सुरेन्द्र स्निग्ध की कविताएं



1. अगस्त के बादल

ऊँची
विशाल
हरी-भरी पहाड़ियों के
चौड़े कंधे पर
शरारती बच्चों की तरह
लदे हुए हैं
अगस्त के बादल

दूध से भरे
भारी थन से   
या चाँदनी से लबालब कटोरे से
छलक-छलक रहे हैं
अगस्त के बादल

मेरे मन मस्तिष्क में
तुम्हारी याद की तरह सघन
और बरस जाने को आकुल
आतुर
घिर रहे हैं
मन मिजाज पर
अगस्त के बादल।

2. कोलंगुट में सूर्यास्त

बीच समुद्र में
हवाओं की रस्सियों के झूले पर
झूल रहा है सूरज

सूरज के हृदय की उमंगें
समुद्र में उठते ज्वार की तरह
दौड़-दौड़ कर आ रही हैं
तट की ओर
तट तक आते-आते
उमंगों में आ जाती है थकान
और पसर जाती है
अनन्त बालुकाराशि पर

सूरज फिर भी झूल रहा होता है
बीच समुद्र में
हवाओं की रस्सियों के झूले पर
हम देख रहे हैं
झूलते-झूलते सूरज के चेहरे पर
फै ल रही है थकान
एक क्षण सुस्ता लेने के लिए वह
खोज रहा है
अपनी थकी आँखों से
कोई निरापद जगह

बीच समुद्र में
जहाँ हवाओं का झूला लगा है
हम देख रहे हैं
एक ऊँची चट्टान
अनन्त ज्वार भाटाओं के बीच
समाधिस्थ
निर्विकार।

सूरज ने इसी चट्टान पर
फैला दी है अपनी चादर
और आप झूल रहा है
हवाओं की रस्सियों के झूले पर

लो, अचानक टूट गया
रस्सी का एक छोर
लटकने लगा है सूरज
इसी के सहारे
ठीक समुद्र की लहरों के ऊपर
असहाय, निरुपाय   
झटपट उठा ली है
चट्टान पर से लाल चादर
लग रहा है
सूरज अब डूबा
कि तब डूबा
लगता है
इसके साथ
डूब जायेगा
हमारा भी मन

हम यह सोच ही रहे हैं
कि अचानक
’चुभ्‘ से डूब गया वह
उन उठी हुई लहरों में
और हाथ से
छूट गयी है चादर

यह लाल चादर
वहाँ से,
जहाँ सूरज डूबा है
पसर रही है
हमारे पाँव की ओर
हमारे पाँव को
आकर छू गयी है
फिर, समुद्र की नन्हीं लहर,
पैरों के गिर्द
फैल गयी है वही
सूरज की चादर
और वहाँ,
ठीक वहाँ, जहाँ से यह चादर
आयी है हमारे पैरों तक
फैल गया है
सघन अंधकार,
उदासी फैल गयी है
चारों ओर

लेकिन हमारा मन
अचानक प्रदीप्त हो उठा है।
सूरज की चादर की लाली
हमारे पैरों से
चढ़ रही है ऊपर
हमारी आत्मा की चट्टान तक

वहाँ यह फिर फैलेगी
फिर, फिर
सूरज फिर झूलेगा
बीच समुद्र में
हवाओं की रस्सियों के झूले पर।


3. चरवाहा
(कोसी क्षेत्र की एक लोक-गाथा सुनकर)

पिछले चालीस हजार वर्षों से
अपनी गायों को लेकर
कहाँ-कहाँ नहीं गया मैं
किन-किन जंगलों
पहाड़ियों, दर्राओं
नदियों और झरनों के समीप
नहीं पहुँचा हूँ मैं

इन गायों के भारी थनों से
फूटते हैं दूध के झरने
खिलती है एक नैसर्गिक
दूधिया रोशनी
नहा जाती है सम्पूर्ण धरित्री

जब-जब बछड़े
हुमक कर पीते हैं दूध
वत्सला बन जाती है पृथ्वी
रचने लगती है नये-नये छन्द
छितरा जाता है
सम्पूर्ण ब्रह्मांड में
ममत्व का अलौकिक रूप

जब भी रंभाती है
ये गायें
दहल जाती है पूरी प्रकृति
दुलारती हैं नवजात बछड़े को
धरती के सातों समुद्र
मचल-मचल उठते हैं

