सिर्फ जिस्म नहीं हूँ मैं : मोनिका जैन ‘पंछी’


मोनिका जैन ‘पंछी’ बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं। कविता, कहानी, आलेख, चित्रकारी आदि कई विधाओं पर वे सार्थक हस्तक्षेप करती हैं। काफी समय से वे बच्चों के साहित्य पर काम कर रही हैं, जिस क्षेत्र में प्रायः स्थापित लोगों की उदासीनता दिखती है। सबसे बड़ी बात जो उनमें है, वह है उनका गंभीर पाठक होना। आइये, उनके एक आलेख को पढ़ते हैं जिसमें उन्होंने एक स्त्री मात्र होने के पक्ष को सामने रखा है।

सिर्फ जिस्म नहीं हूँ मैं : मोनिका जैन ‘पंछी’

कितनी अजीब है न मेरी दास्तान? मेरी शिक्षा, स्वतंत्रता, सम्मान, सत्ता, सुरक्षा और संपत्ति के अधिकारों के लिए वर्षों से चिंतन हो रहा है, आन्दोलन हो रहे हैं, मेरे जीवन में बहुत कुछ बदल रहा है। मेरे पक्ष में एक प्रगतिशील जन चेतना का माहौल बन रहा है। लेकिन एक चीज जो तब से लेकर आज तक नहीं बदली, वह है मुझे देह समझा जाना। सारी आज़ादी, सारे अधिकार और सारे सम्मान उस समय बिल्कुल फीके पड़ जाते हैं, जब मेरा अस्तित्व दुनिया की चुभती निगाहों में सिर्फ एक जिस्म भर का रह जाता है।

टपकती वासना से भरी लालची आँखें मुझे हर गली, नुक्कड़ और चौराहे पर घूरती रहती है। भीड़ में छिप-छिपकर मेरे जिस्म को हाथों से टटोला जाता है। राह चलते मुझ पर अश्लील फब्तियां कसी जाती है। मेरा बलात्कार कर मुझे उम्र भर के लिए समाज के तानों से घुट-घुट कर जीने को मजबूर कर दिया जाता है। मुझ पर तेजाब फेंक कर अपनी भड़ास और कुंठा शांत की जाती है।

जब भी मेरे साथ होने वाले इन तमाम दुर्व्यवहारों के खिलाफ मैं आवाज़ उठाती हूँ, तो मेरे अस्तित्व को छोटे-बड़े कपड़ों में उलझा दिया जाता है। फिर से मुझे कपड़ों से झांकती देह बना दिया जाता है। पर उन मासूम बच्चियों का क्या? उनके साथ किये गए दुराचरण का क्या? क्या वे नन्हें-मुन्हें किसी भी प्रकार की उकसाहट का कारण बन सकते हैं? क्या ऊपर से नीचे तक कपड़ों में ढकी औरत कटाक्ष नज़रों, अश्लील इशारों और फब्तियों से बच पाती है? 


सदियों से हर लड़के को भी तो ऐसी ही पत्नी और प्रेमिका चाहिए - जिसका चेहरा चाँद सा उज्ज्वल हो। जिसकी आँखें झील सी निर्मल और सागर सी गहरी हो, हिरणी सी चंचल, बड़ी-बड़ी और नशीली हो। जिसके होंठ गुलाब की पंखुड़ियों से कोमल और रसीले हो। जो रेशमी जुल्फ़ों, छरहरी काया और मादक उभारों की स्वामिनी हो। पर मैं कैसे समझाऊं? मेरी आँखें सिर्फ सागर सी गहरी नहीं है। इनमें गहराई है तुम्हारे अंतर्मन को समझने की; इनमें चमक है कुछ सपनों, ख्वाहिशों और अरमानों की; इनमें आंसू हैं जो तुम्हारी छोटी सी तकलीफ़ में भी बहने लगते हैं; इनमें दर्द है तुम्हारी चाहत पर कुरबान हुई कई उम्मीदों का। मेरे होंठ सिर्फ गुलाब की पंखुड़ियों से कोमल नहीं है। इनसे झरते हैं फूल ममता के; इन पर ठहरे हैं कई शब्द जो मुखरित होना चाहते हैं; इन पर जमी है आँखों से बहते अश्रुओं की कई बूँदें जिन्हें सदियों से मैं पीती आ रही हूँ। मेरा वक्ष तुम्हारी वासना को तुष्ट करने के लिए नहीं है। इनसे बहता है क्षीर ममत्व का जो कारण है तुम्हारे अस्तित्व का। मेरा ह्रदय जिसमें बसता है अतुल्य प्रेम, त्याग, ममत्व, क्षमा, संवेदनशीलता और प्रेरणा...सिर्फ मोम सा नाजुक नहीं है। इसमें भरे हैं कई धधकते हुए ज्वालामुखी! समय आने पर बन सकती हूँ मैं रणचंडी भी! बन सकती हूँ मैं एक मजबूत, स्वावलंबी, अटल स्तम्भ!

