तम और संघर्ष के क्षणों में दीए की लौ : सुरेन्द्र स्निग्ध



तम और संघर्ष के क्षणों में दीए की लौ – विद्या भूषण (पटना विश्वविद्यालय)

(जनकवि सुरेन्द्र स्निग्ध की स्मृति को समर्पित)

हृषिकेष मुखर्जी निर्देशित बेहद कलात्मक फिल्म आनंद (1970) का एक काव्यात्मक संवाद है-
  
  ’’मौत! तू  एक कविता है
    मुझसे कविता का वादा है, मिलेगी मुझको
    डूबती नब्जों में जब दर्द को नींद आने लगे
    जर्द सा चेहरा लिए चाँद उफक तक पहुँचे
    दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
    न अंधेरा न उजाला हो, न अभी रात न दिन
    जिस्म जब खत्म हो और रूह को जब साँस आए
    मुझसे कविता का वादा है मिलेगी मुझको।‘‘



जीवन की तरह मृत्यु में भी कविता की तलाश या मृत्यु को भी एक भावप्रवण कविता की तरह वरण करने की चाह कोई कद्दावर व्यक्तित्व, कोई बड़ा किरदार ही कर सकता है। रंग-रूप-रस और जीवन राग से संपृक्त सुरेन्द्र स्निग्ध ऐसे ही आजाद मिजाज के एक बड़े किरदार थे। उनका पूरा जीवन एक लम्बी कविता की तरह था। कविता के लिए समर्पित था।



    “अभी तो चलना है बहुत दूर मेरे मित्र
    बहुत दूर
    इन अनजानी अनपहचानी सड़कों पर
    इस भरी पूरी चाँदनी में
    तुम्हारे जैसे मित्रों के साथ
    चुप-चाप”1

जीवन की तरह मृत्यु को लेकर भी उन्होंने उतने ही खूबसूरत बिम्ब गढ़े थे। वे स्वयं कहते हैं- ’’मेरी कविताओं में मृत्यु अब मुझे डराती नहीं बल्कि वह अधिक ऊर्जा प्रदान करती है।‘‘2

    “हमें लगता है विमल
    (सही कह रहा हूँ-क्यों तो ऐसा बार-बार लगता है।)
    कभी पूरे चाँद की रात में ही
    मरूँगा मैं
    छोड़ जाऊँगा सारी पृथ्वी
    इतनी ही खूबसूरत और सुगंध भरी।’’3

अस्थमा और मधुमेह से पीड़ित देह और काव्यात्मक संवेदनाओं से झंकृत मन के साथ आखिर के दस दिनों तक इंटेंसिव केयर यूनिट में वेंटिलेटर पर ’काल तुझसे होड़ है मेरी‘ की जिजीविषा लिए अपनी उखड़ी हुई साँसों के साथ संघर्ष करते हुए अंततः 18 दिसंबर की सर्द शाम में जर्द सा चेहरा लिए ’लाल चिरैया‘ की तरह कहीं दूर, बहुत दूर उड़ गए।
   
ऐसे संक्रांत समय में जब सच को पूरी निडरता और बेलौसपन के साथ अभिव्यक्त करनेवालों की संख्या घटती जा रही है या वे रूढ़िग्रस्त शक्तियों के प्रहार और आक्षेप से खामोश कर दिए जा रहे हैं, उनका यूँ अचानक चले जाना किसी हादसे से कम नहीं है। सर्वेश्वर ने ठीक ही कहा है-
  
  “तुम्हारी मृत्यु में
    प्रतिबिम्बित है हम सबकी मृत्यु
    कवि कहीं अकेला मरता है!”4

सुरेन्द्र स्निग्ध के साहित्यिक-कर्म और जीवन-कर्म में कोई द्वैत न था। वे जो लिखते थे, जो वर्ग में पढ़ाते थे कमोबेश निजी जिन्दगी में वैसे ही थे। सत्य, संघर्ष और प्रेम उनके जीवन का दर्शन था और अपने साहित्य में वे इसी जीवन-दर्शन को ’रचते-गढ़ते‘ रहे।
   
सुरेन्द्र स्निग्ध ने साहित्य की कई विधाओं में यथा- उपन्यास, आलोचना, कहानी और कविता आदि में अपने इस दर्शन को शब्दबद्ध किया पर उनकी कविताओं में यह भाव प्रमुखता से उभरा है। वे मूलतः कवि ही हैं। उनके गद्य लेखन पर भी उनका कवि रूप हावी है। उनके गद्य की भाषा भी कविता के निकट की भाषा है।
   