आज इस हरे-भरे जंगल में
विपदा में पड़ी हैं गायें
मौत खड़ी है सामने
धरकर भूखी बाघिन का रूप

चौकन्नी हैं गायें
प्यार के सुरक्षित घेरों में
समेट रही हैं एक साथ
रंभा रही हैं एक साथ
पुकार रही हैं मुझे
पुकार रही हैं
सदियों साथ चले
चरवाहे को

जिस तरह
नदियों से मिलने के लिए
ऊफनती हैं बरसाती जल-धाराएँ
हवाओं में घुल जाने के लिए
जैसे पसरती है खशबू
जीवन के सम्पूर्ण आवेग के साथ
मैं दौड़ता हूँ गायों के बीच

आज मैं दूँगा सत की परीक्षा
लौटेगी नहीं एक भूखी माँ बाघिन
मैं स्वयं बनूँगा
उसका आहार
और एक क्षण को
रुक जायेगी पृथ्वी की गति
सूरज और चाँद और सितारे
क्षण भर के लिए हो जायेंगे निस्तेज
ब्रह्मांड की संपूर्ण गतियों के साथ
रुक जाएगी
मेरे हृदय की गति
मरूँगा
वीर वीसु राउत की तरह

गायों के थनों से
स्वतः प्रस्फुटित दुग्ध-धार
और आँखों से ढलके आँसुओं के साथ
कोसी नदी की उफनती जल-धारा के संग
बह जाएगा
बचा-खुचा, क्षत-विक्षत मेरा शव

पृथ्वी पुनः हो जायेगी गतिशील
दिक्-दिगंत तक फैल जायेंगी हरियालियाँ
कभी सूखेंगे नहीं आँसू, रुकेगा नहीं दूध
ममता और करुणा की बेली लहराती रहेगी
लहराता रहूँगा युगों तक ध्वज की तरह
मैं-विसु राउत।

4. चाँद की पूरी रात में

चलो विमल, चलो
चलो दूर तलक
इस चाँदनी में नहायी
अनपहचानी पक्की सड़क पर

चलो,
दूर तलक चलो

हमदोनों कुछ नहीं बोलेंगे, विमल
चुपचाप चलेंगे,
चुपचाप
हमारे पैरों की चाप भी
नहीं पैदा करे कोई हलचल
इस चाँदनी के मौन को
हम नहीं करेंगे भंग

देखो, सड़कों पर नन्हें-नन्हें
खरगोशो की तरह
उछल-कूद कर रही है चाँदनी
निस्तब्धता को कर रही है
और भी निस्तब्ध
चू रही है चाँदनी
सड़क के दोनों किनारों के सघन-लम्बे वृक्षों की
फुनगियों से
टपक रही है श्वेत फूलों की तरह
बहुल सम्हल के चलना है हमें
हमसे छू नहीं जाए!

विमल चलो,
चलो विमल, दूर तलक चलो
किस समय लौटेंगे, कह नहीं सकते हम
हम लौटना भी नहीं चाहते
जब तलक तना हो आकाश में
चाँदनी का चँदोवा

तुम कह रहे हो विमल
सर, इस चाँदनी में कुछ तो है
जरूर कुछ है, सर
तभी तो रात-रात भर इसमें
नहाने की इच्छा होती है हमारी
इच्छा होती है
रात-रात भर इसे निहारने की
हाँ विमल, कुछ तो है जरूर
क्यों मैं भी रहता हूँ उद्विग्न
पूरे चाँद की रातों में

सुना है, विमल, सुना है तुमने
सागर की लहरें और भी मचल उठती हैं
चाँदनी में।
हम भी तो शायद
सागर के ही अंश हैं मित्र

हमें लगता है विमल,
(सही कह रहा हूँ-क्यों तो ऐसा बार-बार लगता है।)
कभी पूरे चाँद की रात में ही
मरूँगा मैं
छोड़ जाऊँगा सारी पृथ्वी
इतनी ही खूबसूरत और सुगंध-भरी

लेकिन
अभी तो चलना है बहुत दूर मेरे मित्र
बहुत दूर
इन अनजानी, अनपहचानी सड़कों पर
इस भरी पूरी चाँदनी में
तुम्हारे जैसे मित्रों के साथ
चुप-चाप

