एक देश किसी दूसरे देश पर शासन करने के लिए उपयुक्त नहीं है, उसे यह भी मानना होगा कि एक जाति भी दूसरी जाति पर शासन करने के लिए उपयुक्त नहीं है”।

     

‘जमीन अपनी तो थी’ इसी जातीय संघर्ष से उपजी कहानी है। यह कहानी तब शुरू होती है जब पिछड़ा वर्ग अपनी मान मर्यादा के प्रति सचेत और अपने मूलभूत अधिकारों के प्रति जागरूक हुआ। यह कहानी है नंद सिंह और काली की... जो जातिपाँति की रूढ़ियों और अमानवीय सामंतवाद का शिकार हो अपने ही गांव से विस्थापित कर दिए गए और अपनी ही जमीन के लिए जीवन पर्यंत संघर्षरत रहे। पाठक पंजाब के घोड़ेवाहा गांव की जगह बिहार और यूपी का चाहे कोई भी गांव रख लें। काली की जगह हरिया और नंद सिंह की जगह मधुसूदन ही कर लें। परिस्थितियां कहीं भी और किसी के लिए भी आसान नहीं होने वाली। लखबीर सिंह की बेटियां… ज्ञानो और पाशो जैसी औरतें आज भी चौधरियों के हवस का शिकार बनती हैं। आज भी हर जगह पृतपाल सिंह, तरलोक सिंह और दलीप सिंह जैसे सरदार मिल जाएंगे, जो एक ओर इन दलित मजदूरों के हित के लिए सोसाइटी का गठन करते हैं तो दूसरी ओर उन्हीं के हलक में हाथ डालकर उनका निवाला निकाल लेते हैं। मुरारीलाल और शिवदत्त जैसे लोग भी मिलेंगे जिसे कहने के लिए काली भले अपना दोस्त कह ले, पर आरक्षण से लेकर सीलिंग एक्ट की खबरें इन्हीं दोस्तों के सीने पर छुरियों सी चलती हैं। बर्दाश्त के बाहर गुजरती है यह बात कि शैक्षिक एवं आर्थिक स्तर पर अब काली जैसे लोग भी उनकी बराबरी करने में सक्षम हो जाएंगे। राजनैतिक महत्वाकांक्षा में गले तक डूबे हुए सेठ राम प्रकाश जैसे जनप्रतिनिधि भी हर गांव में, हर जगह हैं जो इन पिछड़ी जातियों को अपने खेल का मोहरा भर समझते हैं… खुलकर कहते हैं… "बुजुर्गोंं! इन मामूली बातों को छोड़ो। अन्याय की ओर ध्यान दो। जो ब्राह्मणवादी समाज हमारे साथ सदियों से करता आया है। असली लड़ाई तो उन  ताकतों से हैै। तुम्हें पाँच किल्ले जमीन चले जाने का दुख है। मुझे इस मुल्क का मालिक होने के बावजूद महकूम होने का दुख है। आप लोग छोटी-छोटी शिकायतों को भूल जाओ और बड़ी लड़ाई के लिए कमर कसकर तैयार हो जाओ"। और हैं उन्हीं की बिरादरी से पढ़ लिख कर बड़ा ऑफिसर बन गये कुलतार सिंह जौहल जैसे लोग, जो भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। अपने ही लोगों का खून पी पीकर अपना कद बढ़ाते चले जा रहे हैं।

         

‘जमीन अपनी तो थी’ सदियों पुरानी वैयक्तिक अस्मिता की लड़ाई की बड़ी ही बेजोड़ कहानी है। लेखक ने बड़ी ही काबिलियत से पंजाब की क्षेत्रीय भाषा और पृष्ठभूमि को अपने शब्दों में उकेरा है। हर्फ़-दर-हर्फ़  शानदार तरीके से दर्ज करते गए दलित पात्रों के संघर्षों को, उनके अधिकारों की विषमताओं को, उनकी जागृत होती चेतना को और उनके बड़े होते सपनों को। पात्रों के चरित्र के साथ अंतर्विरोध की राजनीति भी बड़ी मुखरता से उभरती है और उनकी बेचैनी व रात-दिन की जद्दोजहद भी। सामंती एवं पूँजीवादी व्यवस्था की निडरता से खिलाफत करता काली जहाँ आपको सहज स्वाभिमान से भर देगा, वहीं ज्ञानप्रकाश जैसे पढ़े-लिखे युवा अपनी कुंठा दिखला कर आपको सोचने पर विवश कर देंगे कि हमारा समाज कहाँ और कितना बदला है! कहाँ बदली है हमारी विचारधारा! कहाँ बदला है हमारा देश !


परिचय :
स्मिता सिन्हा
स्वतंत्र पत्रकार, 
फिलहाल रचनात्मक लेखन में सक्रिय
मोबाइल : 9310652053
ईमेल : smita_anup@yahoo.com



वाइन कलर : सिनीवाली



सिनीवाली की कहानियों को पढ़ते हुए हम सामाजिक परिवर्तन के फलस्वरूप बदलते चेहरों की ठीक-ठीक पहचान कर सकते हैं। बदले हुए चेहरों से बनता समाज देख सकते हैं। उनकी कहानियों के पात्र जमीन से जुड़े होते हैं… अपनी ख़ूबी-ख़ामियों के साथ। वे कथा-लेखन में निरंतर अपनी सार्थकता बनाये रख रही हैं। ग्रामीण पृष्ठभूमि से इतर इस बार उन्होंने कहानी के लिए महानगरीय परिवेश को चुना है। महानगर में रहते हुए उनकी दृष्टि वहाँ के आर्थिक ढाँचे और उसके फलस्वरूप उत्पन्न वर्गीय-संरचना पर गयी है। तो, आइये पढ़ते हैं उनकी कहानी – ‘वाइन कलर’।

वाइन कलर // सिनीवाली

मटमैली रोशनी में कोट को नीचे से उपर की ओर  उसने देखा। फिर तेज रोशनी वाली लाइट जलायी। लाइट जलते ही टंगा हुआ कोट, रोशनी से नहा गया और उसका रंग खिल उठा। होंठों पर एक परत मुस्कान की पसरी और उसका चेहरा कोमल हो गया। वो बुदबुदाया, "वाइन कलर !" उसने हैंगर में टंगे कोट का एक कोना उंगलियों के पोरों से सहलाया। फिर  हथेली उस पर फेरी। सचमुच कितना मुलायम है!

