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कुमार श्याम की ग़ज़लें



जब साहित्य में विमर्श की गुंजाईश कम होती जा रही हो, आलोचनाएं दिग्भ्रमित कर रही हों तो ऐसे समय में पाठक क्या करे? क्या यह जरूरी है कि रचनाएँ स्वयं चलकर पाठकों तक पहुँचे? क्या यह उचित नहीं कि पाठक भी रचनाओं तक पहुंचने का कष्ट उठाए। आज के डिजिटल युग में ये दोनों काम आसान हो गए हैं। रचनाओं तक पाठकों एवं पाठकों तक रचनाओं की आमद–रफ़त बढ़ गई हैं। ऐसे ही प्रयास में कुमार श्याम, ग्राम–बरमसर, तहसील–रावतसर, जिला–हनुमानगढ़ (राजस्थान) की रचनाएं सामने आई हैं जो समकालीन यथार्थ को बयां करती हैं। थार के इस किशोर की कहानियों, ग़ज़लों एवं कविताओं में यथार्थ की समझ एवं जन की पक्षधरता दिखती है। उनकी पूरी–अधूरी ग़ज़लों में 'कहन' है जो पाठकों तक निर्बाध पहुँचती हैं। भले ही भाषा एवं शिल्प में समय के साथ परिष्कार आए, पर संवेदना अहम है और स्नातक द्वितीय वर्ष के इस संवेदनशील रचनाकार की ग़ज़लें आप सबके समक्ष है।