मूलभूत सुविधाओं के अभाव में पलकर उन्होंने भावों का संसार रचना सीखा। 5 जून 1952 ई० में पूर्णिया जिले के सुदूर एक ठेठ देहात सिंघियान में एक अत्यंत निर्धन किसान परिवार में उनका जन्म हुआ। तमाम प्रकार की समस्याएँ, किल्लतें, फटेहाली और तंगी इनकी प्रतिभा को रोक न सकी। ’’अक्षरों की दुनिया का रहस्य और परिवार में मृत्यु का लम्बा सिलसिला इस बालक की रचनात्मक चादर का तानी और भरनी है।‘‘5

    ’’अत्यंत निर्धन थे हम
    घर में नहीं है किसी का फोटोग्राफ
    न माँ का    
    न पिता का
    उनमें से अब किन्हीं का चेहरा नहीं है याद
    भागती हुई रेखाएँ
    साथ लेकर भाग गईं सबकुछ‘‘6

सुरेन्द्र स्निग्ध के 6 काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। 1 पके धान की गंध(1993) 2 कई-कई यात्राएँ(1998) 3 अग्नि की इस लपट से कैसे बचाऊँ कोमल कविता(2005) 4 रचते-गढ़ते(2008) 5. मा कामरेड और दोस्त(2014) 6 संघर्ष के एस्ट्रोटर्फ पर(2016)
   
उनकी पहली कविता दिवंगत माँ के ऊपर थी। माँ के असामयिक निधन ने उनके बालमन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। उस खोई हुई ममता की तलाश वे आजीवन करते रहे। इसे बाद की कई कविताओं में देखा जा सकता है-

    ’’प्रेमिकाओं के चेहरे में
    कब तलक खोजता रहूँगा
    विलुप्त हुआ माँ का चेहरा
    कब तलक सूखी रहेगी
    सपनों की नदी‘‘7

साठ के दशक में ’किशोर‘ पत्रिका में ’लाल चिरैया‘ प्रकाशित हुई थी। किशोर मन का कौतुक और उल्लास इस कविता में अभिव्यक्त हुआ है। प्रकृति के सुन्दर और सजीव चित्र इसमें पिरोए गए हैं। ’लाल चिरैया‘ का लाल रंग विशेष अर्थ को ध्वनित करता है। यह लाल रंग जो प्रकारांतर से संघर्ष, जन आंदोलन और क्रांति का प्रतीक है, आगे चलकर उनकी कविताओं में पुरजोर तरीके से चित्रित हुआ है।
   
सुरेन्द्र स्निग्ध जीवन के बड़े सरोकारों से जुड़े प्रतिबद्ध कवि हैं। उनकी कविताएँ उनकी राजनीतिक-सामाजिक प्रतिबद्धता, वैचारिकी और आत्मसंघर्ष की उपज है। उनकी रचनाओं में जो प्रगतिशीलता की धार है वह जनसंघर् से जुड़े होने के कारण लगातार तीक्ष्ण होती चली गई है। वे प्रगतिशील लेखक संघ के सक्रिय सदस्य रहे। बाद में नक्सलबाड़ी आंदोलन का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। सामंत विरोधी किसान आंदोलन ने उनकी दृष्टि को नया मजबूत आधार दिया। महेश्वर, नचिकेता, राणा प्रताप, जितेन्द्र राठौर आदि के साथ मिलकर उन्होंने नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा, बिहार का गठन किया। उनकी यह मंडली रचनाकारों को जनसंघर्षों से जोड़ने के लिए निरंतर सक्रिय रही। जनसंस्कृति मंच से लेकर सी० पी० आई०(माले) तक से जुड़कर उनकी वामपंथी दृष्टि निरंतर व्यापक होती चली गई। उनकी प्रसिद्ध कविता ’’मा कामरेड और दोस्त‘‘ में उनकी वैचारिकी तीव्र आवेग से फूटी है। कविता में माँ अपने पु़त्र से सवाल करती है-
   
“सुनती हूँ
    सरकार इन गीतों से
    इन नाटकों से
    बहुत घबराती है
    घबराता है गाँव का जमींदार
    आखिर क्या है इनमें
    तुम क्यों गाते हो ऐसे गीत?‘‘8