5. जहाँ कोई दोस्त नहीं हो

क्या रहना ऐसी जगह
जहाँ कोई दोस्त नहीं हो
नहीं हो कोई हालचाल पूछने वाला

ऐसी जगह क्या रहना
जहाँ दुख की घड़ियों में
कोई प्यार से सर न सहला दे
बीमारी की हालत में
गर्म कलाई अपने हाथ में न ले ले
खुशियों के क्षणों में
अपनों की आंखें
नन्हें पंछियों की तरह
पर न फैलाने लगें

क्या रहना ऐसी जगह
जहाँ कोई मित्र यह नहीं पूछे
आपके किचन में आज क्या बन रहा है?
दूध नहीं है?
कोई बात नहीं
भाभी को कहिये
नींबू की चाय ही पिलायें

ऐसी जगह क्या रहना
जहाँ के लोग कुछ भी मतलब नहीं रखते
कि अन्याय के खिलाफ
लड़ने वाली जुझारू जनता
कहाँ मर-कट रही है
कहाँ कर रही है विकसित
अपना संघर्ष

क्या रहना ऐसी जगह।

6. तीन उपशीर्षकों वाली एक कविता
18 जुलाई, 1994 की रात

(1)
बचा रहे सिर्फ एक बीज

कल की रात
मेरा मानसिक धरातल था बृहस्पतिग्रह
विचारों के धूमकेतु के विशालकाय अग्निपिंड
टकरा रहे थे इससे लगातार

सोचता रहा मैं
हो जाए नष्ट यह बृहस्पति
नष्ट हो जाए पूरा ब्रह्मांड
चर अचर सबकुछ
कुछ भी नहीं बचे
कुछ भी नहीं
मेरी कोई कविता भी नहीं
कोई एक भी शब्द
कुछ भी नहीं बचे
बचा रहे सिर्फ यह छोटा-सा बीज

कल की रात
तनाव में था सारा ब्रह्मांड
ब्राजील के फुटबॉल खिलाड़ी रोमेरियो की तरह
तनाव में थी पूरी प्रकृति
इटली के रोबर्टो वैजियो की तरह
इस तनाव में
कैसे लिखी जाती कोमल कविता
कैसे ढलते शब्द
तानता के चरम-बिन्दु पर
सबकुछ टूट जाता है
टूट जाते हैं
ग्रह-नक्षत्रों के तमाम चुम्बकीय सूत्र

ब्राजील और इटली की तरफ के
गोलपोस्टों के जाल को
विचारों की गेन्द से
मैं करता रहा तार-तार
करता रहा विस्फोट
वहाँ पैदा हो रही है
अग्नि की अपूर्व लपट

अग्नि की इस लपट से
कैसे बचा पाऊँगा मैं
अपनी कोमल कविता
इसके गर्भ में कैसे
समाहित कर सकूँगा
अग्नि की यही लपट
विचारों का अक्षय भंडार

(2)
मजबूत पुट्ठों वाला घोड़ा
(साथी कवि महेश्वर को याद करते हुए)

कल की रात कविताओं में ढूँढता रहा अपना
एक दोस्त
एक एक्टिविस्ट
एक कामरेड
एक चिंतक
एक कवि

आज है वह
सारे ग्रह नक्षत्रों से दूर

जब तक रहा
इस छोटे-से भूखंड पर
टकराता रहा
धूमकेतु की तरह
टकराता रहा
विचारों के बृहस्पति से
       
आज उसके लिए
मेरी कविता बहुत छोटी पड़ रही है
ओछे पड़ रहे हैं शब्द

सदियों से पीड़ित
दुखी
लेकिन संघर्षरत लोगों की
निस्तेज आँखों की वह था चमक

जगह-जगह की ईंटों और
अनगढ़ पत्थरों को हमने
कई बार बटोरा था साथ-साथ
मानव-मुक्ति का पक्का घर बनाने हेतु
हमने रखी थी नींव
विचारों के अग्नि-पिंड से
सघन अंधकार को भेदने की कोशिशें
की थीं हमने लगातार
साथियो,
मैं तो थोड़ा रुक भी गया था-
संशय के बादल
घिर आये थे मेरे गिर्द
रुका नहीं था वह
मृत्यु की गहरी खाई में भी
मजबूत पुट्ठे वाले घोड़े की तरह
दौड़ता रहा था लगातार

उनके लम्बे आयाल
सूर्य की अगवानी में
बिछ गये थे रेड कार्पेट की तरह
मौत को भी धता बताते हुए
वह दौड़ता रहा
आँधी की तरह
तूफान की तरह