मेरे अपने माता पिता और परिजनों ने भी तो मुझे देह बनाने में कोई कसर न छोड़ी। मेरी देह अगर बदरंग है तो उन्हें दिन रात मेरी शादी की चिंता सताएगी। आधुनिकता का लबादा ओढ़े आदिम युग के मानवों सा व्यवहार करने वाले मेरे परिजन जाति, गौत्र, धर्म, अपनी झूठी इज्जत और शान के नाम पर...मेरी, मेरे प्रेम और मेरे विश्वास की हत्या करने में भी नहीं हिचकते। इस बर्बरता को अपना मौन समर्थन देकर जायज ठहराने वालों की आँखों से आंसू नहीं लुढकते। दहेज़ प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या, बाल विवाह ये सब कुरुतियाँ मुझे बस जिस्म भर बनाकर रख देने का षड़यंत्र है।

समकालीन हिंदी साहित्य के रचनाकारों! मेरी मुक्ति, सम्मान और स्वाभिमान के पक्ष में बन रही जन चेतना की आड़ में तुमने भी तो मेरी एक पोर्न छवि गढ़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मेरी प्रिय नारीवादी लेखिकाओं! क्या तुम्हें पुरुष के समान अधिकारों के रूप में देह-वृतांत का हक़ ही चाहिए था? अपने लेखन द्वारा गुदगुदी और सनसनी पैदा करने के लिए; प्रकाशित, प्रशंसित, अनुशंसित और पुरस्कृत होने के लिए...क्या तुम जानती हो तुमने न जाने कितनी पीढ़ियों के लिए मुझे फिर से उसी हाड़-मांस के दायरे में सीमित कर दिया है। तुम ही सोचो...देह के बाज़ार और इस उन्मादग्रस्त साहित्य में क्या भर अंतर है, जिसका प्रयोजन सिर्फ काम वासना को बढ़ाने के अलावा और कुछ भी नहीं। 


मीडिया, अख़बार और कैमरे के पीछे छिपे संवेदना शून्य पुरुषों! तुम्हें हमेशा ऐसे ही प्रसंगों की तलाश रहती है जिसमें मैं एक देह में तब्दील होकर तुम्हारी सारी पुरुष जमात की यौनिकता को संतुष्ट करती रहूँ। किसी मॉल के चेंजिंग रूम से लेकर किसी होटल के कमरे तक छिपे कैमरे से नारी देह के दृश्यों को चुराकर उन्हें ऊप्स मोमेंट्स और शोइंग एसेट का कैप्शन देते तुम्हें लज्जा नहीं आती? फैशन शो में किसी के कपड़े फटने से लेकर, छेड़छाड़ और रेप जैसी घटनाओं तक का वीडियो तुम बड़ी निर्लज्जता से बना लेते हो। उसे तत्काल प्रसारित कर देते हो ताकि कहीं तुम्हारी एक्सक्लूसिव स्टोरी तुमसे पहले किसी और के हाथ न लग जाए।

