तर्पण

रसोई  में
आलू-प्याज के साथ
आ जाते हैं
खेत और गाँव भी
लदे-फदे...

झाँकती है उनमें से
कमेसर महतो की सूखी आँखें
झाँकता है उसका दलिद्दर
आगे देखा नही जाता
टोंटी के सामने रख देता हूँ

लगा जैसे...
उसका तर्पण कर
मुक्त हो गया हूँ



हमारा हिस्सा

सुन रही हो न
मुन्नी की माँ !

ऊंची एवं अभेद्य दीवारों के पीछे
कहकहे लगाते आदमी के पास
जो भी फालतू है
दरअसल वह...
तुम्हारी छाती का हिस्सा है
हमारे गाल का हिस्सा है

हम-तुम खामख्वाह
समझे जा रहे थे
खेत हमें खाये जा रहा है
खलिहान चूसे जा रहा है


अबकी मेले में देखा

अबकी मेले में देखा
कई औरतें
नंगी हुई जाती थीं
दुनिया के सामने
चेहरे पर बेहयाई पोते...

परदा गिरते ही पर

भागती थीं जो आप से आप
हांए-हांए बिलखते
नवजातों को चिमटाए
एक झटके में ही छाती खोलतीं
उनकी धुकधुकी को
खुद में समेट
फिर-फिर
बिसूरकर रोती!

अबकी मेले में देखा..!



अंधापन

उसने देखा...
शहर अंधा हो चुका था
और
तेजी से बढा आ रहा था
वह कभी भी
उसकी जद में आ सकता था

शहर..!
शरीर बढा रहा था
नेह-नाते निगल रहा था
धुंध पैदा कर
खुद को छुपा रहा था

तभी उसने देखा
वे सारे उपकरण
उसके इर्द-गिर्द मौजूद थे
जिनका उपयोग कर
शहर अंधा होकर भी
तेजी से
बढता आ रहा था

उसने भी उन्हें संभाला
और,
ठीक-ठीक इस्तेमाल किया


उस पार

भाई..!
हम सड़क के इस ओर हैं
उस पार बाजार है

इस ओर हमारे खेत,
हमारे फावड़े हैं
और हम लाचार हैं
उस पार उनकी गाड़ियां,
उनकी मंडियां हैं
और वे होशियार हैं

इधर सिसकते नहर,
हमारा सूखा है
उधर छलकते तरण-ताल,
उनकी बरसात है

जरा तुम सोचो...
मंडियां इस पार भला आएंगी?
नहरें भला खुद ही मुस्कुराएंगी?
सूखा अब फंदा बन बढता आये
बचे-खुचे सपनों का दम घुटता जाए
इससे पहले कि अपनी बारी आ जाए
चलो अभी
उस पार को कूच कर जायें




वजूद

उन लम्हों में
सीखा था उसने
अपने अंदर जमते
मौन के छंद को
अंदर ही ज़ज्ब रखना

चाहा तो उसने भी था
कि कोई सुने
उस छंद को
चल पड़े जिंदगी
ठहर-सी गई है जो
बिना देखे
एक हमदर्द मुस्कान

अब उसने
उधड़ते दर्द को सीना
सीख लिया है
लेकिन इस नियति को
स्वीकारा भी तो नहीं

उसने भी सोचा था
सब अनुकूल हो
पर यह तो...
दुनियावी शोर में
अपने को
फिर से खो देना था

आज उसे
इस जीवन में उभरी
रिक्तता को
फिर से भरना है
अपने वजूद को
संपूर्णता में
पा लेना है