रोमाँचित होते हुए हैंगर बहुत ही सलीके से उतारा और अदब से कोट पहन लिया। पहनते ही उसे लगा, वो अब 'वो' नहीं, कुछ और हो गया है। शायद ऐसा, जैसा वो चाहता रहा है। पहली बार उसे समझ में आया कि कपड़ों के बड़े-बड़े शोरूम, बड़ी-बड़ी कंपनियां और ढेर सारी दुकानें क्यों खुल गयी हैं! क्यों लोग अपनी मेहनत की कमाई कपड़ों पर लुटा देते हैं! आईने में उसने अपने को कई बार देखा। जैसे अपने पर ही मुग्ध हुआ जा रहा हो। 

अब वो पूरी तरह से तैयार हो गया है। लेकिन अभी थोड़ी देर उसे और रूकना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि न्यू ईयर की पार्टी में सबसे पहले वही पहुंचे। लेकिन कोट पहनने के बाद उससे रुका भी नहीं जा रहा। बस स्टाॅप तक पहुंचने में भी समय लग जाएगा। सोचते हुए कमरे का लाइट बंद किया और ताला लगाकर निकल पड़ा। 

बाहर कुहासा रूई के फाहों के मानिंद बिखरा है। बीत रहे साल की अंतिम रात, सर्दी अपने शबाब पर है। लेकिन सड़क पर चलते हुए भी जैसे वो हवा में उड़ रहा है। ठंड और पैदल चलने की थकावट का एहसास उसके आसपास भी नहीं  है। जो भी है, उसके चारों ओर वो गुनगुनी धूप की तरह है। उसके दोनों हाथ कोट की जेब में हैं। चलते-चलते वो बार-बार जेब के भीतर लगे अस्तर के कपड़े को छू-छूकर महसूस कर रहा है, उंगलियां फिसल रहीं हैं। सचमुच कितना मुलायम है! बिल्कुल मखमल की तरह। उससे से अधिक मुलायम और क्या हो सकता है। कई बार उसने सोचा पर वो मखमल से आगे नहीं बढ़ पाया।

अब वो बस स्टॉप पर पहुंच चुका है। वो चाहता तो रोज  की तरह बस का इंतजार कर सकता था। ठंड और कोहरे से लिपटी, बीत रहे साल की अंतिम रात वो यहां इंतजार करते हुए महसूस कर सकता है। या, नए साल के स्वागत में कुछ दुकानों में जो सजावट की गई है, जहाँ रंग-बिरंगी रोशनी थिरक रही है, उसे भी देख सकता है। जिंदगी में भी रंग-बिरंगे लाइट बहुत जरूरी होते हैं। ये सोचकर  कभी-कभी मौका मिलने पर निहारा करता था। बस का इंतजार इस तरह कर सकता था पर, जनाब बस स्टाप पर यूँ चंद मिनट रुके जैसे बासी खाने को कोई हिकारत से देखता हो। 

आती-जाती गाड़ियों को कुछ सेकेंड देखा फिर लगभग मचलते हुए गुज़र रही टैक्सी को हाथ देकर रोका, और खास अंदाज में कोट को संभालते हुए बैठ गया। बस की भीड़ में धक्के खाने की आदत होने पर टैक्सी में सफर... इस खुशी और सुकून को वो कोट की जेब में भर रहा था। पिछली बार कुछ महीने पहले टैक्सी का प्रयोग ऑफिस के किसी काम के लिए किया था। खर्च ऑफिस ने ही उठाया था। बहुत खुश था उस दिन वो। लेकिन अभी अपनी जेब से ये छोटा सा सफर, खुशी और संतुष्टि दोनों दे रहा है। बचपन के एक दोस्त ने खासतौर पर अपनी न्यू ईयर पार्टी में बुलाया है। उसके ऑफिस में साथ उठने-बैठने वाले और वो जो कभी उन्हें भाव नहीं देते हैं वो जब जानेंगे कि इतनी बड़ी कंपनी का जीएम उसका दोस्त है और उसे इसरार करके  अपनी पार्टी में बुलाया है तो उनलोगों की प्रतिक्रिया कैसी होगी! कुछ का मुंह खुला रह जाएगा, जो उनसे जलते-भुनते हैं वो तो जलकर राख हो जाएंगे। जो अभी तक उसे किसी लायक नहीं समझते, वो भी दोस्ती गांठने लगेंगे। वो बस मंद मुस्कराहट लिए देखता रहेगा। ये पार्टी उसके प्रति लोगों का नजरिया बदल देगी। उसके सोचने का क्रम तब रुका जब टैक्सी उसी जगह रूकी , जहाँ उसने कहा था। जिंदगी भी ऐसी ही होनी चाहिए!

इस तरह की बड़ी पार्टी में वो पहली बार जा रहा है। उसे थोड़ी घबराहट भी हो रही है। कई बार कल्पना कर, करके युवक ने अपने को पार्टी के लिए तैयार कर लिया था। हॉल कितना बड़ा होगा ! सजावट कैसी होगी ! कितनी और किस तरह की लाइटें होंगी ? खाने-पीने से लेकर और क्या क्या हो सकता है ? इतने सालों के बाद वो राकेश से किस तरह मिलेगा ? उसे देखते ही अपने चेहरे पर किस तरह का भाव लाएगा ? गले लगेगा या फिर  सिर्फ हाथ मिलाएगा ? हालांकि गले मिलने का मौका मिले  तो ज्यादा अच्छा होगा। पार्टी में आए लोग भी तो जानेंगे कि वह राकेश का कितना करीबी दोस्त है। दोस्त तो बहुत होंगे पर उसकी तरह बचपन का यार...!