सर्वहारा वर्ग के उत्थान और व्यवस्था-परिवर्तन का स्वप्न सँजोए क्रांति और संघर्ष के कठिन मार्ग पर निकल चुका पुत्र कहता है-
   
’’हम तो बनना चाहते हैं माँ
    सर्वहारा के हाथों का तेज औजार
    काटने के लिए शोषण के
    जंग लगे तंत्र
    हम तो बनना चाहते हैं
    उनकी बाँहों की माँसपेशियाँ
    ताकि मथ सकें वे
    शोषण के अथाह समुद्र‘‘9

आगे चलकर संगठन के अंतर्विरोध, गुटबाजी और अंततः मोहभंग का भी दृश्य है जहाँ नायक पुनः संगठन से दूर पुस्तकों की ओर लौट जाता है। यहाँ नायक का द्वन्द्व कहीं न कहीं कवि का अपना अंतर्द्वन्द्व है, अपनी पीड़ा है-
   
’’हे वसंत के बज्रनाद के
    खुशबूवाले फूल
   कहाँ जा रहे हो तुम
    क्या-क्या खोजना चाह रहे हो
    लौटकर
    इन किताबों में?‘‘10

शिक्षकों और शिक्षा की बेहतरी के लिए एक जन-संघर्ष के दौरान उन्होंने कारावास की यातना भी झेली। उन यातना के क्षणों में भी आँखों में भविष्य के सुनहरे सपने थे-

    ’’हमारी पत्नियाँ
    अपनी आँखो में
    उगा सकें आश्वस्ति का सूरज
    हम शिक्षा की ऐसी बल्लरियाँ
    लगा सकें कैम्पसों में
    जिन पर हमारे बच्चे
    खिल सकें फूलों की तरह
    लद सकें फलों की तरह
    रूप, रंग, गंध से भरपूर‘‘11

वे संबंधों को बनाने, बचाने और मन से निभाने वाले व्यक्ति थे। रिश्तों में गरमाहट का महत्व समझते थे। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि

    ’’क्या रहना ऐसी जगह
    जहाँ कोई दोस्त नहीं हो
    नहीं हो कोई
    हालचाल पूछने वाला।‘‘12

जहाँ भी उन्हें अपनत्व का स्निग्ध ताप मिलता, वे भाव-विह्वल हो उठते-

    ’’क्यों इतना प्यार
    परोस रहे हो दोस्तो
    जैसे दिन खिले फूल
    ढलते सूरज की थाली में
    पुरवैये के झोंकों के साथ
    उड़ेल देते हैं
    ढेर सारी खुशबू।‘‘13

जो जीने की लालसा बढ़ा दे, जीवन-दृष्टि का दायरा विस्तृत कर दे, जो जीने को नए मायनों से भर दे ऐसे संबंधों को वे निरन्तर तलाशते रहे-

    ’’कल की रात कविताओं में
    ढूँढता रहा अपना एक दोस्त
    एक एक्टिविस्ट
    एक कामरेड
    एक चिंतक
    एक कवि‘‘14

उनकी कविताओं का एक हिस्सा वैसे मित्रों को समर्पित है जिनसे उन्हें वैचारिक और आत्मीय संबल प्राप्त हुआ।

सुरेन्द्र स्निग्ध का काव्य जगत प्रकृति के खूबसूरत दृश्यों से जगमग है। प्रकृति के प्रति नए प्रेम-भाव और नए सौंदर्य बोध को उन्होंने शब्दबद्ध किया है। यहाँ प्रकृति को हसरत भरी निगाह से देखना भर नहीं है बल्कि उसका अविभाज्य हिस्सा बन जाना है। प्रकृति जितनी उनके बाहर है उतनी ही उनके भीतर भी। कवि की अनुभूति और दृष्टि प्रकृति की लय और ताल से एकाकार हो उठी है और यह सब एक रचनात्मक और कलात्मक प्रक्रिया में ढलकर कविता में एक नवीन सौन्दर्यानुभूति उत्पन्न करती है। गोवा के घने जंगलों से गुजरते हुए उन्होंने एक कविता लिखी थी-’थिरकता हुआ हरापन‘। जंगल के अखिल ऐश्वर्य को उसके संपूर्ण पारिस्थितिकी के साथ कवि चित्रित करता है-