1

इस शहर में नया एक शहर बनाते हैं

आओ घर अपना दिले-बशर बनाते हैं

रंगो-खुशबू  भर इन पंखुड़ि‍यों में

ये गुले - मुहब्‍बत इस क़दर बनाते हैं

टपकता है जितना शहद लबों से

मग़र उतना  ही ज़हर  बनाते हैं

बुहार कर तारों को राह  से ख़ुद
महताब मुक़म्‍मल सफ़र बनाते हैं

सूख गया पानी इन सियासतदानों का

मग़र ये आखें क्‍यों समन्‍दर बनाते हैं

2


घर से निकल काम करने चले हैं लोग

इस सुबह को शाम करने चले हैं लोग

हम नहीं है वैसे इज्‍़जतदार लेकिन

फिर भी बदनाम करने चले हैं लोग

दफ़न है सीने में उस वक्‍़त के निशान

पर क्‍यों सरेआम करने चले हैं लोग

क़ागज़, क़लम और दर्द ही हैं ज़ागीर हमारी

लेकिन इनको भी नीलाम करने चले हैं लोग

3


चराग़ हवाओं से डरते कहां हैं

हम मिजाज़ अपना बदलते कहां है

लहू की रंग़त है अब तक मिट्टी में

वो मरते हैं, मग़र मरते कहां है

क़दमों तले जहां लगती हो दुनिया

हम उस चढ़ाई पर चढ़ते कहां है

वो तो हम हैं के ज़ि‍गर दिए बैठे हैं

वैसे आजकल उधार करते कहां है

फूलों की चोट से उनको कुछ न होगा

वो पत्‍थर हैं, पत्‍थर पिघलते कहां हैं

4


तुझमें ऐसे शामिल हो जाऊं

के तू धड़कन मैं दिल हो जाऊं

तुमसे हम मिलें या हमसे तुम मिलो

मैं नदी बनूं के साहिल हो जाऊं

साथ हमारा ऐसा हो जाए

ग़र राह तुम तो मंज़ि‍ल हो जाऊं

इश्‍क़ न मिले, रूसवाई तो मिले

जब तू मरे मैं क़ातिल हो जाऊं

5


शाम ढ़ली, फ़लक़ मुरझाने वाला है

ज़मीन पर  अंधेरा  छाने वाला है

आंखे-ख़ामोशी कुछ कहती है

शायद  तूफ़ान आने वाला है

हुआ बहुत नफ़रतों का शोर यहां

कोई   मुहब्‍बत  गाने  वाला है

6


नामों-निशां हमारा मिट भी जाए तो क्या

शाख से कोई पता गिर भी जाए तो क्‍या

हुस्‍न की महफ़ि‍लों में कोशिशें बहुत हुई मग़र

समंदर के लिये दरिया रित भी जाए तो क्‍या

पत्‍थर से मोहब्‍बत की, पर मोहब्‍बत थी

इत्‍तेफ़ाकन ग़र हीरा मिल भी जाए तो क्‍या।

संपर्क :
कुमार श्याम
मोबाइल – 9057324201
ईमेल – kumarshyam0605@gmail.com

संजू शब्दिता की ग़ज़लें


साहित्य एवं कला हमेशा अपने अनवरत प्रसार एवं समृद्धि हेतु समर्पित शख्सियतों का चुनाव कर लेती है। संजू शब्दिता का हिंदी साहित्य में एम.ए. एवं नेट जे.आर.एफ. करना कुछ अकस्मात नहीं था वरन यह वर्षों की लगन एवं मेहनत का परिणाम था जो उन्हें अपने साध्य की ओर बढ़ने को प्रेरित कर रहा था। परिणाम हुआ कि आज वे 'समकालीन हिंदी ग़ज़ल' विषय पर शोधरत हैं। साहित्य–सृजन में उनकी प्रमुख विधा भी ग़ज़ल है। अपने मनोवेगों एवं भावनाओं का संयोजन जिस खूबसूरती से वे ग़ज़लों में करती हैं वह वाकई काबिलेतारीफ है। ग़र आज की भाग–दौड़ से भरी ज़िन्दगी में सुकूँ के कुछ लम्हों की तलाश हो तो बेशक इनकी ग़ज़लें पढ़ सकते हैं। हालांकि उनकी ग़ज़लें देश की विभिन्न पत्रिकाओं में छपी हैं तथा कई ब्लॉगों पर भी आई हैं, पर उनमें इन सबके प्रति कोई जल्दबाज़ी...कोई महत्वाकांक्षा नहीं है। बस उनके पास अपनी रचना के प्रति समर्पण है जो उन्हें विशेष बनाती है तथा उनकी ग़ज़लों को उम्दा ! तो उनकी ग़ज़लों के साथ सफर में हम भी साथ हो लें।