गर्म कोट के भीतर उसका खरगोश सा नर्म दिल, रह रहकर अपनी गति से तेज भाग रहा है लेकिन उसे अपनी तैयारी पर भी पूरा भरोसा है। कोई उसे देखकर नहीं सोच पाएगा कि पहली बार इस तरह की पार्टी में शिरकत कर रहा है। अपने आप को मानसिक दबाव से निकालने की लगातार कोशिश कर रहा है। ऐसे में उसे अपने कमरे में अधखुली विंसेंट पील की किताब याद आ रही है। 

अब वो ठीक उस जगह से चंद कदमों की दूरी पर खड़ा है, जहां जाने के लिए उसने वाइन कलर कोट पहना है और इतनी तैयारी की है। पार्टी में बज रहे संगीत की धुन  हवा में तैरती हुई हल्की-हल्की बाहर आ रही है। बाहरी सजावट ही बता रहा है कि भीतर का माहौल कैसा होगा।

बाहर वो कुछ देर खड़ा रहा। रंग-बिरंगी रोशनी की भांति उसके चेहरे पर तरह-तरह के भाव आते-जाते रहे। कुछ देर में अपने कंधे को तानकर सीधा किया, कोट को हल्के हाथों से ठीक किया और भीतर चला गया।   

हॉल में लोगों के बीच आते ही उसके पैर हल्के से काँपे। भीतर से धक्, धक् करते दिल से आवाज आई जो न चाहते भी वह साफ-साफ सुन रहा था। पांच फुट चार इंच के अपने शरीर और अपने भीतर की अजनबीयत को संभालते हुए उसकी नजरें राकेश को खोजने लगीं। क्योंकि, एक वही था जिससे मिलते ही उसे अपने बुलाए जाने की विशिष्टता का अहसास होता।

इसी प्रतीक्षा में वह सोच रहा था कि एक दो वाक्यों में औपचारिक बातों के बाद वो ये जरुर कहेगा कि बहुत मुश्किल से समय निकालकर आ सका है। 'मुश्किल' शब्द पर अधिक जोर देगा। इस पर राकेश या उसके आसपास कोई खड़ा हो तो बोल सकता है कि आज तो ऑफिस भी बंद रहता है, फिर वो आगे मुस्कुराते हुए कुछ सेकेंड रुककर कहेगा, बाकी दोस्तों की पार्टी को छोड़कर आना... इतना बोलकर वो चुप हो जाएगा और चोर नजर से वो राकेश और बाकी लोगों का चेहरा देखेगा। 

कई दिनों से जो मुस्कराहट उसने संभाल कर रखा था, उसे अपने पर चिपका लिया। भीतर आते हुए, हँस-हँस कर बात करते, गले मिलते, हाथ मिलाते लोग अच्छे लग रहे थे। उन्हीं लोगों के बीच वो राकेश का चेहरा तलाश रहा था।

लेकिन उसका दोस्त तो कहीं दिखाई ही नहीं दे रहा था। अब उसकी सरसरी नजर  इधर उधर दौड़ने लगी। ऐसा तो नहीं कि इतने सालों के बाद वो राकेश को पहचान नहीं पाया। 

उस बड़े हॉल में उतने लोगों के बीच भी वह अपने आप को अकेला पा रहा था जैसे किसी टापू पर लाकर उसे छोड़ दिया गया हो। यहाँ से वो किसको आवाज दे ? अपने हाथ-पैर उसे सूखी टहनियों की तरह लगने लगे और दिल  भारी! इन सूखी लकड़ियों को वह कहां रखे, कहां उठाए, कहां बैठाए ! ये सूखी लकड़ियां दिल का भार कैसे उठाएं!

घबराहट होते ही उसकी हथेलियों ने अपनी परिचित जगह, कोट की जेब में जगह बना ली। कुछ पल उंगलियां उस छोटे से जगह में इधर उधर अनजाने ही कुछ टटोलती रहीं। लेकिन उसे इस तरह से नर्वस नहीं होना चाहिए। राकेश ना सही और  लोग भी तो हैं। अपने को समझा कर सामान्य करने में उसे थोड़ा वक्त लगा। कान संगीत सुनने के लिए तैयार हो गए। आँखें डांस कर रहे औरतों-मर्दों को देखने लगीं।

वो हॉल के बीचों-बीच खड़ा होकर गौर से उन्हें देखने लगा। फिर उसे लगा, उसका देखना कहीं घूरने जैसा तो नहीं लग रहा। ये ख्याल आते ही वो वहां से हट गया। अब वो गद्देदार सोफे पर अपनी काया को धँसा कर बैठा देना चाहता था लेकिन कोशिश के बाद भी असहजता बनी रही। वो अपने को म्यूजिक और डांस में डुबा देना चाहता था। लेकिन किनारे बैठे किसी प्यासे की तरह नदी को देखता रहा।

थिरकती औरतों को देखकर वो सोचने लगा। इनमें से कोई राकेश की बीवी भी हो सकती है। उसने फोन पर उसे बताया भी था, कि उसने शादी कर ली है, वो भी लवमैरिज। चलो ये भी अच्छा है, उसने खुद से कहा। पत्नी होगी तो नाचते बच्चों में से कोई उसका बच्चा भी हो सकता है। लेकिन बच्चे के बारे में तो उसने पूछा ही नहीं , और ना ही उसने बताया । फिर वो बच्चों को देखने लगा। अगर होगा तो राकेश से उसका चेहरा जरुर मिलेगा। अब वो अपनी उम्र जोड़ने लगा। क्या उसकी उम्र शादी लायक हो गई है ? इस पर तो उसने गंभीरता से कभी सोचा ही नहीं! घरवालों की बातों को टालता रहा। अचानक उसे लगा, उसकी उम्र इतनी हो गई है, बच्चे नहीं तो कम से कम शादी तो जरुर हो जानी चाहिए।

म्यूजिक और लाइट, नाचती लड़कियां और औरतों की देह ! फिर उनके कपड़ों  पर नजर ठहरी। उफ्... इतनी ठंड में इतने कम कपड़े! कहीं देह न अकड़ जाए। तंग कपड़ों में उठने-बैठने में कितनी दिक्कत  होती होगी, और तो और सांस कैसे ले पाती हैं ? इतनी ऊंची हील, इनके पैरों में तो जरुर दर्द होता होगा !