    ’’झर रहा है उजला प्रपात
    चाँदनी पिघलकर
    झर रही है पतली उजली रेखा की तरह
    किसी नन्हें शिशु ने
    खींच दी है चॉक से एक लम्बी लकीर
    या, ढरक गई है
    किसी ग्वालन की गगरी से
    दूध की धार
    इस घने जंगल में
    नाच रहा है कहीं
    आदिवासियों का झुंड‘‘15

बादलों का उमड़ना-घुमड़ना उन्हें खूब भाता है। बादलों का सौन्दर्य, आँचल में समोए जीवनदायिनी पीयूष की धार, उसका गर्जन-तर्जन, सांगीतिक नृत्य, गति, चमक सब मिलकर कवि को उमंग और उल्लास से भर देता है- 
  
    ’’दूध से भरे
    भारी थन से
    या चाँदनी से लबालब कटोरे से
    छलक-छलक रहे हैं
    अगस्त के बादल’’16

सूरज की लालिमा से उनकी कविताएँ रोशन हैं। यह लाल रंग संघर्ष पथ पर गति का उत्प्रेरक है।

    ’’सूरज की चादर की लाली
    हमारे पैरों से
    चढ़ रही है ऊपर
    हमारी आत्मा की चट्टान तक
    वहाँ यह फिर फैलेगी
    फिर-फिर
    सूरज फिर झूलेगा
    बीच समुद्र में
    हवाओं की रस्सियों के झूले पर।’’17

उनके कवि-व्यक्तित्व में जो अगाध और प्रगाढ़ लहराता हुआ प्रेम है, वही फैलकर सतरंगी सौंदर्य की सृष्टि करता है। वे रंग-रूप-गंध और रस के कवि हैं। भौतिक जीवन से बेशुमार लगाव ही उन्हें स्त्री सौंदर्य की ओर ले जाता है। उनकी कविताओं में स्त्री-देह और स्त्री-मन का सौंदर्य और संगीत पूरे आवेग, पूरी ऐंद्रिकता के साथ अकुंठ भाव से प्रकट हुआ है।

    ’’तुम हो बादल
    तुम बरस रही हो
    भीग रहा है मेरा तन-मन
    भीग रही है
    नवम्बर की सर्द दोपहरी‘‘18

समर्पण, साहचर्य और विश्वास में प्रेम का शास्वत सौंदर्य किस प्रकार खिलता और खुलता है, इसका श्रेष्ठ उदाहरण है-’हमारा प्यार‘। इस कविता में मेमना और बाघ के अभिनव प्रतीकों के माध्यम से प्रेम और नारी-शक्ति के विरल चित्र खींचे गए हैं। मेमना की तरह सहमी-सकुचाई नारी, पुरूष का सच्चा स्नेह पाकर बाघ बन जाती है। अब वह प्रेम में केन्द्रीयता प्राप्त कर लेती है। अब वह प्रेम का उपकरण या साधन मात्र नहीं है। अब वह स्वयं को और प्रकारांतर से प्रेम को रच रही है, तीव्र आवेग और स्वच्छंद भावनाओं के साथ। प्रेम अब यहाँ पूर्णता प्राप्त करता है।

    ’’अब वह थी ’बाघ‘
    युगों से भूखी
    मैं था अवश
    लाचार
    बंधा हुआ मेमना
    .........................
    हमारा प्यार
    बाघ और मेमने का प्यार था।‘‘19

उनकी कविताओं में जो कामना है वह रीतिकालीन कामुकता नहीं है। वहाँ प्रेम जीवन संगीत है जिसकी स्वर-लहरियाँ कवि के हृदय में सृजन के नए बीज बोती है। जीवन के नए मायने खुलते हैं। नई अभिलाषाओें का जन्म होता है।

    ’’अपने उत्तप्त जीवन में
    मैंने पा लिया है शीतल छाँह
    बैठूँगा कुछ देर
    इसी घनी शीतल छाँह के नीचे
    कहूँगा अपनी मौत से भी
    कर ले कुछ देर प्रतीक्षा
    अपनी प्रेमिका की बाँहों से हटने की
    अभी एकदम नहीं है इच्छा।‘‘20