संघर्ष के एस्ट्रो टर्फ पर
वह दौड़ता रहा
किसी अथक रोमेरियो की तरह
या कि किसी बैजियो की तरह
निशाना रहा हमेशा गोलपोस्ट

उसके लिए
यह पृथ्वी थी फुटबॉल
पूरी शक्ति के साथ
विचारों के गोलपोस्ट में
दाग दिया था इसे
बिना किसी थकान के
बिना किसी तनाव के

(3)
प्रेमः एक दुर्गम पहाड़
(कवि गोरख पांडे की आत्महत्या पर)

नहीं लिखूँगा
इसबार कोई प्रेम कविता
सोचता रहा था कल की रात

मैं लिखूँगा कविता
एक कवि मित्र के नाम
जिसके लिए
प्रेम था एक दुर्गम पहाड़
प्रेमिका थी
इसी पहाड़ के झीने पर्दे के उस पार

इस पार थी
सड़ी गली व्यवस्था
युगों से शापित मानव-जाति
इसे बदल डालने के लिए
कवि की आँखों में थे सपने
सपनों का ठाठें मारता समन्दर

आँखों में थी
धुंधली सी तस्वीर
उस प्रेमिका की
जो थी दुर्गम पहाड़ के उस पार
पहले ही मैंने कहा था साथियो,
पहाड़ था वह झीना सा पर्दा

सपनों में हटता था यह पर्दा
या यूँ कहिये, उड़ जाता था पहाड़
लगाकर उजले-उजले पंख
और सामने होती थीं हरियालियाँ
सिर्फ हरियालियाँ
सागर के अनन्त विस्तार वाली
हरियालियाँ

कहता था कवि मित्र-
“साथी,
लाल घोड़े पर सवार होकर
आता हूँ इन हरियालियों में
इसे देखते ही जगती है प्यास,
कैसी है यह प्यास!
कैसे बुझेगी यह प्यास!
इन हरियालियों में
पता नहीं क्यों
कहीं नहीं है एक बून्द
मीठा जल
कहीं नहीं फूटता है प्रपात
कहीं से कोई पंछी
चोंच में भरकर नहीं लाता है जल
कहीं किसी पत्ते पर
या फूलों की नन्हीं कोमल पंखुरियों पर
अटका नहीं मिलता है ओस-कण
कितना प्यासा हूँ दोस्त!
दूर देश से आने वाला यह लाल घोड़ा भी
बहुत प्यासा लगता है दोस्त!”

सचमुच बहुत प्यासा था वह
मौत की ठंडी गोद भी
नहीं बुझा सकी उसकी प्यास
फूलों से कटती हुई दिल्ली
बन गई उसका कब्रगाह,

है न सचमुच प्रेम बहुत कठिन
प्रेम कविता लिखना
और भी कठिन है मेरे दोस्त
प्रेम करना तो और भी कठिन।
जीवन से
हाँ, खासकर जीवन से।


7. एक उजली हँसी
(निगार अली के लिए)

हमारी मुलाकात
फिर कभी
शायद ही हो निगार अली

बरहमपुर के सागर के किनारों
की खूबसूरती का संघनित रूप

हजारों हजार श्वेत सीपियों के लेप से
दप-दप तुम्हारा गोरा रंग
और समुद्री फेन-सी
तुम्हारी उजली निश्छल हँसी
शायद ही पसरेगी कभी
फिर मेरे आगे
शायद ही छू सकूँगा कभी
फिर वह हँसी
फिर वह शुभ्र समुद्री फेन

निगार अली,
खूबसूरत ब्यूटीशियन,
कितना जहर घुल गया है हवा में
कैसे ले सकोगी सांस
कैसे बचा सकोगी उजली हँसी
शायद ही मिल सकेंगे हम
शायद ही महसूस कर सकेंगे
फिर कभी एक अजीब
और नैसर्गिक खुशबू

ट्रेन के सफर में
चन्द लमहों की हमारी भेंट
फिर एकदम खुली किताब की तरह तुम
समुद्र के किनारे आकर पसरी
शांत सफेद लहरों की तरह तुम

चन्द लमहों में किताब पढ़ी तो नहीं जा सकती
किनारे पसरी लहरें समेटी तो नहीं जा सकती