वो जब शादी करेगा, अपनी या घरवालों की पसंद से तो वो पहले पता जरुर कर लेगा कि लड़की पूरे कपड़े पहनना पसंद करती है या नहीं।

पुरुषों ने पूरे कपड़े पहन रखे हैं । एक से एक बढ़िया ड्रेस। उसने गौर किया, कई लोगों ने कोट पहन रखा है। उसे अच्छा लगा फिर उसने अपनी कोट की ओर देखा और हल्के से मुस्कुरा पड़ा। फिर उसे लगा, वो गजब का बेवकूफ है तभी तो अकेला बैठा फालतू की बातें सोच रहा है। उसे अपना समय बरबाद नहीं करना चाहिए। 

खाली बैठने और फिजूल की बातें सोचने से अच्छा है किसी से बातचीत की जाए। अनजान आदमी से बात करने में भी उसे कोई दिक्कत नहीं है। आसपास नजर दौड़ाई। कुछ ही दूरी पर बैठे एक अधेड़ आदमी पर उसकी नजर टिक गई। वह भी उसकी तरह ही अकेला बैठा है। उसके हाथों में शीशे का ग्लास है। वह घूँट, घूँट पी रहा है। उसके पास जाने से पहले उसने अंदाजा लगाया कि वो किस तरह का आदमी हो सकता है। शोर शराबे से हटकर बैठा है, मतलब गंभीर किस्म का आदमी है या फिर मेरी तरह... ? ऐसे आदमी उसे पसंद हैं। अधिक नहीं बोलते, जिससे सामने वाले को राहत मिलती है। लेकिन ऐसे लोगों की आँखें उसे खतरनाक लगती हैं। लेकिन कुछ देर की ही तो बात है। आँखों से क्या लेना देना, उसे ये सोचकर भी अच्छा लगा कि उस आदमी ने भी कोट पहन रखा था। हां तो वो नववर्ष... ऐसा कुछ बोलकर बात शुरु नहीं करेगा। नहीं हिंदी नहीं , अंग्रेजी में  हैप्पी न्यू ईयर बोलेगा। इमप्रेशन डालने के लिए अंग्रेजी जरूरी है। सामने वाला सेम टू यू बोलेगा, बस बात आसानी से शुरु हो जाएगी। राकेश के आने तक टाइमपास हो जाएगा। 

ये सोचकर उसने अपना कोट हल्के हाथों से ठीक किया, फिर साफ्ट ड्रिंक का ग्लास लेकर ताजगी भरी मुस्कुराहट लिए उस व्यक्ति के सामने खड़ा होते हुए बोला," हैप्पी न्यू ईयर!" बोलते हुए उसकी नजर उस अधेड़ व्यक्ति के चेहरे पर गई फिर उसके कोट पर ठहर गई। आँखों ही आँखों में, दोनों ने एक-दूसरे का कोट देखा। एक ही जैसा कोट... बस रंग अलग है, उसका ग्रे कलर है। कहीं ये कोट भी... वो थोड़ा असहज हो गया।

नहीं... एक जैसा होने का मतलब वही हो जैसा वो सोच रहा है कोई जरुरी तो नहीं। फिर उसने तय किया कि दोनों कोट जरूर एक जैसे हैं लेकिन उसका कोट अधिक अच्छा है क्योंकि ये वाइन कलर का है। वो उस आदमी के पास बैठ गया। सामने वाला लगभग बुदबुदाते हुए  "सेम टू यू " अपने ग्लास की तरफ देखता हुआ बोला। जहां तक सोच कर आया था वहां तक तो बात हो गई। अब आगे... बात करने के लिए जब कुछ न हो और सामने वाले से बात भी करनी हो तो... तो उसने तय किया कि अपना कोट बेहतर होते हुए भी बेतरह और बेसाख्ता इस आदमी के कोट की तारीफ करेगा, वो खुश होगा, फिर आगे तो कुछ न कुछ बोलेगा ही।

उसने अपने कोट को स्टाइल से पकड़ते हुए सामने वाले कोट को नाइस कोट कहा। सामने वाला हल्के नशे में था, बुदबुदाया, "फाइव हंड्रेड!"

'फाइव हंड्रेड' ! सुनते ही वो खड़ा हो गया जैसे  ग्लास में  सॉफ्ट ड्रिंक नहीं करंट का  घोल  हो। ड्रिंक छलक कर उसके कोट पर गिर गया। अपने कोट की ये हालत देख कर वो मन ही मन चिढ़ कर सोचने लगा, ये आदमी जितना गंभीर अपने आप को दिखाने की कोशिश कर रहा है उतना है नहीं ! सामने वाले  के ऊपर गंभीरता का रंग जो उसने खुद ही चढ़ाया था उसे उतरता हुआ नजर आने लगा जैसे रंगे हुए काले बाल रंग गिरने के बाद बदरंग से हो जाते हैं।

" फाइव हंड्रेड "! उसके कान के पर्दे से बार बार टकरा रहे थे। उसे लग रहा था वो व्यक्ति आईना हो और वह उसमें अपने आप को देख रहा है। सॉफ्ट ड्रिंक से भींगे कोट की जगह को छूते हुए  वह सामने वाले से बोला,"  अभी आया।" इतना सुनते ही उस आदमी के चेहरे पर अर्थपूर्ण मुस्कान चमक उठी। वो वहां से निकल तो आया लेकिन उस आदमी की चुभती हुई मुस्कान भी उसके साथ-साथ चली आई। 

वो यहाँ असहज होने तो नहीं आया था। कितना मुश्किल होता है इस हालत में रहना, जब सामने वाले से नजरें चुराते हुए खुद को हिम्मत भी देनी होती है। इस समय अपने भीतर हिम्मत लाना, छोटे-छोटे पत्थर के टुकड़े बटोरने जैसा लग रहा है उसे। उसकी सांसें कुछ चढ़ी हुई थीं और दिल कुछ बैठा हुआ।

अब वो  जल्दी से नाचते-झूमते लोगों के बीच जाना चाहता है जहां सब नशे में डूबे हैं। म्यूजिक का नशा, छलकते जाम का नशा, चढ़ती रात का नशा, रुपये का नशा, नशा...नशा...नशा ! बस और कुछ नहीं ! सभी इस नशे में डूबे हुए! नशा कितना अच्छा होता है ! जो लोगों के बीच अंतर नहीं करता। ऐसी दुनिया में ले जाता है जहाँ वो जाना चाहता है।

लेकिन उस पर ये नशा कैसे चढ़े...! वो सोच रहा है क्या सिर्फ उनके बीच खड़ा होने भर से ये नशा काम कर जाएगा या फिर...!