उन्होंने नींद पर भी कई कविताएँ लिखी हैं। श्रम, संघर्ष और तमाम प्रकार के अंतर्द्वन्द्वों से जूझता कवि ही स्वप्न, आशा, आकांक्षा और विश्राम के महत्व को समझ सकता है। पाश की एक कविता है-’सपने‘ इसमें वे कहते हैं-

’’शेल्फों में पड़े
इतिहास के ग्रंथों को सपने नहीं आते
सपनों के लिए लाजिमी है
झेलने वाले दिलों का होना
नींद की नजर होनी लाजिमी है
सपने इसलिए हर किसी को नहीं आते।‘‘21

नींद और स्वप्न का भी एक सृजनात्मक पक्ष होता है। यहाँ विश्रांति का क्षण भी निर्माण का ही क्षण है-

    ’’कितनी प्यारी है नींद
    भागते जंगलों के बीच
    लिपटी है
    मेरी आँखों से
    काट रही है
    अंधकार के जंगल।‘‘22

सुरेन्द्र स्निग्ध एक ऐसे क्षेत्र से आते हैं जहाँ के जनजीवन पर लोकगीतों, लोकगाथाओं और लोक मुहावरों का बहुत गहरा प्रभाव रहता है। वे रेणु माटी-पानी की उपज हैं। उन्होंने लोकजीवन की लय को, रंग को, प्रकृति को तमाम विशेषताओं के साथ अपनी कविताओं में उतारा है। इन गीतों और कथाओं में व्यक्त-अव्यक्त मनोभावों, आर्थिक-सामाजिक विद्रूप जीवन की सच्चाइयों को समकालीन अर्थ-संदर्भों, ध्वन्यात्मकता, प्रतीकात्मकता के साथ नए भाव-सौंदर्य को गढ़ा है। ’कोसी का कौमार्य‘ कविता में उन्होंने कोसी नदी की बाढ़ और उसकी विभीषिका को उससे जुड़ी लोकधारणा और लोकगीतों में गूंथकर स्त्री की करूणा, प्रेम, बिन-ब्याही माँ बनने की पीड़ा और ममता को बेहद कलात्मक ढंग से व्यक्त किया है-

    ’’रोएगा पालने में नन्हा शिशु
    उसके क्रंदन से
    फट जाएगी धरती की छाती
    आँसुओं की बाढ़ में
    बह जाएगी पूरी सृष्टि
    हो जाएगी जग हँसाई
    मेरे कुँवारेपन में लग जाएगा दाग।‘‘23

कोसी जनपद की पिछड़ी खासकर गाय-भैंस चराने वाली जातियों के चरित नायक बिसु राउत के संघर्ष और बलिदान की गाथा वहाँ के लोग लोक गाथाओं के रूप में गाते हैं। उन्हीं लोक गाथाओं को आधार बनाकर उन्होंने एक बेहद खूबसूरत कविता लिखी है-‘चरवाहा’। ’सुकनी की आँखों का सूरज’ कविता में कोसी जनपद का क्रूर सामाजिक यथार्थ, सामाजिक आंदोलन, प्रतिरोध और स्त्री-संघर्ष काव्य-कथा के रूप में मुखरित हुआ है।
   
ब्रेख्त ने कहा था-’’क्या जुलमतों के दौर में भी गीत गाए जाऐंगे?/हाँ! जुलमतों के दौर के ही गीत गाए जाएँगे।‘‘ सुरेन्द्र स्निग्ध की कविता ’ट्रोमा‘ ऐसे ही त्रासद इतिहास की गवाही है। 2002 ई० में गुजरात में हुए भीषण दंगों को आधार बनाकर लिखी गई यह कविता हमारी आत्मा को झकझोर देती है। दंगों में केवल लोग नहीं मरते, उनके साथ दम तोड़ती है मानवता। नफरत और हिंसा लील जाती है प्रेम और आदमीयता। नष्ट हो जाती है कई पीढ़ियाँ। इन दंगों ने हमारे अबोध मासूम नौनीहालों पर कितना जहरीला प्रभाव छोड़ा है इसको राहत-षिविर में दुबके-सहमें अनाथ बच्चों की मनःस्थिति से समझा जा सकता है। कविता में मोहम्मद यासीन कहता है-

    ’’मुझे अब नींद नहीं आती
    आँखें लगते ही
    डर से चिल्लाने लगता हूँ
    मुझे मेरी अम्मा, अब्बा
    बहन यासीन, खज्जू, अफरीम, साहिल
    सबकी याद आती है।‘‘24