मुझे जिस्म समझने वाले इन सब संवेदना शून्य लोगों से मैं पूछना चाहती हूँ - क्या शरीर से इतर मुझमें दिमाग नहीं है? क्या मुझमें भावनाएं नहीं है? क्या कुछ कर दिखाने का माद्दा नहीं है? जल, मिट्टी, अग्नि, आकाश और वायु इन्हीं पंच तत्वों से मुझे भी रचा गया है। मेरी अनुभूतियों के स्वर क्या तुम्हें सुनाई नहीं देते? मेरे भी सपने है जो सफलता के आकाश में साकार होना चाहते हैं। मंदिर की घंटियों सी सुरीली मेरी खिलखिलाहट हर ओर बिखरना चाहती है। महत्वकांक्षा की बेलें मन उपवन में फलना-फूलना चाहती है। क्या है मेरी चाह? एक सुन्दर, संवेदनशील, उच्च मानवीय दृष्टिकोण वाला सभ्य परिवेश ही न? जहाँ मुझे निर्णय लेने की आज़ादी हो, जहाँ मुझे अपने व्यक्तित्व और विशिष्टता को पहचान देने की स्वतंत्रता हो। मैं पुरुष को पछाड़ना नहीं चाहती। उससे आगे निकल जाना भी मेरा मकसद नहीं। मैं बस देह से इतर अपना अस्तित्व चाहती हूँ। एक मुट्ठी भर आसमान चाहती हूँ, जहाँ मैं अपने पखों को उड़ान दे सकूँ। एक चुटकी भर धुप और अंजूरी भर हवा चाहती हूँ, जहाँ मैं बिना किसी घुटन के सांस ले सकूँ। थोड़ी सी जमीन चाहती हूँ, जहाँ मैं बिना किसी भय के आत्मविश्वास से अपने कदम बढ़ा सकूँ। मुझे देवी की तरह पूज्या नहीं बनना है। मुझे बस इंसान समझकर समानता का व्यवहार पाना है।

हे पुरुष! कैसे तुम जब चाहे जब मुझे रौंद सकते हो? अपने अस्तित्व का कारण कैसे तुम भूल सकते हो? जिस्म तो शायद सिर्फ तुम हो जिसमें न संवेदना है, न कोई अहसास। तभी तो देह के छले जाने पर आसमान को भी चीर देने वाली मासूमों की चीखे तुम्हें सुनाई नहीं देती। तुम नहीं महसूस पाते कभी भी स्त्री के भीतर रिसते दर्द को। भावनात्मक जुड़ाव तो बहुत दूर...तुम तो मनुष्य होने के नाते भी स्त्री के प्रति नहीं उपजा पाते संवेदनशीलता।

मेरी प्यारी बहनों! तुम्हें भी अपनी सोच, अपने व्यवहार, अपने दिल और अपने दिमाग से घुट्टी की तरह सदियों से पिलाये इस कड़वे और कसैले स्वाद को निकालना होगा, जो दिन-रात तुम्हें एक जिस्म होने की अनुभूति करवाता रहता है। मुझे बताओ - कुछ लिंगगत विभिन्नताओं के अलावा क्या अंतर है तुममें और एक पुरुष में? तुम्हारी प्रखरता, बौद्धिकता, सुघड़ता और कुशलता क्या किसी रंग, रूप, यौवन, आकार या उभार की मोहताज है? तुम जानती हो न अपनी शक्ति? जिस दिन तुम अपना विस्तार करने की ठान लोगी उस दिन यह कायनात भी छोटी पड़ जायेगी। वह कौनसा स्थान है जहाँ तुम नहीं पहुँच सकती? राजनीति, प्रशासन, समाज सेवा, उद्योग, व्यवसाय, विज्ञान, कला, संगीत, साहित्य, मीडिया, चिकित्सा, इंजीनीयरिंग, वकालत, शिक्षा, सूचना प्रोद्यौगिकी, सेना, खेल-कूद से लेकर अन्तरिक्ष तक तुमने अपनी विजय पताका फहराई है। क्या तुम्हें सच में जरुरत है एक देह में तब्दील होकर अश्लील विज्ञापनों, सिनेमा, गानों और साहित्य का हिस्सा बनने की? क्या सच में तुम्हें जरुरत है अपनी मुक्ति को देह और कपड़ों तक सीमित कर देने की। याद रखो! देह और कपड़ों की चर्चा से स्त्री मुक्ति की जंग नहीं जीती जा सकती है।