उसे इतना नहीं सोचना पड़ता अगर राकेश आ गया होता। इतने लोगों के बीच एकदम अकेला है वो, राकेश के आने से उसे हौसला मिलता और उससे मिलने के बाद वो जब चाहे जा भी सकता था। अभी चला गया तो उसका यहां आना, इतनी तैयारी, टैक्सी का किराया और ये वाइन कलर कोट, सब बेकार हो जाएगा। उसे कोफ़्त होने लगी। एक बार कहने पर उसे नहीं आना था। बस एक फोन पर दौड़ा चला आया, शायद उसे इतनी बड़ी पार्टी में आने का लोभ था।

राकेश ने तो उसके बारे में ज्यादा कुछ पूछा भी नहीं, अपनी ही सुनाता रहा। इतनी बड़ी कंपनी में इतने बड़े पद पर है। लेकिन उसे इतना जमाने की क्या जरूरत थी ! भई, ऐशो आराम और शानो शौकत ही बता देता है सबकुछ। उसके बारे में तो बस राकेश ने इतना ही पूछा," कैसा चल रहा है?"

"सब मजे में है"

"मजा तो होगा ही... पढ़ने में तुम बहुत अच्छे थे। तो फिर मिलते हैं, न्यू ईयर पार्टी में, वहीं मुलाकात होगी अब तो, अभी रखता हूं और लोगों को भी इनवाइट करना है।" 

"लेकिन..."

"लेकिन-वेकिन नहीं सुनूंगा... टाइम तो निकालना ही होगा, कुछ महीने में मैं भी यू एस शिफ्ट हो जाउंगा... फिर पता नहीं कब मिलना हो... जरुर आना।"

कहते हुए उसने अपनी बात खत्म कर दी थी। वो भी कितना कमअक्ल है। बात के पीछे की बात को क्यों नहीं पकड़ पाया। उसे आए तो पैंतालिस मिनट से ऊपर हो रहा है और राकेश है कि अभी तक आया ही नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि वो इग्नोर कर कर रहा हो या फिर...

फिर उसने सोचा, क्या सोच रहा है वो ! पार्टी में सभी तो इंतजार कर रहे हैं उसका, सभी खुश हैं तो वो ऐसा क्यों सोच रहा है। छोटी छोटी बातों को पकड़ लेना हीन भावना की निशानी है। वो भला ऐसा क्यों सोचेगा। ऐसा, वैसा, कैसा... वो सोच ही रहा था कि वो  टकराया उससे... जिसे हुस्न कहते हैं!

एकाएक उसे लगा, गर्म हवाओं के थपेड़ो के बीच अचानक रेशमी ढलान से फिसलते हुए वो रंग बिरंगी फूलों की घाटी में गिर पड़ा हो।

सुगंधित घाटी ने अपनी अदा में मुस्कान का हल्का सा नशा घोलते हुए 'हाय' बोला।

लेकिन गिरना तो आखिर गिरना ही है चाहे फूलों की घाटी ही क्यों न हो... आखिर संभलना तो पड़ता ही है। ये अलग बात है कि हर बार संभलना बस संभलने के लिए नहीं होता। चिकनी नजर से उसे देखते हुए हल्के से अपना कोट ठीक किया फिर 'ह... हाय' बोला।

"हाय हैंडसम, आई नोटिस आप अकेले हो इस पार्टी में..."

जब तक वो कुछ बोलता लड़की आगे बोली, " आई आलसो फील लाइक यू।" 

मतलब ये लड़की भी अकेली है। उसे लगा उसने कुछ गलत सुन लिया है, जब तक वो कोई शब्द चुनता उसके अकेले होने पर अपनी खुशी जाहिर करने के लिए लड़की बोली, " कैन वी वेलकम न्यू ईयर टूगेदर?"

इस ऑफर के लिए वो कहीं से भी  तैयार नहीं था, जब तक वो कुछ बोलता उसकी चिकनी नजर लड़की के कपड़ों पर ठहर गयी। लड़की ने ऐसे कपड़े पहन रखे थे जो उसे पसंद नहीं हैं। इसलिए वो ना ही कहेगा। मन में जो आए उसे ज़ुबां तक लाने के लिए कुछ पल तो रुकना ही चाहिए, फिर उसने आगे सोचा लेकिन... कुछ देर की तो बात है, वो भी अकेला बोर हो रहा है। उसे भी कंपनी मिल जाएगी और तब तक राकेश भी आ जाएगा। लड़की के लिबास से उसे क्यों शिकायत हो भला! कपड़े तो इंसान की पहचान नहीं होते। फिर लड़की का ये व्यक्तिगत मामला है आजकल क्या कहते हैं इसे आजादी हां फ्रीडम ।तो इस फ्रीडम का उसे सम्मान करना चाहिए।लेकिन आज तक इतनी माडर्न और हाई सोसायटी की लड़की से उसने बात तक नहीं की। वो कैसे सहज रह पाएगा। फिर उसे लगा वो ऐसा क्यों सोच रहा है। उसमें क्या कमी है, सुंदर है, स्मार्ट है और उसने इतना सुंदर कोट भी पहन रखा है। फिर उसके ऑफिस में लड़कियां काम करती ही हैं। मिडल क्लास की होने से क्या होता है, है तो लड़की ही। थोड़ी देर की तो बात है फिर इतना क्या सोचना। और फिर लड़की खुद ही उसके पास आई है। उसमें ऐसा तो कुछ नजर आया होगा तभी तो।

उसे जरूर हाँ कह देना चाहिए। 

इतनी मशक्कत के बाद हाँ लफ्ज़ ज़ुबां पर आ ही रहा था कि लड़की ने उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया। पहली बार उसके हाथ में  इतना मुलायम, नाजुक-सा कुछ आया था। उसके कोट से भी अधिक मुलायम। उसके भीतर का दिल जो कुछ देर पहले भारी सा लग रहा है वो तितली की तरह पंख हिलाने लगा। उसने बहुत ही रोमांच और सलीके से उन हाथों को पकड़ लिया। 

लड़की मुस्कुराते हुए बोली, “ लेट्स डांस "