तुम्हारी उन्मुक्त हँसी
अब सिर्फ धरोहर है मेरे लिए

बरहमपुर आने का तुम्हारा आमंत्रण
शायद ही कर सकूँ पूरा,
हाँ, जब कभी, कहीं भी,
किसी भी समुद्र के किनारे
जाऊँगा मैं,
और, फिर से
महसूस करूँगा सागर-सौन्दर्य
जब भी छू पाऊँगा
लहरों की नन्हीं-नन्हीं उँगलियाँ
तब-तब मेरे सामने
जहर घुली हवाओं को चीरती
खशबू की तेज आँधियों की तरह
मुस्कुराती मिलोगी
मिलोगी तुम निगार अली।

8. फूल अनगिन प्यार के

मौत की दुर्गम
अँधेरी घाटियों में
तुमने खिलाये फूल
अनगिन प्यार के

मौत थी एकदम खड़ी
बाँहें पसारे सर्द तेरे सामने
और मैं भी था निरंतर गर्म
बाँहों को पसारे मौत के आगे
तुम्हारे सामने

तुम देखती थीं सिर्फ मेरे प्यार को
दर्द में डूबी तुम्हारी आँखों की पुतली
चमक उठती थीं बन ब्रह्मांड की लपटें
इन्हीं लपटों से डर कर रह गयी मृत्यु
हमारे प्यार की ऊष्मा से डरकर रह गयी मृत्यु

अचानक देख लो खुशबू से कैसे तर हुई माटी
अचानक फूल से देखो है कैसे भर गई घाटी

इन अनगिनत फूलों की
कोमल पंखुरी से
है खिला यह धूप का सागर
कि इनकी खुशबू से
भर गई है मौत की गागर

अनगिनत ये फूल,
तुमने ही उगाये हैं
मरण के बाग में खुशबू
भी तुमने ही लुटाये हैं

ये फूल हैं मनुहार के
मौत की दुर्गम अंधेरी घाटियों में
फूल अनगिन प्यार के।


9. ब्रह्माण्ड की रचना

कई हजार वर्षों के बाद
माँ को आई है हल्की सी नींद

शांत रहिए
चुप रहिए
बनाए रखिए निस्तब्धता

निस्तब्धता को करिए
और भी निस्तब्ध

एक तिनका भी अगर खिसका
एक हरी घास ने भी अगर ली
हल्की सी साँस
टूट जाएगी माँ की नींद
स्फटिक से भी अधिक पारदर्शी
और आबदार माँ की नींद

सूरज को कहिए
कुछ दिनों के लिए त्याग दें ऊष्मा
कहिए पृथ्वी को
स्थगित रखें कुछ दिन
धूरी पर घूमना
जितनी नई कलियाँ हैं वृंत पर
हल्के से तोड़ लीजिए
चटकेंगी तो चटक जाएगी
माँ की नींद
ओस की बूँदों को कहिए
पत्तों पर गिरने के पल
न करें कोई आवाज

चर-अचर शांत रहिए

हजारों वर्षों के बाद
माँ की पलकों में
उतरी नींद को
कृपया तोड़िए नहीं

ब्रह्मांड को रचते-गढ़ते
थक गयी है माँ
थोड़ा विश्राम दीजिए।


10. लाल चिरैया

लिये चोंच में
घास किरन की
पूरब में हर सुबह-सुबह क्यों
लाल चिरैया आती है?

बैठी मेरे घर की छत पर
देहरी पर
फिर धीरे-धीरे आंगन में भी
घास किरन की छितराती है

उछल-कूदकर शोर मचाती
दाना चुगती, पानी पीती
फिर किरनों की घास समेटे
लिए चोंच में
पच्छिम को उड़ जाती है।

11. शब्द और रंग

एक

आज की रात
आकाश में है भरा-पूरा चाँद
सागर के अनंत विस्तार पर
तनी हुई है चाँदनी

आज सारी रात
हम सुनेंगे
सागर-संगीत की विविधता
हम गौर से सुनेंगे
एक-एक सिम्फनी के छोटे-छोटे नॉट्स

सारी रात गिनेंगे हम
लहरों पर नाचती
एक-एक चाँदनी
जो कर रही है पैदा
जादुई करिश्मा
प्रतिक्षण प्रतिपल
बुन रही है
मायावी संसार का जाल

हम खोज रहे हैं शब्द
सहायता करना, मित्रे
शब्द ढूँढ़ने में
सहायता करना
रंगों के माध्यम से
भाषा की तलाश में
ऐसी भाषा
जो अभिव्यक्त कर सके
सागर-सौंदर्य
अभिव्यक्त कर सके
मेरे हृदय की भावनाएँ
बहुत आसानी से छू सकें जिन्हें
तुम्हारी कोमल पतली उंगलियाँ