जानती हूँ, पुरुष हमेशा से तुम्हें जिस्म के इस दलदल में फंसाए रखने के हजारों यत्न और षड़यंत्र करता रहेगा। तुम चाहे चौबीस घंटे काम करती रहो, दिन रात खपती रहो, फिर भी तुम्हारी तरक्की को तुम्हारी देह से जोड़ कर देखा जाएगा। तुम्हें लाखों डॉलर, पाउंड, दीनार और सोने का लालच दिया जाएगा। लेकिन तुम्हें इन सब षड्यंत्रों में नहीं फंसना है। तुम्हें नया टंच माल, तंदूरी मुर्गी, हॉट, सेक्सी और आइटम गर्ल इन सब तमगों को ना करना है। वस्तुओं के विज्ञापन में तुम्हें वस्तु नहीं बनना है। ये सब उपक्रम तुम्हें आज़ाद करने के नहीं तुम्हें गुलाम बनाने के हैं। तुम्हारे सौन्दर्य की नुमाइश कर तुम्हारे अंगों को खरीदने और बेचने के हैं। इस दलदल से बाहर निकलना बहुत मुश्किल है, पर मैं जानती हूँ कि तुम अगर चाहो तो पुरुषवादी मानसिकता के सारे षड्यंत्रों को धता बताकर अपना अस्तित्व बचा सकती हो, जो देह से परे उस सम्पूर्णता का है जो तुम्हारी शक्ति, बुद्धि, क्षमता, कुशलता, प्रखरता, तुम्हारे सपनों, स्वाभिमान, आत्मनिर्भरता और तुम्हारे आत्मविश्वास की लौ से प्रकाशित होता है। 

परिचय :

मोनिका जैन 'पंछी' 
ईमेल : monijain21dec@gmail.com
ब्लॉग : https://monikajainpanchhi.blogspot.com
(गृह शोभा, अहा! ज़िंदगी, नंदन, नन्हें सम्राट, राजस्थान पत्रिका, जनसत्ता, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, बालहंस, आधी आबादी, शरद कृषि (CITA), समाज कल्याण (केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, भारत सरकार), इंडिया लिंक, कृषि गोल्डलाइन, ललकार टुडे, सच की ध्वनि आदि पत्र व पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।)

राहुल सांकृत्यायन : भारतीय मनीषा के प्रतिनिधि



यह संयोग है कि अप्रैल माह में ही भारतीय मनीषा के प्रतिनिधि राहुल सांकृत्यायन की जयंती और पुण्यतिथि दोनों एक सप्ताह के अंदर आती हैं. उनकी जयंती के दिन 9 अप्रैल को उनके सुपुत्र जेता संकृत्यायन पटना में थे. पटना म्यूजियम में आयोजित राहुल जी की 125वीं जयंती पर आयोजित संगोष्ठी का विषय था - राहुल सांकृत्यायन की जीवन-यात्रा एवं जीवन-दर्शन. उस अवसर पर हिंदी साहित्य जगत के प्रतिनिधि रचनाकारों के उद्गारों को हिंदी के लेखक एवं पत्रकार अरुण नारायण ने लिपिबद्ध किया है.