डांस! कभी किया नहीं उसने, लेकिन ये बात वो बोल भी नहीं सकता। संभलते हुए बोला, "डांस करते हुए बातों का मजा नहीं आएगा... वहां बैठकर तसल्ली से ...।"

बोलते हुए अपने चेहरे पर चमकदार मुस्कान लाने की कोशिश करने लगा। 

‘ऑफकोर्स’, बोलते हुए लड़की ने एक कोने में रखे हुए सोफे की ओर आंखों से इशारा किया और लगभग हाथ खींचते हुए उधर ले गई।

लड़की का इस तरह से खींचकर ले जाना उसे अच्छा लगा। अपनी ओर से वो भी इसी तरह का कुछ करना चाह रहा था। लेकिन अचानक से चाह कर भी वो कुछ ऐसा नहीं कर पाया। ऐसी हालत में मुस्कान का एक टुकड़ा उसके होठों पर ठहरने से पहले चला गया। इधर-उधर देखने और अपने को सहज रखने में उसकी कभी आंखें नाच उठती तो कभी भौहें, तो कभी कंधे उचक जाते। उसके हाथों को कुछ नहीं सूझ रहा था तो हथेलियां आपस में रगड़ाने लगीं। उसे अपना ही व्यवहार अटपटा लग रहा था। 

" लवली कलर" लड़की के रंगीन होठ बोल पड़े। 

"थैंक्स" अपने कोट पर सरसरी निगाह डालते हुए बोला।

"यू नो, दिस इज माय फेवरेट कलर, रोमांटिक गाय वीयर दिस कलर। इश्क के नशे में डूबा हुआ।"

वाइन कलर और इश्क ! उसने तो कोट लेते हुए इस तरह से सोचा भी नहीं था।  

"एक बात बताऊँ, ये मेरा लकी कलर है... "

"इंपोर्टेड ?!"

"हां, न्यूयार्क से लिया था।" ये क्या हो रहा है उसे, बिना सोचे समझे कुछ भी बोले जा रहा है। ये तो सरासर झूठ है! न्यूस्टार से लिया है ये तो। चौक से बाएं मुड़कर जो ... वहीं से। कल फिर वहां जाना है उसे।

 "ओे हैंडसम", बोलते हुए लड़की और करीब  हो गई और  हाथ को अपने हाथ में फिर ले लिया। 

झूठ के बाद ये इनायत! लड़के ने इधर उधर देखा। सब अपने में डूबे थे। लड़की का इतना सटकर बैठना उसे अच्छा तो नहीं लगा... पर बुरा भी नहीं लगा।  लड़की ने जो कपड़े पहने थे, उसे वे अच्छे लगने लगे। आखिर जीने का अपना अपना  तरीका है। बुराई कपड़े में नहीं, सोच में होती है।

"न्यूयार्क फिर कब जाना है?"

फूलिश नहीं बनाना चाहता था पर फरवरी बोल गया।

"हाउ स्वीट, वी वुड सेलेबरेट वेलेंटाइन टुगेदर !"  

उसे समझ में नहीं आ रहा था। वो बोलना कुछ चाह रहा है, बोल कुछ और रहा है। लड़की कुछ और ही समझ रही है। 
ठीक है इतनी बड़ी पार्टी में वो आया है इसका मतलब ये तो नहीं कि वो अपने को भूल जाए। ये भी ठीक है वो इतना अच्छा कोट पहन कर आया है लेकिन अपनी हैसियत उसे याद है। वो अब साफ साफ बोलेगा। अपने को संभालते हुए बोला "हां तो बात ये है कि..."

हाँ! सुनते ही लड़की कोयल की तरह चहक उठी।

" पता था कि तुम हाँ ही कहोगे।"

उसने घबराहट में भी गौर किया कि लड़की आप से 'तुम' पर उतर आयी है। अब आगे का अंदाजा लगाया उसने । क्या पता डार्लिंग, स्वीटू जानू... क्या-क्या बोल दे।

"लेकिन मेरे हाँ का मतलब..." वो बोलते हुए खड़ा हो गया। 

"हाँ का मतलब बस हाँ  होता है।" लड़की ने हाथ पकड़ कर उसे बैठा लिया। 

"आप मेरे बारे में क्या जानती हैं?"

"वही जो आपके दोस्त और मेरे जीजू ने मुझे बताया है।"

"मतबल आप मुझे जानती हैं, मैं कौन हूं, क्या करता हूं?"

"डार्लिंग, हाउ सिली आर यू !" 

डार्लिंग और सिली, दोनों एक साथ सुनकर वो समझ नहीं पा रहा था कि ये लड़की उसे बेवकूफ समझती है या...

"यू आर सो नर्वस...  जैसे मैं आपकी पोल खोलने जा रही हूं, टेक इट ईजी। इत्मीनान से बैठिए। मेरे जीजू का दोस्त कोई ऐसा वैसा नहीं होता। उनके स्टैंडर्ड के हिसाब से ही होता है। वो इन बातों का बहुत ख्याल रखते हैं।"

स्टैंडर्ड! तो उसे दोस्त मानकर नहीं बल्कि...ऐसी बात थी तो राकेश को उसी समय खुलकर बताना चाहिए था। इस तरह यहाँ बुला कर बेपर्दा तो नहीं करना चाहिए। छुपी हुई बेइज़्जती और गुस्से से उसका दिल फिर भारी भारी सा लगने लगा। उसके अब यहां रुकने का कोई मतलब नहीं है। उसे अब जितनी जल्दी हो यहां से जाना चाहिए। सोचते हुए उठ खड़ा हुआ।

"जीजू ने कहा था कि आप आ रहे हैं। उन्हें देर होगी आने में तो मैं आपका ख्याल रखूं।  यू आर लुकिंग सो हैंडसम। " बोलती हुई लड़की ने फिर हाथ खींच कर बैठा लिया।

"आपका कोट, वो क्या कहते हैं, चार चाँद लगा रहा है "

"आप बिजनेस करते हैं या..."