1-

ख्वाहिशें बेहिसाब होने दो
ज़िन्दगी को सराब* होने दो

उलझे रहने दो कुछ सवाल उन्हें
खुद ब खुद ही जवाब होने दो

तुम रहो दरिया की रवानी तक
मेरी हस्ती हुबाब होने दो

जागना खुद ही सीख जाओगे 
अपनी आँखों में ख़्वाब होने दो

हार का लुत्फ़ भी उठा लेंगे
इक दफ़ा कामयाब होने दो

*सराब - मृग-तृष्णा

2 -

मुद्दतों रूबरू हुए ही नहीं
हम इत्तेफाक़ से मिले ही नहीं

साथ वो ले गया बहारें भी
फूल बागों में फिर खिले ही नहीं

चाहने वाले हैं सभी उनके
वो सभी के हैं बस मेरे ही नहीं

दरमियाँ होता है जहाँ सारा 
हम अकेले कभी मिले ही नहीं

सादगी से कहा जो सच मैंने
वो मेरे सच को मानते ही नहीं

3-

जो चाहें हम वही पाया नहीं करते
खुदाया फिर भी हम शिकवा नहीं करते

विदा के वक़्त वो मिलने का इक वादा
उसी वादे पे हम क्या -क्या नहीं करते

ज़माने की नज़र में आ गए हैं वो
अकेले हम उन्हें देखा नहीं करते

सितमगर पूछता है, मुझसे हालेदिल
ज़हर में यों दवा घोला नहीं करते

इशारों को समझना भी जरुरी है
किसी से बारहा पूछा नहीं करते

उन्हें है इश्क हमसे जाने फिर भी क्यों
ये लगता है हमें गोया नहीं करते

4-

पहले शाइर समझने लगते हैं 
फिर वो मुज़हिर* समझने लगते हैं

इतना ज्यादा है मेरा सादापन
लोग शातिर समझने लगते हैं

थोड़ी सी दिल में क्या जगह मांगी
वो मुहाज़िर समझने लगते हैं

हम सुनाते हैं अपनी ताबीरें
आप शाइर समझने लगते हैं

इक जरा से किसी क़सीदे पर
खुद को माहिर समझने लगते हैं

जो समझने में उम्र गुज़री है 
उसको फिर-फिर समझने लगते हैं

*मुज़हिर - प्रदर्शन करने वाला

5-

ऐब औरों में गिन रहा है वो
उसको लगता है की ख़ुदा है वो

मेरी तदवीर को किनारे रख
मेरी तक़दीर लिख रहा है वो

मैंने माँगा था उससे हक़ अपना
बस इसी बात पर खफ़ा है वो

पत्थरों के शहर में ज़िन्दा है
लोग कहते हैं आइना है वो

उसकी वो ख़ामोशी बताती है
मेरे दुश्मन से जा मिला है वो

6-

खुले आसमां का पता चाहते हैं
परिन्दे हैं हम और क्या चाहते हैं

उड़ेंगे हवा में ख़ुदी के परों से 
उड़ानों में सारी फ़ज़ा चाहते हैं

बहुत रह चुके क़ैद में हम परिन्दे
असीरी* से अब हम रिहा चाहते हैं

कहो कितना कुचलोगे गैरत हमारी
जुनूँ की हदों तक अना चाहते हैं

गुनहगार ही मुंसिफ़ी कर रहा हो
वहां क्या बताएं कि क्या चाहते हैं

* असीरी - क़ैद

7-

हमारी बात उन्हें इतनी नागवार लगी
गुलों की बात छिड़ी और उनको ख़ार लगी

बहुत संभाल के हमने रखे थे पाँव मगर
जहां थे ज़ख्म वहीं चोट बार-बार लगी

कदम कदम पे हिदायत मिली सफ़र में हमें
कदम कदम पे हमें ज़िंदगी उधार लगी

नहीं थी क़द्र कभी मेरी हसरतों की उसे
ये और बात कि अब वो भी बेक़रार लगी

मदद का हाथ नहीं एक भी उठा था मगर
अजीब दौर कि बस भीड़ बेशुमार लगी


8-

मन मेरा उलझनों में रहता है
और वो महफ़िलों में रहता है

आग मज़हब की जिसने फैलाई
खुद तो वो काफ़िरों में रहता है

इश्क़ में था किसी ज़माने में
आज वो पागलों में रहता है

बीच लहरों में जो मज़ा साहिब 
वो कहाँ साहिलों में रहता है

खौफ़ शायद किसी का है उसको
आजकल काफिलों में रहता है

9-

बदगुमाँ आज सारी महफ़िल है
जाने किस राह किसकी मंज़िल है

हाले -दिल हम बयां करें कैसे
शहर का मसअला मुक़ाबिल है

उम्र बीती है मेरी सहरा में
दूर तक दरिया है न साहिल है

वो मेरी ग़ज़लों का ही है हिस्सा
वो कहाँ जिन्दगी में शामिल है

दिल मेरी एक भी नहीं सुनता
कैसा गुस्ताख़ ये मेरा दिल है

10-

इंसानियत का पता मांगता है
नादान है वो ये क्या मांगता है

वो बेअदब है या मैं बेअसर हूँ
मुझसे वो मेरी अना मांगता है

हद हो गई है हिक़ारत कि अब वो
रब से दुआ में फ़ना मांगता है

बरक़त खुदाया मेरे घर भी कर दे
बच्चा खिलौना नया मांगता है

किस्मत में मेरे नहीं था वो लेकिन
दिल है कि फिर भी दुआ मांगता है


संपर्क :
संजू शब्दिता
ईमेल - sanjushabdita@gmail.com

समीर परिमल की ग़ज़लें


'समीर परिमल' ग़ज़ल की दुनियां का एक सुपरिचित नाम है। वे पेशे से शिक्षक हैं, इस कारण समाज एवं परिवेश को निकट से संपूर्णता में देखते हैं। उनकी ग़ज़लों को पढ़कर–सुनकर सिर्फ सुकूँ ही नहीं मिलता बल्कि ऐसा अहसास होता है कि अंदर कुछ पिघल रहा है जो हमें जगाए रखता है। उनकी रचनाओं में प्यार के अफ़साने भी हैं तो रुसवाईयाँ भी... आमजन का असंतोष भी है तो उम्मीद भी। यही बात उन्हें विशेष बना देती है। सबसे बड़ी बात कि वे कभी यथार्थ से नजरें चुराकर नहीं चलते बल्कि सामना करते हैं। संवेदना एवं शिल्प के स्तर पर उनकी गजलें उतनी ही लाजवाब हैं जितना वैचारिकता एवं मनोविज्ञान के स्तर पर। उनका पहला ग़ज़ल–संग्रह 'दिल्ली चीखती है' प्रकाशनाधीन है जो शीघ्र ही आप तक पहुँचने वाली है। तो आइए रूबरू होते हैं उनकी ग़ज़लों से।


1.


साज़िशों की भीड़ थी, चेहरा छुपाकर चल दिए
नफ़रतों की आग से दामन बचाकर चल दिए

नामुकम्मल दास्तां दिल में सिमटकर रह गई
वो ज़माने की कई बातें सुनाकर चल दिए

ज़िक्र मेरा गुफ़्तगू में जब कभी भी आ गया
मुस्कुराए और फिर नज़रें झुकाकर चल दिए

मंज़िले-दीवानगी हासिल हुई यूँ ही नहीं
क्या बताएं प्यार में क्या-क्या गंवाकर चल दिए

वक़्त से पहले बड़ा होने का ये हासिल हुआ
तिश्नगी में हम समन्दर को उठाकर चल दिए

रंग काला पड़ गया है मरमरी तक़दीर का
मुफ़लिसी की धूप में अरमां जलाकर चल दिए


2.