राहुल : भारतीय मनीषा के प्रतिनिधि 
                                 
-- अरुण नारायण


“जब हम युवा थे तो कहा जाता था कि किसी सुदूर गांव में किसी झोंपड़ी में दीया या लालटेन जल रही हो, कोई नौजवान पढ़ रहा हो तो वह राहुल को पढ़ रहा होगा या उसके इर्द-गिर्द राहुल साहित्य होगा। एक दौर था जब पूरे हिन्दी में राहुलजी सबपर छाये हुए थे। उन्होंने उत्साहित किया पूरे हिन्दी समूह को। हमलोगों ने उन्हें देखा नहीं, लेकिन उनके प्रभाव को नजदीक से ग्रहण किया।” 

ये बातें हिन्दी चिंतक प्रेमकुमार मणि ने कर्पूरी ठाकुर सभागार, पटना में राहुल सांकृत्यायन की 121वीं जयंती समारोह में बतौर विशिष्ट अतिथि अपने संबोधन में कही। कला संस्कृति एवं युवा विभाग एवं पटना संग्रहालय की संयुक्त पहल पर आयोजित इस कार्यक्रम की अध्यता सुभाष शर्मा ने की। इस मौके पर खगेन्द्र ठाकुर, अरुण कमल, राहुल जी के पुत्र जेता सांकृत्यायन एवं विजय कुमार चौधरी ने भी अपने विचार व्यक्त किये।

प्रेमकुमार मणि ने आगे कहा कि वोल्गा से गंगा, तुम्हारी क्षय हो, भागो नहीं दुनिया को बदलो, दर्शन-दिग्दर्शन जैसी कितनी ही चीजें थीं, जिनसे हिन्दी समाज ने एक नई उर्जा पाई। उन्होंने कहा कि राहुल जी ज्ञान व्याकुल थे। आजमगढ़ के पिछड़े हुए गांव पन्दाहा में नाना के घर उनका जन्म हुआ। उनके नाना सेना में साहब के साथ यात्राएं किया करते थे। उन्होंने अपनी पढ़ाई एक मदरसे से आरंभ की थी। घूमना उन्होंने अपना धर्म बना लिया। वैचारिक सनातन मठ के स्वामी केदार पांडे, रामउदार साधू बने फिर आर्य समाजी। 1930 में बौद्ध बने। 1936 में कार्यकर्ता की धज धारण की। फिर कम्युनिस्ट बनते हैं, ऐसे कम्युनिस्ट बनते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियां भी उसे पचा नहीं पातीं। आधुनिक युग के इस तपस्वी ने संस्कृत, पालि और अनेक विदेशी भाषायें सीखीं। मानव समाज को किसी राष्ट्रीयता, गाँव या खंड में बाँटकर नहीं देखा। पूरी दुनिया को एक परिवार माना। हमने हजारीबाग जेल में देखी थी उनकी मेज, जिसपर 12-12 घंटे खड़े होकर वह काम करते थे। दर्शन-दिग्दर्शन कौन लिख सकता है? रशेल की दर्शन की किताब में पश्चिम दर्शन है, लेकिन राहुल जी की पुस्तक उससे आगे जाकर पूरब और पश्चिम का समुच्चय प्रस्तुत करती है। उन्होंने कहा कि जर्मन आइडियोलॉजी का संबंध भारतीय ज्ञान परंपरा से बनता है। राहुलजी ने धर्मकीर्ति और दिग्नाग को याद किया। धर्मकीर्ति इंडोनेशिया के थे तथा 660 ई० में उनका निधन हो गया। उनके कई लेखों और पुस्तकों में धर्मकीर्ति की पंक्तियाँ उद्धृत की जाती रही है। उन्होंने वेदों को प्रमाण मानने, ईश्वरवाद में विश्वास करने, जातिवाद का अवलेप धारण करने, स्नान में धर्म की कामना, पाप को खत्म करने के लिए शरीर को कष्ट देने का विरोध किया। लेकिन यह कैसी विडंबना है कि हम धर्मकीर्ति के शिष्य के शिष्य के शिष्य शंकराचार्य को लेकर झूम रहे हैं।