क्या जबाव दे वो ! अचानक उसे गला सूखा सूखा सा लगने लगा।

शीशे का ग्लास हाथ में पकड़ाती हुई वो बोली, " कोहिनूर ढूंढ निकालने का हुनर हम जानते हैं।"

" कोहिनूर फकत कांच का टुकड़ा भी तो हो सकता है।" 

अब उसे लगने लगा, पानी सिर के उपर जा रहा है । अपनी इतनी बेइज्ज़ती तो किसी भी हाल में बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। हो सकता है उसका दिल... दूसरी दुनिया के सफर पर निकल जाए। ये लड़की जैसा सोच रही है वो वैसा है नहीं। समझदारी इसी में है कि इज्ज़त के साथ यहां से निकल लिया जाए। 

बहुत जरूरी काम... लेकिन इतनी रात को यह बहाना नहीं चलेगा। उसे घबराहट सी होने लगी। सकारात्मक सोच वाली किताबों के पन्ने फड़फड़ाते हुए नजर आने लगे। लड़की क्या बोल रही है, आगे क्या बोलेगी अब इसमें उसकी कोई दिलचस्पी नहीं रही।

" सो रोमांटिक वेलकम ऑफ न्यू ईयर !" 

आवाज थोड़ी बदली हुई है पर इस आवाज को वो पहचानता है। गरम साँसों के बीच एक छोटी सी ठंडी सांस ली उसने। 

"यार, इस तरह क्यों देख रहे हो, मैं तुम्हारा दोस्त राकेश... अच्छा, अच्छा, तुम दोनों को डिस्टर्ब किया।" बोलता हुआ शरारत भरी हंसी हंसने लगा। 

"ओ जीजू , आप भी ना!"

"मेरे देर से आने पर तुम्हें अकेलापन नहीं फील हुआ होगा!" 

वो लगभग झपटता हुआ राकेश के बगल में खड़ा हो गया। क्या क्या सोचकर आया था, हाथ मिलाएगा, गले लगेगा, सब भूल गया। अपनेपन, घबराहट, शिकायत भरी नजर से उसे देखे जा रहा है। बगल में खड़ी लड़की धीमे-धीमे मुस्कुराती रही।

"तुम लोग बातें करो। मैं सबसे मिलकर आता हूं।" 

तब तक जैसे उसे होश आया, "नहीं तुमसे तो अभी ठीक से मिला भी नहीं। कहीं अकेले बात..."

"पहले सबसे मुखातिब हो जाऊं, फिर..." बोलते हुए राकेश चला गया। 

लड़की ने बलखाते हुए कहा, "आज जीजू के पास टाइम कहां है? ऐसा करते हैं, नेक्स्ट संडे हम आपके घर आते हैं। फिर फुर्सत से बातें होंगी।" 

नेक्स्ट संडे! जैसे किसी ने उसके सिर पर हथौड़ा मारा। 

"तब तक तो तुम हो ना इंडिया में"

अब वो क्या करे, बोल दे सच! लेकिन, अगर, मगर जैसी पशोपेश की स्थिति में फंस गया । इस सर्द रात में भी वह पसीने-पसीने होने लगा। ये बूंदें उसकी कनपटी और ललाट पर चमकने लगे।

लड़की लगभग झकझोरते हुए बोली, "ये क्या हुआ ? आपकी तबीयत तो ठीक है ना! लगता है आप काम का प्रेशर बहुत लेते हैं। इतना आसान भी नहीं होता सबकुछ हैंडिल करना, मैं देखती हूं जीजू कितने बिजी रहते हैं। चलिए वहां बैठकर रिलैक्स..."

राहत तो अब बाहर जाकर ही मिलेगी। वो अब और इस जाल में नहीं फंसना चाहता था। कोई भी बहाना कर वो निकल जाएगा यहां से। तब तक उसने देखा वो अधेड़ आदमी जिसके हाथ में इस बार शीशे का ग्लास नहीं था, लड़की की ओर अर्थपूर्ण मुस्कान लिए बढ़ रहा था। लड़के की घबराहट ने फिर ऊंची छलांग लगाई। उस आदमी ने  एक्सक्यूज मी कहते हुए लड़की को हटाकर दूसरी तरफ ले गया।

इसका मतलब है कि बहुत देर से वह मेरे ऊपर नजर रख रहा था। अब वो लड़की से फुसफुसाकर  मेरी ही ओर देखकर कुछ बोल रहा है। जरूर मेरे बारे में बता रहा होगा। लेकिन वो आदमी तो पहली बार मुझसे आज ही मिला है, मेरे बारे में वह क्या जानता होगा ! जैसे मैं उसके बारे में कुछ भी नहीं जानता। सिर्फ एक तरह का कोट होने से क्या होता है। मैं बेकार ही घबरा रहा हूँ। लेकिन फिर वो इस तरह मुस्कुरा क्यों रहा है। जैसे मुस्कान के नश्तर से ...!

हर डर बेकार तो नहीं होता। समझदार के लिए इशारा ही काफी होता है। अब उसकी घबराहट सारी हदें तोड़कर नियंत्रण से बाहर होने लगीं। वो अपने कोट के किनारे को मुठ्ठी में भींचकर सोच रहा है, वो बूढ़ा उसके कोट को देखते ही अजीब ढ़ंग से मुस्कुराया था। उसी समय उसे समझ लेना चाहिए था। पता नहीं अब वो लड़की इस बात को किस तरह लेगी, क्या रिएक्शन होगा। काँच का टुकड़ा उसके पूरे देह में चुभने लगा। फिर भी वो भागने से पहले एक चोर नज़र लड़की पर डालना चाहता है, लड़की की आँखें और चेहरे... कि तभी लाइट चली गई। शोर और रोशनी के बीच अचानक अंधेरा पसर गया।

उसे लगा, उसके कमरे का अंधेरा, जिसे वह वहीं छोड़ आया था, उसके साथ-साथ ही चला आया और उसे पता भी नहीं चला। वही अंधेरा अब यहां भी पसर गया है।

