जब साहित्य में विमर्श की गुंजाईश कम होती जा रही हो, आलोचनाएं दिग्भ्रमित कर रही हों तो ऐसे समय में पाठक क्या करे? क्या यह जरूरी है कि रचनाएँ स्वयं चलकर पाठकों तक पहुँचे? क्या यह उचित नहीं कि पाठक भी रचनाओं तक पहुंचने का कष्ट उठाए। आज के डिजिटल युग में ये दोनों काम आसान हो गए हैं। रचनाओं तक पाठकों एवं पाठकों तक रचनाओं की आमद–रफ़त बढ़ गई हैं। ऐसे ही प्रयास में कुमार श्याम, ग्राम–बरमसर, तहसील–रावतसर, जिला–हनुमानगढ़ (राजस्थान) की रचनाएं सामने आई हैं जो समकालीन यथार्थ को बयां करती हैं। थार के इस किशोर की कहानियों, ग़ज़लों एवं कविताओं में यथार्थ की समझ एवं जन की पक्षधरता दिखती है। उनकी पूरी–अधूरी ग़ज़लों में 'कहन' है जो पाठकों तक निर्बाध पहुँचती हैं। भले ही भाषा एवं शिल्प में समय के साथ परिष्कार आए, पर संवेदना अहम है और स्नातक द्वितीय वर्ष के इस संवेदनशील रचनाकार की ग़ज़लें आप सबके समक्ष है।
इस शहर में नया एक शहर बनाते हैं
आओ घर अपना दिले-बशर बनाते हैं
रंगो-खुशबू भर इन पंखुड़ियों में
ये गुले - मुहब्बत इस क़दर बनाते हैं
टपकता है जितना शहद लबों से
मग़र उतना ही ज़हर बनाते हैं
बुहार कर तारों को राह से ख़ुद
महताब मुक़म्मल सफ़र बनाते हैं
सूख गया पानी इन सियासतदानों का
मग़र ये आखें क्यों समन्दर बनाते हैं
2
घर से निकल काम करने चले हैं लोग
इस सुबह को शाम करने चले हैं लोग
हम नहीं है वैसे इज़्जतदार लेकिन
फिर भी बदनाम करने चले हैं लोग
दफ़न है सीने में उस वक़्त के निशान
पर क्यों सरेआम करने चले हैं लोग
क़ागज़, क़लम और दर्द ही हैं ज़ागीर हमारी
लेकिन इनको भी नीलाम करने चले हैं लोग
3
चराग़ हवाओं से डरते कहां हैं
हम मिजाज़ अपना बदलते कहां है
लहू की रंग़त है अब तक मिट्टी में
वो मरते हैं, मग़र मरते कहां है
क़दमों तले जहां लगती हो दुनिया
हम उस चढ़ाई पर चढ़ते कहां है
वो तो हम हैं के ज़िगर दिए बैठे हैं
वैसे आजकल उधार करते कहां है
फूलों की चोट से उनको कुछ न होगा
वो पत्थर हैं, पत्थर पिघलते कहां हैं
4
तुझमें ऐसे शामिल हो जाऊं
के तू धड़कन मैं दिल हो जाऊं
तुमसे हम मिलें या हमसे तुम मिलो
मैं नदी बनूं के साहिल हो जाऊं
साथ हमारा ऐसा हो जाए
ग़र राह तुम तो मंज़िल हो जाऊं
इश्क़ न मिले, रूसवाई तो मिले
जब तू मरे मैं क़ातिल हो जाऊं
5
शाम ढ़ली, फ़लक़ मुरझाने वाला है
ज़मीन पर अंधेरा छाने वाला है
आंखे-ख़ामोशी कुछ कहती है
शायद तूफ़ान आने वाला है
हुआ बहुत नफ़रतों का शोर यहां
कोई मुहब्बत गाने वाला है
6
नामों-निशां हमारा मिट भी जाए तो क्या
शाख से कोई पता गिर भी जाए तो क्या
हुस्न की महफ़िलों में कोशिशें बहुत हुई मग़र
समंदर के लिये दरिया रित भी जाए तो क्या
पत्थर से मोहब्बत की, पर मोहब्बत थी
इत्तेफ़ाकन ग़र हीरा मिल भी जाए तो क्या।
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कुमार श्याम
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