कविता की अंतर्वस्तु कैसे षिल्प का निर्धारण करती है, इसका सर्वात्तम उदाहरण है-’ट्रोमा‘। रिपोर्ताज शैली में लिखी गई यह कविता नई रचना-प्रक्रिया की संभावना उपस्थित करती है।

    "जून 2002
    दुःस्वप्नों से घिरे
   गुजरात के दंगापीड़ित बच्चों की तरह मैं भी हूँ उद्विग्न
    अत्यंत कठिन है बच्चों के वक्तव्यों को
    कविता की शक्ल में ढालना।
    ये वक्तव्य
    कविता के शिल्प को बना रहे हैं निरीह
    और उसकी क्लासिकी हो जा रही है अर्थहीन
    क्रूर सच्चाइयाँ
    कविताओं की सीमाओं को करती है ध्वस्त
    ये जब ढलती हैं अंतर्वस्तु के रूप में
    समस्त काव्य-उपादान हो जाते हैं तार-तार"25

सुरेन्द्र स्निग्ध राजनीतिक-सामाजिक प्रतिबद्धता को सृजन की पहली तथा जरूरी शर्त मानते थे। उनकी कविताएँ इस बात का प्रमाण हैं।

    "मेरी कविता
    आज भी बनना चाहती है पोस्टर
    उगना चाहती है दीवारों पर
    मानव-मुक्ति की इबारत बनकर
    पैदा करना चाहती है घृणा
    उसके खिलाफ
    जिसने पूरी दुनिया को
    कर लिया है कैद
    और बो दिया है नफरत का बीज"26

सुरेन्द्र स्निग्ध की कविताएँ वास्तुशिल्पीय संरचना की दृष्टि से सुगठित हैं। यहाँ शब्दों की फिजूलखर्ची नहीं है। वे अभिजात्य काव्य मुहावरों को तोड़ते हैं। उनके लिए कविता मनोरंजन और विलासिता की चीज नहीं है। उनकी कविता सामान्य पाठक को सामाजिक दायित्व के प्रति सचेत करती हैं। उसे अंदर से परिमार्जित कर अग्रगामी सामाजिक-राजनीतिक गतिकी के लिए प्रेरित करती हैं।

उनकी कविताओं में अंतर्वस्तु को उभारने वाला सहज स्वाभाविक शिल्प दृष्टिगत होता है। कथात्मकता, नाटकीयता, सपाटबयानी, रिपोर्ताज शैली, लोकगीत तथा लोकगाथाओं का बड़ा की सुन्दर नियोजन हुआ है। उनकी भाषा में जो अंतर्लय है, जो नाद-सौष्ठव है वह उसे विषेष बनाती है। यहाँ भाषा जीवित तन्तुओं की तरह कविता के कथ्य का अविभाज्य अंग बनकर उभरी है।
   
उनकी कविताएँ दुनिया को खूबसूरत और बेहतर बनाने के सपनों से लदी हुई हैं। निश्चय ही सुरेन्द्र स्निग्ध हमारे दौर के एक महत्वपूर्ण कवि हैं। उनके काव्य-संसार का सम्यक मूल्यांकन अभी शेष है। उनकी कलात्मकता, संवेदना, वैचारिकी, प्रतिबद्धता और प्रासंगिकता को समकालीन आलोचना की कसौटियों पर नए सिरे से जाँचने-परखने की आवश्यकता है।   
   
सुरेन्द्र स्निग्ध नहीं रहे पर उनकी कविताएँ, उनकी बातें, उनकी यादें हमेशा साथ रहेंगी। तम और संघर्ष के क्षणों में हमारी पगडंडियों पर दीए की लौ बन कर। सृजनात्मकता और संवेदनाओं के साथ हमें भीतर से रचती-गढ़ती और रोशन करती हुईं। सर्वेश्वर के शब्दों में-

    "नहीं....नहीं
    जीवित हैं हम सब अभी भी
    और हम सब में जीवित हो तुम।
    ये लहरें जाने कहाँ से आती हैं
    जो हमारी पसलियों पर
    अपने को तोड़ती चली जाती हैं,
    हमें निरंतर गढ़ती जाती हैं
    तुम्हारे अनुरूप
    एक ऐसी मृत्यु में
    जो जीवन से दिव्य है।" 27