उसने  कोट को अपने दोनों हाथों से इतना कसकर पकड़ लिया फिर भी उसे लग रहा था किसी ने जबरन उसका कोट उसके शरीर से खींच कर हवा में उछाल दिया हो। अब वो बस मुँह फाड़े कोट को नीचे गिरते हुए  देख रहा है। उसके पेट में कुछ ऐंठ रहा है, वो बोलना चाह रहा है। बहुत मुश्किल से गले तक आवाज आई पर बाहर नहीं निकल सकी।नउसके भीतर की मामूली और मुड़ी-तुड़ी शर्ट उसकी हालत बयां कर रहे हैं। अब दोनों हाथों से उसने अपना जूता कसकर पकड़ लिया है कोई उसके जूते भी न उतार फेंके, उसकी फटी जुराबें...! उसे लग रहा है पार्टी का तमाशा वही बन गया है। लोग चारों ओर उसे घेर कर ठहाके लगा रहे हैं। सभी के दाँत बहुत बड़े-बड़े हो गए हैं। सबसे आगे वही लड़की खड़ी है और सबसे तीखी हंसी उसी की है। उसे महसूस हो रहा है कि उसे जलील करने के लिए ही उसे यहां बुलाया गया था। जैसे शिकारी शिकार करके खुश होता है उसी तरह ये लोग भी...  उसका वाइन कलर कोट वहीं चमचमाते फर्श पर गिरा सबके जूतों से कुचला जा रहा है।

लेकिन क्या जरूरत थी उसे इस पार्टी में आने की ! आया भी तो कोट पहन कर क्यों आया! धीरे धीरे अपने को समेट कर अब वो कोट की तरफ बढ़ने लगा। कुचले जा चुके कोट को उठाकर वो अब खुद उसे फाड़ देना चाहता है कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे झकझोरा।

उसने देखा, लाइट तो आ चुकी है। सामने राकेश उससे कुछ बोल रहा है।

"तबीयत तो ठीक है न तुम्हारी!"

" आं ...हां"

"तो फिर इस तरह से यहां अकेले कोने में क्यों खड़े हो , घबराए हुए से लगते हो... चलो वहां बैठते हैं ।"

उसने अपने शरीर की पूरी ताकत को समेटते हुए कहा "अभी मुझे जाना ही होगा"

"अब तो न्यू ईयर वेलकम कर के ही जाओ।"

"नहीं!"

उसने अपने कोट की जेब में हाथ डालते हुए  ठंडी अंगुलियों की मुट्ठी बनाते हुए बोला। अपनी बेजान देह के सूखे डंठल को समेट कर लगभग घसीटते हुए पार्टी से बाहर चला आया। उसके बाहर आते ही रंग-बिरंगे पटाखे काली रात को रोशन करने लगे और हैप्पी न्यू ईयर की आवाजें आने लगीं।  

सड़क पर बहुत ठंड थी और कुहरा घना था। पटाखों की रोशनी कुछ देर और कुछ दूर तक ही थी। तारीख और साल बदल गया। लेकिन वक्त... ! 

बस से कुछ मिनट का रास्ता था। लेकिन वह स्टाॅप पर आकर रूका नहीं, चलता चला गया। इस कोट में अब उसे ठंड लग रही थी जबकि जाते समय यही कोट कितनी गर्माहट दे रहा था। जेब में रखी हथेलियों को मखमली कपड़े  में भी अब उसे कांटे चुभ रहे थे। उसने हाथ बाहर कर लिया। सिगरेट की तलब उसे कब से हो रही थी। होठों पर सूखापन पसरा था। कंठ में तल्खी हो रही थी। जेब टटोला, महीने का आखिरी दिन, जेब की जो हालत होती है, वही थी। 

भारी कदम लिए चलते-चलते वो बुरी तरह थक गया, लेकिन अब वो किराए के अपने कमरे से कुछ ही दूरी पर था। सड़क से गुजरते हुए उसने उस दुकान को कई बार मुड़कर देखा। वह बंद थी और कोहरे से घिरी हुयी थी। यहीं कई बार उधार देने से मना करने पर इसरार करके अपने आत्मसम्मान का छोटा-सा टुकड़ा गिरवी रखकर सिगरेट का पैकेट लेता था। अगर दुकान खुली होती तो क्या आज सिगरेट खरीद पाता! खुद को टटोलते हुए जा रहा थ।

कमरे पर पहुंचकर ताला खोला। अंधेरा कमरा उसका इंतजार कर रहा था। उसने लाइट जलाई, देखा हैंगर वहीं बिछावन पर रखा है। लेकिन कुछ और जो छोड़कर गया था, वो बिल्कुल बर्फ हो चुका है। उसका जी चाहा, कोट देह से नोंच कर कोने में फेंक दे। लेकिन वो ऐसा नहीं कर सकता था क्योंकि कोट किराए का था। 

कोट हैंगर में टांगकर टेबल पर रखी डायरी में नोट किया- कोट का एक दिन का किराया, पांच सौ रुपये!

लेखक परिचय :

नाम-सिनीवाली 

जन्म-भागलपुर (बिहार)

शिक्षा-एस एम कालेज, भागलपुर से

मनोविज्ञान से स्नातकोत्तर, इग्नू से रेडियो प्रसारण में पी जी डी आर पी कोर्स

बचपन से गाँव के साथ साथ विभिन्न शहरों में प्रवास

कहानी संग्रह ' हंस अकेला रोया ' प्रकाशित, 

कई साझा संग्रहों में कहानियां शामिल।

हंस, आजकल, कथानक, पाखी, कथादेश, नया ज्ञानोदय, परिकथा, लमही, इन्द्रप्रस्थ भारती, बया, निकट, माटी, कथाक्रम, विभोम स्वर, अंतरंग, दैनिक भास्कर, प्रभात खबर, दैनिक जागरण, आदि पत्र पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित।

हिंदी समय, गद्यकोश, समालोचन, बिजूका, जानकीपुल, शब्दांकन, स्त्रीकाल, पहली बार, लोकविमर्श, लिटरेचर प्वाइंट, रचना प्रवेश, साहित्यिकी ब्लाग, स्टोरी मिरर, प्रतिलिपि, नोटनल आदि ब्लॉग पर भी कहानियाँ प्रकाशित।

सार्थक ई- पत्रिका में कहानी प्रकाशित।

अट्टहास एवं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में व्यंग्य प्रकाशित।

नोटनल पर ई-बुक प्रकाशित, 'सगुनिया काकी की खरी खरी'

‘करतब बायस’ - कहानी का नाट्य मंचन हिन्दी अकादमी, दिल्ली के द्वारा

हिंदी रेडियो, शिकागो से कहानी वाचन का कार्यक्रम 

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