आज हम
बैठेंगे सारी रात
एक-दूसरे की उपस्थिति का
करते हुए सार्थक अहसास
एक-दूसरे के जीवन
की किताबों की खाली
जगहों पर
लिखते हुए एक नई कविता
भरते हुए
उदासी के कई कई रंग

दो

बीत गई न रात
हाँ, बीत ही गई
देखिये न, थोड़ा उधर देखिये
पंछियों का एक बड़ा सा झुंड
समुद्र की लहरों को छूता हुआ
अभी-अभी
गुजर गया है पूरब की ओर
घोल गया है लहरों में
हलचल और कलरव का संगीत
फैला गया है चारों ओर
इसी संगीत की खुशबू

मछुआरे पैठ गये हैं
समुद्र में
छोटी-छोटी नौकाओं के साथ
और
सूरज के उगने के पहले की लाली
बिछ रही है लहरों पर
निस्तेज हो रहा है
रातभर का चला चाँद

उठिये,
चलिये अपने-अपने कमरे में
उठ रहे होंगे
साथ के लड़के और लड़कियाँ
कहेंगे पागल हैं हमलोग
छत पर बैठे रह गये सारी रात
और भी कुछ कह सकते हैं
और भी कुछ......।

                                                                                कवि परिचय

नाम-  सुरेंद्र स्निग्ध
राज्य- बिहार
जन्म- 5 जून 1952 ई० में पूर्णिया जिले के सुदूर एक ठेठ देहात ‘सिंघियान’ में। शिक्षा पटना विश्वविद्यालय से। पटना विश्वविद्यालय में अध्यापन। 2015 में हिंदी विभाग,  पटना विश्वविद्यालय के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्तप्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मी एवं लेखक संगठनकर्ता के रूप में भी पहचान। नव जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा, बिहार तथा जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्यों में एक। कई विवादास्पद मुद्दों पर अपनी स्पष्ट मान्यताओं के साथ आम पाठकों के बीच निरंतर उपस्थिति।
मूलतः कवि। उपन्यास और कई आलोचनात्मक गद्य रचनाएँ प्रकाशित तथा बहुचर्चित। ‘गांव-घर’ ‘भारती’  ‘नई संस्कृति’, ‘प्रगतिशील समाज’(कहानी विशेषांक) ‘उन्नयन’ के बहुचर्चित बिहार कवितांक का संपादन।

निधन-  18 दिसंबर 2017
पुरस्कार- ‘बनारसी प्रसाद भोजपुरी’ सम्मान, ‘बिहार राष्ट्रभाषा सम्मान’ 2017

कविता-संग्रह-
छह कविता-संग्रह प्रकाशित।

1. पके धान की गंध(1992), साहित्य संसद, नई दिल्ली
2. कई-कई यात्राएँ(2000), पुस्तक भवन, नई दिल्ली
3. अग्नि की इस लपट से कैसे बचाऊँ कोमल कविता(2005),  नई संस्कृति प्रकाशन
4. रचते-गढ़ते(2008), किताब महल, इलाहाबाद
5. मा कॉमरेड और दोस्त(2014),विजया बुक्स, दिल्ली
6. संघर्ष के एस्ट्रोटर्फ पर(2016), अभिधा प्रकाशन, मुज़फ्फरपुर

गद्य रचनाएँ-

1. जागत नीद न कीजै (टिप्पणियों का संग्रह),2008,  सुधा प्रकाशन, पटना
2. सबद सबद बहु अंतरा( टिप्पणियों का संग्रह), 2000,  राजदीप प्रकाशन , नई दिल्ली
3. नयी कविताः नया परिदृश्य(आलोचना पुस्तक),2007,  किताब महल प्रकाशन
4. प्रपद्यवाद और केसरी कुमार(आलोचना पुस्तक), बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से

उपन्यास-

1. छाड़न(2005), पुस्तक भवन, नई दिल्ली से प्रथम संस्करण, बाद में किताब महल, इलाहबाद से
2. मरणोपरांत  एक अपूर्ण उपन्यास ’कथांतर‘ पत्रिका के जुलाई 2018 अंक में
'उस द्वीप की रूपक कथा'  नाम से प्रकाशित।

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