कवि अरुण कमल ने कहा कि राहुलजी की सारी यात्राएं उनके जीवन में घर से भागने से शुरू होती है। उनके नाम यात्रा की तरह ही जीवन और विचारयात्रा के भी विभिन्न पड़ाव हैं। उनका पहला नाम केदारनाथ पांडेय था। वैरागियों के संपर्क में आये तो रामउदार दास हो गए... स्वामी हुए आर्य समाज के प्रभाव में आये... लिखने लगे तो गोत्र के हिसाब से रामउदार सांकृत्यायन हो गए। गोत्र का ख्याल आया तो नाम पड़ा राहुल सांकृत्यायन। कम्युनिस्ट हुए तो कॉमरेड राहुल सांकृत्यायन हो गए। काशी के पंडितों की सभा हुई तो उन्हें महापंडित की उपाधि दी गई।

श्री कमल ने कहा कि चार खंडों की उनकी जीवन यात्रा देश-समाज को देखने की एक अलग दृष्टि देती है। आदमी क्यों दुखी है, इसे कैसे दूर किया जा सकता है? संन्यासी, वैरागी क्यों होते हैं? अभी भी खत्म क्यों नहीं होते, कौन-सी वृत्ति है जो उन्हें ऐसा करने को प्रेरित करती है आदि कई सवाल राहुल बुद्ध की तरह ऐड्रेस कर रहे थे। उन्होंने अलग तरीके से मार्क्स, बुद्ध और यहां की संत परंपरा को आत्मसात किया। वे बहुत से सवाल अपनी परंपरा से करते हैं। उन्होंने कहा कि गोपीनाथ कविराज, रामवतार शर्मा और राहुल ने भारतीय समाज को अलग तरीके से समझा। राहुल ने परमार्थ दर्शन लिखा। यह वेद-वेदांत की समस्त परंपरा का बहुत बड़ा खंडन था। ज्ञान की पिपासा उन्हें श्रीलंका ले गई, जहां वे बौद्ध बने। वहाँ उन्हें सब कुछ मिला। लेकिन जीवन को बदलने का सामूहिक उपक्रम नहीं मिला। उनका मध्यममार्ग वैरागियों के प्रपंच को देख चुका था। भारतीय राजनीति में उन्होंने कांग्रेस से जुड़कर काम किया। बिहार सोशलिस्ट पार्टी, बिहार कम्युनिस्ट पार्टी और किसान सभा की स्थापना में वे शामिल रहे। प्रलेस, हिन्दी साहित्य सम्मेलन आदि से जुड़े। हर समाज में वे रहे। उनका जीवन ही संदेश है। 

आलोचक खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि भागलपुर के सुल्तानगंज स्थित बनैलीगढ़ में राहुल जी तीन माह ठहरे थे। यह सन 1933 का साल था, जब वहाँ से शिवपूजन सहाय के संपादन में ‘गंगा’ पत्रिका निकला करती थी। ‘गंगा’ के पुरातत्व विषेषांक की तैयारी चल रही थी। इसी काम के लिए राहुलजी लाये गये थे। बाद में वहाँ लोगों ने राहुल नगर बसाया। कमला जी उस मुहल्ले को देखने आयीं। श्री ठाकुर ने कहा कि राहुल जी के दर्शन का अवसर मुझे नहीं मिला। लेकिन उनके दार्जिलिंग स्थित कचहरी रोड आवास मैं गया था। वे मसूरी में बसना चाहते थे, लेकिन कमला जी को वहीं अध्यापकी मिली सो वह वहीं रह गईं। अंतिम बार 1958 में राहुल जी पटना आये। लेकिन मैं उनसे मिल न सका। अमवारी में उन्होंने किसानों के लिए सत्याग्रह किया। किसानों की ओर से ईख काटने के लिए गये। ईख काटने के लिए जैसे ही हसिया चलाया, उनके उपर बरछे की वार की गई। इसी को लक्षित करते हुए कवि मनोरंजन ने लिखा -

‘राहुल के सर से खून गिरे
फिर क्यों न यह खून उबल उठे?
साधू के शोणित से फिर क्यों
सोने की लंका जल न उठे?’

खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि राहुल जी की जीवन यात्रा विचार-यात्रा भी है। उनकी यात्रा वैष्णववाद से शुरू होती है। धार्मिक, वैचारिक मान्यता से वे वैष्णव हैं। डेढ़ सौ छोटी-बड़ी पुस्तकें हैं उनकी। उनके बारे में शिवपूजन सहाय का कहा याद आता है कि राहुल जी को देखकर ऐसा लगता है कि वेद, पुराण सब एक ही आदमी ने लिखा होगा। राहुलजी ने कहा है कि मैं जीवन में क्षण-क्षण का तो नहीं लेकिन मिनट-मिनट का हिसाब दे सकता हूं। हमलोग तो प्रतिदिन का भी हिसाब नहीं दे सकते। 1935 में वे रूस गये। वहाँ ढाई साल रहे। 1939 में विजयादशमी के दिन 17 लोगों के साथ मिलकर कम्युनिस्ट पार्टी बिहार की स्थापना की। उन्होंने माना कि संपूर्ण भारतीय मनीषा का प्रतिनिधित्व राहुलजी ही करते हैं। खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि कम्युनिस्ट पार्टी ने राहुल जी को पार्टी से निकाला नहीं था, बल्कि उनकी पार्टी सदस्यता का रिन्यूअल नहीं किया था। हुआ यूं था कि हिन्दी सम्मेलन मुम्बई में आयोजित किया गया था जिसमें अपने पर्चे में राहुल जी ने अंग्रेजी के बरअक्स हिन्दी उर्दू और अन्य भारतीय भाषाओं को रखने की बात कही थी। इसपर पार्टी ने उन्हें उर्दू को हटाने का आग्रह किया। उन्होंने कहा कि इस आशय का पर्चा लोगों में बंट गया है इसलिए उचित नहीं होगा। दूसरे दिन पार्टी ने आग्रह किया कि वे मंच से स्वीकार कर लें कि यह उनकी अपनी राय है पार्टी की नहीं। लेकिन उन्होंने यह भी नहीं किया। पार्टी ने उन्हें निकाला नहीं, लेकिन 1955 में उनकी सदस्यता रिन्यूअल कर दी गई।

विकास आयुक्त सुभाष शर्मा ने राहुलजी के बारे में लंबा विवेचनात्मक पर्चा पढ़ा। कहा कि वे एकमात्र विद्वान हैं जिन्हें महापंडित के रूप में जाना गया। हिन्दी की वकालत के कारण कम्युनिस्ट पार्टी ने उन्हें निकाल दिया। आकाशवाणी में उन्हें कई बार बुलाया गया... वहाँ जाने से इसलिए इनकार किया कि अनुबंध तब अंग्रेजी में छपे होते थे। उन्होंने 36 भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। इनमें से 3 भाषाएं शिक्षकों से सीखी बाकी सभी खुद के प्रयत्नों से। उन्होंने हिन्दी के ज्ञात साहित्येतिहास को दौ सौ वर्ष पहले का सिद्ध किया। सरहपा के दोहों को संगृहीत किया। उन्होंने कहा कि इतिहास को इतिहासकारों के भरोसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि राहुलजी की एशिया का इतिहास प्रोफेशनल इतिहासकारों से भिन्न है। उन्होंने तिब्बत से 17 खच्चरों पर लादकर बौद्ध धर्म से संबंधित कई महत्वपूर्ण दस्तावेज लादकर लाये और उसे पटना म्यूजियम में संरक्षित करवाया। यह दुष्कर कार्य था जिसे उन्होंने संभव कर दिखाया। उन्होंने कई देशों का भ्रमण किया। लोकभाषाओं के महत्व को उचित मान दिया। भोजपुरी के तमाम रूपों की भी बहुत गहरी व्याख्या की है। नौ नाटक भोजपुरी में लिखे। अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को स्थान दिलाने का संघर्ष करते रहे। 