संदर्भ :

1.    चाँद की पूरी रात में कविता(अग्नि की इस लपट से कैसे बचाऊँ कोमल कविता-काव्य संग्रह, सुरेन्द्र स्निग्ध, नई संस्कृति प्रकाशन, दिल्ली) पृ० -22
2.    निर्जन शहर में मैं हूँ अकेला, आशीष कुमार मिश्र से बातचीत, जागत नींद न कीजै, सुरेन्द्र स्निग्ध, सुधा प्रकाशन, पटना, पृ०-14
3.    चाँद की पूरी रात में कविता, अग्नि की इस लपट से कैसे बचाऊँ कोमल कविता-काव्य संग्रह, सुरेन्द्र स्निग्ध, पृ०-22
4.    कवि मुक्तिबोध के निधन पर कविता, सर्वेष्वर दयाल सक्सेना-प्रतिनिधि कविताएँ, राजकमल प्रकशन, दिल्ली, पृ०-86
5.    निर्जन शहर में मैं हूँ अकेला, आषीष कुमार मिश्र से बातचीत, जागत नींद न कीजै, सुरेन्द्र स्निग्ध, सुधा प्रकाशन, पटना, पृ०-10
6.    खोज कविता(संघर्ष के एस्ट्रोटर्फ पर-कविता संग्रह, सुरेन्द्र स्निग्ध, अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, पृ०-145
7.    वही
8.    मा, कामरेड और दोस्त, कविता, इसी नाम के संग्रह से, सुरेन्द्र स्निग्ध, विजया बुक्स, दिल्ली, पृ०-33
9.    वही, पृ०-35
10    वही, पृ०-36
11    तुम्हारे लिए प्यार भेजता हूँ, कविता, संघर्ष के एस्ट्रोटर्फ पर, पृृ०-21
12    जहाँ कोई दोस्त नहीं हो, कविता, संघर्ष के एस्ट्रोटर्फ पर, पृ०-62
13    क्यों इतना प्यार, कविता, संघर्ष के एस्ट्रोटर्फ पर, पृ०-34
14    मजबूत पुट्ठों वाला घोड़ा, संघर्ष के एस्ट्रोटर्फ पर, पृृ०-43
15    थिरकता हुआ हरापन, कविता, संघर्ष के एस्ट्रोटर्फ पर, पृृ०-74
16    अगस्त के बादल, कविता, संघर्ष के एस्ट्रोटर्फ पर, पृृ०-79
17    कोलंगुट में सूर्यास्त, कविता, संघर्ष के एस्ट्रोटर्फ पर, पृृ०-47
18    तुम हो बादल तुम बरस रही हो, कविता, संघर्ष के एस्ट्रोटर्फ पर, पृृ०-100
19    हमारा प्यार, कविता, संघर्ष के एस्ट्रोटर्फ पर, पृृ०-109
20    कर ले मौत प्रतीक्षा, कविता, संघर्ष के एस्ट्रोटर्फ पर, पृृ०-105
21    पाश की कविता-सपने, वेब पोर्टल कविता कोष से।
22    कितनी प्यारी है नींद, कविता, रचते-गढ़ते काव्य संग्रह, सुरेन्द्र स्निग्ध, किताब महल, इलाहाबाद, पृृ०-39
23    कोसी का कौमार्य, कविता, रचते-गढ़ते काव्य संग्रह, सुरेन्द्र स्निग्ध, किताब महल, इलाहाबाद, पृृ०-15
24    ट्रोमा, कविता, मा, कामरेड और दोस्त काव्य संग्रह, सुरेन्द्र स्निग्ध, विजया बुक्स, दिल्ली, पृ०-78
25    वही, पृ०-71
26    कविता के सपने, संघर्ष के एस्ट्रोटर्फ पर-कविता संग्रह, सुरेन्द्र स्निग्ध, अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, पृ०-59
27    कवि मुक्तिबोध के निधन पर कविता, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना-प्रतिनिधि कविताएँ, राजकमल प्रकशन, दिल्ली, पृ०-



संपर्क-
विद्या भूषण
पर्ण कुटीर, गोकुल पथ
उत्तरी पटेल नगर, पटना-800024
मो०-7004958563

3 टिप्‍पणियां:

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शनिवार 09 जनवरी 2021 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुन्दर आलेख

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

महत्वपूर्ण लेख...