कहीं सिमटे हुए चेहरे, कहीं बिखरे हुए चेहरे
नज़र आते हैं इस सैलाब में सूखे हुए चेहरे

सितारे, चाँद, सूरज हो गए सब दफ़्न मिटटी में
दिखाई दे रहे हैं हर तरफ उतरे हुए चेहरे

हवाएँ अब भी लाती हैं हमारे गाँव की खुशबू
वो मिट्टी में सने औ' धूप में भींगे हुए चेहरे

मुझे अश्क़ों को पीने का हुनर आता नहीं यारों
छुपा लूँ किस तरह आँखों से ये बहते हुए चेहरे

खिलौने की तरह खामोश बैठे हैं दुकानों में
तुम्हे मिल जायेंगे हर मोड़ पे खोये हुए चेहरे

मैं बचपन की किताबों में जो पन्ने मोड़ आया था
उन्हीं में आज दिखते हैं कई लिक्खे हुए चेहरे

चला आया हूँ अनजानों की बस्ती में मगर 'परिमल'
यहाँ चेहरों के पीछे हैं मेरे देखे हुए चेहरे


3.


प्यार देकर भी मिले प्यार, ज़रूरी तो नहीं
हर दफा हम हों खतावार, ज़रूरी तो नहीं

खून रिश्तों का बहाने को ज़ुबाँ काफी है
आपके हाथ में तलवार ज़रूरी तो नहीं

आपके हुस्न के साए में जवानी गुज़रे
मेरे मालिक, मेरे सरकार, ज़रूरी तो नहीं

एक मंज़िल है मगर राहें जुदा हैं सबकी
एक जैसी रहे रफ़्तार, ज़रूरी तो नहीं

दीनो-ईमां की ज़रुरत है आज दुनिया में
सर पे हो मज़हबी दस्तार, ज़रूरी तो नहीं


एक दिन आग में बदलेगी यही चिंगारी
ज़ुल्म सहते रहें हर बार, ज़रूरी तो नहीं


4.


मुझसे इस प्यास की शिद्दत न सँभाली जाए
सच तो ये है कि मुहब्बत न सँभाली जाए

मेरे चेहरे पे नुमायां है यूँ उसका चेहरा
आइने से मेरी सूरत न सँभाली जाए

आपके शह्र की मगरूर हवाएँ तौबा
इनसे अब हुस्न की दौलत न सँभाली जाए

मुझको ख़्वाबों में ही ऐ यार गुज़र जाने दे
इन निगाहों से हक़ीक़त न सँभाली जाए

बोझ उम्मीदों का कंधों पे उठाएँ कब तक
घर की दीवारों से ये छत न सँभाली जाए


5.


किसी की सरफ़रोशी चीख़ती है
वतन की आज मिट्टी चीख़ती है

हक़ीक़त से तो मैं नज़रें चुरा लूँ
मगर ख़्वाबों में दिल्ली चीख़ती है

हुकूमत कब तलक गाफ़िल रहेगी
कोई गुमनाम बस्ती चीख़ती है

गरीबी आज भी भूखी ही सोई
मेरी थाली में रोटी चीख़ती है

भुला पाती नहीं लख्ते-जिगर को
कि रातों में भी अम्मी चीख़ती है

महज़ अल्फ़ाज़ मत समझो इन्हें तुम
हरेक पन्ने पे स्याही चीख़ती है

बहारों ने चमन लूटा है ऐसे
मेरे आँगन में तितली चीख़ती है

जिसे तू ढूंढने निकला है 'परिमल'
तेरे सीने में बैठी चीख़ती है


6.


आज नहीं तो कल लिक्खेंगे
हर मुश्किल का हल लिक्खेंगे

जेठ की तपती दोपहरी में
सूरज पर बादल लिक्खेंगे

मेहनतकश जनता के हिस्से
सारा नभ-जल-थल लिक्खेंगे

गाँवों की हरियाली को हम
भारत का आँचल लिक्खेंगे

बूढ़ी आँखों के पानी को
पावन गंगाजल लिक्खेंगे

महका-महका खून-पसीना
हम उसको संदल लिक्खेंगे

तुम लिक्खो धोखा-मक्कारी
हम विश्वास अटल लिक्खेंगे

सत्ता के सीने पर चढ़ कर
भूख का रण-कौशल लिक्खेंगे

भय की हत्या कर डाली है
अब हर क्षण प्रति पल लिक्खेंगे

जन-गण की बातें करता है?
सब तुझको पागल लिक्खेंगे



संपर्क : 
समीर परिमल
मोबाइल- 9934796866
ईमेल - samir.parimal@gmail.com