विजय कुमार चौधरी ने कहा कि राहुल जी का पूरा लेखन भारतीय परंपरा में निहित था जो उनके अपने ही जीवनानुभवों से सिंचित हुआ था। उन्होंने कहा कि आर्य समाज से भी वे जुड़े, जो स्वयं विरोधाभासों से भरा था। वहां पाखंड था, कर्मकांड था। वे पुराने ग्रंथों में आधुनिकता को ढूंढते हैं। बुद्ध को उन्होंने महामानव कहा। कहा कि ‘22वीं सदी’ में वे मार्क्स का स्थूल प्रेजेंटेशन करते हैं। वे ऐसे लेखकों में थे जिन्होंने हिन्दी के प्रति अपनी निष्ठा को खुलकर प्रकट किया। वे निरंतर विचारों की यात्रा में लगे रहे। अपने को लगातार चैलेंज में लेते रहे। 

राहुल सांकृत्यायन के पुत्र जेता सांकृत्यायन ने स्लाइड के जरिये राहुलजी के जीवनक्रम से जुड़े बहुत सारे दुर्लभ फोटोग्राफ और जानकारियां साझा की। उन्होंने राहुलजी के किशोर वय से अंतिम वय तक के ढेर सारे चित्र और विविध घटना संदर्भों की व्याख्या की। सन 1930 से 1963 तक के अनेक संदर्भों को समेटती इन छवियों के माध्यम से राहुलजी जीवंत हो उठे। मसूरी, कुमाऊं, नालंदा, कानपुर, अमवारी, दार्जिलिंग, रूस, तिब्बत, नालंदा, श्रीलंका आदि कई जगहों की इन तस्वीरों में उनके जीवन की तरह की वैविध्य नजर आई। कहीं कुमाऊं शैली के कुर्ते में हैं तो कहीं, नालंदा बौद्ध भिक्षुओं के साथ छाता लिये। कहीं बौद्ध धर्म का चीवर त्याग संघर्ष को उद्धत हैं। कहीं अध्ययन कक्ष में हैं तो कहीं किसान संघर्ष के मोर्चे पर डटे हैं। निराला और नेहरू के साथ भी एक अलग दीप्ति के साथ उनकी छवि दीप्त होती दिखी। जेता ने कहा कि यात्रा से कैसे जीवन बनता है इसकी वे मिशाल हैं। प्राचीन आर्य की तरह लगते हैं वे। उन्होंने गरीबी देखी थी, गांव में जन्में थे। आर्य समाज से बौद्ध धर्म और मार्क्सवाद की अपनी यात्रा में उन्होंने समाज को बहुत कुछ दिया। 

उन्होंने कहा कि 1960 में श्रीलंका में दर्शन के आचार्य और डीन का दायित्व संभाला किंतु भारत के किसी विश्वविद्यालय ने उनकी प्रतिभा का उपयोग नहीं किया। उन्होंने दो खंडों में तिब्बती हिन्दी शब्दकोष की रचना की जिसके प्रथम खंड का प्रकाशन साहित्य अकादेमी दिल्ली ने किया। उन्होंने तिब्बती संस्कृत कोश की भी रचना की। 1959 में जब उन्होंने मध्य एशिया का इतिहास पुस्तक के लिये साहित्य अकादेमी सम्मान देने की घोषणा की गई तो आरंभ में उन्होंने उसे लेने से इनकार किया। कहा कि झुककर सम्मान नहीं लूंगा लेकिन मां और अंततः पार्टी के कहने पर उसे स्वीकार किया, लेकिन झुककर नहीं। उनके साहित्य का विशिष्ट परिचय उनकी अप्रतिम इतिहास दृष्टि में है। हमलागों ने उनकी स्मृति में एक स्तूप खड़ा किया। उनकी चीजों को संरक्षित करने की कोशिश करता रहा, लेकिन यह प्रयास अकेले परिवार के बूते संभव नहीं है। सरकार आये तो उसको बचाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि धर्मकीर्ति पर बहुत सारा काम हुआ है। राहुल जी ने तिब्बत से उनपर बहुत सारी सामग्री लाई थी जो पटना म्यूजियम में रखी है इसपर नई रौशनी में शोध की जरूरत है। 


संपर्क : अरुण नारायण 
मोबाइल : 8292253306
ईमेल - arunnarayanonly@gmail.com